सोमवार, 30 अप्रैल 2012





संतुष्ट हुए तो प्रोग्रेस रुकी


बातचीत
जितेन पुरोहित
फिल्म निर्देशक/ लेखक और अभिनेता

जिंदगी में सबकुछ बेहतर होते-होते अचानक मुसीबत का पहाड़ टूटना किसी का भी मनोबल तोड़ सकता है, लेकिन कुछ लोग दुबारा उठ खड़े होते हैं, फिर से चलने के लिए/अधूरे अरमान पूरे करने के लिए। गोया; ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले!’ जितेन पुरोहित की जिंदगी में भी अचानक ऐसा ही घटित हुआ था, जब वे कोमा में चले गए थे। जब वे बिस्तर से उठे, तो जैसे सारे स्वप्न बिखर-से चुके थे; लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और फिर कदम बढ़ा दिए अपनी तयशुदा राह में। जितेन पुरोहित हिंदी और गुजराती दोनों फिल्म इंडस्ट्री का चर्चित नाम। हरफनमौला नाम। जो चाहा, वो पाया; जैसा चाहा, वैसा किया-निर्देशन में भी नाम कमाया, बतौर प्रोड्यूसर पैसा कमाया; फिल्में लिखीं, तो सराहना पाई और अभिनय किया, तो दर्शकों का प्यार और सम्मान बंटोरा लेकिन फिलहाल, वे महज अभिनय कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोमा के बाद तन को फिर से दुरुस्त करना है, ताकि तन-मन के बेहतर तालमेल से फिर कुछ बड़े प्रोजेक्ट पर कार्य शुरू हो सके। इलाहाबाद में अकसर इलाहाबादी की फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’ के सेट पर जितेन पुरोहित अपने काम पर खूब बोले।


सिनेमा और रंगमंच दोनों में संयुक्त रूप से करीब 25 वर्ष के अनुभव पर जितेन कुछ यूं प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं-‘मैं मानता हूं कि; किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। दरअसल, जब वो भीतर से संतुष्ट हो जाता है, तो बाहर की सारी प्रोग्रेस रुक जाती है। यही वजह है कि मैंने भी कभी संतुष्टि हासिल करना नहीं चाही। हां, लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी से फिल्म इंडस्ट्री में गुजारे इन 25 वर्षों में मैंने जो सोचा था; मुझे वो मिला-पैसा मिला, नाम मिला। मैंने इन वर्षों के दरमियान इंडस्ट्री में बहुत काम किया है। बतौर लेखक, निर्देशक, अभिनेता, सहायक निर्देशक खूब काम किया। दर्शकों और सिनेमा जगत में एक अच्छा मुकाम पाया। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि; मुझे इंडस्ट्री के शतप्रतिशत लोग पहचानने लगे हैं, लेकिन हां; 75 फीसदी भी मेरे काम को जानते हैं, मुझे पहचानते हैं, यह मेरे लिए बहुत है। जैसे जिंदगी के दो पहलू होते हैं-सुख और दु:ख; सो मेरी जिंदगी में भी कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन फिर भी मैं खुश हूं। क्योंकि यह हमारी जिंदगी का हिस्सा है, हम इन्हें नकार नहीं सकते। आज मैं जिस मुकाम पर खुद को देख रहा हूं, उससे खुश हूं।

