बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

स्त्री का चरित्र और अविनाश का पतन?

उस आदमी को मैंने पहली बार इतना विचलित और घनघोर चिंतन में डूबे देखा। जो व्यक्ति असीम सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ हो, उसके माथे पर अपने परिवार और भविष्य को लेकर संशय की सलवटें देखना मन द्रवित कर देने वाला क्षण था।
कितना सरल है, किसी की लोकलाज को बीच चौराहे नंगा कर देना?जब महाभारत में कौरव द्रोपदी का चीरहरण कर रहे थे, तब श्रीकृष्ण बतौर संरक्षक अवतरित हुए थे- यहां पत्रकारिताई महाभारत में कई सौ कौरव हैं, ऐसे कौरव जिनके पिता अंधे ही नहीं, गूंगे और बहरे भी हैं।...और ‘माताएं’ इन कौरवों के कुकृत्यों पर गौरवान्वित महसूस करती हैं। यहां, लाज श्रीकृष्ण को भी बचानी पड़ती है? पत्रकारिता के कौरवों से निपटना अब पांडवों के वश में कहां रहा? खासकर तब, जब दुनिया को गीता-सरीखा संदेश देने वाले संपादकरूपी कृष्ण खुद असहाय हों।....और जाने-अनजाने उन्हें कठपुतली की भांति नाचना पड़ रहा हो। अविनाश दास पर आरोप है कि उन्होंने पत्रकारिता की एक छात्रा से छेड़छाड़ की। सच क्या है? इसे जानने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं हैं, उन्हें सिर्फ जुगाली में आनंद की प्राप्ति हो रही है। सब जानवरों-सरीखे बर्ताव पर औतारू हैं, जिन्हें हर आदमी दरिंदा और बदमाश दिखाई देता है और वे अपने सींगों से उसे दंडित कर देना चाहते हैं। इन जानवरों को इसमें कोई रुचि नहीं कि सामने वाला शख्स निर्दोष है या वाकई पापी-दोषी।
यह स्त्री पर ’पुरुषार्थ’ हावी हो जाने-सरीखा है, जिसने अपनी इज्जत को दांव पर खेला है, ताकि उसके दंभ-प्रसंग-प्रपंच और प्रयोजन को सफलता हासिल हो चुके। इज्जत दांव पर लगाकर, किसी की इज्जत उतारना! यह ठीक वैसा ही खेल है, जिसमें किसी एक की मौत तय है। त्रिया चरित्र को जब ईश्वर नहीं जान सके, तो उस जांच कमेटी की क्या बिसात, जो झूठ में सच निचोड़ने का प्रयास कर रही है।...और अगर सच-झूठ का खुलासा हो भी गया, तो क्या दोषी को सजा मिल पाएगी? सवाल कई हैं, लेकिन अभी सच यह है कि इस ‘खेल’ के पीछे कइयों के खेल चल रहे हैं। डीबीस्टार(दैनिक भास्कर भोपाल का टेबलाइड न्यूज पेपर) में रहते हुए अविनाशजी ने कइयों की कलई खोली है, तो उनकी लंगोट खुलना तो निश्चय था।कहने को तो सिर्फ दो शब्दों का ही तो नाम है-अविनाश दास!...लेकिन इस साधारण से नाम को नामचीन बनने में कितनी ऊर्जा क्षय हुई होगी, उसका विश्लेषण भला कौन करना चाहेगा? हां, पत्रकारिताई जमात इसमें रुचि अवश्य ले रहा है कि अविनाश कितने छिछौरे हैं? मैंने कल रात अविनाशजी को फोन लगाया। वे भारत भवन में परिवार सहित शायद नाटक देखने गए हुए थे। उन्होंने घर आने को कहा। अविनाशजी पिछले दो-तीन महीने से मुझे घर आने का निमंत्रण दे रहे थे, लेकिन जाने का संयोग ही नहीं बन पा रहा था।
