मंगलवार, 30 सितंबर 2008

संदर्भ: फिल्म 'एक विवाह ऐसा भी' और अभिनेता कुनाल कुमार


रियल लाइफ में अभिनय से कोसों दूर

संयम न खोना कभी...
बहते रहो, न ठहरो कभी...
लगे रहो लक्ष्य पर...
सपने होंगे पूरे सभी।

मेरे एक मित्र हैं राज शांडिल्य। फिलहाल, राज मुंबई में रहते हैं और स्क्रिप्ट राइटर हैं। इन्होंने टेलीविजन के कई चर्चित कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट राइटिंग की है। इन दिनों वे कुछ फिल्मी विषयों पर भी काम कर रहे हैं। बहरहाल, इनका यहां जिक्र इसलिए लाजिमी है, क्योंकि मैं अब जिनके बारे में बताने जा रहा हूं, उनसे मेरी मुलाकात इन्हीं के माध्यम से हुई थी। जनवरी की सर्द रात थी। राज मुझे मोबाइल पर फोन करके पलाश होटल पहुंचने को कहते हैं। वे मुझे अपने एक मित्र से मिलाना चाहते थे, जो 'राजश्री प्रोडक्शन' की फिल्म 'एक विवाह ऐसा भी' की शूटिंग के सिलसिले में भोपाल आए हुए थे। उस समय मैं दैनिक जागरण से जुड़ा हुआ था। रात करीब 8-9 बजे मैं पलाश होटल पहुंचता हूं। राज पहले से ही वहां मौजूद थे। मैं कमरे का दरवाजा खटखटाता हूं, तो सामने एक मुस्कराता हुआ चेहरा नजर आता है। मैं कमरे में पहुंचकर राज से कहता हूं कि इन महोदय की सूरत कुछ जानी-पहचानी है। उस वक्त मुझे नहीं मालूम था कि राज इन्हीं शख्स से मिलवाना चाहते थे। तब राज हंसते हुए बताते हैं कि ये कुनाल कुमार हैं और टेलीविजन-फिल्म दोनों क्षेत्रों में काफी बेहतर काम कर रहे हैं।
फिल्मी कलाकारों के बारे में आम धारणा यही है कि वे बहुत घमंडी होते हैं, ग्लैमर का रंग उनका दिमाग और मिजाज दोनों बिगाड़ देता है, लेकिन सब एक थाली के चट्टे-बट्टे नहीं कहे जा सकते। हालांकि यह भी सच है कि मीडिया से इनका बर्ताव काफी मीठा और संयमित रहता है, बनिस्बत आम लोगों के, लेकिन ऐसे कड़वे लोग फिल्म इंडस्ट्री में 1 या 2 प्रतिशत ही होंगे। बाकी लोग ऊंचाइयों के साथ और भी विनम्र होते चले जाते हैं। फिल्मी कलाकारों के व्यवहार का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है क्योंकि कुनाल जितने मझे हुए अभिनेता हैं, उतने ही अच्छे इनसान भी।
कुनाल कुमार के बारे में लिखते वक्त उनकी मुस्कराहट और बातचीत का सलीका स्मरण में आ जाता है। दरअसल, यहां कुनाल को संदर्भित बनाते हुए मैंने यह बताने का प्रयास किया है, कि एक सफल हीरो और हीराइन के पीछे कितना परिश्रम और निष्ठा छिपी होती है। हुनर भी तभी निखरता है, जब हम उसे निरंतर कसौटी पर परखते रहें। स्वाभाविक है इसके लिए हमें अपने कार्यों के प्रति पूरी निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी बरतनी होगी।
कुनाल करीब एक महीने से अधिक समय तक भोपाल में रहे। इस दौरान कई मर्तबा हमारी मुलाकात हुई। एक रोज रात को जब मैं उनसे मिलने होटल पहुंचा, तो वे फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे थे। समीप ही पठानी कुर्ता-पजाम टंगा हुआ था। मेरे पूछने पर वे हंसते हुए बोले- सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर शूट है, इसलिए यहीं से तैयार होकर निकलूंगा। कुनाल उस दिन देर रात तक अपने संवादों काम करते रहे। दरअसल, आम फिल्म दर्शक यही मानते हैं कि अभिनेता और अभिनेताओं की जिंदगी ऐशभरी होती है, लेकिन यह अधूरा सच है। उन्हें अपने करियर में आम नौकरीपेशा व्यक्तियों से कहीं अधिक परिश्रम और समय देना पड़ता है। एक दिन रात के वक्त मैं राज और कुनाल लेक व्यू (भोपाल की बडी झील) पर सैर-सपाटे को निकले। बातचीत के दौरान