जितेन के निर्देशन में निर्मित गुजराती फिल्म ‘दलडू चौरायू धीरे-धीरे (2002)’ को ‘गुजराती फिल्म स्टेज अवार्ड’ में विभिन्न श्रेणियों के लिए पांच अवार्ड मिले थे। जितेन इस फिल्म के लेखक भी थे। वे वर्ष, 2010 में रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘दीवानगी ने हद कर दी’ के निर्देशक के अलावा प्रोड्यूसर और लेखक भी थे। मेरी आशिकी (2005) में निर्देशकीय और स्क्रीन प्ले का दायित्व निभा चुके जितेन कई फिल्मों में चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर भी रह चुके हैं जैसे- कृष्णा (1996), गोपी किशन (1994), चौराहा (1994) और मैडम-एक्स (1994)। यानि सिनेमा की तमाम विधाओं में अपना हुनर दिखाने के बावजूद जितेन स्वयं को निर्देशन करते वक्त अधिक सुकून महसूस करते हैं क्यों? वे मन की बात रखते हैं-‘मेरा पहला प्यार निर्देशन है। मेरा मानना है कि; एक निर्देशक जो सुनाता है, जो दिखाना चाहता है; सिनेमा हाल के अंधेरे में चुपचाप बैठे हजारों दर्शक ठीक वैसा ही महसूस करते हैं। यानि निर्देशक का विजन ही दर्शक का नजरिया बन जाता है। यह एक अत्यंत कठिन कार्य है, मुझे इसमें आनंद आता है, खुशी मिलती है।’

गुजराती या हिंदी किस फिल्म विधा में जितेन खुद को कम्फर्ट महसूस करते हैं? जितेन दार्शनिक लहजे में बोलते हैं-‘एक अभिनेता को इससे कोई लेना-देना नहीं होता कि; वो किस भाषा में काम कर रहा है। आप मुझसे हिंदी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, भोजपुरी किसी भी भाषा की फिल्म में अभिनय करने को कहेंगे, तो अच्छा लगेगा। हां, जहां तक परम-सुख की बात है, तो चूंकि मैं गुजराती हूं, सो गुजराती पिच पर खेलना अधिक आनंदकर है। शायद यही वजह है कि वहां मेरे काम को ज्यादा सराहा गया, लोगों का लगाव अधिक है।’

जितेन ने ‘सिनेमाई संघर्ष’ के दौरान मुंबई में रंगमंच को भी खूब समय दिया है। उनके खाते में लगभग 100 से अधिक शो शामिल होंगे, जिनमें उन्होंने अभिनय किया। रंगमंच कितना सार्थक साबित हुआ; उनके फिल्म अभिनय के दौरान? इस प्रश्न पर वे थियेटर और फिल्म दोनों विधाओं का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं-‘यह सच है कि अब मैं रंगमंच को समय नहीं दे पाता, लेकिन शुरुआती दौर में खूब प्ले किये। उस समय मुझे एक शो के 10 रुपए और रम के दो पैग मिलते थे। बहरहाल, दोनों विधाओं की तकनीक में बहुत फर्क है। थियेटर मीडिया एक्टर का मीडिया है, जबकि फिल्म मीडिया डायरेक्टर का। यानि थियेटर में एक्टर के कांधे पर अधिक जिम्मेदारी होती है, प्ले को सफल बनाने की, जबकि फिल्म में डायरेक्टर का दायित्व अधिक। मैं दोनों विधाओं से जुड़ा रहा हूं और जुड़ा हूं। इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं कि रंगमंच से निकला कलाकार मंझा हुआ होता है, लिहाजा वह पर्दे पर भी अच्छा काम कर लेता है। यानि यह एक प्लस पाइंट है। रंगमंच में अभिनेता को लाउड होना पड़ता है, जबकि फिल्म में अंडर प्ले करना होता है। यदि रंगमंच से आए कलाकार को दोनों तकनीक का ज्ञान न हो, तो फिल्म निर्देशक को उससे काम निकलवाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। तमाम दिक्कतें आती हैं।’

