सोमवार, 12 सितंबर 2011

बच्चों को बिगाड़ देती है बात-बात पर सजा




स्कूली बच्चों को पनिशमेंट


अमिताभ बुधौलिया

प्रदेश में स्कूली बच्चों को दंड देने के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं, वो भी तब; जब सरकार और प्रशासन इस मामले में कड़ा रुख अख्तियार कर चुका है। पिछले दिनों सीहोर के नौगांव में एक महिला शिक्षक ने छात्राओं के बाल काट दिए। छात्राओं को यह सजा इसलिए मिली क्योंकि वे घर से चोटी बनाकर नहीं आई थीं। सिर्फ चोटी बनाकर स्कूल न आना क्या कोई अपराध है? नि:संदेह नहीं, यह मामला स्वच्छता से संबंधित है। छात्राओं को सजा देने वालीं नौगांव स्थित इस सरकारी स्कूल की संविदा शिक्षक वर्ग-2 की मीता सिंह भी यही मानती हैं। ...और वे भी यही चाहती थीं कि छात्राएं साफ-सफाई का महत्व समझें, लेकिन दंड देने का तरीका गलत निकला।

वरिष्ठ अधिवक्ता कमलाकर चतुर्वेदी के मुताबिक, मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 17(1) के अनुसार बच्चों को किसी भी तरह से शरीरिक दंड या मानसिक उत्पीड़न नहीं दिया जा सकता। इसमें बच्चों को मुर्गा बनाना, छड़ी आदि से मारना, बेंच या धूप में खड़ा करना या किसी कार्य करने को मजबूर करना इत्यादि पहलू शामिल हैं। धारा 17(2) के मुताबिक इसका उल्लंघन पाए जाने पर संबंधित व्यक्ति पर अनुशनात्म कार्रवाई की जाएगी।
सरकारी स्कूल भुगतेंगे खामियाजा: शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) से भले ही निजी संस्थानों के दरवाजे वंचित तबकों के लिए खुल गए हों, लेकिन इसकी भारी कीमत सरकारी स्कूलों को चुकानी पड़ सकती है। इसके शुरुआती संकेत इस साल पहली कक्षा में दर्ज बच्चों की संख्या में हुई कमी से मिलते हैं। भोपाल जिले के स्कूलों के सरकारी आंकड़ों और राजधानी भोपाल के ग्रामीण अंचलों की चुनिंदा स्कूलों के सर्वे से पता चलता है कि अभिभावकों का रुझान बड़ी तेजी से निजी स्कूलों की ओर हो रहा है।

हाल ए मध्यप्रदेश : प्रदेश के 50 जिलों में स्थित 22,387 निजी स्कूलों में एक लाख 70 हजार 987 सीटें वंचित तबकों के बच्चों के लिए रखी गई हैं। इनमें अब तक एक लाख चार हजार बच्चों को प्रवेश दिया जा चुका है। जानकार लोगों के अनुसार ये वे बच्चे हैं, जो अगर शिक्षा का अधिकार कानून नहीं होता तो निश्चित तौर पर सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेते। इस तरह सरकारी स्कूलों से करीब एक लाख बच्चे सीधे-सीधे तौर पर बाहर हो गए हैं।

यह है प्रदेश की स्थिति : प्राथमिक स्तर पर क्षेत्रफल व आबादी के अनुसार राज्य के औसत से अधिक स्कूल टीकमगढ़, उमरिया, धार, झाबुआ, खरगोन, बड़वानी, सिवनी, मंडला, शहडोल, सीधी, सतना, रायसेन, डिंडौरी, अलीराजपुर जिले में हैं। माध्यमिक स्तर पर क्षेत्रफल व आबादी के अनुसार राज्य के औसत से अधिक स्कूल रीवा, सीहोर, बालाघाट, बड़वानी, बैतूत, खरगौन, सिवनी, सीधी, उमरिया, मंडला, सिंगरौली में हैं। जबकि पूर्व से ही प्राथमिक शाला के विरुद्ध माध्यमिक शालाओं का अनुपात अपेक्षाकृत भोपाल, उज्जैन, शाजापुर, उमरिया, होंशगाबाद, सीहोर, नीमच, बैतूल, सागर, मंदसौर, जबलपुर, नरसिंहपुर, देवास, कटनी, बुरहानपुर, दमोह, खंडवा, राजगढ़, रायसेन, सीधी, विदिशा में अधिक हैं।

