सोमवार, 4 मई 2009


खुशी का नेचर


अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
प्रकृति सिर्फ हमारे स्वास्थ्य का ख्याल रखती है, बल्कि वह हमारी नैसर्गिक खुशी का कारण भी बनती है। बावजूद हम प्रकृति को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। वनों को नष्ट कर रहे हैं और ऐसी तमाम वन्य प्रजातियों को विलुप्त होने की कगार पर धकेल चुके हैं, जो किसी किसी रंग-रूप में हमें खुश होने का बहाना देती हैं। खुशी कारसप्रकृति से ही उपजता है? महसूस करिए खुशी और प्रकृति के अटूट रिश्ते की बुनावट...

यह स्वार्थपूर्ण मामला भी हो सकता है, लेकिन हमें स्वयं के लिए प्रकृति की देखभाल करने की आवश्यकता है। हमने अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए भव्य भवनों का निर्माण कर लिया है; टेलीविजन; कार-बसें; हवाई जहाज और ऐसी हजारों चीजें बना ली हैं, जो हमें ‘आडंबरी खुशी और झूठा सुख’ प्रदान करती हैं। इन सब चीजों के बीच भी हमें अगर कहीं से सच्ची खुशी’ मिलती है, तो वो सिर्फ प्राकृतिक चीजों जैसे-पेड़-पौधे; फूल-पत्तियों; पशु-पक्षियों; प्राकृतिक रंग, प्रदूषणमुक्त वायु आदि से। हम विज्ञान और तकनीक में काफी आगे निकल चुके हैं, लेकिन इन सब ‘माडर्न प्रोडक्ट्स’ के निर्माण की प्रेरणास्त्रोत और सामग्री प्रदाता प्रकृति ही तो है! कैसे? हम अपने घरों में लकड़ियों के दरवाजे; खिड़कियां ही लगवाना क्यों पसंद करते हैं? वो भी तब, जब स्टील और लोहा लकड़ी से सस्ता मिलता है? इसका जवाब यह है कि लकड़ी से हमारा पीढ़ियों का रिश्ता जुड़ा हुआ है। लकड़ी हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा है। यह भी नैसर्गिक खुशी की एक वजह है। हमारा घर कितना भी छोटा क्यों न हो; उसमें फूल-पौधों के गमले लगाने का भरसक प्रयास करते हैं। इसके लिए थोड़ी-सी ही सही, लेकिन जगह निकाल ही लेते हैं। क्योंकि इससे हमें सच्ची खुशी मिलती है।

एक उदाहरण
आप कुछ दिन ऐसे माहौल में रहिए, जहां भौतिक सुख-सुविधाओं की तनिक भी कमी न हो। बड़ा-सा बेडरूम हो, खूबसूरत ड्राइंगरूम हो, खाने के लिए महंगी क्राकरी हो, सोने के लिए मुलायम गद्दे, मनपसंद फिल्मों की सीडीज यानी आपके पास हर वो चीज हो; जिसकी आपने कभी ख्वाहिश की हो। इसके बाद आप किसी जंगल में चले जाइए। वहां इस तरह की कोई भी आधुनिक चीज न हो। आपको घास-फूंस पर सोना पड़े, फल खाकर दिन गुजारना पड़े, नहाने के लिए साबुन के बजाय मिट्टी का इस्तेमाल करना पड़े, कहने का तात्पर्य आपको वैसा जीवन गुजारना पड़े; जैसा हमारे वंशज जीते थे।
दोनों परिस्थितियों के बाद खुद निष्कर्ष निकालना कि आपको आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं से सच्ची खुशी मिली या नैसर्गिक माहौल से। हम जब भी कहीं सैर-सपाटे का कार्यक्रम बनाते हैं, तो अपनी प्राथमिकताओं में ‘नेचुरल ब्यूटी प्लेस’ को ही क्यों शामिल करते हैं? क्योंकि वहीं हमें सच्ची खुशी मिलती है।