जितेन के जेहन में भविष्य को लेकर क्या चल रहा है? वे स्पष्ट करते हैं-‘चलते-चलते जिंदगी कब थम-सी जाए, कोई नहीं कह सकता। दुर्भाग्य से मेरे संग भी यही हुआ। नवंबर 2010 में दीवानगी ने हद कर दी की रिलीज के बाद मेरे पास दो बड़े प्रोजेक्ट थे। पहला चलो चाय पीते हैं और दूसरा रोमांस लव और लफड़ा। रोमांस...के गाने तो फ्लोर पर जाने वाले थे। अचानक मैं कोमा में चला गया। होश आया, तो डॉक्टरों के कहने पर काम से कम्पल्सरी वेकेशन लेना पड़ा। फिलहाल मैं वेकेशन पीरियड में चल रहा हूं, इसलिए कोई स्ट्रेसफुल वर्क नहीं करना चाहता। इसलिए अभी सिर्फ अभिनय ही कर रहा हूं।’ आप मुझे युवा फिल्मकार अकसर इलाहाबादी की फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’ में मुख्य विलेन की भूमिका में देख पाएंगे। इस फिल्म का विषय अत्यंत रोचक है। मुझे इस फिल्म की टीम से जुड़ने में बहुत खुशी हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर संजय शर्मा बाबा और कल्पेश पटेल हैं। संजय कोरियोग्राफर भी हैं। इस फिल्म का गीत अमिताभ क. बुधौलिया ने लिखा है। सभी युवा हैं और टैलेंट से लबरेज। हाल में इस फिल्म की शूटिंग इलाहाबाद में पूरी की है। फिल्म मई के अंत या जून में रिलीज होगी। दूसरा एक भोजपुरी फिल्म सेज तैयार सजनिया फरार भी पूरी की है। इसमें आपको मैं एक्शन इमेज में नजर आऊंगा।

जब मैं शारीरिक तौर पर पूरी तरह से फिट हो जाऊंगा, तो मेरा एक ड्रीम प्रोजेक्ट है, उस पर काम शुरू करूंगा। यह एक साइलेंट मूवी है। इसके लिए मैंने केके मेनन से बात की है। तब्बू से बात करनी है। दूसरा मैं अकसर इलाहाबादी के साथ कुछ और प्रोजेक्ट प्लान करना चाहूंगा, क्योंकि उस बंदे में गजब का टैलेंट है।

जितेन आखिर में कहते हैं- मैं उन लोगों का आभार कभी नहीं भूल सकता, जिन्होंने मुझे जितेन बनाया। सबसे पहले मैं नाम लेना चाहूंगा आसिमाजी का, जिन्होंने मुझे सगे बेटे से भी ज्यादा प्यार दिया। मुंबई में उन्होंने ही मुझे मनोबल दिया, मेरे करियर में हेल्प की। मैंने उनके सम्मान में अपने प्रोडक्शन हाउस का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया है।

दूसरा मेरी क्रियेटिव प्रोड्यूसर और दोस्त अमीषा सठवारा का। यदि अमीषा मुझे समय पर अस्पताल न पहुंचाती, तो शायद मैं कोमा से कभी बाहर नहीं निकल पाता, या जिदंगी मुझसे रूठ जाती।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

पिजड़े में है परिंदा जाओ उसे खोल दो।





पिजड़े में है परिंदा जाओ उसे खोल दो।
आज से वो आजाद, जाओ उसे बोल दो।

मत बांधो किसी के पैर, ऐन-केन-प्रकारेण।
भरने दो मन की उड़ान, जाओ उसे खोल दो।

वे खाएं माल-पुए, गरीबों को रोटी नहीं।
ऐसे नहीं चलेगा हिंदुस्तान, जाओ उनसे बोल दो।

दमन से अगर बदल जाती तस्वीर मुल्क की।
तो लादेन होता सबसे महान, जाओ सबसे बोल दो।

हक मांगने से नहीं मिलता, संघर्ष बहुत जरूरी है।
लड़-मरने की लो ठान, जाओ आमजनों से बोल दो।

अमिताभ बुधौलिया

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

ऊंची हवेली जगमग-जगमग; झोपड़ी क्यों वीरान है?