कुनाल बार-बार अपनी हथेलियों को मल रहे थे। पूछने पर ज्ञात हुआ कि दिन में फिल्म के गाने की शूटिंग थी, जिसमें उन्हें तबला बजाना था। सही शूट के लिए जरूरी था कि रिदम के साथ-साथ उनके हाथ तबले पर चलें। इसलिए एक तबलावादक ने उन्हें तबले पर सही तौर-तरीके से हाथ चलाने का प्रशिक्षण दिया था। कुनाल अपने अभिनय के साथ पूरा न्याय चाहते थे, इसलिए उन्होंने करीब दो-ढाई घंटे तबले पर हाथ साधे। इस वजह से उनकी हथेलियां छिल-सी गई थीं। कुनाल और हम जब भी मिलते वे फिल्म के अपने संवादों पर गहरी गुफ्तगू जरूर करते थे, शायद कुछ इनोवेटिव आइडियाज निकल आएं।
कुनाल इन दिनों कई बड़े बैनरों की फिल्म कर रहे हैं, लेकिन स्टार होने का अहम उन्हें छू तक नहीं पाया है। बहरहाल, तब कुनाल का दैनिक जागरण में एक साक्षात्कार भी प्रकाशित हुआ था, जिसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
फरीदाबाद से मुंबई का सफर
एक्टिंग का तो बचपन में ही चस्का लग गया था। दरअसल जब सातवीं कक्षा में था दूरदर्शन के सीरियल में नेहरूजी के बचपन का किरदार निभाया था। हां, इसके बाद पढ़ाई के दौरान पूरा फोकस इंजीनियरिंग पर हो गया। रूढकी की एग्जाम देने के लिए दिल्ली गया। वहां पेपर खत्म होने पर यूं ही घूम रहा था कि बिड़ला मंदिर के पास लंबी लाइन नजर आई। पता चला कि यह लाइन एक्टर बनने के लिए लगी है। बचपन का शौक जाग गया। पास में और कोई फोटो तो था नहीं, एक्जाम का स्टाम्प लगा फोटो ही जमा करवा दिया। मुझे सीरियल 'स्वीकार है मुझे' के लिए सिलेक्ट कर लिया गया। बस स्टीयरिंग इंजीनियरिंग से एक्टिंग की ओर घूम गया।
मुंबई नगरिया का स्ट्रगल
काफी सारे एड किए। एड करते-करते कई सीरियल जैसे कुसुम, कुमकुम, भाभी, शाकालाका बूम-बूम आदि किए। इसके बाद फिल्मों में आया। (हंसते हुए) बर्दाश्त फिल्म आई, जिसे दर्शकों ने बर्दाश्त नहीं किया। इसके बाद साथिया, मैं हूँ न और बंटी-बबली फिल्में करते हुए लगा कि कही बेस्ट फ्रेंड का अवार्ड लेकर ही न रह जाऊं। लेकिन मालिक की जब जो मर्जी होती है वही होता है। यूं कहूं कि मैंने खुद केवल प्रयास किए, बाकि जो सफलता मिली वह तो ऊपर वाले की देन है।
भविष्य की योजनाएं
मैं हमेशा सरेंडर वाली अवस्था में रहता हूं। कभी प्लानिंग नहीं करता, जो करवाता है मेरा भगवान करवाता है। मैं अपनी अभी चल रही जिंदगी से बेहद खुश हूं। मुझे हमेशा से एक्टर बनने की चाह थी, स्टार नहीं। (मजाकिया लहजे में) मैं क्रीज पर खड़ा रहकर धीरे-धीरे रन बनाने में विश्वास रखता हूं। चौके-छक्के मारने में नहीं।
शौक
फोनेटोग्राफी करता हूं। मैंने अपने मोबाइल से खींची तस्वीरों का 4 मिनट का वीडियो तैयार किया है 'लाइफ एन एब्सट्रेक्ट'। यह दुनिया का पहला मोबाइल से बना म्यूजिक वीडियो है। इसके अलावा कई लघु फिल्में भी बनाई हैं। इनमें 'टाइम लेस लाइफ' को न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में 'बेस्ट डिजिटली शार्ट फीचर फिल्म' का अवार्ड मिला है। इसी तरह 'लेट्स स्माइल' भी ब्रिटिश काउंसिल डिजीटल फिल्म फेस्टिवल में प्राइज जीत चुकी है। इसके अलावा ह्यूमेनिटी एट इट्स बेस्ट और वाटर बाटल ने भी विभिन्न फेस्टिवल में प्रशंसा पाई है।
( खिलखिलाता बचपन : कुनाल के फोनेटोग्राफी हुनर की एक तस्वीर )
(राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म-एक विवाह ऐसा भी बहुत जल्द रिलीज होने जा रही है। इसमें सोनू सूद और ईशा कोप्पिकर के साथ कुनाल कुमार बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।)

