रविवार, 21 फ़रवरी 2010


इंडिया सीखे डांस
अमिताभ फरोग
कोरियोग्राफी के मामले में अच्छे-खासों की बोलती बंद कर देने वालीं सरोज खान के आगे ‘एंग्री-यंग जर्नलिस्ट’ भी नि:शब्द हो उठे। दरअसल, प्रेस कान्फ्रेंस में पौन घंटे विलंब होने पर कुछ जर्नलिस्ट नाराज हुए, तब सरोज खान ने जिस प्रभावी अंदाज में देर से आने का तर्क दिया, उस पर माहौल एकदम कूल हो गया। बल्कि थोड़ी देर में ठहाके भी सुनाई पड़ने लगे। कलर्स चैनल पर प्रसारित होने जा रहे बच्चों के डांस रियलिटी शो ‘चक धूम-धूम’ के फाइनल ऑडीशन लेने सरोज खान के संग विंदु दारा सिंह और प्रवेश राणा भी रविवार को भोपाल में थे।

‘बिग बॉस में होती तो सबको ठीक कर देती’ सरोज खान
सरोज खान सिर्फ नचाना नहीं जानतीं, उन्हें अक्ल ठिकाने लगाना भी आता है। यह दीगर बात है कि, उनकी समझाइश का अंदाज बड़ा प्यारा और निराला होता है। प्रेस कान्फ्रेंस में विलंब से पहुंचने पर मीडिया की नाराजगी उन्होंने कुछ यूं पिघला दी-‘आप बड़े हैं, वहां हम बच्चों के साथ थे। आपको इंतजार करा सकती हूं, लेकिन बच्चों को नहीं।’ सरोज खान बताती हैं कि उन्हें ‘बिग बॉस-तृतीय’ से आॅफर आया था। वे चुटकी लेती हैं-‘सिर्फ आॅफर नहीं, बड़ा ऑफ़र मिला था।
इसमें विनिंग प्राइज अलग थी, लेकिन मैंने वहां जाना उचित नहीं समझा। अगर जाती, तो सबको ठीक कर देती।’
उनके मुताबिक,‘हरेक चीज का एक दौर होता है। इन दिनों फिल्मों में डांस का अच्छा दौर नहीं चल रहा। बच्चे मेरे पास हिप-हॉप भी सीखने आते हैं, तो मैं मना नहीं करती। लेकिन जिस दिन इसका पन्ना भर जाएगा, हिंदुस्तानी शैली लौट आएगी। वे मीठी मुस्कान के संग वर्तमान कोरियाग्राफर्स पर व्यंग्य मारती हैं-‘अगर ढेर सारे लड़के-लड़कियां चिपके रहेंगे, तो मैं हिलूंगी कहां?’ ‘बेटा’ फिल्म के गीत ‘सैयाजी से...’ को अपना बेस्ट वर्क मानने वालीं सरोज राखी सावंत की डांस परफार्मेंस पर कुछ यूं टिप्पणी करती हैं-‘राखी को कभी नचाया नहीं, इसलिए नो कमेंट!’ सरोज खान बच्चों की बिगड़ती आदतों के लिए टेलीविजन को दोषी नहीं मानती। वे दो टूक कहती हैं-‘कुछ बच्चे मां-बाप की वजह से भी बिगड़ते हैं, तनाव में आते हैं, फिर टेलीविजन को दोष क्यों? टेलीविजन कभी नहीं कहता कि ऐसा करो, ऐसे मरो!’
उनके मुताबिक, रियलिटी शो के दौरान अब काउंसलर भी रखे जाते हैं, ताकि बच्चे तनावग्रस्त न हों। वे कहती हैं-‘हम भी बच्चों से ऐसे अलफाज कतई नहीं बोलते, जिनसे उनका दिल टूटे। हम यही बोलते हैं कि बेटे! थोड़ा वीक हो, ट्राय नेक्स्ट ईयर।’ लेखकों की तरह क्या कोरियोग्राफर्स को भी फिल्मों से रॉयल्टी नहीं मिलनी चाहिए? सरोज दो टूक जवाब देती हैं-‘यह बेहद उलझा हुआ मामला है। वैसे हम लोगो को इसकी कोई फिक्र नहीं। हमारे पास खजाना है, कमाते रहेंगे।’