रिश्ते की बुनियाद
प्रकृति और हमारा रिश्ता कोई नया नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि पेड़-पौधे; वनस्पतियों और वन्य जीवों के बगैर हम जिंदा रह ही नहीं सकते। एक ख्याली पुलाव पकाइए?
100-200 साल बाद हमारे आसपास जीव-जंतु और वन्य संपदा नहीं होगी; होगी तो सिर्फ तकनीक और आधुनिक संसाधन, क्या वैसे अप्राकृतिक माहौल में हम दिल से खुशी महसूस कर पाएंगे? हमारे घरों में गमले नहीं होंगे, दरवाजों और खिड़कियों पर लकड़ियों की चौखटें/पलड़े नहीं होंगे, वातावरण में शुद्ध हवा का अभाव होगा, ऐेसे में हम कितने दिन जी पाएंगे; वो भी सच्ची खुशी के बगैर? वास्तविकता तो यह है कि यह स्वप्न ही हमारी रूह कंपाने के लिए बहुत है।
करीब 25 साल पहले हार्वर्ड विज्ञानी ईओ विल्सन ने ‘वायोफीलिया’ नामक अपनी परिकल्पना में दो टूक कहा
था-‘हम प्रकृति की मौजूदगी में ही पलते-बढ़ते हैं। उसकी अनुपस्थिति हमें पीड़ित कर देती है।’ विल्सन के मुताबिक,‘प्रकृति से निकटता हमें आध्यात्मिक और मानसिक खुशी प्रदान करती है।’ तमाम शोधों से खुलासा हो चुका है कि वे मरीज बहुत जल्द स्वस्थ होते हैं, अस्पताल में जिनके बिस्तर खिड़कियों के पास लगे रहते हैं। दरअसल, खिड़कियों से अंदर झांकती प्रकृति हमारे जीवन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है। जंगलों में रहने वाले व्यक्तियों में मानसिक तनाव जैसी बीमारी बहुत कम देखने को मिलेंगी; क्योंकि प्रकृति का सामीप्य उनके इर्द-गिर्द नकारात्मक ऊर्जा पैदा होने से रोकता है। अमेरिकन लेखक रिचर्ड लाव तर्क देते हैं-‘आधुनिक समाज में रहने वाले बच्चे ‘नेचर-डेफिसिट डिस्आर्डर-(प्रकृति की कमी से उत्पन्न विकार)’ का शिकार हो जाते हैं; क्योंकि वे मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से प्राकृतिक संसार से वंचित होते हैं।’

इसलिए करें फिक्र
...तो प्रकृति का संरक्षण हमारे लिए कितना हितकर है, यह बात तो समझ में आ गई होगी, लेकिन हम क्या करें? यह सवाल जरूर दिमाग में कौंधने लगा होगा। यहां एक उदाहरण दिया जा सकता है। हम वाहनों में पेट्रोल-डीजल जैसे ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। हममें से कइयों की आदत होती है कि रेड सिग्नल पर भी वाहन बंद नहीं करते। वाहनों की समय पर सर्विस नहीं कराते। हमारे वाहन धुआं उगलते रहते हैं; प्रदूषण फैलाते रहते हैं और हम चुप बने रहते हैं। हमारी यह आदत प्रकृति से दोस्ती नहीं, दुश्मनी निभाने का एक जरिया बन रही है। क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चे खिलौने के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्राथमिकता क्यों देते हैं? रोबोट और वीडियो गेम जैसे तकनीकी गेम्स उन्हें ‘परम आनंद’ क्यों नहीं दे पाते? बच्चे चिड़ियाघर का नाम सुनते ही क्यों चहकने लगते हैं? हम भी जब अपने घरों में पेंटिंग्स, पोस्टर आदि लगाते हैं, तो सबसे पहले हमारे विचार प्रकृति की ओर चले जाते हैं। यह सब उस बात का संकेत हैं कि ‘असली खुशी-सच्ची खुशी’ हमें प्रकृति की निकटता से ही मिल सकती है।