ऊंची हवेली जगमग-जगमग; झोपड़ी क्यों वीरान है?
गोदामों में गेंहू सड़ता, पब्लिक रोटी को परेशान है।

बिना रुपया काम न होता; छोटा हो या बड़ा दफ्तर
सड़ांध मारती व्यवस्था में फिर कैसे देश महान है?

चाट रहा लगतार कुपोषण लाखों नन्हीं-सी जान को!
गोल-मटोल तोंद सेठों की; अब भारत की शान है।

दिनभर भटकें युवा देश के मिलती नहीं कहीं नौकरी।
एक हमारे नेता-अफसर देखो सोने की खदान है।

मैं तो कहता; आग लगा दो इस निकम्मी सरकार को।
लगा मुखौटा जनसेवका का, जो चलाते अपनी दुकान है।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

गर मुर्दा नहीं तुम

गर मुर्दा नहीं तुम; लबों पर उबाल आने दो।

दिल से निकालो डर, बोलो इंकलाब आने दो।

यूं नहीं मिट पाएगा मुल्क से भ्रष्टाचार मेरे मित्रों।
फांसी पर चढ़ा दो इन्हें; कहीं से आवाज आने दो

राग-दरबारी गा-गाकर इतराने से क्या फायदा?
जगा दे क्रांति जन में, ऐसा कोई साज आने दो।

बहुत पढ़ लिये नियम-कानून हमने गाहे-बगाहे।
जो ताकत बने जन की, ऐसा संविधान आने दो।

अमिताभ क. बुधौलिया

सोमवार, 16 अप्रैल 2012



हिंदी फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’ के प्रोड्यूसर(लेफ्ट से) संजय शर्मा बाबा, गीतकार अमिताभ क. बुधौलिया, प्रोड्यूसर कल्पेश पटेल और निर्देशक अकसर इलाहाबादी।

फेसबुक पर मिले और बना ली पिक्चर


कहते हैं कि;‘जहां चाह वहां राह!’ और यह बात कुछ दोस्तों पर फिट बैठती है। कुछ वर्ष, पहले चंद युवा फेसबुक फ्रेंड बने। दोस्ती गहराती चली गई। इन दोस्तों में लेखक, फिल्म निर्देशक, कोरियाग्राफर और कलाकार सभी शामिल थे। हालांकि सभी अपने-अपने क्षेत्र में लगातार बेहतर काम भी कर रहे थे, लेकिन एक कशिश थी कि; कुछ ऐसा किया जाए, जो मिसाल साबित हो। इस टीम के सूत्रधार थे चर्चित फिल्म निर्देशक अकसर इलाहाबादी। कई दक्षिण भारतीय फिल्मों के हिंदी वर्सन में सहायक निर्देशक रहे, संवाद लेखन कर चुके और गीत रच चुके अकसर इलाहाबादी ने फेसबुक फ्रेंड से लगातार संवाद बनाए रखा। कुछ फिल्मों पर चर्चा हुई और आखिरकार सब इलाहाबाद में जुटे और तैयार हुई इस टीम की पहली हिंदी फिल्म ‘ये रात फिर न आएगी’। हालांकि अकसरजी पहले भी एक फिल्म का निर्माण कर चुके हैं, जिसका पोस्ट प्रोडक्शन अभी बाकी है। यह फिल्म ‘एन अमेरिकन इन इंडिया’ अगस्त में रिलीज होगी। वहीं ये रात...के प्रोड्यूसर एन अमेरिकन...के अलावा बाईस्कोप आदि कई फिल्मों और वीडियो एलबम में कोरियोग्राफी कर चुके हैं। पर यहां मामला संयुक्त प्रयासों का था। ये रात..की शूटिंग के लिए जब सब लोग इलाहाबाद में जुटे, तब उनमें से ज्यादातर एक-दूसरे से सिर्फ फेसबुक पर ही मिले थे। इस फिल्म के गीतकार भोपाल के अमिताभ क. बुधौलिया हैं, जो लेखक के साथ पत्रकार भी हैं। वे बताते हैं-‘यदि आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं, तो रास्ते स्वत: खुलते जाते हैं।’ ये रात...के बाद अब इस टीम के पास कई और प्रोजेक्ट हैं। यह फिल्म मई में रिलीज होगी, इसके बाद बाकी प्रोजेक्ट पर वर्क होगा।’ इसमें एक प्रोजेक्ट भोपाल में भी शूट होगा, जिसे लिख रहे हैं अमिताभ ही लिख रहे हैं। आप इसे कह सकते हैं कि;‘दोस्ती फिल्म में बदल गई।’