लड़कियां तंग करने लगी हैं
प्रवेश राणा
कलर्स चैनल के रियलिटी शो ‘बिग-बॉस-तृतीय’ से सुर्खियों में आए प्रवेश राणा से अगर आप उनका मोबाइल नंबर मांगेंगे, तो देते वक्त यह बोलना नहीं भूलते-‘एक टेक्स्ट मैसेज अवश्य छोड़ देना!’ आखिर क्यों?
वे मुस्कराते हैं-‘अरे यार! जबसे बिग-बॉस से बाहर आया हूं, लड़कियां फोन पर तंग करने लगी हैं। घरवाले भी बहुत परेशान हैं। शादी के ढेरों प्रस्ताव आ रहे हैं।’
वर्ष, 2008 में ‘मिस्टर इंडिया’ रहे प्रवेश खुले दिल से कलर्स का शुक्रिया अदा करते हैं- ‘सिर्फ 54 दिनों में क्या कोई इतना लोकप्रिय हो सकता है? बिग-बॉस के बाद मुझे सारा इंडिया जानने लगा है। लाइफ एकदम चेंज हो गई है, ढेरों ऑफ़र्स मिल रहे हैं।’
‘बिग बॉस’ में विंदु से हुए विवाद पर प्रवेश स्पष्ट करते हैं-‘जरूरी नहीं कि दो लोगों की सोच एक-समान हो! वैसे वह झगड़ा सिर्फ शो तक ही सीमित था, अब हम अच्छे दोस्त हैं।’
प्रवेश विंदु के पिता जानेमाने पहलवान और अभिनेता दारा सिंह से मिलने को व्याकुल हैं-‘वो महान व्यक्ति हैं। मैं उनसे मिलना चाहता हूं, लेकिन वक्त नहीं निकाल पा रहा। किसी दिन विंदु से बोलूंगा, कि वो उनसे मिलाने
ले चले।’

बच्चों को देख-देखकर डांस सीख रहा हूं विंदु दारा सिंह

‘बिग बॉस-तृतीय’ के विनर विंदु बिंदास अंदाज में स्वीकारते हैं कि वे बच्चों को देख-देखकर डांसिंग स्टेप सीख रहे हैं। वे ठहाका लगाकर बोलते हैं-‘फिल्मी डांस तो खूब करता हूं, लेकिन बाकी डांस में कच्चा हूं, इसलिए सरोजजी से पूछता रहता हूं। वहीं बच्चों को देख-देखकर भी बहुत कुछ सबक ले लेता हूं।’ विंदु चाहते हैं कि डांस सारे इंडिया को आना चाहिए। क्यों? वे मजा लेते हैं-‘थोड़ा-बहुत डांस तो हम सभी को आना चाहिए। बारात-पार्टियों में भी तो कभी-कभार नाचना पड़ता है।’ हालांकि वे तर्क देते हैं-‘डांस एक अच्छी एक्सरसाइज है। आप जिम जाते हैं, तो कुछ स्पेशल एक्सरसाइज करते हैं, लेकिन डांस में पूरी बॉडी हिल जाती है, शेप में आ जाती है।’
विंदु बच्चों के डांस रियलिटी शो से जुड़कर बहुत खुश हैं। वे प्रसन्नता जाहिर करते हैं-‘सिर्फ बच्चों के रियलिटी शो ही ऐसे होते हैं, जिन्हें हर कोई देखना पसंद करता है। चैनल नहीं बदलता। मुझे बहुत मजा आ रहा है।’ विंदु मानते हैं कि देश में टैलेंट की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता उन्हें सही मार्गदर्शन देने की है। बतौर जज विंदु के लिए कई बार दुविधा की स्थिति बन जाती है। वे उदाहरण देते हैं-‘अहमदाबाद का एक बच्चा स्नेह बार-बार मेरी नींद उड़ा देता है। आॅडिशन के दौरान उसे सिलेक्ट करें या नहीं; इसे लेकर हम सब बेहद दुविधा में थे। आखिरकार जब उसे मना किया गया, तो उसके आंसू निकल आए। ऐसी घटनाएं देखकर मन दु:खी हो जाता है।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

विंदु दारा सिंह (बिग बॉस-तृतीय के विनर)


मुझे गुस्सा आ रहा है
गाड़ी अब तक क्यों नहीं मिली?