  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

सोमवार, 29 सितंबर 2008


1
ईश्वर भी न बचा सका उसे....
कत्ल कर दिया गया...
मंदिर की चौखट पर...
उस पर यह इल्जाम था...
वो एक मुसलमान था।

2
अपनों ने ही झोंक दिया आग में...
हिंदू होकर भी उसने एक मुस्लिम लड़की की इज्जत बचाई थी...
बस इतना-सा गुनाह था...
प्यार उससे बेपनाह था।

3
कृष्ण भी न रोक सके उसका चीरहरण...
ईश्वर देखता रहा और वो बेलाज हो गई...
वे कौरव नहीं थे...
...और न उसे जुए में हारा गया था...
दोष इतना था...
उसके मोहल्ले में एक मुसलमान मारा गया था।

4
मुझे न राम कहो, न रहीम कहो...
मैं बेनाम रहना चाहता हूं...
क्योंकि नामों से भी आती है अब साम्प्रदायिकता की बू।

5
जब मैं जन्म लूं तेरी कोख से ओ मां... मुझे कोई नाम न देना।
न मुझे हिंदू बनाना, न मुसलमान बनाना...
हर दिल में समा जाऊं... ऐसा इनसान बनेगा।

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

अराजकता के विरुद्ध नया इंकलाब

गांधीगीरी से भाईगीरी तक...
  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग '
हिंदुस्तान की आजादी में जितना बड़ा योगदान गांधीजी का रहा, उतना ही क्रांतिकारियों का भी। स्वाभाविक-सी बात है कि कहीं हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से करना मुनासिब होता है, तो कई मामलों में कांटे से भी कांटा निकालना पड़ता है। यह मौके की नजाकत पर निर्भर करता है कि कब और कहां कौन सा आचरण अपनाया जाए। फिलहाल, इसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की चूक कहें या असफलता, भारतीय जनमानस तीसरे रास्ते पर भी चल पड़ा है। हालिया रिलीज फिल्म 'सी कंपनी' इसी मार्ग की विचारधारा की उपज है। मतलब, गुंडा का मुकाबला गुंडई तरीके से करना। इसे आतंकवाद का 'गांधीगीरी संस्करण' भी कह सकते हैं। भ्रष्ट तंत्र के प्रति विरोध जताने के इस तौर-तरीके पर चिंतन बेहद जरूरी है। दरअसल, प्रतिरोध का भाव कब प्रतिशोध में बदल जाए, कह पाना मुश्किल है।
रील की कहानी कहीं न कहीं रियल लाइफ से ही रचती है। फलने-फूलने के हिसाब से मुंबई अंडरवर्ल्ड के लिए सबसे मुनासिब जगह रही है। भारतभर के छोटे-मोटे गुंडा-भाई और चोर-उचक्के मुंबइया अंडरवर्ल्ड को अपना आदर्श मानते रहे हैं। उन्हें अपराध करने और धन उगाही के नवीनतम तौर-तरीके मुंबइछाप अंडरवर्ल्ड से ही सीखने-समझने को मिलते हैं। भारतीय सिनेमा इस प्रशिक्षण को मनोरंजक तरीके से उपलब्ध कराता रहा है।
खैर, यहां बात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की खामियों के विरोध में जनमानस में पनप रहे आक्रोश की हो रही है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर आतंकवाद और गुंडागर्दी जैसे सभी विषय शामिल हैं। कानून और प्रशासनिक तंत्र की लचरता ने जन- मानस पर गहरा असर डाला है। वर्ष 2003 में आई 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' और हाल में रिलीज हुई 'सी कंपनी''अ वेन्ज्डे' में फर्क देखिए, जनमानस के बदलते भावों का स्पष्ट आकलन किया जा सकेगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था दिनों-दिनों खराब होती जा रही है। भ्रष्टाचार और निजी हित देश को दीमक की तरह चट करने में लगे हैं।