राजधानी की पड़ताल : भोपाल जिले के सरकारी स्कूलों पर नजर दौड़ाएं तो इस साल पहली कक्षा में बच्चों की संख्या में छह फीसदी तक की कमी आई है। जिले के 1050 स्कूलों के आंकड़े बताते हैं कि वहां पिछले वर्ष पहली कक्षा में करीब 28 हजार बच्चों ने दाखिला लिया था। इस साल अब तक यह आंकड़ा सिर्फ 12 हजार तक ही पहुंच सका है। हालांकि अधिकारियों के अनुसार सभी स्कूलों से अभी पूरे आंकड़े आ नहीं पाए हैं, इसलिए इस संख्या में इजाफा होना लाजिमी है। लेकिन इसके बावजूद वे स्वीकारते हैं कि सरकारी स्कूलों में विद्याथिर्यों की संख्या में कमी तो आई है।

सर्वे से सामने आई हकीकत: भोपाल शहर के आसपास स्थित स्कूलों के सर्वे से भी पता चलता है कि सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता हो चुकी है। भदभदा रोड स्थित गौरा गांव में स्थित सरकारी प्राइमरी स्कूल में पिछले साल 70 बच्चे थे। इस साल घटकर 59 रह गए हैं। और ये बच्चे भी कितने नियमित हैं, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सर्वे के दौरान केवल 18 बच्चे ही स्कूल में उपस्थित थे। पड़ोस के बिसनखेड़ी गांव की प्राइमरी स्कूल तो दोपहर तीन बजे ही बंद मिली, जबकि उसे साढ़े चार बजे तक खुला होना चाहिए था। गांव के लोगों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे ही नहीं हो, तो शिक्षक भी रहकर क्या करेगा। इन गांवों के करीब ही अरुणोदय नामक निजी स्कूल में 150 बच्चे पढ़ते हैं। इसी तरह बरखेड़ीकलां की सरकारी स्कूल में 150 बच्चे पढ़ते थे। अब यहां 4 बच्चों के ही नाम दर्ज हैं। बीलखेड़ा की शासकीय स्कूल में 130 बच्चे पढ़ते थे। अब इस साल 90 बच्चे पढ़ रहे हैं।

बदलती मानसिकता, सक्रीय एजेंट: ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे एक स्वयंसेवी संस्था के अनुसार सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि बच्चे सरकारी स्कूलों से निकलकर निजी स्कूलों में दाखिला दिलवाया जाए। संभवत: इसके लिए वे निजी स्कूलों के साथ साठगांठ भी कर रहे हैं, क्योंकि चूंकि निजी स्कूलों में 25 फीसदी बच्चों का खर्च सरकार देगी। वहीं शासकीय स्कूलों की अव्यवस्था की कमी का फायदा उठाते हुए एंजेट मोटा कमीशन लेकर बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में करवाने में अपना जोर लगा रहे हैं।
पैर पसारते निजी स्कूल : उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्टÑ के बाद सबसे ज्यादा निजी स्कूल मप्र में ही हैं। यहां निजी स्कूलों की संख्या में इजाफा भी हो रहा है। डिस्ट्रिक्ट इंफार्मेशन सिस्टम फर एजूकेशन (डाइस) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2008-09 में प्रदेश में जहां 22,989 स्कूलें थीं, वहीं वर्ष 2009-10 में यह संख्या बढकर 23,455 हो गई। यानी प्रदेश में हर रोज एक नई निजी स्कूल खोली गई।

निजी बनाम सरकारी स्कूल : प्रदेश में निजी स्कूलों की संख्या कुल स्कूलों में 17 फीसदी ही है, लेकिन शिक्षकों की संख्या 35 फीसदी से ज्यादा है। यही वजह है कि निजी स्कूलों में जहां प्रति स्कूल सात शिक्षक हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में यह औसत 25 ही है। इसके अलावा ढांचागत सुविधाओं के मामले में भी सरकारी स्कूलों की स्थिति बदतर है। डाइस की रिपोर्ट के अनुसार केवल 25 फीसदी स्कूलों में ही बायस टयलट और 38 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए टायलट हैं। 43 फीसदी स्कूलों की ही बाउंड्री वल है, जबकि बिजली का कनेक्शन केवल 20 फीसदी स्कूलों में ही हैं।