कल रात जब मैं अपने एक मित्र प्रमोद त्रिवेदी (दैनिक समय जगत के समाचार संपादक) के साथ अंसल अपार्टमेंट स्थित उनके घर पहुंचा, तो मन बहुत व्याकुल था। यूं लग रहा था कि कहीं मैं रो न पड़ूं। अविनाशजी और हम इससे ठीक एक हफ्ते पहले चर्चित कवि कुमार अंबुज के घर पर मिले थे। अविनाशजी बेहद जिंदादिल इंसान हैं, इससे शायद ही कोई इनकार करे। एक ऐसे शख्स, जिनका हर बोल, सामनेवाले को सकारात्मक ऊर्जा से भर दे, उसके मन-मष्तिष्क को किसी अच्छे प्रयोजन के प्रति उद्देलित कर दे। उस आदमी की क्लांत-शांत देख कोई हैरानी तो नहीं हुई, लेकिन दु:खी कर देने वाला पल अवश्य था। अपनी गोद में सवा साल की बच्ची सुर को लेटाए शून्य-से बैठे अविनाशजी के मन की उथल-पुथल हम सिर्फ भांप सकते थे, लेकिन कोई भी किसी का दु:ख भोग नहीं सकता!
शिखर से शून्य पर आकर खड़े होना कितना तकलीफदेह होता है, यह वही समझ सकता है, जिसने इस पीड़ा को भोगा है। अविनाशजी बहुत जल्द भोपाल से विदा हो जाएंगे, लेकिन अपने पीछे छोड़ जाएंगे ढेरों प्रश्न? ऐसे सवाल जिनसे हमारा सरोकार होते हुए भी हम उनकी ओर से आंखें मूंदें रहेंगे? आखिर अब पत्रकारिता किस चिड़िया का नाम बचा है? ऐसा लेखन-जिसमें मक्खन-सी चिकनाहट हो और बर्ताव में कुत्ते-सी चाटुकारिता और गीदड़-सरीखी कायरता...या देश-समाज के हित में कुछ कर गुजरने का जोश-जज्जबा? अफसोस, दोनों ही किस्म की पत्रकारिता में इज्जत दांव पर लगानी पड़ती है-फर्क इतना है, पहले में कोई इज्जत नहीं रहती और दूजे में हर शब्द लिखते वक्त इज्जत बचाए रखने की फिक्र लगी रहती है।
बहरहाल, यदि अविनाश दास निर्दोष हैं, तो उनकी खोई प्रतिष्ठा कौन लौटाएगा? कौन कहेगा-हे स्त्री तुझे धिक्कार!...और अगर वे पापी हैं, तो उन्हें सजा अवश्य मिलनी चाहिए। अभी जरूरत सच और झूठ में दिलचस्पी लेने की है, ताकि भविष्य में इसकी घटनाएं दुहराई न जा सकें। हम इस घटना को सिर्फ एक खबर मानकर बिसरा नहीं सकते। जो साचा है, उसके पीछे हमें खड़ा होना ही पड़ेगा और जो दोषी है-उसे धिक्कारना ही होगा।
अमिताभ बुधौलिया ‘फरोग’
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अविनाशजी की बात जो उनके ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुई है...

