गुरुवार, 29 जनवरी 2009


इन्कलाब तो महामंत्र है बोल कर देखो हड़ताल में!


राष्ट्रभक्तों की स्टेचू देखो है किस हाल में...
लावारिस लाश पड़ी हो सरकारी अस्पताल में!

देखो भव्य प्रतिमाएँ गुलाम-वंशों की देश में...
बैठा दूल्हा मंडप नीचे तिलक लगाता है भाल में!

हेंचू-हेंचू कर लीद करेंगे जरा डंडा तो मारिए...
बंद कमरें में दहाड़ा करते जो शेरों की खाल में!

तेंदुओं से कर दोस्ती सियारों के तेवर तो देखिये...
वृन्दगान गाया करते थे जो आपातकाल में!

सौ यज्ञों का एक यज्ञ है दमन विरोधी जन-आन्दोलन...
इन्कलाब तो महामंत्र है बोल कर देखो हड़ताल में!

भगतसिंह की सहादत पर देखो गद्दारों का बयान...
सिरफिरे उन्मादी लड़के करें ऐसी हरकत यौवनकाल में!

ठुंसी हुई हैं जिनके मुंह में सत्ता की चचोर बट्टियां...
हनुमान-सा रखना चाहते हैं वो सूरज को गाल में!

ग़ज़ल कोई कनीज़ नहीं जो नाचे नए नवाबों में...
यह लाड़ली दुष्यंत की है झूमती है भूचाल में!

कंठमणि बुधौलिया

मंगलवार, 27 जनवरी 2009


'हम झोपड़ी के कुत्ते'
यह ठीक वैसी ही स्थिति है, जैसी गुलाम भारत में अंग्रेजों के प्रति वफादारी जताने लोग अपनों का ही गला नपवाने में गौरवान्वित महसूस करते थे। 'स्लमडॉग मिलिनेअर' को मिला अंतर्राष्ट्रीय गौरव और पुरस्कार हमारी शर्म के बेपर्दा होने सरीखा है, अफसोस! हम ग्लोबल होने की चाह में खुद के नंगईपन को और उघाड़-उघाड़कर दिखा रहे हैं। यह नस्लभेद और रंगभेद के प्रति वैसा ही नजरिया है, जो महलों में होने वाले शादी-ब्याह समारोह में अकसर परिलक्षित होता है। बचा-खुचा खाना बतौर पुण्य-दान झुग्गियों में बंटवा दिया जाता है-मतलब जूठन से पुण्य कबाडऩे का हुनर और खुद के ऊंचा होने पर इतराना। 'स्लमडॉग मिलिनेअर' की वाहवाही का सच बयां करता नीलेश कुमार का गिद्द के लिए भेजा गया खास लेख। नीलेश पेशे से पत्रकार हैं और इन दिनों राजस्थान पत्रिका के जयपुर स्थित मुख्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे हैं...
पिछले दिनों एक अंग्रेज बहादुर आए थे, अपना मुल्क (ब्रिटेन) छोडक़र, हमारे देश। डैनी बोएले नाम है, उनका। फिल्में बनाते हैं, अंग्रेजी की। तरक्की पसन्द दुनिया के गोरी चमड़ी वाले लोगों के साथ नए जमाने की फिल्में बनाते-बनाते बोर हो गए तो चले आए इस देश में हवा-पानी बदलने। यहां आकर उन्होंने खूब कोशिश की कि इस देश में कुछ ऐसा मिल जाए, जिसे नए दौर की तरक्की पसन्द चीजों के साथ जोड़ा जा सके और उस पर फिल्म बनाई जा सके। अफसोस! उन्हें कुछ नहीं मिला, सिवाय एक टीवी कार्यक्रम, 'कौन बनेगा करोड़पति' के। कार्यक्रम भी ऐसा कि जिसका आइडिया हू-ब-हू हमारे फिल्मकारों ने उन्हीं अंग्रेज बहादुर के देश से चुराया था। खूब हिट हुआ था, यह कार्यक्रम। कुछ दो-चार लोग तो करोड़पति तक बन गए। बस यहीं से हमारे इन अंग्रेज बहादुर को नई कहानी का मसाला मिल गया। उन्होंने भारत की झोपड़पट्टियों में रहने वाले एक 'कुत्ते' (लडक़े) के इस टीवी कार्यक्रम के जरिए करोड़पति बनने की अद्भुत कहानी रच डाली।