प्रकृति से निकटता
प्राकृतिक चीजों और जीवों का सामीप्य पाने को हम सदैव उल्लासित/बैचेन रहते हैं। प्रकृति को अपनी कला, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान आदि में समेटने की भूख हमारे भीतर हमेशा मौजूद रहती है। दार्शनिक डेनिस ड्यूटन ने अपनी पुस्तक ‘द आर्ट इंस्टिंक्ट’ में प्रकृति और मानव के अटूट रिश्तों की कई कड़ियां खोली हैं। उनका मानना है कि लोगों को महासागरों, पहाड़ों और वृक्षों के करीब रहना अधिक भाता है। हम अत्याधुनिक होने की आस में प्रकृति पर कितनी भी चोट करें, उसे नजरअंदाज करें; नष्ट करें, लेकिन हमारे मन-मस्तिष्क में प्रकृति से जुड़े रहने की तड़प सदैव बनी रहती है। डिस्कवरी चैनल पर प्रकृति से जुड़े विषयों के कार्यक्रम सबसे अधिक पसंद किए जाते हैं, तो उसकी वजह केवल यह है कि हम उसका सामीप्य पाकर खुशी महसूस करते हैं। हम जब भी किसी बीमार को देखने जाते हैं, तो उसके लिए फूल ले जाना नहीं भूलते; क्योंकि फूलों की नैसर्गिक खुशबू, रंग और बुनावट जीने का माद्दा पैदा करती है। दवाइयों; दर्द भरी कराहों और नीरस वातावरण में फूलों का गुलदस्ता मरीज को भीतर से अपने जीवन के प्रति आनंदित और उद्देलित कर देता है।

पंख होते तो...
नि:संदेह अगर हमारे भी पंख होते; तो हम उड़ते हुए प्रकृति के विविध रंग-रूपों और रसों को आत्मसात कर पाते। पंख न भी सही, लेकिन पक्षियों के माध्यम से हम अपनी खुशियों को पंख तो लगा ही सकते हैं। पक्षी प्रकृति की एक ऐसी रचना हैं, जिनकी निकटता हमारे भीतर के अवसाद को खींच निकालती है। इसलिए अगर हम सच्ची खुशी की तलाश में हैं, तो एक माध्यम पक्षियों के बसेरे के रूप में भी हमें मिल सकता है। कहने का मतलब हम अपने घरों में पक्षियों के लिए घर बना सकते हैं। अलग-अलग तरह के पक्षी अलग-अलग आकार के बर्ड हाउस की तरफ आकर्षित होते हैं। इसलिए हमें उनका घर बनाने से पहले उनकी आदतों के बारे में थोड़ी-बहुत मालूमात हासिल कर लेना चाहिए। अगर आपके घर में पेड़ है, तो बर्ड हाउस बनाने के लिए इससे बेहतर जगह और कोई हो ही नहीं सकती। बर्ड हाउस जमीन से कम से कम पांच फीट ऊंचा रखें, ताकि पक्षियों को फ्रेंडली माहौल मिले और वे निडर होकर इसका इस्तेमाल कर सकें। घर में अगर जगह हो तो फलदार पेड़-पौधे लगाएं। अगर आप वाकई दिल से प्रकृति को सहेजने-संवारने का संकल्प ले चुके हैं, तो यकीन मानिए; आपके बर्ड हाउस में पक्षी बसेरा अवश्य करेंगे।

प्रकृति स्वयं ईश्वर नहीं होती, लेकिन यह ईश्वर के होने का प्रमाण है।
जेम्स हेनरी हंट
(अमेरिकी कवि और लेखक)

प्रकृति के साथ एक हो जाओ
‘रात तारों की झिलमिलाहट को देखो! उसके साथ खिलखिलाओ। हिलो-मिलो! तुम भी तारे हो जाओ तारों के साथ। पानी की लहरों में झांको। लहर बन जाओ। हवा का झोंका आया, हवा हो जाओ। हरे वृक्ष के पास खड़े होकर हरे हो जाओ। फूल के पास फूल हो जाओ। ऐसे तल्लीन हो जाओ प्रकृति में और तुम सत्य को पा लोगे, क्योंकि वह सब तरफ मौजूद है। फिर तो तुम्हे याद अपने आप आने लगेगी। फिर तो तुम्हारी पहचान गहराने लगेगी।’
ओशो
का सोवे दिन रैन-पुस्तक से
एक अनुभव