क्‍या सचमुच एक झूठ से सब कुछ ख़त्‍म हो जाता है?
मुझ पर जो अशोभनीय लांछन लगे हैं, ये उनका जवाब नहीं है। इसलिए नहीं है, क्‍योंकि कोई जवाब चाह ही नहीं रहा है। दुख की कुछ क़तरने हैं, जिन्‍हें मैं अपने कुछ दोस्‍तों की सलाह पर आपके सामने रख रहा हूं - बस।मैं दुखी हूं। दुख का रिश्‍ता उन फफोलों से है, जो आपके मन में चाहे-अनचाहे उग आते हैं। इस वक्‍त सिर्फ मैं ये कह सकता हूं कि मैं निर्दोष हूं या सिर्फ वो लड़की, जिसने मुझ पर इतने संगीन आरोप लगाये। कठघरे में मैं हूं, इसलिए मेरे लिए ये कहना ज्‍यादा आसान होगा कि आरोप लगाने वाली लड़की के बारे में जितनी तफसील हमारे सामने है - वह उसे मोहरा साबित करते हैं और पारंपरिक शब्‍दावली में चरित्रहीन भी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं और अभी भी कथित पीड़‍िता की मन:स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।मैं दोषी हूं, तो मुझे सलाखों के पीछे होना चाहिए। पीट पीट कर मुझसे सच उगलवाया जाना चाहिए। या लड़की के आरोपों से मिलान करते हुए मुझसे क्रॉस क्‍वेश्‍चन किये जाने चाहिए। या फिर मेरी दलील के आधार पर उसके आरोपों की सच्‍चाई परखनी चाहिए। लेकिन अब किसी को कुछ नहीं चाहिए। कथित पी‍ड़‍िता को बस इतने भर से इंसाफ़ मिल गया कि डीबी स्‍टार का संपादन मेरे हाथों से निकल जाए।दुख इस बात का है कि अभी तक इस मामले में मुझे किसी ने भी तलब नहीं किया। न मुझसे कुछ भी पूछने की जरूरत समझी गयी। एक आरोप, जो हवा में उड़ रहा था और जिसकी चर्चा मेरे आस-पड़ोस के माहौल में घुली हुई थी - जिसकी भनक मिलने पर मैंने अपने प्रबंधन से इस बारे में बात करनी चाही। मैंने समय मांगा और जब मैंने अपनी बात रखी, वे मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे थे। बल्कि ऐसी मन:स्थिति में मेरे काम पर असर पड़ने की बात छेड़ने पर मुझे छुट्टी पर जाने के लिए कह दिया गया।ख़ैर, इस पूरे मामले में जिस कथित क‍मेटी और उसकी जांच रिपोर्ट की चर्चा आ रही है, उस कमेटी तक ने मुझसे मिलने की ज़हमत नहीं उठायी।मैं बेचैन हूं। आरोप इतना बड़ा है कि इस वक्‍त मन में हजारों किस्‍म के बवंडर उमड़ रहे हैं। लेकिन मेरे साथ मुझको जानने वाले जिस तरह से खड़े हैं, वे मुझे किसी भी आत्‍मघाती कदम से अब तक रोके हुए हैं। एक ब्‍लॉग पर विष्‍णु बैरागी ने लिखा, ‘इस कि‍स्‍से के पीछे ‘पैसा और पावर’ हो तो कोई ताज्‍जुब नहीं...’, और इसी किस्‍म के ढाढ़स बंधाने वाले फोन कॉल्‍स मेरा संबल, मेरी ताक़त बने हुए हैं।मैं जानता हूं, इस एक आरोप ने मेरा सब कुछ छीन लिया है - मुझसे मेरा सारा आत्‍मविश्‍वास। साथ ही कपटपूर्ण वातावरण और हर मुश्किल में अब तक बचायी हुई वो निश्‍छलता भी, जिसकी वजह से बिना कुछ सोचे हुए एक बीमार लड़की को छोड़ने मैं उसके घर तक चला गया।मैं शून्‍य की सतह पर खड़ा हूं और मुझे सब कुछ अब ज़ीरो से शुरू करना होगा। मेरी परीक्षा अब इसी में है कि अब तक के सफ़र और कथित क़ामयाबी से इकट्ठा हुए अहंकार को उतार कर मैं कैसे अपना नया सफ़र शुरू करूं। जिसको आरोपों का एक झोंका तिनके की तरह उड़ा दे, उसकी औक़ात कुछ भी नहीं। कुछ नहीं होने के इस एहसास से सफ़र की शुरुआत ज़्यादा आसान समझी जाती है। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरा नया सफ़र कितना कठिन होगा।एक नारीवादी होने के नाते इस प्रकरण में मेरी सहानुभूति स्‍त्री पक्ष के साथ है - इस वक्‍त मैं यही कह सकता हूं।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009