अंग्रेज बहादुर हैं, अंग्रेजियत का चश्मा चढ़ा रखा है इसलिए एक जीता-जागता हाड़-मांस का लडक़ा भी कुत्ता ही नजर आया और भारत जैसे समृद्ध, विशाल और विविध आयामी देश में दिखाने के लिए सिर्फ झोपड़पट्टियां। कुछ और दिखता भी कैसे? इन अंग्रेज बहादुरों के सामने हम भारतीयों की हैसियत ही क्या है, जो कुछ और नजर आ जाता? खैर! फिल्म बन गई। हिट हो गई, दुनिया में डंका बज गया। गोल्डन ग्लोब जैसा प्रतिष्ठित सम्मान भी चार अलग-अलग श्रेणियों में मिल गया। अब ऑस्कर जैसे महाप्रतिष्ठित सम्मान के लिए पूरी दस श्रेणियों में नामांकित की गई है, यह फिल्म। अब यह बात अलग है कि ये दोनों ही महान सम्मान 'अंग्रेज बहादुरों के, अंग्रेज बहादुरों के लिए और अंग्रेज बहादुरों द्वारा' ही दिए जाते हैं। इस फिल्म को एक अंग्रेजी बाबू ने बनाया था, वह भी पूरी अंग्रेजियत के साथ, भारतीयों को उनकी हैसियत बताते हुए। सो, इतने महान सम्मान की हकदार तो इस फिल्म को बनना ही था और वह बनी भी। हम भी खुश हैं। इतने बड़े-बड़े सम्मान हमारे देश में बनी किसी फिल्म को जो मिल रहे हैं। अब क्या फर्क पड़ता है जो इस फिल्म के जरिए 'भारतीय कुत्तों' के रूप में हमारी गुलामी के दिनों वाली पहचान को एक नई परिभाषा मिली हो? इन अंग्रेज बहादुर ने फिल्म के शीर्षक के मार्फत बीते सालों के हमारे जख्मों को फिर कुरेद दिया हो? क्या फर्क पड़ता है अगर पराधीनता के समय में अंग्रेजों से हमारे स्वाभिमान की लड़ाई दिखाने वाली एक फिल्म (लगान-2002) को इन्हीं अंग्रेजों ने इन्हीं महानतम सम्मानों के लायक न समझा हो। समझते भी कैसे? उस फिल्म में अंग्रेज बहादुरों को झोपड़पट्टियों में रहने वाले इन्हीं गरीब 'भारतीय कुत्तों' के हाथों फिल्मी क्रिकेट मैच में पराजय का सामना जो करना पड़ा था और लगान खोना पड़ा था। हम खुश हैं कि हमारे देश गुलाबी शहर के साहित्यि के प्रतिष्ठित मंच पर एक 'भारतीय कुत्ता' अंग्रेज बहादुर हो गया। ब्रिटेन से लौटा जो था, अंग्रेजियत पढक़र, और सीखकर भी। सुना है, किस्सागोई भी अंग्रेजी में ही करता है। कविताएं और उपन्यास लिखता है लेकिन वह भी सिर्फ अंग्रेजों के लिए। बांसुरी बजाते हुए शायद तान भी अंग्रेजी सुरों की ही छेड़ता होगा। अब उसे शर्म आती है, खुद को भारतीय कहलाने में इसलिए रवायतें (परम्पराएं) भी अंग्रेजियत वाली अपना ली हैं। अंग्रेजियत इसकी रगों में इस कदर दौडऩे लगी है कि छोटे-छोटे बच्चों और बड़े-बुजुर्गों के सामने उन्हीं से सवाल-जवाब करते हुए जाम छलकाने में संकोच नहीं करता। भला संकोच करे भी क्यों? 'भारतीय कुत्ते' के विशेषण से निजात पाने की छटपटाहट जो है, इसमें। ऐसे ही और भी कई लोगों में इसी तरह की छटपटाहट नजर आती है। इसीलिए वे इसकी करतूतों को वाजिब ठहराते हैं। ये लोग 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' कहलाकर मिले महाप्रतिष्ठित सम्मान पर भी खूब खुशियां मनाते हैं। हर सम्भव एंगल को कवर करने की कोशिश करते हैं। फिल्म की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं, अखबारों में लेख लिखते हैं और बताते हैं कि पहली बार किसी 'भारतीय कुत्ते' ने इतनी ऊंचाई नापी है। ये वे लोग मान-अपमान की परवाह किए बगैर बस अंग्रेजियत में घुलमिल जाना चाहते हैं , एकाकार हो जाना चाहते हैं। लेकिन! लेकिन, चन्द लोग ऐसे भी हैं, जिनको इन तरक्की पसन्द लोगों की यह छटपटाहट, ये खुशी जरा भी नहीं सुहाती। इन लोगों को 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' जैसे विशेषणों पर ऐतराज होता है। ये लोग अपने जमीर के जिन्दा होने का दावा करते हैं। ये कहते हैं कि ऐसे विशेषणों से उनके 'आत्मसम्मान', 'स्वाभिमान' जैसी किसी चीज को चोट पहुंची है। इन्हीं लोगों ने गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर भारतीयों को 'झोपड़ी का कुत्ता' बताने वाली अंग्रेज बहादुर की महान् फिल्म का शीर्षक और पटकथा बदलने की मांग की है। दरअसल, इन लोगों के अन्दर दूसरे किस्म की छटपटाहट है, जो नस्लभेद का शिकार होने पर अक्सर पैदा हो जाती है। इसे दूर करने के लिए ये विशालकाय नक्कारखाने में तूतियां बजाते हैं, इस बार भी बजा रहे हैं। लेकिन हमें इन तूतियों की आवाजों और चन्द गैरतमन्द लोगों की छटपटाहट पर ध्यान नहीं देना है। हमें इस वक्त सिर्फ खुश होना चाहिए कि हम दुनिया के सबसे बड़े सम्मान से सम्मानित 'झोपड़पट्टी के कुत्ते हैं।'