कुछ ऐसे हैं मैदानी हालात: आंकड़ों पर गौर किया जाए तो शासकीय स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही है। इसका बड़ा कारण शासकीय योजनाओं का लचर रवैया और निचले स्तर तक योजनाओं का भली भांति प्रबंध ना होना पाना है। बच्चों को स्कूल का वातावरण और दी जाने वाली ना काफी सुविधाएं भी शिक्षा का अधिकार कानून पर भारी पड़ती दिखाई देती है। एमडीएम से लेकर यूनिफार्म और पुस्तकों का वितरण भी बच्चों को स्कूल का रुख कराने में पर्याप्त साबित नहीं हो रहा है। ऐसे में प्रदेश सरकार ने शिक्षा के लिए अपनी नीतियों में सभी विकल्प खुले रखे है।

अब बदलेंगे हालात, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सामने आइं : ग्रामीण भारत में बच्चों की शिक्षा के लिए अब अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने पहल की है। अंतरराष्ट्रीय संस्था एमएसडी ने ‘सपोर्ट माइ स्कूल’अभियान के तहत भोपाल क्लस्टर में पहला स्कूल समर्पित करने के लिए भारत में कोका कोला और यूएन एचएबीआईटीएटी से हाथ मिलाया है। रायसेन रोड भोपाल पर आदमपुर के शासकीय प्राइमरी स्कूल का चयन ‘सपोर्ट माय स्कूल’ अभियान में हुआ है। सपोर्ट माय स्कूल अभियान में कोका कोल इंडिया, एनडीटीवी, यूएन हेबिटेड, केफ इंडिया, पियरसन इंटरनेशनल और सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन के संयुक्त तत्वावधान में चलाया जा रहा है। एमएसडी अब कोका कोला इंडिया एनडीटीवी सपोर्ट माइस्कूल अभियान में शामिल होकर काम करेगा। देश में इस अभियान की शुरूआत अभियान (एनजीओ) कैंपेन एंबेसडर सचिन तेंलुकर ने जनवरी 2011 में की। इस अभियान का लक्ष्य भारत में 10 राज्यों और 14 क्लस्टरों के ग्रामीण और अर्धशासकीय स्कूलों की पुर्नसंरचना के लिए धन और सुविधाएं प्रदान करना है।
इस अभियान के अंतर्गत भोपाल क्लस्टर के 18 स्कूलों की पुनर्संरचना के लिए राशी प्रदान की जाएगी।
आदमपुर के सरकारी स्कूल में छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय, बेहतर और स्वच्छ जल आपूर्ति, खेल-कूद के सामान और लाइब्रेरी जैसी सुविधाएं प्रदान की गई हैं। इस तरह गांवों में बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करने में सहायता मिलेगी। यह ऐसा अभियान होगा जिसमें बच्चों को बेहतर माहौल में पढ़ने-लिखने का मौका मिलेगा। स्वाभाविक है कि जब बच्चों को माहौल अच्छा मिलेगा, तो वे तहजीब सीखेंगे, उदंडता नहीं करेंगे, सो उन्हें दंड भी नहीं मिलेगा।
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मध्यप्रदेश के स्कूलों की स्थिति
कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों की संख्या 83266
कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 193026
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों की संख्या 27534
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 78163
कुल बच्चों ने स्कूल छोड़ा 70316
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सीहोर जिले का ब्यौरा

कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों की संख्या 1443
कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 3398
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों की संख्या 611
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 1476
कुल बच्चों ने स्कूल छोड़ा 306
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भोपाल जिले का ब्यौरा

कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों की संख्या 837
कुल शासकीय प्रायमरी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 2676
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों की संख्या 368
कुल शासकीय मिडिल स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 1328



कुल बच्चों ने स्कूल छोड़ा 957

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बच्चों को शिक्षा अधिकार कानून के अंतर्गत सभी आदेशों का पालन किया जा रहा है। किसी भी तरह का संज्ञान मिलने पर अनुशनात्मक कार्रवाई की जाएगी। हाल में प्राप्त मामलों की जांच समिति गठित कर जांच करवाई जा रही है।