‘पशु-पक्षियों, फूलों, पेड़-पौधों और अन्य प्राकृतिक चीजों के रूप में प्रकृति हमें हमारे जीवित होने का अहसास कराती है। इसके अलावा हमें यह भी आभास दिलाती है कि हम जीव-जगत की विधिताओं में विशिष्ट स्थान रखते हैं। यही विशिष्टता हमारे अंदर प्रकृति और जीव-जंतुओं के प्रति आदर का भाव पैदा करती है। कुछ साल पहले मैं भारतीय अभियान दल के साथ दक्षिणी धु्रव की यात्रा पर गया था। बर्फ से ढके धरती के इस टुकड़े पर घास का एक तिनका तक नहीं उगता। वहां जाकर महसूस हुआ कि प्रकृति मतलब पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के बगैर जीवन कैसे नीरस और निर्जीव हो जाता है।’
विनय मिश्रा (मनोवैज्ञानिक)

कविता
खुशी की लगी बोली।
हर किसी को चाहिए थीं खुशियां।
खरीदने वालों का तांता लगा था,
आगे-पीछे के चक्कर में
हाथापाई भी हुई,
गाली-गलौज भी।
घर-गोदाम भर लिए
खुशियों के।
कहीं चोरी न हो जाए
इसलिए पहरेदार लगाए गए।
चिंता में रातें गुजार दीं।
कुल मिलाकर वक्त के साथ
खुशियां दर्द बनकर रह गर्इं।
जो बेघर, बे-गोदाम थे,
जो खुशियां नहीं खरीद पाए थे
वे खुश थे, क्योंकि उन्होंने
खुशियों को खरीदने का
साहस नहीं किया था।
लोकेन्द्रसिंह कोट

(यह लेख पीपुल्स समाचार, भोपाल की रविवारीय पत्रिका में छपा है )

शनिवार, 2 मई 2009

ऐसे करें रत्नों की परख


अनमोल रतन

राहुल चंद्रवंशी

मान लीजिए आपको एक पुखराज खरीदना है। आप क्या करेंगे? आप कहेंगे यह तो बेतुका सा प्रश्न है, सीधी सी बात है। दुकान जाकर पुखराज देखेंगे, जो पसंद आएगा उसे खरीद लेंगे। जनाब आपको यह कौन बताएगा कि आपने जो पुखराज खरीदा है, वह वाकई में पुखराज है या नहीं? दरअसल आम आदमी को यह पता नहीं होता कि रत्न की पहचान क्या है। बाजार में लगभग सभी रत्नों के उपरत्न भी उपलब्ध हैं और नकली रत्न भी उपलब्ध हैं। ऐसे में असली रत्न की पहचान के लिए विशेषज्ञ की सलाह लेनी चाहिए।

रत्नों का अपना एक अद्भुत संसार है। बाजार में रंग-बिरंगे रत्न देखने को मिलते हैं और लोग इनसे आकर्षित होकर खरीदते हैं और पहनते हैं। कई लोग महज शौक की खातिर रत्न पहनते हैं, तो कुछ लोग ज्योतिषी के कहे अनुसार रत्न धारण करते हैं। दूर से खूबसूरत नजर आने वाले जेमस्टोन के अंदर झांकने पर एक अलग ही दुनिया दिखाई देती है। आम आदमी इससे अनजान होता है,लेकिन इस अनोखी दुनिया का लुत्फ रत्न विशेषज्ञ (जेमोलॉजिस्ट) उठाता है। आइए जानें रत्नों के इस अद्भुत संसार के बारे में।
एक जेमस्टोन या रत्न दरअसल आकर्षक खनिज का एक टुकड़ा होता है। खनिज का टुकड़ा अर्थात अकार्बनिक पदार्थ। काटने और पॉलिश करने के बाद यह आभूषण आदि बनाने के काम में आता है। हालांकि कुछ रत्न जैसे मोती, अंबर, मूंगा आदि खनिज नहीं होते। इनका उपयोग भी आभूषणों में किया जाता है। इन्हें आॅर्गेनिक (कार्बनिक) जेमस्टोन कहते हैं। जेमस्टोन सख्त और मुलायम दोनों तरह के होते हैं। उनके कड़ेपन की वजह से ही उनमें चमक होती है और चमक के आधार पर उनकी कीमत तय की जाती है। सामान्यतौर पर लोगों को नौ रत्नों के बारे में पता होता है, लेकिन हकीकत यह है कि इस संसार में जेमस्टोन की अब दो हजार से भी अधिक
वैरायटी मौजूद हैं।