बहरहाल जितनी तालियां मुन्नाभाई के ह्दय परिवर्तन पर बजी होंगी, उतना ही उल्लास 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' के दर्शकों में देखने को मिल रहा है। फिल्म समीक्षा के नजरिये से यह विश्लेषण उत्तेजक भले न हो, लेकिन सामाजिक पहलुओं के हिसाब से यह चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित करता है।
गुलामी के काल में सिर्फ दो सिद्धांत काम करते थे, पहला अंग्रेजों को खदेड़ना और दूसरा लोकतंत्र की स्थापना। संभवतः ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि 'नेता' इस देश में गाली का पर्याय बन जाएगा, वर्ना सुभाष चंद बोस कभी भी खुद को नेताजी कहलाना पसंद नहीं करते! चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था की बागडोर राजनीतिक हाथों में है, इसलिए भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं का 80 प्रतिशत दोष इन्हीं के मत्थे मढा जाएगा। बाकी 20 प्रतिशत भारतीय जनता दोषी है, जो भ्रष्ट नेताओं को वोट देती है या रिश्वत, अन्याय और अन्य अव्यवस्थाओं पर चुप्पी साधे बैठी रहती है।
आतंकवाद, अंडरवर्ल्ड, रिश्वतखोरी, अन्याय-अत्याचार जैसे मसले भारतीय न्यायप्रणाली और राजनीति के दूषित होने का ही नतीजा हैं। चिंताजनक बात यह है कि इनका विरोध करने का तरीका धीरे-धीरे गांधीगीरी के इतर दूसरे रूप अख्तियार कर रहा है। 2006 में आई 'लगे रहो मुन्नाभाई' की गांधीगीरी से प्रेरित भारतीय जनमानस धीरे-धीरे दूसरे तौर-तरीके भी अपना रहा है। इसी साल आई 'अपरचित' में नायक विक्रम और 1996 में रिलीज हुई 'हिंदुस्तानी' में कमल हासन के चरित्र ने प्रतिरोध की नई परिभाषा रची थी। यहां विरोध के भाव में प्रतिशोध की झलक भी स्पष्ट देखी गई। हाल में आईं 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' देश और समाज के हित में एक नई लड़ाई की शुरुआत कही जा सकती हैं। इसे अरब मुल्कों की न्याय प्रणाली का देसी संस्करण माना जा सकता है। मतलब-खून का बदला खून और लूट का बदला लूट....!
हर कला के पीछे कुछ उद्देश्य निहित होते हैं। यह उद्देश्य क्या हैं, यह फिल्म के जनक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सिनेमा रामगोपाल वर्मा भी रचते हैं और विधु विनोद चोपड़ा भी। यह जरूरी नहीं कि हरेक फिल्म में शत-प्रतिशत मनोरंजन का मसाला ही इस्तेमाल किया गया हो? 'अ वेन्ज्डे' की रचना करते समय नीरज पांडे की सोच अलग रही होगी और 'सी कंपनी' तैयार करते समय एकता कपूर की अलग। दरअसल, पिछले कुछ सालों में भारतीय सिनेमा यथार्थ को जीने लगा है...और 'द वेन्ज्डे' एवं 'सी कंपनी' ने जनमानस के भीतर की अकुलाहट और आग को ही बाहर निकाला है। यह गंभीर विषय है, जिस पर सामूहिक चिंतन अत्यंत जरूरी है।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