- मनोज झालानी, आयुक्त स्कूल शिक्षा



मंगलवार, 6 सितंबर 2011

इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चलके

अमिताभ बुधौलिया

शकील बदांयुनी साहब का लिखा यह गीत बच्चों को इंसाफ का संदेश देता है, लेकिन क्या खुद बच्चों के साथ सही इंसाफ हो पा रहा है? इसी वर्ष फरवरी में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के स्कॉलर होम पब्लिक स्कूल में फीस को लेकर बच्चे के बाल काट दिये गये थे। अगस्त माह में रायसेन जिले के ग्राम माखनी की प्राथमिक शाला में अध्ययनरत कक्षा 5वीं की छात्र रुचि लोधी, सुरभि एवं रोशनी लोधी को शिक्षक हरीराम विश्वकर्मा ने लाठियों से न सिर्फ बेरहम तरीके से पीटा; बल्कि इन्हें तीन घंटे कमरे में भी बंद कर रखा। सिंगरौली जिले के चितरंगी ब्लाक अंतर्गत झौंपो हाईस्कूल के 50 बच्चों ने 24 जुलाई को मानव अधिकार आयोग में मारपीट की शिकायत करते हुए आरोप लगाया है कि शिक्षक द्वारा बिना किसी कारण के प्रतिदिन उनकी पिटाई लगाई जा रही है। न केवल प्रदेश बल्कि पूरे देश में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां जरा सी बात पर स्कूली बच्चों को अनुशासन के नाम पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है।

आखिर हम क्यों भूल जाते हैं कि एक नन्ही से जान के कोमल से मुलायम शरीर पर जब एक तमांचे या बेंत की मार पड़ती होगी तो उसके नाजुक दिल पर क्या बीतती होगी? जब एक हंसत-खेलते बच्चे को उसके दोस्तों के सामने बेइज्जत किया जाता होगा, तो उसके मासूम मन पर क्या असर पड़ता होगा? आखिर हम क्यों नहीं सोचते कि जब एक बच्चे को घंटों भूखा या धूप पर खड़ा रखकर तड़पाया जाता होगा तो कितनी जान रह जाती होगी उसमें? क्या होमवर्क ना करना या एक शैतानी करना इतना बड़ा गुनाह है जिसकी सजा मौत होती है? अगर मौत नहीं तो एक ऐसी सजा जिसका जख्म शरीर और दिल पर लिए वो बच्चा सारी जिंदगी जीता है और अंदर ही अंदर घुटता रहता है।

दरअसल हर बच्चे की मुठ्ठी में उसकी तकदीर होती है। हर एक बच्चे की आंखों में उम्मीदों की दिवाली जगमगाती है। उसकी आंखें आने वाली दुनिया का सपना संजोती हैं, तो फिर क्यों कई बार वो आंखे वक्त से पहले ही बंद हो जाती हैं, या फिर हमेशा-हमेशा के लिए इनमें दर्द और दहशत का साया तैरने लगता है?

शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं विशेषकर छोटे बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार, मारपीट और अनेक तरह की प्रताड़ना के मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं। ये हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि शिक्षण संस्थाओं में छात्रों और शिक्षकों के बीच किस तरह के संबंध होना चाहिए। क्या पढ़ाई-लिखाई, अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षकों द्वारा छात्र-छात्राओं के साथ किया जाने वाला कठोर या यूं कहें कि अमानवीय व्यवहार सही माना जा सकता है? हालांकि ज्यादातर शिक्षक इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बच्चों के साथ मारपीट करना कानूनी दंडनीय अपराध है। बाल अधिकारों का अंतरराष्ट्रीय अधिनियम 1989 के तहत् बच्चों के अधिकारों को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए जो प्रावधान किए गये हैं, उसे भारत सरकार ने स्वीकार करते हुए कहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य तरीके और स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने का अवसर दिया जाएगा। बच्चे से तात्पर्य 18 वर्ष से कम के प्रत्येक मनुष्य से है। अनुच्छेद 28 और 29 के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व, प्रतिभाओं तथा मानसिक और शारीरिक योग्यताओं का पूर्ण विकास तथा स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुकूल होना चाहिए. इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में बच्चों के साथ मारपीट आम बात है। बच्चों को हिन्दी या अंग्रेजी बोलने पर प्रताड़ित करना, स्कूल में टिफिन नहीं खाने देना, आर्थिक दंड लगाना, दिनभर दीवार के कोने में या दरवाजे के बाहर खड़ा रखना, उकडूूं या मुर्गा बनाकर खड़ा करना, उठक-बैठक लगवाना, जरा-सी नाराजगी पर छात्र-छात्राओं को थप्पड़ मारना, ये आम शिकायत है।