अमिताभ फरोग
‘बिग बॉस-तृतीय’ के विनर विंदु दारा सिंह इस ‘रियलिटी शो’ की जनक कंपनी ‘वायाकॉम-18’ से इन दिनों बेहद गुस्साए हुए हैं! कारण, बाजिव भी है-उन्हें बतौर प्राइज मिलने वाली शेवरले क्रूज गाड़ी अब तक नहीं सौंपी गई है। इस गाड़ी की कीमत करीब 12 लाख 75 हजार रुपए है।
आपने ‘बिग-बॉस-3’ के घर में विंदु दारा सिंह का गुस्सा तो देखा ही होगा? अगर आप समझते हैं कि विंदु बेवजह आगबबूला हो उठते हैं, तो यह 100 प्रतिशत सही नहीं है। दरअसल, विंदु को गुस्सा यूं ही नहीं आता? वे तब स्वयं पर काबू नहीं कर पाते, जब कुछ गलत होते देखते हैं। इन दिनों विंदु गुस्से में हैं, क्यों? विंदु मुस्कराते हुए जवाब देते हैं-‘बतौर प्राइज एक करोड़ रुपए के अलावा मुझे शेवरले क्रूज गाड़ी मिलनी थी, उसका आज तक कोई अता-पता नहीं है। समझ में नहीं आ रहा कि गाड़ी कब मिलेगी? मजेदार बात यह है कि गाड़ी की लांचिंग हो चुकी है और वह मार्केट में कई लोगों तक पहुंच भी गई होगी, लेकिन मैं अब तक उसके आनंद से वंचित हूं। अब आप ही बताइए, गुस्सा क्यों नहीं आएगा?’
विंदु प्राइज का गणित क्लियर करते हैं-‘कंपनी ने प्रतिभागियों से कान्ट्रेक्ट मनी साइन कराई थी। इसकी पैमेंट अवधि 45 दिन थी। यह पैसा तो मुझे मिल गया। बाकी प्राइज मनी एक करोड़ रुपए किश्तों में मिलनी है, जिसकी टोटल अवधि 75 डेज है।’
जैसा प्रचारित किया गया था,विंदु को पैसों की सख्त आवश्यकता थी, इसलिए वे ‘बिग बॉस’ के घर में आए? विंदु सहज भाव से बोलते हैं-‘पैसा तो हाथ का मैल है। मेरे लिए पैसा इतना महत्वपूर्ण कभी नहीं रहा, हां मैं एंजॉय करने बिग-बॉस के घर गया था।’
विंदु ने ‘बिग-बॉस’ के घर में कितना एंजॉय किया? वे हंसते हैं-‘बहुत बुरा खेल है। सारी इमेज मटियामेट कर देता है। शुरुआत में तो जैसे मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था। समझ नहीं आ रहा था कि यहां क्या चल रहा है? इसलिए थोड़े बहुत झगड़े भी हुए, लेकिन उसके बाद मैंने खुद को संभाल लिया।’
विंदु ने ‘बिग-बॉस’ के घर से निकलने के बाद कैसा फील किया? वे राहतभरी सांस लेते हैं-‘84 दिनों के बाद बाहर आकर ऐसा लगा, जैसे जहन्नुम से निकलकर आया हूं। बुरे दौर से बाहर निकलने दोस्तों/परिवार के साथ खूब एंजाय किया।’
विंदु इस शो करीब 70 लाख वोटों से जीते हैं, जबकि ऐसा प्रचारित किया गया कि यह रियलिटी फिक्स था? वे दो टूक कहते हैं-‘मेरे दोस्तों की संख्या बहुत अधिक है।...और ऐसे-ऐसे यार हैं, जो मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। मैं उन्हें कुत्ता-बिल्ला भी बोलूंगा, तब भी वो बुरा नहीं मानेंगे। मैं तो बोलूंगा कि पूरा देश मेरा यार है। इन्हीं दोस्तों के बूते मैं दावे से कहता हूं कि जितनी बार बिग बॉस के घर में जाऊंगा, विनर बनकर ही लौटूंगा।’
‘बिग बॉस’ के घर से अपने घर लौटने पर दारा सिंह की पहली प्रतिक्रिया क्या थी? विंदु हंसते हैं-‘वे हैरान होकर बोले थे-तू इतना रोता क्यों था? कहीं रोने की एक्टिंग तो नहीं करता था? दरअसल, उन्हें लगा था कि; शायद वहां कोई स्क्रिप्ट दी गई होगी। मैंने उनसे यही कहा था कि बिग बॉस का घर किसी जहन्नुम से कम नहीं है। फेजा फ्राई कर देता है, वहां का माहौल, बेहद डेंजर गेम है।’
विंदु को अकसर प्रॉपर्टी से बतियाते खूब पाया गया, यहां तक कि वे कमोड से तक बात करते थे? वे स्पष्ट करते हैं-‘मैं प्रॉपर्टी से नहीं; दर्शकों से बात करता था। वहां चौबीसों घंटे कुछ न कुछ अच्छा-बुरा घटता रहता था, लेकिन आप तक सिर्फ संपादित एक घंटे का एपीसोड ही पहुंचता था। ऐसे में दर्शकों में भ्रम पैदा होना स्वाभाविक है। मैं प्रॉपर्टी से बातचीत की ओट में इशारों ही इशारों में आपको 24 घंटे का हालचाल पहुंचाने का प्रयास करता था।’
विंदु बताते हैं कि शो से उन्हें काफी कुछ अनुभव मिले-‘रियली, मैं दिल से बुरा नहीं हूं। कुछ गलतियां की, लेकिन बहुत बुरा कुछ भी नहीं किया। मैंने तो शो की पूरी सीडीज तक नहीं देखीं, क्योंकि वहां मैंने जो किया, उसे देखकर मूड खराब हो जाता है।’