फिल्म के प्रोड्यूसर कल्पेश पटेल के मुताबिक, ‘ये रात फिर न आएगी’ एक सस्पेंस/थ्रिलर फिल्म है। फिल्म में हिंदी और गुजराती सिनेमा के जाने-माने लेखक/निर्देशक जितेन पुरोहित खलनायक की भूमिका में हैं। फिल्म मई के आखिर में रिलीज होगी।

उल्लेखनीय है कि अकसर इलाहाबादी की एक सब्जेक्ट मूवी ‘एन अमेरिकन इन इंडिया’ 15 अगस्त पर रिलीज होगी। यह फिल्म भारत की आम पब्लिक की सामाजिक और आर्थिक त्रासदी को दर्शाती है। यह फिल्म लगातार चर्चाओं में है।










शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।

सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।

लेखक समय : 2 जनवरी 2001; तब जब 13 दिसंबर, 2001 में आतंकवादियों ने भारतीय संसद भवन पर हमला बोल दिया था।)

रोगों की जुगलबंदी छोड़ो, हर-हर महादेव बोलो


आज मियां मसूरी की चाल-ढाल देखकर लग रहा था कि; वे किसी बड़ी चिंता में हैं। मुझे आता देख जैसे उनकी व्याकुलता और बढ़ गई।

वे बोले-लेख महोदय! आखिर हम कब तक यूं ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से जूझते रहेंगे? अब तो हद कर दी पड़ोसी ने! पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा उसके पहले लाल किला और अब संसद पर हमला... आखिर हम कब तक चुप रहेंगे?

मैंने कहा-आप क्यों बेवजह इतने परेशान हो रहे हैं। चिंता और चिंतन करने वाले ससंद में अभी मौजूद हैं। कभी टेलीविजन पर संसद का नजारा देखा है! किस तहर हमारे नेता मामूली सी बात को राजनीतिक तूल देकर विस्तृत बहस का मुद्दा बना देते हैं। फिर आप क्यों अपना मन खट्टा कर रहे हैं? सारी चिंताएं- समस्याएं उन पर छोड़ दीजिए और घर पर आराम से बैठकर टेलीविजन और समाचार पत्रों के मार्फत देश-विदेश का हाल-चाल जानते रहिए।

वे विफर पड़े-महोदय! आप मेरी बात को हल्के तौर पर मत लीजिए, आज देश पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और एक आप हैं कि घर में आराम से बैठने की नसीहत दे रहे हैं।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे हैं,

देखना है जोर कितना बाजू-ए- कातिल में हैं।

मैंने कहा-बस...बस...रहने दीजिए मियां, क्यों खुद को बहलाने-फुसलाने के लिए शेर ओर शायरी का राग अलाप रहे हो! दिल्ली टू लाहौर बस यात्रा और उसके बाद आगरा में हुई चोचलेबाजी के दौरान हम पाकिस्तान से हाथ मिलाकर उसके बाजू में कितना दम-खम है, इसका भली-भांति आकलन कर चुके हैं।