आगे की सुधि लेहु...
  • पंकज शुक्ल
मुझसे अक्सर लोग ये पूछते हैं कि मैंने भोजपुरी भाषी ना होने के बावजूद पहली फिल्म भोजपुरी में ही क्यो बनाई? सच मानें तो इस सवाल का जवाब खुद मुझे भी अब तक समझ नहीं आया। जितने बजट में भोले शंकर बनी है, उतने बजट में खोसला का घोसला और भेजा फ्राई जैसी फिल्में आसानी से बन जाती हैं। फिर, भोले शंकर ही क्यों? शायद इसलिए कि जब मैंने फिल्म मेकिंग का फाइनल फैसला लिया तो उस समय मनोज तिवारी ही मुझे सबसे सुलभ और सस्ते सुपर स्टार नज़र आए। पहली ही फिल्म अगर बिना किसी सितारे के बना दी जाए तो फिल्मी दुनिया में पहचान हो पानी मुश्किल होती है। ये अलग बात है कि जब से भोले शंकर की मेकिंग के दौरान मनोज तिवारी की एक के बाद एक लगातार कोई नौ फिल्में लाइन से फ्लॉप हो गईं, और भोले शंकर में अगर मिथुन चक्रवर्ती ना होते तो शायद भोले शंकर भी मनोज तिवारी की दो और फिल्मों ए भौजी के सिस्टर और छुटका भइया ज़िंदाबाद की तरह रिलीज़ की ही राह तक रही होती। ये दोनों फिल्में भोले शंकर के पहले से बन रही हैं और अब तक सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, तो बस इसी वजह से कि मनोज तिवारी को टक्कर देने अब केवल रविकिशन ही नहीं बल्कि तीन चार और तीसमारखां भोजपुरी सिनेमा में आ पहुंचे हैं। ख़ैर, मैं तो यही चाहता हूं कि मनोज तिवारी दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करें (शोहरत में, सेहत में नहीं)। बस वक्त आ गया है कि वो अब सोलो हीरो फिल्में करने की ज़िद छोड़ें, अपनी फीस में कम से कम 50 फीसदी की कटौती करें और भोजपुरी सिनेमा को फिर से वैसा ही सहारा दें, जैसा कि फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला से उन्होंने दिया था। भोले शंकर की चर्चा को यहीं पर विराम और अब आगे की बात...।भोले शंकर जब से बन कर तैयार हुई है और टी सीरीज़ की मार्फत इसके प्रोमोज़ और गाने टीवी चैनलों तक पहुंचे हैं, मुझे कम से चार भोजपुरी फिल्मों के ऑफर मिल चुके हैं। कम से कम दो निर्माताओं ने मिथुन चक्रवर्ती के साथ एक और भोजपुरी फिल्म बनाने की गुजारिश की। दिल्ली के एक निर्माता मनोज तिवारी और निरहुआ को लेकर एक कॉमेडी फिल्म बनाना चाहते हैं। लेकिन, मैंने अभी तक ना तो किसी को ना किया है और ना ही हां। भोजपुरी सिनेमा चाहे तो अपने कील कांटे दुरुस्त कर जल्द ही दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों की तरह सम्मानित सिनेमा की श्रेणी में आ सकता है। इस बात में दम बना रहेगा तभी मुंबई मंत्रा जैसी और कंपनियां इस भाषा में पैसा लगाने की हिम्मत जुटा पाएंगी। अभय सिन्हा जी की फिल्म हम बाहुबली के रशेज मैंने देखे हैं। रवि किशन ने इसमें मंटू गोप के तौर पर कमाल का काम किया है। फिल्म का फोटोग्राफी काबिले तारीफ है और संगीत में भोले शंकर के बाद धनंजय मिश्रा ने फिर कमाल किया है।