इस तरह होती है पहचान
जेमस्टोन को उनकी रिफ्रेक्टिव इंडेक्स, स्पेसिफिक ग्रैविटी, हार्डनेस, क्लीवेज, लस्टर, प्लियोक्रोइज्म, स्पेक्ट्रम, चेल्सिया फिल्टर आदि की सहायता से पहचाना जाता है। यह पूरी तरह से वैज्ञानिक विधि है। जेमोलॉजिस्ट उपकरणों की मदद से जेमस्टोन की इन बातों का पता लगाता है। किसी भी जेम टेस्टिंग लैबोरेटरी में रत्न परीक्षण करवाने पर लैब द्वारा दिए जाने वाले प्रमाणपत्र में इन फीचर्स का जिक्र किया जाता है।

रिफ्रेक्टिव इंडेक्स (अपवर्तनांक)
हम सभी ने कक्षा दसवीं में कांच की सिल्ली और प्रिज्म का अपवर्तनांक स्नेल्स लॉ की मदद से निकाला है, जिसमें कांच का अपवर्तनांक 1.5 आता था। इसी प्रकार प्रत्येक जेमस्टोन का रिफ्रेक्टिव इंडेक्स (आरआई) होता है। मसलन माणिक और नीलम का 1.76 और पुखराज का आरआई 1.62 होता है। आरआई पता लगाने के लिए रिफ्रेक्टोमीटर का उपयोग किया जाता है।

स्पेसिफिक ग्रैविटी
हर जेमस्टोन की अपनी स्पेसिफिक ग्रैविटी (एसजी या विशिष्ट गुरुत्व या घनत्व) होता है। इसे जेमस्टोन के वायु में वजन को जेमस्टोन के पानी में कम हुए वजन से भाग देकर लगाया जाता है। इसके अलावा कुछ तरल पदार्थों का उपयोग भी जेमस्टोन की एसजी मालूम करने में किया जाता है। इनसे जेमस्टोन की एसजी की रेंज पता चलती है। उदाहरण के लिए हीरे की एसजी 3.51 है, कोरंडम की 3.96-4.05 होती है।

जेमस्टोन में दाग-धब्बे और दरार
जेमस्टोन की भीतरी जांच करने के लिए माइक्रोस्कोप से उसका परीक्षण किया जाता है। इससे उसमें मौजूद दाग-धब्बों या रेशों की जानकारी मिलती है। इन्हें नेचुरल इन्क्लूजंस कहा जाता है। गौरतलब है कि नेचुरल जेमस्टोन में कुछ न कुछ नेचुरल इन्क्लूजंस पाए ही जाते हैं। अलबत्ता ये इनके परीक्षण में सहायक होते हैं। जैसे माणिक, नीलम और पुखराज में रेशे जैसी धारियां दिखती हैं। पन्ना में दरार (क्रैक्स) दिखाई देते हैं और काले रंग के धब्बे दिखते हैं। इसी प्रकार पेरीडॉट में लिलीपैड मिलते हैं। मजे की बात यह है कि इन इन्क्लूजंस की मदद से जेमोलॉजिस्ट यह तक बता पाने में सक्षम होते हैं कि यह जेमस्टोन कौन सी माइन से निकला है।
इनके अलावा स्पेट्रोमीटर से जेमस्टोन का स्पेक्ट्रम पता लगाया जाता है। डायक्रोमीटर से उसके प्लूयोक्रोइक होने का पता चलता है। कुल मिलाकर किसी भी जेमस्टोन की जांच करने के लिए इन उपकरणों की मदद लेनी पड़ती है, तभी जांच पूरी मानी जाती है और उस जेमस्टोन के बारे में प्रमाणपत्र दिया जा सकता है।

