सोमवार, 3 नवंबर 2008

महिला नेत्रियों ने उठाई एक ही सीट पर दो-तीन बार आरक्षण की मांग


आरक्षण कोटा, लगने लगा छोटा
पल्लवी वाघेला
आरक्षण के चलते पंचायत चुनावों में हाथ आजमा चुकी महिला नेत्रियों में अब एक नई चाह ने जन्म लिया है। वे मुखर होकर कहती हैं कि उन्हें दो से तीन बार एक ही सीट में महिला आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। इसके पीछे उनका तर्क है कि घूंघट में पहली बार घर की दहलीज पार कर पंचायत का काम-काज समझने में ही वक्त निकल जाता है और जब वह काम शुरू करती हैं, तब तक उनका कार्यकाल ही खत्म हो जाता है। दूसरी बार आरक्षण न होने के कारण उन्हें चुनाव लडवाने कोई तैयार नहीं होता। इस तरह अधिकांश महिला प्रतिनिधियों का राजनैतिक सफर ठीक से शुरू होने के पहले ही खत्म हो जाता है। महिला प्रतिनिधियों की इस चाह ने एक नई बहस को जन्म दिया है, जिसका समर्थन केन्द्रीय पंचायत मंत्री मणीशंकर अय्यर भी कर रहे हैं।
पुरुष प्रधान समाज में आरक्षण के कारण मजबूरी में मिले अधिकार से चुन कर आई महिला प्रतिनिधि यह बात बेहद अच्छे से जानती थीं कि उनके इस सफर में दुश्वारियां कम नहीं। बावजूद उन्होंने खुद को बेहतर साबित किया है। फिलहाल देश में पंचायत, ब्लाक चुनाव में चुनी जाने वाली पंच-सरपंच, ब्लाक सदस्य और ब्लाक प्रमुखों की संख्या 10 लाख से अधिक है और यह विश्व की कुल चुनी जाने वाली महिलाओं की संख्या से ज्यादा बैठती है। लेकिन उनके साथ समस्या यह है कि उन्हें बिना आरक्षण यह मौका दिया ही नहीं जाता। यही वजह है कि वह खुद को साबित करने के लिए दो या तीन बार एक ही सीट पर आरक्षण की मांग उठा रही हैं। उनका यह प्रयास रंग भी ला रहा है और महिला आरक्षण की अवधि बढ़ाकर 10-15 साल करने पर कमोबेश सहमति बन गई है। केन्द्रीय पंचायती राज मंत्रालय द्वारा दर्जनभर से अधिक राज्यों की पंचायतों में महिला आरक्षित सीटों को एक बार से अधिक आरक्षित करने की तैयारी हो रही है। लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि इसके लिए फिर से संविधान में संशोधन करना पड़ेगा और राज्य सरकारों को इसके लिए तैयार करना पड़ेगा।
सर्वे का खुलासा
इस परिदृश्य में महिलाओं की स्थिति का आकलन करें तो अभी भी कई महिलाएं ऐसी हैं, जो पहली बार महिला आरक्षित सीट से लड़कर दूसरी बार सामान्य सीटों से जीत कर आई और अच्छा काम कर रही हैं। हालांकि इनकी संख्या अभी बेहद कम है, क्योंकि गांवों में मौजूद पुरुष प्रधान समाज इतनी आसानी से उनके नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर रहा। हाल में पंचायती राज मंत्रालय द्वारा एक निजी संस्था की मदद से कराए गए सर्वे में भी यह सामने आया था कि देश से सिर्फ 15 प्रतिशत महिला प्रधान ही दोबारा चुनकर आती हैं। पुरुषों में यह प्रतिशत 37 के करीब है। सर्वे के दौरान 39 फीसदी पूर्व महिला प्रतिनिधियों ने माना कि वे चाहकर भी दोबारा चुनाव नहीं लड़ पाई, क्योंकि उनकी सीट महिला के लिए आरक्षित नहीं थी। सतना जिले की ग्राम पंचायत करमई की ऊषा साकेत कहती हैं-पहले आरक्षण के कारण मुझे लड़वाया गया, जब मैंने गांव के विकास के लिए दबंगों का विरोध किया तो मेरे साथ मार-पीट हुई, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। दूसरी बार विरोध के बाद भी लड़ी, जीत मुश्किल थी, लेकिन हालात ऐसे बने कि जीत मेरी हुई। हमें पहला मौका तो मजबूरी में ही मिलता है, इसलिए इस मजबूरी का समय लंबा होना चाहिए ताकि हम व्यवस्था और अपनी ताकत को जांच पाए