भोले शंकर और हम बाहुबली दोनों की मेकिंग किसी हिंदी फिल्म से कम नहीं है। निर्माण की लागत भी कमोबेश बराबर ही है। भोले शंकर की कीमत वैसे बाज़ार की दरों पर लगाई जाए तो दो करोड़ से कम नहीं बैठती, लेकिन अपने व्यवहार के चलते मैंने अपने निर्माता के कम से कम तीस चालीस लाख रुपये इस फिल्म की मेकिंग में बचाए। वैसे सच पूछें तो भोजपुरी सिनेमा के दर्शकों को भी अब अच्छे और बुरे का फर्क समझ आने लगा है। ये अलग बात है कि बिहार के निर्माताओं के बही खाते अब भी पुराने ढर्रे पर ही चलते हों और उनसे निकलकर निर्माताओं की झोली तक पैसा पहुंचना अब भी दूर की कौड़ी लगता हो। पूरी फिल्मी दुनिया बिहार के वितरकों के नाम पर जो बातें कहती है, वो पूरी तरह गलत नहीं होतीं, ये अब कुछ कुछ मुझे भी लगने लगा है। मुंबई में हिंदी फिल्मों पर चर्चा होते समय बात जब इनकी लागत की रिकवरी की होती है तो कोई भी निर्माता बिहार से आमदनी की बात सोचता तक नही है। ये इसके बावजूद कि बिहार में कोई 600 थिएटर हैं और इनमें से कोई 450 थिएटर्स में अब भी नियमित तौर पर फिल्में देखी जाती हैं।यानी कि एक ढंग की भोजपुरी फिल्म मरी से मरी हालत में बिहार में छह महीने के भीतर कम से कम साठ से लेकर सत्तर लाख का कारोबार करती है। हां, शुरू के चार छह हफ्तों के बाद ऐसी किसी फिल्म के बिहार के किसी थिएटर में चलने का ज़िक्र किसी वितरक के बही खातों में नहीं होता। ये कमाई बस पर्चियों पर गिनी जाती है और वितरक की तिजोरी में ही सिमटकर रह जाती है। मैं जब पिछली बार बिहार में था तो निरहुआ रिक्शावाला वहां तब भी अंदरुनी इलाकों में चल रही थी, लेकिन शायद ही निरहुआ रिक्शावाला के निर्माताओं को अब ओवरफ्लो के नाम पर कुछ भी बिहार से मिलता होगा। वक्त अब पेशेगत ईमानदारी का और बिहार की छवि मुंबई के निर्माताओं के बीच निखारने का है। वक्त बिहार के सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की दशा सुधारने का भी है। पसीने से तरबतर होने के बावजूद फिल्म देखते लोगों को आरा में देख मेरा सिर श्रद्धा से वहीं झुक गया था। ये वो लोग हैं जो सितारे बनाते हैं। और भोजपुरी के सितारे हैं कि एक बार आसमान में चमकने के बाद ज़मीन पर आने का नाम ही नहीं लेते। कहा सुना माफ़।
(अभी हाल में निर्माता-निर्देशक पंकज शुक्ल की भोजपुरी फिल्म भोले शंकर रिलीज हुई है। उन्नाव जिले(उत्तरप्रदेश) के छोटे-से गांव मंझेरिया कला में जन्मे पंकज का जुझारूपन उनके कृतित्व में स्पष्ट देखा जा सकता है। पहले उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ पत्रकारिता में खूब धाक जमाई। वहां से मन उचटा तो मुंबई नगरिया की ओर कूच कर गए। उनके हुनर और हौसले को वाकई सलाम करना होगा कि पूंजीपति फिल्म निर्माताओं के बीच उन्होंने अपनी जगह बनाने में सफलता हासिल की। 12 सितंबर को रिलीज हुई 'भोले शंकर' बिहार में बम-बम भोले के जयघोष सी लोकप्रिय हो चुकी है। अब बारी दिल्ली, यूपी , पंजाब और मुंबई की है। उनका यह लेख भोजपुरी फिल्मों के सुनहरे भविष्य का खाका खींचता है। बोलो जय बम भोले...)