सोमवार, 26 जनवरी 2009


बहुत भोंका करते थे जो कुत्ते...

उनके खाद का प्रचार तो देखो...
कुकुर-मुत्ते भी दरख्त हो गए।

बहुत भोंका करते थे जो कुत्ते...
वे शिकार के बख्त सो गए।

संगीनों से हो गई दोस्ती जब से...
मोम के पुतले भी सख्त हो गए।

न जलन न तपन गर्मी भी नहीं...
कैसी आग कमबख्त बो गए।

उनके घर कि है महिमा...
नौनिहाल देशभक्त हो गए।

कंठमणि बुधौलिया

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

चोरी की है 'लगे रहो मुन्नाभाई' की कहानी

ईमानदारी और गांधीगिरी का संदेश देती फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई की नींव में बेईमानी के बीज पड़े हैं। दरअसल भोपाल के भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स का दावा है कि फिल्म का सेंट्रल आइडिया और कहानी का भूलभूत ढांचा लखनऊ के राइटर सैयद आफाक हुसैन उर्फ आफाक अलमास द्वारा लिखित पुस्तक महात्मा से चुराया गया है। भोपाल का गांधी स्टार्स ग्रुप गांधीगिरी के सिद्धांत पर काम करता है और अब लेखक आफाक अलमास को न्याय दिलाने के लिए गांधीगिरी के तरीके का ही प्रयोग करना चाहता है। पल्लवी वाघेला की ख़बर...

फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई आई और देश भर में गांधीगिरी की धूम मच गई। लेकिन कम ही लोगों को इस बात की जानकारी है कि लखनऊ के आफाक अलमास इस विषय पर दस वर्ष पूर्व ही पुस्तक महात्मा लिख चुके हैं। यही नहीं 1998 में महात्मा गांधी की इस परिकल्पना को पुस्तक का रूप देने से पहले 1994 में महात्मा की वापसी नाम से नाटक का मंचन भी उनके निर्देशन में हुआ है। राइटर आफाक अलमास का कहना है कि जिन लोगों ने पुस्तक महात्मा पढ़ी है या फिर इस नाटक के दर्शक रहे हैं, वे बेहतर समझ सकते हैं कि फिल्म की स्कि्रप्ट का सेंट्रल आइडिया पूरी तरह इस पुस्तक पर आधारित है।