दरअसल आज के शिक्षकों के सामने छात्र-छात्राओं को गुरु-शिष्य को परस्पर बांधे रखना सबसे बड़ी चुनौती है। आधुनिक संचार प्रणाली और एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने, कुछ अलग करने तथा उच्छृंखलता भरे माहौल में शिक्षण संस्थाओं की कथित पवित्रता और अनुशासन को बनाए रखना शिक्षकों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। दोष केवल उनका नहीं इसके लिए काफी हद तक शिक्षण प्रणाली और अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। ऐसे में शिक्षण संस्थान में अपने आदेश का पालन न होते देख या फिर अनुशासन की पकड़ को कमजोर होता देख बहुत से शिक्षक विचलित हो जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो अनअपेक्षित/अमानवीय है।

इस संबंध में मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी का संस्मरण याद आता है। अपने एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था - मेरी शुरुआती पढ़ाई दिल्ली के एक बेहतरीन स्कूल में हुई। वहां शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को थप्पड़ मारना आम बात थी। यहां तक कि चौथी-पांचवीं कक्षा के बच्चों की भी बेंत से पिटाई लगाई जाती थी। सौभाग्य से मैं इससे बचा रहा। हालांकि छठवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मैं उतना भाग्यशाली नहीं रहा। एक दिन स्कल्पचर की क्लास के दौरान जब मैं अपने एक मित्र के साथ सृजनात्मक मसले पर चर्चा कर रहा था कि तभी एक असिस्टेंट ने आकर मेरे सिर पर एक जोरदार चपत लगा दी। मैं गुस्से का घूंट पीकर रह गया। घर लौटने पर मैंने अपने पिता से कहा कि उन्हें इस मसले पर कुछ करना होगा। अगले दिन पिताजी मुझे स्कूल के प्रिंसिपल के पास लेकर गए और कहा कि वह नहीं चाहते कि उनके बेटे यानी मुझे स्कूल में शारीरिक दंड मिले। चर्चा करने के बाद यह तय हुआ कि अब से मेरी जेब में हमेशा एक पत्र रहेगा, जिसमें लिखा था कि यदि किसी टीचर को मुझसे कोई समस्या है तो वह इसकी लिखित शिकायत मेरे पिताजी से कर सकता है लेकिन मुझे स्कूल में कोई मारेगा नहीं। इस पत्र पर प्रिंसिपल आॅफिस की मुहर लगी थी। उसके बाद से इस स्कूल में किसी भी टीचर ने मुझे नहीं मारा। सच यह है कि किसी को (और खासकर स्कूल में बच्चों को) पीटकर हम अपनी शिक्षा की कमी को ही जाहिर करते हैं। यदि हम ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां शांति हो, जहां सड़कों पर दंगे न हों और जहां लोग सहिष्णु हों और एक-दूसरे से प्यार करें, तो हमें अपने बच्चों को स्कूल के शुरुआती जीवन से ही शांति, प्यार और सहिष्णुता के दर्शन कराने चाहिए।

अरिंदम एक शिक्षक के तौर पर कहते हैं कि ऐसा कोई कारण नहीं होता जिसके लिए किसी टीचर के लिए छात्र को क्लासरूम में या दूसरों के सामने मारना जरूरी हो जाए। यदि कोई शिक्षक अच्छा है और शिक्षण के प्रति समर्पित है, तो उसे पढ़ाने की प्रक्रिया में इतना आनंद आता है कि छात्रों के लिए भी यह मनोरंजक प्रक्रिया बन जाती है। अच्छे शिक्षक को कभी छात्रों के साथ समस्या नहीं होती। ये केवल उन शिक्षकों को ही होती है, जो खुद को सिद्ध करने के लिए शारीरिक दंड का शॉर्टकट तरीका अपनाते हैं। शारीरिक दंड बचपन में कभी कारगर नहीं होता।