बचे-खुचे सब गांधीवादी...

कहते थे, मैं उड़ूं गगन में...
और काट लिए तुमने ही पर।

बेखौफ में रहता कैसे बताओ?
कुछ ज्यादा था अपनों से डर।

लगी बोझ जब मां को बिटिया...
करी विदा हाथ पीले कर।

न मिली नौकरी बाप ने झिड़का...
निकल निकम्मे, कुछ भी कर।

बचे-खुचे सब गांधीवादी...
क्यों नहीं जाते शर्म से मर।

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

ऐसे लोगों की गर्दन धड़ से उतारी जाए

फट चुकी जो तस्वीर दीवार से उतारी जाए...
नए फ्रेम में नई तस्वीर ही संवारी जाए।

चरणामृत देवता का पीने से करे मना...
ऐसे शख्स की अब आरती उतारी जाए।

फट चुका दूध इसमें जब-जब किया गरम...
बदमिजाज देगची ठीक से खंगारी जाए।

जीप, ट्रैक्टर, मोटरें जाएं तो जाएं खुशी से...
आदिवासी क्षेत्र में न रथ-घुड़सवारी जाए।

धर्म बेचें, न्याय बेचें और मरीजों की दवा...
ऐसे लोगों की गर्दन धड़ से उतारी जाए।

कंठमणि बुधौलिया

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009



वेलेंटाइन म्यूजिक:
भोपाल के सिद्धार्थ को करें वोट
यदि भोपालवासियों का साथ रहा तो वेलेंटाइन डे पर भोपाल के युवा संगीतकार सिद्धांत पाराशर का म्यूजिक नेशनल लेवल पर धूम मचाएगा। दरअसल सिद्धांत का चयन वेलेंटाइन म्यूजिक के लिए आयोजित नेशनल लेवल कांटेस्ट रिदम वेलेंटाइन के फाइनालिस्ट में हुआ है। अब कांटेस्ट के विजेता का चयन 13 फरवरी को ऑन लाइन वोटिंग के आधार पर किया जाएगा, जिसका रिजल्ट 14 फरवरी को घोषित होगा।
रिदम वेलेंटाइन कंपोजर को मंच देने वाला अपनी तरह का अनूठा कांपिटिशन है, जिसमें ऑन लाइन म्यूजिक के आधार पर विजेता का चयन किया जाता है। सिद्धार्थ का चयन इसके अंतिम 16 प्रतिभागियों में हुआ है। चयन का आधार इस प्रतियोगिता के लिए पूरे देश से लगभग 100 इंट्रीज आई थीं। इनमें से पहले चरण में 30 प्रतिभागियों की कंपोजिशन का चयन किया। इसके बाद ऑन लाईन प्रसिद्धि के आधार पर अंतिम 16 प्रतिभागियों का चयन हुआ, जिसमें सिद्धार्थ का सांग ना तड़पाओ शामिल है। अब अंतिम विजेता का चयन जजेस च्वाइज और वोटिंग के आधार पर होगा।
इस प्रतियोगिता के जज सॉरी भाई और एतबार जैसी फिल्मों के म्यूजिक डायरेक्टर गौरव दयाल हैं।
सिद्धार्थ के बारे में
सहारा ग्रुप की रैटिंग में टॉप 2 रैटिंग के साथ-साथ यंगेस्ट म्यूजिक कंपोजर का खिताब जीत चुके सिद्धार्थ बचपन से म्यूजिक कंपोज कर रहे हैं। मात्र 12 साल की उम्र में जतिन पंडित के निर्देशन में सिद्धार्थ का म्यूजिक एलबम लांच हुआ था। ख्यात सिंगर कविता कृष्णमूर्ति ने भी सिद्धार्थ की कंपोजिशन को आवाज दी है। उस वक्त सिद्धार्थ केवल 14 साल के थे। पिछले साल हुए मप्र बालरंग की इंट्रोडक्शन धुन भी सिद्धार्थ ने तैयार की है।
ऐसे करें वोट
सिद्धार्थ को इस प्रतियोगिता का विजेता बनाने के लिए http://www.tempostand.com/rv/ पर ऑनलाइन वोट किया जा सकता है। इस एड्रेस पर क्लिक करते ही टॉप फाइनलिस्ट की कंपोजिशन आ जाती हैं, इनमें से ना तड़पाओ को सिलेक्ट कर ऑनलाइन वोट किया जा सकता है। वोटिंग लाइन 13 फरवरी रात 12 बजे तक खुली हैं।


मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

'नवदुनिया' का 'क्रांतिकाल'

और पुष्पेंद्र सौलंकी के 'तेवर'