असली और नकली जेमस्टोन
आमतौर पर लोग असली या नकली जेमस्टोन की बात करते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से इन्हें नेचुरल, सिंथेटिक या ट्रीटेड जेमस्टोन कहते हैं। जेमस्टोन को खदान से निकालने के बाद तराशा जाता है और बाजार में बेचा जाता है। ऐसे स्टोन असली या नेचुरल जेमस्टोन कहलाते हैं, जो प्राकृतिक रूप से मिलते हैं। हर जेमस्टोन का रासायनिक संगठन होता है। उन पदार्थों को मिलाकर नियत दाब और तापमान पर गर्म करके कृत्रिम विधि से भी जेमस्टोन बनाए जाते हैं। इन्हें सिंथेटिक जेमस्टोन कहते हैं। इसका आशय यह हुआ कि सिंथेटिक जेमस्टोन का रासायनिक संगठन भी वहीं रहता है, जो नेचुरल जेमस्टोन का होता है।
इनके अलावा नेचुरल जेमस्टोन को आकर्षक बनाने के लिए उनमें कुछ ट्रीटमेंट किया जाता है। ऐसे स्टोंस को ट्रीटेड स्टोन कहते हैं। यानी कि ये नेचुरल तो होते हैं पर इनके साथ कुछ छेड़खानी की गई होती है। ट्रीटमेंट कुछ इस प्रकार हैं-

कलर और कलरलेस इंप्रैगनेशन
नेचुरल जेमस्टोन में क्रैक्स पाए जाते हैं। इन क्रैक्स में तेल भर दिया जाता है। यदि रंगीन जेम है तो रंगीन तेल और पारदर्शी जेम है, तो कलरलेस तेल का इस्तेमाल किया जाता है। इससे जेमस्टोन की खूबसूरती बढ़ जाती है। जाहिर है इससे उसकी कीमत में भी इजाफा होता है। उल्लेखनीय है कि यह तेल स्टोन में ज्यादा समय तक टिकता नहीं है। ग्राहक द्वारा खरीदने के बाद अंगूठी आदि में जेमस्टोन जड़वा लिया जाता है। अब रोजमर्रा के कामकाज में धीरे-धीरे वह तेल निकल जाता है और स्टोन का रंग फीका पड़ जाता है और उसके क्रैक्स स्पष्ट दिखने लगते हैं। इसे देखकर अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि आपके ऊपर विपत्ति आने वाली थी, जिसे स्टोन ने रोक दिया। है न मजेदार बात?

हीट ट्रीटमेंट
कुछ जेमस्टोन को निश्चित तापमान पर गर्म किया जाता है, जिससे उनकी सुंदरता बढ़ ताजी है और उनमें मौजूद इंप्योरिटीज भी दूर हो जाती हैं। ऐसे जेमस्टोन को हीट ट्रीटेड स्टोन कहते हैं। यह ट्रीटमेंट माणिक और नीलम में अकसर किया जाता है।

रेडिएशन
हीट ट्रीटमेंट के समान ही कुछ जेमस्टोन को रेडिएट कर खूबसूरत बनाया जाता है। ऐसे जेमस्टोन रेडिएटेड जेमस्टोन कहलाते हैं। पुखराज में यह ट्रीटमेंट किया जाता है।

कंपोजिट जेमस्टोन
दो स्टोन को मिलाकर एक जेमस्टोन बना दिया जाता है। ऐसे स्टोन कंपोजिट स्टोन कहलाते हैं। इन्हें पहचानना बेहद जटिल कार्य होता है।