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

उमा अय्यर रावला (ख्यात वायस आर्टिस्ट/एनाउंसर)


मैं प्रदेश की बेटी हूं,
बुलाएंगे, तो अवश्य माइक थामूंगी

अमिताभ फरोग
आप ही आकलन कीजिए! एक एनाउंसर/वाइस आर्टिस्ट, जिसकी लगभग हरेक कार्यक्रम में ठीक वैसी ही आव-भगत की जाती रही हो, जैसी वहां आमंत्रित अतिथियों की होती है...उसे आप कला की किस श्रेणी में रखेंगे? दरअसल, ज्वलंत मुद्दा यही है, जिसे ‘बहस’ का विषय बनाया है चर्चित एनाउंसर सेलेब्रिटी उमा अय्यर रावला ने। केंद्र सरकार के कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को अपनी ‘दमखमभरी आवाज’ के बूते अविस्मरणीय बना चुकीं उमा ने मध्यप्रदेश में वायस आर्टिस्ट्स के एमपैनलमेंट की वकालत की है।

पिछले हफ्ते नई दिल्ली में आयोजित ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005-नरेगा’ सम्मेलन में एनाउंसमेंट के दौरान उमा को काफी काम्पलीमेंट मिले थे। सुश्री उमा ‘नरेगा सम्मेलन’ को संदर्भित करते हुए मध्यप्रदेश पर फोकस करती हैं-‘केंद्र सरकार के लगभग सभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीयस्तर के कार्यक्रम कराने की जिम्मेदारी इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट की ईवेंट विंग संभालती है। विज्ञान भवन ने देशभर के चुनिंदा एनाउंसर्स का पैनल बनाया हुआ है। इसका मकसद सिर्फ इतना है कि; इस विधा को न सिर्फ कला की हैसियत से सम्मान मिले, बल्कि एनाउसंर्स की काबिलियत को भी उचित मुकाम हासिल हो। मैं सोचती हूं कि; मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग को भी यहां के एनाउंसर्स/वाइस आर्टिस्ट्स का एमपैनलमेंट करना चाहिए। यह तर्क संगत मुद्दा है, क्योंकि इससे न सिर्फ कुछेक एनाउंसर्स की मोनोपॉली खत्म होगी, बल्कि युवा पीढ़ी भी इस विधा को करियर बनाने में दिलचस्पी दिखाएगी।’
वे बिहार सरकार का उदाहरण देती हैं-‘एक कार्यक्रम के दौरान नीतीश कुमार ने स्वयं आकर मेरे कार्य की तारीफ की थी। गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी अपने कार्यक्रमों के दौरान एनाउंसमेंट में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेते हैं। वहां एनाउंसर्स/ कम्पेयर्स को उचित पैसा और सम्मान मिलता है। यह व्यवस्था/माहौल मध्यप्रदेश में क्यों नहीं हो सकता? आप एनाउंसर/कम्पेयर का काम हल्केपन से क्यों तौलते हैं? एक फिल्म/टेलीविजन की सेलेब्रिटी को एंकरिंग के एवज में अच्छे होटल में ठहराया जाता है, खिलाया-पिलाया जाता है, आने-जाने के लिए गाड़ी दी जाती है और विदाई के वक्त खासा पारिश्रमिक भी दिया जाता है, लेकिन हम लोगों के लिए ऐसी भावनाएं क्यों नहीं? हमारे साथ अछूतों-सा बर्ताव किसलिए? हम सरकारी आयोजनों में प्रदेश के माउथ पीस होते हैं। एक सेलेब्रिटी का एंकर होना और एक एंकर का सेलेब्रिटी बन जाना, दोनों अलग-अगल बात हैं। जिस दिन हम अपने अंदर एंकर्स के लिए सेलेब्रिटी के भाव पैदा कर लेंगे, उसी दिन से यह फील्ड करियर का एक बेहतर विकल्प बनकर सामने आ जाएगी।’
हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखने वालीं उमा नई पीढ़Þी का संशय दूर करती हैं-‘यह सिर्फ भ्रम है कि इस फील्ड में पैसा और नाम नहीं है। आप क्रिकेट कमेंटेटर हर्षा भोंगले का उदाहरण लीजिए, अमीन सयानी को याद कीजिए या प्रदेश के सुनील वैद्य को देखिए, ये वायस आर्टिस्ट एक सेलेब्रिटी बन चुके हैं।’
सुश्री उमा ऐसी अफवाहों को विराम लगाती हैं, जिसमें अकसर कहा जाता रहा है कि; उनके पास प्रदेश सरकार के कार्यक्रमों के लिए वक्त नहीं है। वे साफगोई से बोलती हैं-‘हर व्यक्ति की ख्वाहिश होती है कि वो जिस फील्ड में भी कार्य करे; उसमें ऊंचाइयों तक पहुंचे, उसके पास पैसा और नाम दोनों बेशुमार हों। यदि मुझे आज केंद्र सरकार ससम्मान आमंत्रित करती है, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री कार्यालयों या कार्पोरेट वर्ल्ड की बड़ी कंपनियों के अति महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में एनाउंसिंग/कम्पेयरिंग की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो इसमें बुरा क्या है? इससे तो प्रदेश का गौरव ही बढ़ता है कि; देखो, फलां एनाउंसर मध्यप्रदेश की है! मैं प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग की निंदा नहीं कर रही, लेकिन यदि वो मुझे उचित पारिश्रमिक और सम्मान के साथ आमंत्रित करेंगे, तो मैं कभी इनकार कर ही नहीं सकती।’
वे गर्मजोशी से बोलती हैं-‘उमा मध्यप्रदेश की बेटी है, उसे तो खुशी होगी।’ उमा वर्ष, 2000 में हुई ‘भोपाल कान्फ्रेंस’ का उदाहरण देते हुए अपने यादगार पल शेयर करती हैं-‘पूर्व प्रमुख सचिव राकेश साहनी, तब प्रमुख सचिव थे। यह आयोजन उनकी के नेतृत्व में हो रहा था। आपको जानकार ताज्जुब होगा कि जब उन्हें मालूम चला कि कार्यक्रम की एनाउंसिंग/कम्पेयरिंग उमा कर रही है, तो उन्होंने बेफिक्र होकर कान्फ्रेंस की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी।’
उमा कुछ अनुभव बताती हैं-‘बहुत कम लोगों को पता है कि मैं करीब डेढ़ साल राष्ट्रपति भवन में बतौर वायस आर्टिस्ट रहकर आई हूं। दरअसल, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सेटेलाइट के माध्यम से दुनियाभर के स्टूडेंट्स को लेक्चर देते थे। मैं ठीक उसी वक्त उनके लेक्चर का हिंदी अनुवाद करती जाती थी। एक एनाउंसर को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अपने करीब बैठाकर हौसला अफजाई करें, सोनिया गांधी स्पेशली थैंक्स भेजें, मनमोहन सिंह मुस्कराकर अभिभावदन करें, इसे आप क्या कहेंगे? मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि इस फील्ड में भी ग्लैमर है, पैसा है और नाम है। मैं तो नॉन ग्लैमरस लेडी हूं। उसके बाद मुझे मेरी मुंहमांगी कीमत पर कार्यक्रमों के लिए बुलाया जाता है, इसलिए यह कतई मत सोचिए कि एनाउंसर मंच पर सिर्फ मेहमानों को बोलने के लिए आमंत्रित करने वाला एक सूत्रधार होता है, यह एक आर्ट है। आप अपनी वायस से फ्लर्ट करके तो देखिए, शब्दों को सहेजना तो सीखिए, उनसे खेलना तो शुरू कीजिए, पेशन तो दिखाइए; वक्ताओं के बनिस्वत आपको लोग अधिक सुनेंगे।’