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
पिछले दिनों सामाजिक मुद्दों से जुडीं खबरों के सिलसिले में सागर रायसेन, विदिशा, सीहोर और बीना जाना हुआ। इस बार यह यात्रा संस्मरण इस मायने में भी कुछ खास हुआ, क्योंकि करीब पांच साल पहले जब मैं 'दैनिक भास्कर' के भोपाल संस्मरण में घूमंतू संवाददाता हुआ करता था, तब इन क्षेत्रों में सिर्फ दैनिक भास्कर की ही तूती बोला करती थी। मेरे कई मित्र इन शहरों और कस्बों में निवास करते हैं, लेकिन इस बार जब मैं सागर पहुंचा, तो उनके अखबार प्रेम में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिला। हम जब भी साथ बैठते-खाते या गपियाते तो मेरे एक मित्र दैनिक भास्कर का गुणगान-बखान करते थकते नहीं थे, लेकिन इस बार उनके घर नवदुनिया देखकर मैं मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका। मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में सवाल दागा-अरे! आपका पुराना अतिलोकप्रिय अखबार कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा? वो मेरे कहने का आशय समझ चुका था। उसने मुस्कुराते हुए दो टूक कहा-जो वक्त के साथ नहीं चलेगा, उसे तो पीछे होना ही पड़ता है। अगर कल मैं किसी दूसरे अखबार की तारीफ करता था, तो वो उस लायक था, वैसे ही आज 'नवदुनिया' मेरी कसौटी पर खरी उतर रही है। अकेले सागर ही क्यों, भोपाल और आसपास के नगरों और कस्बों में लोगों के घरों, चाय-नाश्ते की गुमठियों-ठेलों और दुकानों में नवदुनिया को भी भोपाल के एक बड़े अखबार के साथ बराबर की हैसियत के साथ पढ़ते देख मेरे जेहन में एक शख्स की छवि चमक उठी-पुष्पेंद्र सौलंकी। पुष्पेंद्रजी मेरी कई खबरों के ऊर्जास्त्रोत रहे हैं। आज न्यूज चैनल जिन स्टिंग ऑपरेशनों के बूते टीआरपी की दौड़ में आगे बने रहते हैं, उस जोखिम और साहसपूर्ण पत्रकारिता की शुरुआत बहुत पहले पुष्पेंद्रजी कर चुके थे। खासकर भोपाल में पुष्पेंद्रजी घूमंतू पत्रकारिता की एक मिसाल रहे हैं। यह सच है कि दुनिया में बदलाव तभी आए हैं, जब लोगों की भावनाओं, उनके विचारों और क्रियाकलापों में नई ऊर्जा भरी गई। इन दिनों मैं 'पीपुल्स समाचार' में सेवाएं दे रहा हूं। इससे पहले जब मैं क्रमश: दैनिक भास्कर, नवभारत, राज एक्सप्रेस और दैनिक जागरण में कार्यरत रहा, तब महीनों में कभी-कभार ही 'राज्य की नई दुनिया'(नवदुनिया का रीलांच के पूर्व का नाम) देखा करता था। हालांकि उस वक्त भी इस अखबार में मेरे कई मार्गदर्शक अपनी सेवाएं दे रहे थे, विनय उपाध्याय सरीखे। लेकिन यह सौ टका सच है कि तब की 'राज्य की नई दुनिया' और आज की 'नवदुनिया' में जमीन-आसमान का अंतर है-प्रस्तुतिकरण, कलेवर से लेकर खबरों के लेखन तक।आज 'नव दुनिया' की सोच और दिशा में स्फूर्ति और कुछ कर दिखाने का जोश-जुनून स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। अकेले भोपाल नहीं, प्रांतीय संस्करणों में 'नवदुनिया' जिस चमक-दमक के साथ फैला है, वह चमत्कृत कर देने वाला सच है। मैं जब भी 'नवदुनिया' का कोई प्रांतीय संस्करण पढ़ता हूं, तो सबसे पहले मेरे मन-मस्तिष्क में पुष्पेंद्रजी की कार्यशैली और रचनात्मक दृष्टिकोण कौंधता है।यह 1999 की घटना है। मेरा चयन 'दैनिक भास्कर' की पत्रकारिता अकादमी के लिए हुआ था। घर से पहली बार लंबे समय के लिए किसी अनजान और बड़े शहर में रहने आया था। व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए अकसर 'भास्कर' के दफ्तर आना होता था। एक बार मैं और मेरे मित्र भास्कर के दफ्तर में प्रवेश कर रहे थे, तभी मेरी नजर एक लंबी कद-काठी के आदमी पर पड़ी। ढीला-ढाला जींस का पैंट और करीब घुटने तक लटकती टीशर्ट पहने यह व्यक्ति अपनी मोपेड को चालू कर रहा था। हम दोनों की निगाह टकराईं और दोनों ओर से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ। मुझे उस आदमी के व्यक्तित्व में एक अजीब-सा आकर्षण लगा-गोया हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। हालांकि बाद में जब उस आदमी ने मेरे सारे मित्रों का उसी अंदाज-मुस्कराहट के साथ अभिवादन किया, तब मुझे महसूस हुआ कि यह आदमी मिलनसार है।कुछ दिनों बाद हमें बताया गया कि आज अकादमी में एक ऐसा पत्रकार अपने अनुभव बताने आ रहा है, जिसने नक्सली समस्या पर ढेर-सारा काम किया है, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में दिनों-दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर खबरें जुटाई हैं। उनका नाम पुष्पेंद्र सौलंकी बताया गया। हम सब उछल-से पड़े। दरअसल, हम इनके बारे में बहुत कुछ सुन चुके थे। हमने उनकी कई खबरें भी पढ़ी थीं, इसलिए ऐसे व्यक्ति से रूबरू होना हम नवे-नवेले पत्रकारों के लिए प्रफुल्लित कर देने वाला क्षण था। एक-डेढ़ घंटे बाद जब पुष्पेंद्रजी हम सबके सामने आए, तो मेरे ओठों पर मुस्कराहट और दिन में उल्लास-सा भर गया। ये वही मोपेड वाले शख्स थे।