कोटिंग
एक जेमस्टोन पर किसी दूसरे जेमस्टोन की परत चढ़ा दी जाती है। इस ट्रीटमेंट को कोटिंग कहते हैं और ऐसे जेमस्टोन को कोटेड स्टोन कहते हैं। इन्हें भी पहचानना काफी मुश्किल होता है, क्योंकि रिफ्रेक्टोमीटर इसकी आरआई वही बताएगा जिसकी कोटिंग है, जबकि असल में अंदर स्टोन कुछ ओर ही होता है। हार्डनेस और एसजी टेस्ट से इसकी पहचान सुनिश्चित की जाती है।

इमिटेशन :
इमिटेशन दरअसल नकली स्टोन होता है। यह उस जेमस्टोन जैसा दिखता तो है, पर इसका रासायनिक संगठन सहित सबकुछ भिन्न होता है। आमतौर पर कांच द्वारा इमिटेशन बनाए जाते हैं। ये भी बाजार में धड़ल्ले से बिकते हैं और चूंकि लोगों को इनकी जानकारी नहीं होती; इसलिए वे इन्हें असली स्टोन की कीमत में भी खरीद लेते हैं। जबकि वास्तव में वे ठगे जाते हैं।

रत्नों के उपरत्न
लगभग सभी प्रेशीयस जेमस्टोन के उपरत्न भी बाजार में मौजूद हैं। व्यक्ति के खरीदने की सामर्थ्य के अनुरूप उसे बताया जाता है कि वह क्या धारण करें। मसलन किसी की कुंडली के हिसाब से उसे हीरा पहनना चाहिए, लेकिन चूंकि हीरा काफी महंगा होता है इसलिए उसे उसके उपरत्न बता दिए जाते हैं। जैसे जरकन, तुरमली या फिर अमेरिकन डायमंड। ये डायमंड की अपेक्षा काफी सस्ते आते हैं। इसके अलावा पुखराज के लिए सुनैला, नीलम के लिए कटैला आदि उपरत्न धारण करने की सलाह दी जाती है। स्पीनल और हकीक ऐसे जेमस्टोन हैं, जो लगभग सभी रंगों में पाए जाते हैं। इसलिए इनका उपयोग किसी भी जेमस्टोन के उपरत्न के बदले में किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि रत्न और उनके उपरत्न का रासायनिक संगठन बिल्कुल भिन्न होता है, लेकिन फिर भी उनका इस्तेमाल बतौर उपरत्न किया जाता है।

लक्षण और वर्गीकरण
जेमस्टोन की पहचान जेमोलॉजिस्ट करता है। जेमोलॉजिस्ट तकनीकी उपकरणों की मदद से स्टोन के लक्षणों की विवेचना करता है। जेमोलॉजिस्ट उस रत्न के रासायनिक संगठन का पता लगाने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिए हीरा (डायमंड) विशुद्ध रूप से कार्बन से बना होता है। इसी प्रकार माणिक और नीलम एल्यूमिनियम ऑक्साइड होता है। इसके अलावा अधिकांश जेम्स क्रिस्टल रूप में होते हैं और इन्हें उनके क्रिस्टल सिस्टम के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। क्रिस्टल सिस्टम सात प्रकार के होते हैं-
1. क्यूबिक
2. टेट्रागोनल
3. हेक्सा गोनल
4. ट्राय क्लीनिक
5. मोनो क्लीनिक
6. आर्थोरोहोम्बिक
7.
आर्थोहेडरल

गौरतलब है कि सभी जेमस्टोंस खदान से निकाले जाते हैं। उस वक्त वे रफ फॉर्म में होते हैं। जेमस्टोन की रफ को उनके क्रिस्टल सिस्टम के आधार पर ही पहचाना जाता है।