नाटक और फिल्म में समानता
-नाटक की थीम में महात्मा गांधी के होने का आभास व्यक्ति को होता है और कहानी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। लगे रहो में भी यही थीम नजर आती है।
-नाटक में महात्मा गांधी माफिया किंग भैरव प्रसाद को नजर आते हैं। लगे रहो में डॉन मुन्नाभाई को।
-भैरव प्रसाद गांधीजी के आदर्शो का इस्तेमाल चुनाव जीतने में करता है। लगे रहो में मुन्नाभाई सेकंड ईनिंग हाउस को वापस लेने में इसका इस्तेमाल करते हैं।
-नाटक में गांधी जी की अहिंसा नीति से शहर में हुआ उपद्रव शांत होता है। फिल्म में इसी तरह सेकंड इनिंग हाउस वापस प्राप्त किया जाता है।
-नाटक के अंत में गांधीजी कहते हैं -मेरा काम खत्म हुआ, मैं जा रहा हूं, मैं था ही कब? मैं सिर्फ तुम्हारा ख्याल था और ख्याल मर नहीं सकता। फिल्म में भी गांधीजी ठीक इसी तरह जाते हुए दिखाए गए हैं। फिल्म का यह अंत फिल्म का खास मैसेज था। इसे हूबहू महात्मा की वापसी नाटक से उठाया गया है।

न्याय में हम देंगे सहयोग
भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स के संस्थापक गौरव गौतम कहते हैं कि हमने लगे रहो.. देखने के बाद ही अपने इस गांधीगिरी ग्रुप का गठन किया था। यह आश्चर्य की बात है कि ईमानदारी का पाठ सिखाने वाली इस फिल्म का निर्माण ही बेईमानी करके हुआ है। अब हम गांधीगिरी के तरीके से ही आफाक सर को न्याय दिलाने में मदद करेंगे।

नाटक पर आधारित पुस्तक
आफाक अलमास की पुस्तक महात्मा उन्हीं के नाटक महात्मा की वापसी का विस्तृत रूप है। यह पुस्तक उप्र सरकार के संस्थान फखरुद्दीन अली अहमद मैमोरियल कमेटी के आर्थिक सहयोग से 1998 में उर्दू भाषा में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद इस नाटक का पुन: मंचन किया गया।

लंबी चुप्पी के पीछे कई कारण थे
लेखक आफाक कहते हैं कि फिल्म लगे रहो और मेरे नाटक महात्मा की वापसी में आश्चर्यजनक समानता है। यदि कोई फर्क है तो केवल इतना कि ड्रामे की अपनी सीमाएं हैं और फिल्म का फारमेट काफी विस्तृत। इस विवाद पर इतने समय चुप्पी साधे रखने के संबंध में आफाक कहते हैं -सितंबर 2006 में फिल्म लगे रहो.. आई थी, उन दिनों मैं मुंबई में ही स्कि्रप्ट राइटिंग का काम कर रहा था। फिल्म आते ही मैंने विधु विनोद और राजकुमार हिरानी से मिलने की कोशिश की। हर बार मुझे कोई न कोई बहाना बना टाल दिया गया। मैंने एसएमएस भी किया लेकिन जवाब नहीं मिला। उस वक्त मुझे समझ ही नहीं आया क्या करूं। उस दौरान मेरी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ नहीं थी। इसी में लगभग 8-9 माह निकल गए। इसके बाद मैं लखनऊ आया और अपने वकील आदित्य तिवारी की मदद से निर्माता और लेखक दोनों को नोटिस पहुंचाया। उनकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर उन्हें रिमाइंडर भी पहुंचाया। इस बीच मेरी कुछ पर्सनल प्रॉब्लम भी रही, जिनके कारण मुझे अपने इस कदम पीछे लेने पड़े। अब गांधीगिरी से लड़ाई आफाक बताते हैं - अभी आगरा में प्ले मोहब्बत द ताज का निर्देशन कर रहा हूं। इसी में भोपाल के गौरव गौतम भी हैं। गौरव और उनके ग्रुप भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स के सदस्यों ने मुझे वापस अपनी लड़ाई लड़ने का हौसला दिया है। अब इस ग्रुप की मदद से गांधीगिरी का तरीका अपना कर हम न्याय की गुहार लगाना चाहते हैं। दूसरों के साथ न हो अन्याय आफाक कहते हैं कि फिल्म को आए काफी समय हो चुका है, लेकिन इससे गुनाह तो कम नहीं हो जाता। वह कहते हैं यह पहली बार नहीं हुआ। क्षेत्रीय भाषा के साहित्य और इनके कांसेप्ट को इसी तरह चुरा लिया जाता है क्योंकि इनका दायरा सीमित होता है। मुझे लगता है यदि ऐसा होता है तो इसके मूल लेखक को इसका कुछ लाभ तो दिया ही जाना चाहिए। मूल लेखक कुछ अभाव और कुछ दबाव के कारण अपनी आवाज भी बुलंद नहीं कर पाते।
(यह ख़बर दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में प्रकाशित हुई है)

बुधवार, 21 जनवरी 2009

गिद्धों के पुरखे नजर आयेंगे वे...