और उसे साबित कर सकें। ऊषा को दूसरा मौका मिला है और वह पहले से अच्छा काम कर रही हैं। हरदा जिले के खिरकिया ब्लाक की सरपंच धापूबाई भी इसी तरह के एक मौके की तलाश में है। वे कहती हैं-पहले सरकारी कामकाज के बारे में नासमझ थी, अब सबकुछ पता है और काम करने का मन भी है, लेकिन समय नहीं। दरअसल पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के संदर्भ में अक्सर दो तरह की बातें की जाती हैं या तो उन्हें सरपंचपति के हाथों की कठपुतली माना जाता है या फिर खूब नेतागिरी चढ़ी है जैसी उलाहना दी जाती है। भांडेर (जिला दतिया) की जनपद सदस्य प्रतिभा शर्मा कहती हैं-महिलाओं से चमत्कार की उम्मीद की जाती है। यदि वह किसी काम में असफल हो जाएं, तो इसका दोष उसका महिला होना माना जाता है, जबकि जरूरी नहीं पुरूष उस काम में सफल ही हों। जब लंबे समय तक सारा काम हमारे नाम से चलेगा तब खुद-ब-खुद गांववालों और अधिकारियों को हमारी ताकत और काम करने की क्षमता का पता चल जाएगा। इस तरह की लाखों महिला प्रतिनिधि राजनीति की पथरीली जमीन पर पत्थर तोड़ रही हैं। दरअसल भ्रष्टाचार, पुरुष सत्ता के चौतरफा दबाव के बावजूद राजनीति दखल का अंकुर जन्म ले चुका है और अब वह एक सीट पर दोबारा आरक्षण की शक्ल में स्थायित्व की मांग भी कर रहा है।
कई हैं सफल उदाहरण
महिला नेत्रियों के सफल कामकाज के कई उदाहरण हैं। इनमें वह महिलाएं भी शामिल हैं, जो बिना आरक्षण दूसरी बार चुन कर आई हैं। वे यह भी मानती हैं कि दूसरे कार्यकाल में इन्हें काम करने में अधिक आसानी हुई और यह अधिक बेहतर काम कर पाई। मप्र के पिछड़े इलाके अलीराजपुर के ग्राम खेरवड़ की सरपंच राधा रावत ने इस इलाके की तस्वीर बदलने में सार्थक भूमिका निभाई है। अब तक इस इलाके को अपराधिक प्रवृत्ति के लिए ही जाना जाता था, लेकिन अब यह ग्राम विवादहीन पंचायत का पुरस्कार हासिल कर चुका है। सरपंच राधा शिक्षित हैं और इसका उन्हें खूब लाभ मिला है। इस पंचायत में 8 स्कूल हैं और गांव की लड़कियां भी शिक्षा पा रही हैं। वहीं रोजगार की तलाश में होने वाले पलायन का प्रतिशत भी कम हुआ है। इन दिनों राधा इस क्षेत्र में स्वास्थ्य केन्द्र की मांग के लिए लड़ रही हैं और उन्हें सफलता की पूरी उम्मीद है। राधा कहती हैं-मैं नहीं चाहती कि कोई गर्भवती महिला इलाज के अभाव में दम तोड़े, कोई बीमार बच्चा इलाज न पा सके। जो भी काम पिछले कार्यकाल में नहीं कर पाई थी, अब वह सब जल्दी-जल्दी हो रहे हैं। सिवनी जिले की ग्राम पंचायत चमारीखुर्द की सरपंच राधाबाई भलावी तो अपने ही परिवार के लोगों को टक्कर देकर दूसरी बार भी विजेता चुन कर आई। वह कहती हैं-पहला कार्यकाल खुद समझने और लोगों को समझाने में बीता, इसलिए इस बार पूरा ध्यान गांव की सुविधाओं पर दिया है।
केन्द्रीय पंचायत मंत्री मणिशंकर अय्यर कहते हैं-'महिलाओं की यह मांग जोर पकड रही है और जायज भी है। सीट एक से अधिक बार आरक्षित होने पर महिलाएं मुखर होकर अपने क्षेत्र की तस्वीर बदल पाएंगी। मुझे लगता है घर की चारदीवारी से निकल दुनिया और पंचायत के काम-काज को समझने के लिए उन्हें ज्यादा समय की जरूरत होती है, जो उन्हें मिलना चाहिए।'
( यह रपट दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में प्रकाशित हुई है। देवी अहिल्याबाई यूनिवर्सिटी, इंदौर से पत्रकारिता की डिग्री लेने वालीं पल्लवी इन दिनों संवाद फेलोशिप के तहत पंचायतीराज में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर काम कर रही हैं)

कोई टिप्पणी नहीं: