शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

एक-दूसरे को टोपी पहनाना छोड़िए जनाब

टट्टू बनकर जीने की आदत छोड़िए जनाब।

संड़ाध मारते नालों की धारा मोड़िए जनाब।

कब तक कहोगे, जो हुक्म मेरा आका।

बात-बेबात दुम हिलाना छोड़िए जनाब।

शुतुरमुर्ग बनने से न बदलेगी तस्वीर कभी।

पत्थर उठाइए, पाप का मटका फोड़िए जनाब।

मिल-बैठकर निकलता है समस्याओं का हल।

एक-दूसरे को टोपी पहनाना छोड़िए जनाब।

अमिताभ बुधौलिया

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

दंड बनाए उदंड, सो प्यार से पढ़ाएं

            अमिताभ बुधौलिया
यूं ही चलते-चलते एक बैनर पर लिखा दिखाई दिया ‘लर्न विदाउट फियर’। लाइन काफी अच्छी थी। उसे पढ़ते ही यह ख्याल आया कि काश हमारे स्कूलों में भी यही स्लोगन अपनाया जाता तो बच्चों के लिए स्कूल हौव्वा न बनकर सचमुच शिक्षा का मंदिग्र बन जाते। कुछ समय पहले महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा देश के 13 राज्यों में कराए गए सर्वे में 63 प्रतिशत स्कूली बच्चों ने इस बात को माना था कि उन्हें स्कूल में शारीरिक दंड मिल चुका है। इनमें शासकीय के साथ-साथ निजी स्कूल के छात्र भी शामिल थे। विडंबना यह कि जब तक कोई गंभीर परिणाम सामने न आए स्कूल में मिलने वाले शारीरिक दंड में अभिभावकों की मौन स्वीकृति भी शामिल रहती है। यही नहीं कई बार तो बच्चे की स्कूल से आने वाली शिकायतों या फिर उसके कमजोर परीक्षा परिणाम के कारण अभिभावक घर में भी उसे शारीरिक दंड देते हैं। स्कूल और घर दोनों जगहों पर शारीरिक प्रताड़ना के चलते बच्चे या तो स्कूल छोड़ना बेहतर समझते हैं या लगातार पढ़ाई में पिछड़ते जाते हैं।
स्थिति पर गौर करें तो साफ नजर आता है कि आज वक्त की जरूरत है कि खुशनुमा माहौल में बच्चों को कुछ सिखाने की कोशिश की जाए न की उन्हें गलतियों के लिए बार-बार ह्यूमिलिएट किया जाए। ज्यादातर अभिभावक और शिक्षक शारीरिक दंड की पैरवी करते हुए कहते हैं कि दंड के बिना बच्चे अनुशासनहीन हो जाते है। यदि उनकी बात को सच भी माने तो क्या शारीरिक प्रताड़ना के अलावा दंड के अन्य विकल्प खोजे नहीं जा सकते। वर्तमान में स्कूलों में जिस तरह के दंड दिए जा रहे हैं उनसे स्टूडेंट्स में नेगेटिव फिलिंग आती है। इसकी जगह दंड के कुछ ऐसे विकल्प खोजे जाएं बच्चों के लिए कंस्ट्रक्टिव मैथड की तरह काम करे। मसलन यूरोपिय स्कूलों का उदाहरण ले तो वहां फेल होने की स्थिति में बच्चों को कम्यूनिटी सर्विस कराई जाती है। जैसे कि एक विषय में फेल होने पर उन्हें साल में 25 घंटे कम्यूनिटी सर्विस को देने होते हैं। सब्जेक्ट के अनुसार घंटे बढ़ा दिए जाते हैं। यहीं नहीं टारगेट पूरा होने पर उन्हें इसके लिए मार्क्स भी दिए जाते हैं।
केवल विदेश की बात नहीं हमारे देश में भी अब ऐसे उदाहरण देखने मिल रहे हैं, जहां बच्चों को मीनिंगफुल पनिशमेंट दिया जाता है। राजस्थान के कुछ स्कूलों में इसी तरह के क्रिएटिव पनिशमेंट के उदाहरण काफी सराहना पा रहे हैं। यहां लेट आने वाले बच्चों को गार्डनिंग में मदद करने को कहा जाता है। अगर स्टूडेंट्स आपस में झगड़ा करते हुए पाए जाते हैं, तो उन्हें जूनियर क्लास के बच्चों को पढ़ाना होता है।
मध्यप्रदेश की बात करें तो राजधानी भोपाल के कुछ प्रायवेट स्कूल में भी इस तरह के उदाहरण अब सुनाई देने लगे हैं। नेशनल कमीशन आफ प्रोटेक्शन आफ चाइल्ड राइट्स की ओर से कॉरपोरल पनिशमेंट को गंभीरता से लेने के बाद यहां भी इस सकारात्मक बदलाव के स्वर सुनाई दे रहे हैं।
एक प्रायवेट स्कूल में कार्यरत ममता मजूमदार कहती हैं हम बच्चों को पनिशमेंट देते हैं लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है। मसलन यदि बच्चा ग्राउंड में कचरा फैलाता है तो उसे ग्राउंड से कचरा उठाकर डस्टबिन में डालने का दंड दिया जाता है। यही नहीं उसे इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि जहां तक हो सके लंच ब्रेक में अन्य छात्र भी कचरा न फैलाए।
एक अन्य स्कूल की छात्रा जगमीत कौर बताती हैं कि उनकी स्कूल में होमवर्क पूरा न करके आने वाले या फिर एक ही प्रकार की गलती बार-बार दोहराने वाले छात्र को किसी मेधावी छात्र या छात्रा की करेक्टेड कॉपी से मिलाकर खुद अपनी कॉपी चेक करनी होती है। जगमीत के अनुसार जब एक बार उसने खुद अपनी कॉपी चेक की तो उसे अपनी की हुई गलती बहुत अच्छी तरह याद रही और आज तक उसने वह गलती दोबारा नहीं दोहराई।
एक अन्य प्रतिष्ठित और काफी महंगे माने जाने वाले स्कूल के शिक्षक शैलेन्द्र शर्मा कहते हैं कि ‘राइट टू एजूकेशन एक्ट’ के बाद क्लास में गरीबी रेखा के नीचे आने वाले छात्र भी शामिल हो गए हैं। ऐसे में कई बार अन्य छात्र उनका मजाक बनाते हैं। यहीं नहीं कुछ छात्र तो स्टडीज में अन्य छात्रों से काफी पिछड़े हुए भी होते हैं और इस कारण भी वह छात्रों की हंसी का पात्र बनते हैं। ऐसी स्थिति में छात्र का मखौल बनाने वाले छात्र को दंड के तौर पर स्टडीज में उस छात्र की मदद करने को कहा जाता है। इससे धीरे-धीरे ही सही उनके बीच एक समझ का विकास भी होता है।
प्रिटी पेटल्स प्ले स्कूल के संचालक शशिकुमार केसवानी कहते हैं कि फिजिकल और मेंटल पनिशमेंट केवल बच्चों में नकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। ये किसी भी तरह उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। यह दंड का काफी आउटडेटेड तरीका हो चुका है। इसकी जगह अब क्रिएटिव पनिशमेंट को अपनाया जाना जरूरी हो गया है। इससे न केवल बच्चे में पॉजिटिव रिजल्ट देखने मिलते हैं बल्कि वे अधिक जिम्मेदार भी बनते है।
दरअसल जब बच्चे को शारीरिक दंड दिया जाता है तो यह उसके संवैधानिक अधिकार का हनन है और यह तथ्य हमारी शैक्षणिक व्यवस्था को अच्छी तरह से आत्मसात करना ही होगा इसके विपरीत यदि उसे अनुशासन में लाने के लिए कुछ रचनात्मक तरीके अपनाए जाए तो यह उसका   विकास करने के साथ-साथ उसे एक अच्छा नागरिक बनाने में भी अहम भूमिका निभा सकते हैं।