खैर, पुष्पेंद्रजी के साथ एक बार हम सब कोलार पिकनिक मनाने गए। वहां रास्ते में एक आदिवासी गांव में जब हमने डेरा डाला, तो पुष्पेंद्रजी को देखते ही गांव के कई लोग इकट्ठा हो गए। पुष्पेंद्रजी को इन आदिवासियों से उनकी ही बोली में बतियाते देख हम हैरान थे। जब हम डेम पहुंचे, तो वहां संयोग से विधायक कल्पना परुलेकर मौजूद थीं। वे पुष्पेंद्रजी को देखते ही दौड़ी-सी चली आईं और गर्मजोशी से मिलीं। चूंकि पत्रकारिता में सारा खेल संपर्कों का होता है, इसलिए पुष्पेंद्रजी का परिचय क्षेत्र देखकर हम सब उत्साह से भर उठे।बाद में ज्ञात हुआ कि पुष्पेंद्रजी 'नर्मदा बचाओ' जैसे सामाजिक आंदोलनों से भी जुड़े रहे हैं। कुछ साल पहले जब मुझे यह मालूम चला कि पुष्पेंद्रजी अलीराजपुर के जमीदार घराने से ताल्लुक रखते हैं, तो अचरज और बढ़ गया। उनके साधारण रहन-सहन और खान-पान को देखकर कोई भी यह सोच भी नहीं सकता कि इस शख्स की मुट्ठी में क्या है, हथेलियों में वैभव की कितनी रेखाएं मौजूद हैं।कुछ घटनाएं, समयकाल ऐसे होते हैं, जो दिलो-दिमाग पर अमिट हो जाते हैं। अकादमी से प्रशिक्षण लेने के बाद मैं करीब छह महीने 'चंडीगढ़ भास्कर' में रहा। जब भोपाल आना हुआ, तो कुछ महीनों बाद ही पुष्पेंद्रजी अपने कुछ मित्रों के साथ 'सांध्यप्रकाश' चले गए। उनके मित्रों में सबसे करीबी थे पंकज मुकाती, जो इन दिनों पत्रिका-इंदौर के स्थानीय संपादक हैं। उन दिनों 'सांध्यप्रकाश' साधारण-से अखबारों में गिना जाता था। कुछ महीने बाद भोपाल में सांध्यप्रकाश ने जो चमक बिखेरी, वो सांध्यकालीन अखबारों के लिए एक ऊर्जा और प्रेरणा का आधार बन गया। पुष्पेंद्रजी ने अपने संपादकीय कार्यकाल के दौरान सांध्यप्रकाश को एक मुकाम दिलाया, जो दुर्भाग्य से उनके 'दैनिक भास्कर, जबलपुर जाने के बाद बिखर-सा गया। दैनिक भास्कर, भोपाल में उस समय नरेंद्र कुमार सिंहजी संपादक हुआ करते थे। सिंह साहब के कार्यकाल में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। उन्होंने मुझे घूमंतू संवादाता बनाया और पहली यात्रा थी-पिपरिया। इससे पहले मैंने कभी भी दूसरे शहरों-कस्बों में जाकर खबरें नहीं निकाली थीं, सो स्वाभाविक है कि भीतर से घबराया हुआ था। उस वक्त मुझे पुष्पेंद्रजी का स्मरण आया, और मैंने आत्मसाहस जुटाया। पिपरिया से मैंने एक स्टोरी निकाली थी, जो वहां जहर-से फैले सट्टा और मादक पदार्थों पर आधारित थी। शीर्षक था-'सट्टा और सुट्टा में फंसी पिपरिया की जान।' यह खबर प्रथम पृष्ठ पर मध्यप्रदेश के पूरे संस्करणों में प्रकाशित हुई। कुछ ऐसी ही पड़ताल करती खबरें मैंने बैतूल और अन्य शहरों-ग्रामीण क्षेत्रों से भी निकाली थीं। 