जो दूर किया करती थी अलगाव को...
जलाकर राख कर दी उसी नाव को।

उस शख्स से कौन जीतेगा यहाँ...
लगाकर बदल देता है जो दाव को।

देश का संविधान तक परोसा थाल में...
तुम्हीं बताओ और क्या परोसू जनाब को।

झगड़े/दंगा कराने में उस्तादों के उस्ताद हैं...
खून-खराबे में बदल देते हैं तनाव को।

गिद्धों के पुरखे नजर आयेंगे वे...
उतार कर देखो जरा इनकी नकाब को।

धरती रखी है सिर शेष नाग के वे...
सदियों से पढ़ा रहे हैं इसी किताब को।


बारूद से भर दी गई है वो नहर...
जो जाती थी यारो मेरे गांव को।

ठूंस दी धर्म की अफीम कंठों में...
ओंठ तक नही मिलते हैं इन्कलाब को।

आप खामो खां बकने लगे हैं गालियाँ...
मैंने तो रखा है सामने आपके हिसाब को।

कंठमणि बुधौलिया






सोमवार, 19 जनवरी 2009

घोड़े हैं स्वतंत्र, सवारों पर लगाम है...

घोड़े हैं स्वतंत्र, सवारों पर लगाम है...
आपके राज्य का बढ़िया इंतजाम है।

जो पचा गया लोहा-सीमेंट-जंगल...
बलशाली महाप्रभु को मेरा प्रणाम है।

राम-राम, दुआ-सलाम का हुक्का बंद...
जब से गांव पहुँचा जय श्रीराम है।

तालियाँ ही तालियाँ बजें हर बात पर...
ऐसी परिचर्चा में मेरा क्या काम है।

खूंटा से बंधो मौज करो, खुद्दार बने...
तो भोगो सद्दाम-सा परिणाम है।

बोफोर्स,हवाला,राम-जन्म भूमि के चंदे...
बटोरो-बटोरो आँधियों के आम हैं।

अब्दुल्ला,बुखारी,आडवानी, सिंहल देश में...
शपथ-पूर्वक कहो-इनका क्या काम है।

कंठमणि बुधौलिया

सोमवार, 12 जनवरी 2009


हर शाख पे उल्लू बैठा है...

कैसे जीतोगे दौड़ यहां, हर गधे पर चार सवार हैं।
हर शाख पे उल्लू बैठा है, और बाकी भी तैयार हैं।।

दोष भले ही किसका हो, पर यूं न जलती लंका।
मरता क्या न करता रावण, विभीषण बेशुमार हैं।।

गांठ बांध लो, नेताओं की नहीं होती कोई जात।
खाल खींचकर भूसा भरते, सबके सब चमार हैं।।

मंचों से तो बहुत हो चुकीं, इंकलाब की बातें।
करो बगावत खुद ही बढ़कर, बाकी सब बीमार हैं।।

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009


नेताओं का चरित्र बदलने की बात न करना...

यह सियासी सभा है, सदभावना की बात न करना...
यह दफ्तर है, किसी काम की बात न करना।

सिलकर रखना मुंह जितना हो सके महोदय...
यह अंधेर नगरी है, सर उठाकर बात न करना।

कितने भी कोई जूते मारे, सब चुपचाप सहेंगे...
यह मुर्दों की बस्ती है, बगावत की बात न करना।

लोकतंत्र में सबकुछ बदल सकता है लेकिन...
नेताओं का चरित्र बदलने की बात न करना।


अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

सोमवार, 5 जनवरी 2009



'वो' आए और दो मिनट में चर गए

खूब भींचीं मुट्ठियां, कुछ हुआ नहीं...
किसे पता, वो झुके या हम डर गए।

ठंडा पड़ गया गोला-बारूद पड़े-पड़े...
सीमा पर सैनिक बिना लडे़ ही मर गए।

अमेरिकी स्पर्श का असर तो देखिए...
जरा-सा सहलाया, सारे जख्म भर गए।

जमाना बदला, नहीं बदली उनकी आदत...
जिस थाली में खाया उसी में छेद कर गए।

दिन-रात बोये सदभावना के बीज हमने...
'वो' आए और दो मिनट में चर गए।

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'