वे बोले महोदय! आप भूल रहे हैं वो मित्रता का हाथ था और ऐसे समय में सामने वाले के बाजुओं की ताकत को तौलना अच्छा नहीं माना जाता। जहां तक आपने मेरी बात को राग-अलाप से जोड़ा है, ये तो आपने जरूर सुन लिया होगा हमारे प्रधानमंत्रीजी ने खासतौर पर जता दिया है कि हम जरूरत पड़ने पर युद्ध का राग भी अलापना जानते हैं। मैंने कहा- मियां क्यों इतिहास और वर्तमान को झुठलाने पर तुले हुए हो। चूंकि वाजपेयी जी कवि ह्रदय हैं सो उन्हें राग-विराग की समझ है, परंतु मुशर्रफ ठेठ फौजी हैं, लिहाजा उन्हें रागों की नहीं गोला-बारूद की भाषा समझ आती है।...और यदि वे कोई राग जानते-समझते हैं, तो वो सिर्फ एक है-राग कश्मीरी!पिछले कई वर्षों से हम यह सब देखते भी आ रहे हैं। दिल्ली टू लाहौर बस यात्रा के दौरान हमने दोस्ती का राग अलापा, तो उन्होंने कारगिल में अपनी दिली इच्छा जा दी। हमने जैसे-तैसे उनकी टेड़ी चाल सुधारी और आगरा में राग शांति छेड़ा, उन्हें लजीज पकवान खिलाए ताकि उनके मुंह में भरी कड़वाहट थोड़ी बहुत तो कम हो, लेकिन उन्होंने अपनी आदत नहीं बदली। दरअसल राग कश्मीरी पाकिस्तान की रग-रग में समा चुका है, सो उनके साथ रागों की जुगलबंदी व्यर्थ है। जब हम उनका दिमाग आगरा लाकर भी ठीक न रक सके; तो फिर आप ही बताइए आगरा से बेहतर दूसरी कौन सी जगह है, जहां बिगड़े दिमाग दुरुस्त किए जाते हों? आप कोई भी राग अलापों कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। यहां स्थिति ही कुछ ऐसी है कि;

‘भंैस के आगे बीन बजाना, भैंस खड़ी पगराए।’

वे बोले- महोदय वो तो सब ठीक है लेकिन आपने प्रधानमंत्री के शब्दों का मर्म सहीं से नहीं पहचाना, वो आर-पार की लड़ाई की बात कर रहे हैं।

मैंने कहा- मियां किस मुगालते में हो आर की लड़ाई तो हम वर्षों से लड़ते चले आ रहे हैं। अब बचा ही क्या है, केवल उस पार की लड़ाई? वैसे भी उसका कोई सार निकलने से रहा। जिसके पास खुद का कुछ है ही नहीं; तो भला उससे कौन क्या छीन ले जाएगा! पाक के साथ तो वही स्थिति है-‘नंगा लुटा बाजार में; छाती पीटकर रोए! नुकसान तो हमारा ही होगा, थोड़ा या बहुत। वे बोले-महोदय! आपका कहना सौ फीसदी वाजिब है, लेकिन पाक की नापाक करतूतों को देखते हुए हम चुपचाप हाथ पे हाथ धरे तो बैठे नहीं रह सकते! जब उसने फन उठाया है, तो कुचलना तो पड़ेगा ही?