'घूमंतू पत्रकारिता' के दौरान मैं अकसर पुष्पेंद्रजी के उस वाक्य को जेहन में रखता था, कि कार्य कोई भी हो अगर हम उसमें पूरी शिद्दत से उतर जाएं, तो सफलता मिलना तय है।पिछले साल 'राज्य की नई दुनिया' जब 'नवदुनिया' के रूप में रीलांच होने जा रहा था, तब दूसरे बड़े अखबारों के भोपाल और समीपवर्ती प्रांतीय संस्करणों से जुड़े पत्रकार निश्चिंत बैठे रहे। दरअसल, उनकी सोच थी कि मठों-सरीखें समाचार पत्रों को हिला-डुला पाना 'नवदुनिया' के बूते में नहीं है, लेकिन आज यही लोग बौखलाए-से नई कार्ययोजनाएं बनाने में जुटे हैं। वाकई इसे अखबारी दुनिया के बदलते तेवर के रूप में देखा जाना चाहिए, कि कुछ महीने पहले तक जिन पाठकों को 'दैनिक भास्कर' जैसे बड़े अखबार का चस्का चढ़ा हुआ था, आज उनके हाथों-घरों में नवदुनिया सुगंध-सी महक रही है।मैं जब सागर पहुंचा, तो कुछ पत्रकारों ने चुटकी ली-'यार नवदुनिया ऐसा चमत्कार करेगी, सोचा न था! इन्हीं मित्रों से मुझे मालूम चला कि पिछले 20-22 दिनों तक यहां पुष्पेंद्रजी अपना डेरा डाल के गए हैं। ये मित्र हैरानी-से बोले थे-यार, पुष्पेंद्रजी यहां नवदुनिया के पत्रकारों को क्या टॉनिक/घुट्टी पिला के गए हैं कि उनकी खबरों को दूसरे बड़े अखबार फॉलोअप के रूप में छापने पर विवश हैं? चंद शब्दों में कहें तो 'नवदुनिया' ने दूसरे अखबारों की बैंड बजाकर रख दी है। इन मित्रों के कथन पर मुझे बहुत अधिक अचरज नहीं हुआ, क्योंकि मुझे मालूम था कि जहां पुष्पेंद्रजी हैं, वहां नए तेवर तो पनपने ही हैं, नई क्रांति तो आनी ही है, नई कहानियां गढऩी ही हैं।मैं अपने ब्लॉक पर कुछ चुटकियां लिखता हूँ -पहचान कौन? यह पहला मौका होगा जब मैं एक पहेली का जवाब खुद बताऊंगा-पहले चुटकी लीजिए...

राजा हैं पर रहे घुमंतू, आदिम जाति में साख।

जंगल-जंगल करी रिपोर्टिंग, खूब जमाई धाक।।

नक्सलवादी मुद्दों पर जिनका नहीं दूसरा सानी।

धारदार लिखने में माहिर, किंतु नहीं अभिमानी।

गुरु, फिर से करो कोई कमाल शुरू॥


ये हैं पुष्पेंद्र सौलंकी । लगो रहो उस्ताद.......।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

सरफरोशी के मेले में भागे थे जो...

जमीं छोड़ जब से खड़े हो गए...
सुना है कि वो बड़े हो गए।

हवा में बह कर पहुंचे वे मंजिल...
जमीं में चले तो लंगड़े हो गए।

झोपड़ी को जला मनाली दिवाली...
महलों को देखा तो झगड़े हो गए।

पलना से उतरे तो बैठे वे कुर्सी...
नाटे थे कद के सिर चढ़े हो गए।

मोम से थे पिघले तनिक धूप में...
संगीनों कि छाया में कड़े हो गए।

सरफरोशी के मेले में भागे थे जो...
सियारों कि बस्ती में तगड़े हो गए।

कंठमणि बुधौलिया