उमा के अचीवमेंट
-नई दिल्ली में हुए नासा के सेमिनार-2009 मे एनाउंसिंग।
-स्वाधीनता संग्राम 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर लाल किले पर हुए राष्ट्रीय समारोह-2008 में एनाउंसिंग।
- राष्ट्रपति भवन में आयोजित अर्जुन अवार्ड सेरेमनी-2008 में कम्पेयरिंग।
-पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम के संग मप्र के चार प्रमुख ईवेंट-2007-08 में एनाउंसिंग।
-हाल में उमा को केंद्र सरकार के फिल्म डिवीजन में हिंदी और अंग्रेजी में वायस ओवर के लिए सिलेक्ट किया गया है।
-विज्ञान भवन में केंद्र सरकार के दर्जनभर कार्यक्रमों में एनाउंसिंग।
-बैंकॉक(थाइलैंड) में आयोजित इन्वेस्टर्स सप्ताह-2009 में कम्पेयरिंग।
-मप्र इन्वेस्टर्स मीट(खजुराहो, इंदौर, जबलपुर और सागर) में कम्पेयरिंग।
-मप्र पुलिस विभाग के प्रमुख कार्यक्रमों में एंकरिंग-1995-2008 तक।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

भोपाल में शूट होगी ‘फ्रीडम’
अमिताभ फरोग
सुपर सस्पेंस मूवी ‘चॉकलेट(2005)’ और स्थानीय फुटबाल क्लब की समस्या/संघर्ष पर ‘दे दना-दन गोल(2007)’ के निर्माता-निर्देशक विवेक अग्निहोत्री एक लंबी गुमनामी के बाद ‘फ्रीडम’ रचने जा रहे हैं। इस फिल्म की शूटिंग भोपाल में होने की संभावना है।

विवेक अग्निहोत्री वर्षों विदेश और बाद में मुंबई में रहने के बावजूद अपने शहर भोपाल को हमेशा याद रखते हैं। दिलचस्प बात यह है कि जब उनकी पहली फिल्म ‘चॉकलेट’ रिलीज हुई थी, तब उन्होंने स्वयं मीडिया को अपने घर चाय पर आमंत्रित किया था और मित्रवत वार्तालाप की थी। विवेक की दोनों फिल्मों की शूटिंग लंदन में हुई है, लेकिन उम्मीद जताई जा रही है कि ‘फ्रीडम’ भोपाल में रची जाएगी। इस फिल्म के लिए विवेक ने ‘गांधीगीरी फेम’ संजय दत्त और ‘3 इडियट्स’ के ‘1 इडियट’ आर. माधवन को साइन कर लिया है। इस फिल्म में 70 के दशक से लेकर वर्तमान भारत की तस्वीर बयां की जाएगी।
विवेक इस संभावनाओं से इनकार नहीं करते। वे कहते हैं-‘शूटिंग स्थल और सुविधाओं के लिए प्रशासनिकस्तर पर चर्चा चल रही है। हो सकता है कि मेरी अगली फिल्म भोपाल में शूट हो!’
भोपाल में अपनी फिल्म की पृष्ठभूमि तलाशने विवेक पिछले कई वर्षों से प्रयासरत हैं। उल्लेखनीय है कि विवेक के पिता जाने-माने साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। उनका वर्ष, 2008(जून) में निधन हो गया है। विवेक की भोपाल में अपनी फिल्म शूट करने की दो वजहें कही जा सकती हैं-पहली; वे कई बार अपनी भावनाएं व्यक्त कर चुके हैं कि; जब भी सही वक्त मिलेगा, वे भोपाल में कोई फिल्म शूट करना अवश्य चाहेंगे, ताकि इस शहर में सिनेमाई-संस्कृति/सभ्यता के अंकुरण में उनका भी कोई सकारात्मक योगदान हो सके। दूसरा कारण, विवेक का पैत्रिक निवास ओल्ड कैम्पियन स्कूल ग्राउंड के पास स्थित है। पिता के निधन के बाद से ही घर लगभग वीरान-सी स्थिति में हैं। विवेक इच्छा जाहिर कर चुके हैं कि वे अपने पिता की अमूल्य संपत्ति यानी पुस्तकों के संग्रहण को लायब्रेरी की शक्ल देना चाहते हैं। इसके अलावा एक फैलोशिप भी प्लानिंग में है। यह उस क्रियेटिव यूथ को दी जाएगी, जो उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध करना चाहेगा।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

