सरफरोशी के मेले में भागे थे जो...
जमीं छोड़ जब से खड़े हो गए...
सुना है कि वो बड़े हो गए।
हवा में बह कर पहुंचे वे मंजिल...
जमीं में चले तो लंगड़े हो गए।
झोपड़ी को जला मनाली दिवाली...
महलों को देखा तो झगड़े हो गए।
पलना से उतरे तो बैठे वे कुर्सी...
नाटे थे कद के सिर चढ़े हो गए।
मोम से थे पिघले तनिक धूप में...
संगीनों कि छाया में कड़े हो गए।
सरफरोशी के मेले में भागे थे जो...
सियारों कि बस्ती में तगड़े हो गए।
कंठमणि बुधौलिया
2 टिप्पणियां:
बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
मोम से थे पिघले तनिक धूप में...
संगीनों कि छाया में कड़े हो गए।
अब क्या कहूँ एक से बढ़ कर एक शेर है..........
सही चित्रं है समाज का.........
बहुत खूब, बधाई हो आपको
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