मैंने कहा-आपका ख्याल दुरुस्त है, परंतु पाकिस्तान एक ऐसा फनकार देश है, जो पहले फन मारता है और जब देखता है कि; उसकी पुंगी बज सकती है, तो दूसरा फन बोले तो; दोस्ती की तिकड़में बैठाने लग जाता है। दो युद्धों में हम देख चुके हैं। वे बोले-महोदय! ये तो बिल्कुल सच है फिर भी विश्व बिरादरी में जबरन की दरोगाई झाड़ने वाले अमरीका को तो उसकी असलियत मालूम चल जाएगी! मैंने कहा-मियां! क्यों खुद को झूठी तसल्ली देने पर उतारू हो। अमरीका के पिटारे में ऐसे एक दो नहीं; बल्कि ढेरों सांप मौजूद हैं, सो अमरीका कुछ करेगा(?) इस गलतफहमी में मत रहिए। अमरीका की लाठी में केवल अवाज ही आवाज है, चोट बिल्कुल नहीं। वे बोले-महोदय कुछ भी हो, लेकिन हम चुप नहीं बैठ सकते आखिर विश्व बिरादरी में हमारी भी कोई हैसियत है। मैंने कहा-मियां सच फरमाया, लेकिन यह भी समझ लीजिए कि अब हमें जो भी करना है गैरों की नहीं; अपनी लाठी से करना है, ताकि सांप निकल जाए और हम अफगानिस्तान में अमरीका की भांति बेवजह लाठी पीटते न रह जाएं। विपक्ष को भी अब राग विरोधम का अलाप बंद कर देना चाहिए, राग ख्याली और राग जुगाली से अब काम चलने से हरा। पाकिस्तान को राग कश्मीरी अलापने दीजिए। अब जवाब रागों से नहीं विरागों से देना होगा। र्इंट का वक्त गया मियां, अब बारूद से काम लेना होगा।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि

संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।
सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।

(लेखन समय : जुलाई 1999)

पड़ोसियों के सहारे

अपनी गांठ से बिना कुछ गंवाए पड़ोसियों के माल पर मौज उड़ाना भी एक कला है। किसी को यह कला तोहफे में जन्मजात मिल जाती है, तो कोई इसे पाने के लिए पुरखों के हुनर आजमाता है। पड़ोसियों को बेचैन करके खुद चैन की बंसी बजाने के लिए जरूरी कुछ ऐसे ही नुस्खों पर एक नजर...

ऊंची क्वालिटी के पड़ोसियों के बीच निवास करने का परमसुख केवल चोखे नसीब वालों को ही प्राप्त होता है और मुझे तो कुदरत के फजल से ऐसी भलीचंगी नसीब बिरासतन हासिल हुई है। उम्दा स्तर के पड़ोसियों को सूंघसूंघ कर ढूंढ निकाले में मेरे पुरखों का हुनर काबिल एक तारीफ रहा है। उन की सूंघने की शक्ति इतनी प्रचंड थी कि मीलों दूर से इस बात की खोजखबर कर लेते थे कि आज किस पड़ोसी के घर उन की पसंद के कौन से पकवान पकाए जा रहे हैं। बस फिर क्या था, सब से पहले अपने बच्चों अर्थात मेरे बापू और बुआजी को पड़ोसी के घर खेलने के बहाने भेज देते।

बापू और बुआजी भी पूरी तरह इस कला में माहिर हो चुके थे। वे भी खूब समझते थे अच्छे पड़ोसियों का महत्व और वे पड़ोसी के घर से टस से मस नहीं होते। अब एक अच्छा पड़ोसी बच्चों को घर से धकिया तो सकता नहीं। कुछ समय बाद मेरी दादी भी डुगरती हुई वहां जा पहुंचतीं। उन्हें बुलाने के बहाने 2-4 इधर-उधर की चुगली करने के बाद पड़ोसिन से पूछ ही लेती कि आज किस खुशी में पकवान बनाए जा रहे हैं?

अब जब रसोई में तांकझांक कर ही ली, तो पड़ोसनि की बिना मदद किए ही घर लौट आएं यह तो दादी के उसूलों के सख्त खिलाफ था। जब व्यंजन तैयार हो जाते तो मेरे दादा भी दृश्य को अंतिम टच देने के लिए जा धमकते। दादा संवाद की झड़ियां फेंकना शुरू कर देते, कमबख्त किस औरत से पाला पड़ा है। लगता है आज फिर दफ्तर भूखे पेट ही जाना पड़ेगा। दादा 3-4 बार इसी संवाद को दोहराते रहते। अब एक अच्छा पड़ोसी इतनी अखाड़ेबाजी के बाद भी बिना खाए पिए चौखट लांघने दे तो फिर ऐसे पड़ोसियों के बीच रहने से बेहतर है चुल्लू भर पानी में डूब मरा जाए!