भूपिंदर सिंह और मिताली (फिल्म और गजल गायक जोड़ी)


मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे

अमिताभ फरोग
गुलजार साहब के गीतों से सजे अलबम ‘चांद परोसा है’ को अपनी मीठी आवाज से उन्मादित करने वाली गायक जोड़ी भूपिंदर सिंह और मिताली बुधवार को एक कार्यक्रम के सिलसिले में भोपाल में थे।

बीती न बिताई रैना, दिल ढूंढता है, एक अकेला इस शहर में और मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे जैसे नग्मों को अपनी आवाज से सदाबहार बनाने वाले भूपिंदर और ‘जीवन-गायन’ में उनकी संगिनी मिताली दोनों मानते हैं कि, म्यूजिक का दौर कितना भी बदल जाए, लोग उन्हें हमेशा प्यार करते रहेंगे। भूपिंदर कहते हैं-‘मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे।’
विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘इश्किया’ के गीत ‘इब्नबतूता, बगल में जूता...’ को लेकर उठे विवाद पर भूपिंदर तल्ख लहजा अख्तियार करते हैं-‘क्या शब्द किसी की पर्सनल प्रॉपर्टी होते हैं? हम-आप जो बातें कर रहे हैं, क्या उन्हें कोई दूसरा इस्तेमाल नहीं कर सकता? मैंने भी गालिब की एक गजल दिल ढूंढता है...गाई है, तब तो कोई कुछ नहीं बोला? हमें तो गुलजार साहब का शुक्रगुजार होना चाहिए, जो उन्होंने सर्वेश्वर दयालजी की कविता को दुनियाभर में मशहूर कर दिया।’
मिताली कहती हैं-‘गुलजार साहब ग्रेट फिलास्फर हैं। वे जो सोचते हैं, उस तक शायद दूसरा शायर पहुंच तक नहीं सकता। हम बहुतों से प्रभावित होते हैं। हमारी गजलों, गायिकी और शब्दों में उस्तादों की झलक आती ही है, इसे विवाद का रूप नहीं देना चाहिए।’
भूपिंदर और मिताली दोनों गुलजार साहब से बेहद प्रभावित हैं। मिताली कहती हैं-‘वे मेरे फैमिली मेंबर की तरह हैं।’ भूपिंदर बोलते हैं-‘उनके पास बैठकर हमने बहुत कुछ सीखा है।’
उल्लेखनीय है कि भूपिंदर और गुलजार साहब ने ऐसी रचनाएं गढ़ी हैं, जो गायन की जटिल विधाओं में शुमार हैं। जैसे म्यूजिक में एक शब्द प्रचलित है-‘ब्लैक वर्स’ यानी जिसके गीतों में कोई मीटर नहीं होता। ‘ब्लैक वर्स’ कविताओं/गीतों को गाना सरल काम नहीं होता। दरअसल उन्हें गाते वक्त मीटर पर ले जाना अत्यंत जटिल प्रक्रिया है। इसके बावजूद गुलजार और भूपिंदर ने इस पर प्रयोग किए और ‘दिल ढूंढता है फिर वही, फुर्सत के रात दिन (फिल्म मौसम)’ जैसे लोकप्रिय गाने की रचना की।
भूपिंदर और मिताली को क्या पसंद है? भूपिंदर कहते हैं-‘मैं जितनी भी कम्पोजिशन करता हूं, उनमें सबके लिए कुछ न कुछ रखते हैं। बेशक संजीदा गजलें गाना मेरा सब्जेक्ट है, लेकिन महफिलों में ऐसी गजलें लोग सुनते कहां हैं, इसलिए रोमांटिक आदि गजलें भी सुनानी पड़ती हैं।’
सरहद से बाहर गजल की स्थिति पर मिताली फोकस करती हैं-‘विदेशों में हिंदुस्तानी गजलों को सुनने वाले बहुतायता में हैं। हालांकि भ्रम यह है कि वहां गजलों के श्रोता कम हैं। दरअसल, हम टेलीविजन को ही पूरा संसार समझ लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। हम जब देश से बाहर प्रोग्राम्स देने जाते हैं, तो वहां हिंदुस्तानी श्रोताओं की तादाद काफी होती है और सबसे बड़ी बात; वे गजलों के परंपरागत मिजाज को ही सुनना पसंद करते हैं।’
यदि भूपिंदर का नाम हटा दिया जाए, तो मिताली की कितनी पहचान रह जाएगी? इस सवाल पर पहले भूपिंंदर बोलते हैं-‘ऐसा नहीं है, मिताली अच्छी सिंगर है, उसकी अपनी अलग पहचान है।’
मिताली हसंती हैं-‘यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे भूपिंदरजी मिले, लेकिन जहां तक मेरी व्यक्तिगत पहचान की बात है, तो मैंने सोलो परफार्मेंस भी खूब दी है। साहिल, तौबा-तौबा, आपके नाम, अर्ज किया है आदि ऐसे कई अलबम हैं, जिनमें सिर्फ मेरी आवाज है।’
म्यूजिक में तबले के कम होते प्रयोग पर भूपिंदर चिंता जाहिर करते हैं-‘अब आप कोई भी हिंदुस्तानी इंस्ट्रूमेंट्स देख लीजिए, चाहे बांसुरी हो या तबला; सभी की धुनें की-बोर्ड में सुनने को मिल जाएंगी। मेरा मानना है कि तबले का इस्तेमाल होना चाहिए, तभी इस इंस्ट्रूमेंट को बचाया जा सकता है।’