जेमस्टोन की वैरायटी
बाजार में मुख्य रूप से प्रेशियस और सेमी पे्रशियस जेमस्टोन की दो श्रेणियां पाई जाती हैं, जिनसे दुकानदार और ग्राहक दोनों ही परिचित होते हैं। जाहिर है प्रेशियस जेमस्टोन यानी महंगे रत्न; जिनमें हीरा, माणिक, नीलम, पन्ना, पुखराज, मोती आदि आते हैं। शेष सेमी पे्रशियस की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी रूप से जेमस्टोन को अलग-अगल वर्ग, स्पेशीज और वैरायटी में बांटा गया है। उदाहरण के लिए माणिक और नीलम कोरंडम की वैरायटी हैं और कोरंडम एक स्पेशीज है। सरल शब्दों में कहें तो माणिक और नीलम आपस में भाई-बहन हैं और कोरंडम उनकी मां है। इसी तरह बेरल एक स्पेशीज है और पन्ना, एक्वामरीन, मॉर्गेनाइट आदि इसकी वैरायटी हैं।

हार्डनेस
प्रत्येक जेमस्टोन की हार्डनेस (कठोरता) अलग-अलग होती है। हार्डनेस की माप मोह्ज स्कैल द्वारा की जाती है। मोह्ज स्कैल एक तुलनात्मक (रिलेटिव) स्कैल है। अर्थात यह आम उपयोग में लाए जाने वाले स्कैलों की तरह रेखीय (लीनियर) स्कैल नहीं है। इस स्कैल में एक से दस तक अलग-अलग हार्डनेस विभाजित की गई है। इसमें नंबर एक पर टैल्क है और नंबर दस पर डायमंड। यानी टैल्क की हार्डनेस एक होती है और हीरे की दस। सभी जेमस्टोन की हार्डनेस इनके बीच में होती है। मोह्ज स्कैल में विभिन्न जेम मटीरियल की हार्डनेस इस प्रकार है-

1
. टैल्क
2. जिप्सम
3. कैल्साइट
4. फ्लोराइट
5. एपेटाइट
6. आर्थोक्लेज फेल्सपार
7. क्वार्ट्ज
8. टोपाज
9. कोरंडम
10. डायमंड


मोह्ज स्कैल का आविष्कार 1812 में जर्मन मिनेरोलॉजिस्ट फ्रेडरिक मोह्ज ने किया था। इसके लिए उन्होंने दस खनिजों का चुनाव किया; क्योंकि ये दस खनिज आसानी से उपलब्ध हैं। किसी भी जेमस्टोन की हार्डनेस पता लगाने के लिए मोह्ज स्कैल का इस्तेमाल किया जाता है। उपरोक्त जेम स्टोन की पेंसिलों की सहायता से जेमस्टोनक पर खरोंच कर देखा जाता है और उसकी हार्डनेस पता लगाई जाती है। डायमंड की हार्डनेस सर्वाधिक होने के कारण इसका उपयोग जेमस्टोन कटिंग में किया जाता है।

जेमस्टोन की कीमत
बाजार में जेमस्टोन सस्ते से सस्ते और महंगे से महंगे उपलब्ध हैं। रंगीन जेमस्टोन की ग्रेडिंग के लिए कोई यूनीवर्सल सिस्टम नहीं है। केवल कलरलेस डायमंड के लिए जेमोलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ़ अमेरिका (जीआईए) ने 1950 में ग्रेडिंग सिस्टम विकसित किया है। इसके अलावा सभी जेमस्टोन की खूबसूरती, आकर्षक कटिंग और उसकी चमक उसे महंगा बनाती है और इसी के आधार पर उनकी कीमत का निर्धारण किया जाता है। डायमंड की कीमत 4Cs के आधार पर तय की जाती है। 4Cs अर्थात-कट, कलर, क्लेरिटी और कैरेट्स। डायमंड अलग-अलग कट में मिलते हैं। सबसे ज्यादा प्रचलित लोटस कट है, जो आमतौर पर देखा जाता है। डायमंड की कटिंग, उसमें कलर तो नहीं है, उसमें शुद्धता कितनी है और उसका वजन कितना है। इन चारों बिंदुओं के मुताबिक डायमंड की कीमत कम या ज्यादा होती है।
(लेखक रत्न विशेषज्ञ हैं)
संपर्क करें-rahul2206@yahoo.com