अच्छे पड़ोसियों के कारण मेरे परिवार के दिन तो चैन से कट रहे हैं परंतु आप चिंतित कदापि न हों। अच्छे पड़ोसी हासिल करना थोड़ा कठिन कार्य अवश्य है, लेकिन असंभव कदापि नहीं।

मेरी इस बावत नेक सलाह तो यही है कि ऐसे पड़ोसियों के प्रति हमेशा कशीदे पढ़ते और लिखते रहो तथा वक्तवक्त पर उन की मक्खन मालिसश भी करते हरे, जिन के घर में आप ऐशोआराम की वस्तुएं मौजूद हैं ऐसे भलेमानुष पड़ोसी यदि कभी कभार बिदक जाएं और आप के चंद सिर के बाल भी उखाड़ डाले तब भी इनके सामने अपनी खींसे निपोरते रहो; पीठ पीछे भले ही उनकी चुगली कर किसी अन्य पड़ोसी से जूतमपैजार करवा दो। अपने बच्चों को शुरू से ही ऐसे संस्कारों में ढालो कि वे आप के इशारों की भाषा को भलीभांति समझ कर उन का अक्षरश: पाल कर सकें। वे सदैव पड़ोसियों के घर को ही अपना घर समझे और अधिकांश समय वहीं पर गुजारें। परंतु जब कभी पड़ोसी के बच्छे अपने घर आ धमके तो पड़ाई या बीमारी का बहाना बनाकर उन्हें अविलंब विदा कर दें। क्या भरोसा कहीं इस घर की आबोहवा ने उन के संस्कारों तथा आदतों में फेरबदल कर डाला तो!

अपने बच्चों में यह सिद्धांत कूटकूट कर अच्छी तरह से भर दें कि; वे अपने दोस्तों के साथ भाईचारे तथा एकता का परिचय दें। उनके सामने को बिलकुल अपना समझें। टूटफूट हो जाए तो माफी मांग कर मामला रफादफा कर दें, लेकिन अपनी कोई वस्तु टूट जाए तो सारा घर सिर पर उठा लें। दहाड़े मारमार कर रोएं तथा बीचबीच में यह भी बोलते रहे कि उक्त वस्तु या फलां खिलौना हमारे मामा ताऊ, अंकल (जो भी उस समय याद आ जाएं) बहुत दूर से मेरे लिए विशेष लाए थे। तब तक इस ड्रामेबाजी पर परदा न डालें, जब तक कि उसके बदले में कोई कीमती वस्तु मिल न जाए।

यदि आप के घर में तीसों दिन चूल्हा फूंका जाता है, तो नि:संदेह वह मोहल्ला निवास करने के काबिल नहीं हो सकता। यदि इस संदभ में प्रयास किए जाएं तो एक अच्छे पड़ोस में रहते हुए चूल्हा फूंकने की नौबत ही न आए। कभी बच्चों के जन्मदिन तो कभी किसी के यहां नई गाड़ी या अन्य कोई वस्तु आने का मुद्दा लेकर उन्हें दावत देने के लिए उत्ेजित किया जा सकता है। यदि पड़ोसी पुराने रीतिरिवाजों को मानता है तो फिर उनसे दावत लेना कोई कठिन कार्य नहीं है। वैसे भी इस अंधविश्वासी समाज में कथित देवीदेवताओं को प्रसन्न करने के लिए आए दिन दावते होती ही रहती हें।

गुफ्तगूं का कोई ओरछोर नहीं हातो और जहां तक अच्छे पड़ोसी हासिल करने के तौरतरीके हैं तो इनकी सूची काफी लंबी है। अंत में यही कहूंगा कि मेरे परिवार की गाड़ी तो बेहतर किस्म के पड़ोसियों के कारण अच्छी तरह से लुढ़क रही है। आप को भी ऐसे ही पड़ोसी मिलें, मैं ऊपरवाले से यही मांगता हूं।