जब शिक्षकों से इस संबंध में बात की जाती है, तो बहुत से शिक्षकों का तर्क होता है कि बच्चे यदि होमवर्क करके नहीं आते, समय पर स्कूल नहीं पहुंचते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और स्कूल के अनुशासन को तोड़ते हैं तो उन्हें मारना लाजिमी है। ऐसे समय में उन्हें तुलसीदास की यह शिक्षा तुरंत याद आती है कि-भय बिन प्रीत न होये गोंसाई। किंतु वास्तविकता में बच्चे भी मारपीट करने वाले, हमेशा उलहाना देने या बेइज्जत करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं का सम्मान नहीं करते। ऐसे शिक्षक/शिक्षिका के क्लास में आते ही बच्चों की आंखों में एक अलग किस्म की नफरत या भय का भाव होता है, जो शिक्षक के हटते ही उपहास या मजाक में तब्दील हो जाता है।

बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले भोपाल के ख्यात मनोवैज्ञानिक डॉ. विनय मिश्रा कहते हैं कि हर बच्चा आइंस्टीन नहीं हो सकता। क्लास में पढ़ने वाले सभी बच्चों का आईक्यू लेवल अलग-अलग होता है. सभी बच्चों से एक-सी अपेक्षा करना ठीक नहीं है। वे नियमित रूप से पेरेंट टीचर मीटिंग पर जोर देते हुए कहते हैं कि यदि बच्चे से किसी भी प्रकार की शिकायत है, तो उसके अभिभावकों को सूचित कर उनके माध्यम से प्रॉब्लम को हल करना चाहिए। माह में एक दिन सभी अभिभावकों की मौजूदगी में मीटिंग होनी चाहिए।

इसी तरह शिक्षाविदें का मानना है कि शिक्षकों की समय-समय पर ट्रेनिंग होना चाहिए उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि बिना मारपीट के भी अलग-अलग टेक्निक से बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जा सकता है। कई बार बच्चे स्कूल में होने वाली मारपीट से अपने पूरे एटिट्यूट को नेगेटिव बना लेते हैं। कई बच्चे होमवर्क, पढ़ाई, परीक्षा आदि के भय से घर से भाग जाते हैं, कई बच्चे असफलता के कारण आत्महत्या कर लेते हैं।

बच्चों का अच्छी ढंग से लालन-पालन और शिक्षण माता-पिता और शिक्षकों के आपसी तालमेल से ही संभव है। बहुत सारे मां-बाप तो शिक्षकों को इस बात का अधिकार सहर्ष दे देते हैं कि उनके बच्चे मारपीट करें तो कोई मुरब्बत न करें, जरूरी पड़े तो अच्छी पिटाई भी करें। बहुत सारे मां-बाप प्रतिस्पर्धा के चक्कर में पड़कर अपने बच्चे को हमेशा हर क्षेत्र में अव्वल ही लाना चाहते हैं, तो दूसरी ओर कुछ अभिभावक अपने बच्चों की गतिविधियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर उन्हें स्कूल, कॉलेज, छात्रावास के भरोसे छोड़कर निश्चित हो जाते हैं। नाबालिग बच्चों को मोबाइल, मोटरसाइकिल और बड़ी मात्रा में जेब खर्च देने वाले मां-बाप इस बात से बेखबर रहते हैं कि उनका बच्चा जिस संस्थान में पढ़ रहा है, वहां सभी बच्चे एक से नहीं हैं, बच्चों में यहीं से ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और अहम् की भावना विकसित होती है। जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावक भी इस बात का ध्यान रखें कि उनका बच्चा किस तरह की अपेक्षा करता है, उसका व्यवहार कैसा है, उसकी वाजिब जरूरतें क्या हैं, वह पढ़ाई का कितना बोझ सह सकता है?