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010


पूछ बैठीं वैष्णवी ‘ये लावणी-शावणी क्या है?’
वैष्णवी तो आपको याद ही होंगी? 13 वर्ष पहले वैष्णवी ने दूरदर्शन के लोकप्रिय सीरियल ‘शक्तिमान’ में रिपोर्टर गीता का किरदार निभाया था। पिछले दिनों वैष्णवी ‘भोपा उत्सव मेला’ में अपनी नृत्य प्रस्तुति देने आई थीं। कौन-सा नृत्य? मेला समिति ने पब्लिसिटी में यही प्रचारित किया था कि; वैष्णवी महाराष्ट्र का फोक डांस लावणी प्रस्तुत करेंगी! मराठी मानुष तयशुदा समय पर दशहरा मैदान पहुंचे, तो उन्हें आश्चर्य भी हुआ और गुस्सा भी आया। वजह? दरअसल, वैष्णवी ने लावणी नहीं; फिल्मी गानों पर ठुमके लगाए थे।
वैसे इसमें वैष्णवी बेकसूर थीं, क्योंकि यह ‘मजाक’ नासमझों की देन था। वैष्णवी का लावणी नृत्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मजेदार बात, वैष्णवी खुद भी हैरान थीं कि; समिति ने ऐसा कैसे प्रचारित कर दिया कि वे लावणी नृत्य पेश करेंगी?
हास्यास्पद स्थिति तब और निर्मित हो गई, जब मीडिया उनसे पूछ बैठी-‘आपने लावणी कब सीखा?’ वैष्णवी ने हैरानी से मुंह बिचकाया-‘लावणी, ये क्या होता है?’ जब उन्हें बताया गया कि वे भोपाल लावणी नृत्य करने ही तो आई हैं, तो उनका चेहरा देखने लायक था। समीप खड़े समिति के एक पदाधिकारी ने बात संभाली-‘यह पब्लिसिटी की त्रुटि है।’
रामसे ब्रदर्स की भूतिया फिल्म ‘वीराना (1985)’ से बतौर बाल कलाकार अपना फिल्मी करियर शुरू करने वालीं वैष्णवी अपने सरनेम को लेकर भी अजीब-सी हालत में रहती हैं। समस्या यह है कि; यदि वे अपने नाम के साथ सरनेम लगाती हैं, तो लोग उन्हें पहचान ही नहीं पाते। वैष्णवी पहले महंत सरनेम लिखती थीं। शादी के बाद वे ‘मैकडोनाल्ड’ हो गई हैं। दूसरों की छोड़िए, उन्हें खुद भी यह सरनेम अजीब-सा लगता है। वैसे वैष्णवी का घर का नाम भी कुछ अजीब ही है। वैष्णवी को घरवाले प्यार से रेब पुकारते हैं और वे अपनी बिटिया को मैग!
बहरहाल, वैष्णवी भोपाल की खूबसूरती से बेहद प्रभावित नजर आर्इं। उनके मुताबिक,‘ऐसे प्यारे प्राकृतिक नजारे, सुकूनभरा माहौल और हरियाली महानगरों में कहां देखने को मिलत है।’ वे दिल से बोलीं-‘मैं अपनी पूरी फैमिली के साथ एक बार भोपाल सैर करने अवश्य आऊंगी।’