क्लास में सभी बच्चे फर्स्ट क्लास पास नहीं हो सकते। बच्चों को केवल डरा-धमका, मारपीट करके ही सुधारा नहीं जा सकता, बल्कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हें वे ही सुविधाएं, साधन उपलब्ध कराएं जो उनके व्यक्तित्व विकास, पढ़ाई-लिखाई और बेहतर नागरिक बनाने के लिए जरूरी हैं। यही नहीं उनके शिक्षकों के साथ नियमित संवाद अभिभावक की भी जिम्मेदारी है।

पश्चिमी देशों में बाल अधिकारों की रक्षा के व्यापक प्रबंध के बावजूद बच्चों में उद्दंडता बढ़ रही है, वे कक्षाओं में पिस्तौल चला रहे हैं, हिंसा की ओर उन्मुख हो रहे हैं, क्योंकि पारिवारिक विघटन और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव उन्हें असहिष्णु बना रहा है। हमारे यहां अभी स्थिति इतनी दयनीय नहीं हुई है कि बाल अधिकारों की रक्षा के लिए माता-पिता, शिक्षक और रिश्तेदारों के लिए कठोर कानून की दरकार हो। आवश्यकता इस बात की है कि समाज, परिवार और विद्यालय के वातावरण को संवेदनशील, रचनात्मक और उत्तरदायित्वपूर्ण बनाया जाए। शिक्षकों को भलीभांति प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे बच्चों में जिम्मेदारी की भावना विकसित कर सकें। माता-पिता, शिक्षक और बच्चे के बीच आत्मीय और विश्वसनीय संबंध स्थापित करने के बाद ही अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। भारत में पश्चिम की तर्ज पर कानून बनाकर बाल-हिंसा नहीं रोकी जा सकती। जरा सोचिए, बच्चे की शिकायत पर यदि मां-बाप या शिक्षक जेल भेजे जाने लगे तो हमारी परिवार-व्यवस्था और शिक्षा का क्या हश्र होगा? बच्चे बोझ लगने लगेंगे। न कोई संतान को जन्म देना चाहेगा और न ही कोई शिक्षक बनना चाहेगा। निश्चय ही बच्चों के प्रति हिंसा रोकी जानी चाहिए और उन्हें वे सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए जिससे वे जिम्मेदार नागरिक बन सकें। लेकिन भारत में शिक्षक और अभिभावक के सम्मान को दरकिनार कर सिर्फ कानून के बल पर इस लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं।

दरअसल हमें कानून से अधिक ऐसे व्यवहारिक प्रयोगों की जरूरत है, जो स्कूलों में शारीरिक दंड की प्रक्रिया को पूरी तरह रोक दे। स्कूल का काम बच्चों की जिंदगी संवारना है, बर्बाद करना नहीं। हां, स्कूल में कुछ ऐसे बच्चे भी आते हैं, जिनका रवैया नकारात्मक और अनुशासनहीन हो सकता है। टीचर में यह क्षमता होनी चाहिए कि वह उनके बर्ताव को बदल सके। हां, यदि टीचर छात्रों को बदलने के लिहाज से समुचित रूप से प्रशिक्षित न हो और बच्चा बहुत उद्दंड और बिगड़ैल हो तो टीचर ज्यादा से ज्यादा यही करे कि उस बच्चे को उसके माता-पिता या कानून अनुपालकों को सौंप दे। लेकिन न तो हमारे स्कूल जेल हैं, न बच्चे मुजरिम और न ही टीचर खुद पुलिस है जिसे बच्चों को शारीरिक रूप से दंडित करने का कोई कानूनी अधिकार दिया गया हो।

अच्छा टीचर वही है, जो मानता हो कि उसका काम शिक्षा के जरिए बच्चों को बेहतर इंसान बनाना है। वह मानता हो कि उसका काम बच्चों को यह भरोसा दिलाना है कि वे क्लास के अंदर जो भी सीखेंगे, उससे उनका जीवन बदलेगा और वे बेहतर इंसान बनेंगे। बच्चों के व्यक्तित्व को निखारने के लिए स्रेह और कोमल स्पर्श की आवश्यकता होती है। उन्हे डांटकर या अपमानित करके गलती करने का एहसास नहीं कराया जा सकता। कड़ी या अपमानजनक सजा देने के बजाय उन्हे सुधारने के इंटेलिजेंट और क्रिएटिव तरीके अपनाएं जाने चाहिए जिससे बच्चे सही और गलत के वास्तविक अंतर को समझ पाएं।