अब क्या कहूं?


बहुत कुछ अभी बाकी है मेरे दोस्त...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

1
बकरे की अम्मा अब खैर मनाएगी...
देखना बहुत जल्द इंसानों की बारी आएगी।
2
एक कुत्ता...
इंसानियत के चक्कर में इंसानों-सा मारा गया...
और
एक कुत्ता इंसानों के बीच...
इंसानियत में मारा गया।
3
नए-नए मुल्लाओं को भी अब प्याज से घिन आने लगी है...
क्योंकि...
प्याज नेतागिरी के काम आने लगी है।
4
नेताजी के भाषणों के बीच...
उनके मुर्गे-गुर्गे खूब ढोल बजाते हैं...
क्योंकि...
वे 'पोल' के पहले अपनी...
पोल खुलने से घबराते हैं।
और
नेताजी के भाषणों के बीच खूब ढोल बजते हैं...
क्योंकि...
वे जनता के सवालों का जवाब देने से बचते हैं।
5
गिद्दों पर संकट इसलिए आया है...
क्योंकि...
जरूर उनकी कौम में से किसी ने...
इंसान का मांस खाया है।
6
वे मोहल्लेभर में भोग बंटवा रहे हैं...
क्योंकि...
उनके मित्र मस्जिद गिराकर आ रहे हैं।
7
उन्होंने आज फिर बकरा कटवाया है...
क्योंकि...
एक और मंदिर टूटा है...
अभी-अभी ऐसा समाचार आया है।

सोमवार, 22 सितंबर 2008

आलोचना में टेलीविजन की महारानी


एकता कपूर ऐसी क्यों हैं?
  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
टेलीविजन की दुनिया पर एकता कपूर एकछत्र राज करती हैं। कम उम्र में अप्रत्याशित सफलता व्यक्तित्व पर खासा असर करती है। एकता पर भी आरोप लगते रहे हैं कि वे कामयाबी के मद में इतनी चूर हैं कि स्वयं को टेलीविजन संसार की 'स्वयम्भू महारानी' मानती हैं। एकता की कार्यशैली और बर्ताव फिल्म उद्योग में चर्चा का विषय बना रहता है। संभवतः यह ईर्ष्यावश ही प्रचारित किया गया होगा कि 2004 में रिलीज हुई फिल्म 'गर्लफ्रेंड' उनके ही चरित्र पर रची गई। यह दुष्प्रचार भी हो सकता है और सच भी।
दरअसल, फिल्मी दुनिया ही कुछ ऐसी है कि यहां हर बात गासिप-सी नजर आती है। सच भी झूठ जान पड़ता है और झूठ सौ टका सच। 22 सितंबर08 को 'दैनिक भास्कर' के भोपाल संस्करण में 'आपस की बात' कालम के अंतर्गत वीना नागपाल एकता कपूर की बॉडी लैंग्वेज को आड़े हाथों लेती हैं। संदर्भ बिग बॉस के घर से जुड़ा हुआ है। एकता अपने भाई तुषार के साथ इस शो में गेस्ट बनकर आई हुई थीं। उनके मुंह में च्युंगम था, सो शिल्पा शेट्टी के हर सवाल के जवाब में उनका मुंह काफी हरकत-सा करता नजर आता। साथ ही वे बात-बात पर तुषार के कंधे या पैर पर हाथ भी पटक रही थीं। एकता का च्युंगम चबाना और बॉडी लैंग्वेज लेखिका वीनाजी को भारतीय नारी के चरित्र के अनुकूल नजर नहीं आई।
एकता कपूर के 'सास बनाम बहू' सीरियलों को लेकर भी नुक्ता-चीना होती रही है। तथाकथित समाजसेवियों का तर्क है कि एकता के सीरियलों ने भारतीय नारी की छवि धूमिल कर दी है। उनके सीरियल घरेलू झगड़ों की वजह भी बने हुए हैं, गोया एकता कपूर मनोरंजन के नाम पर मन-दर-मन रंज के बीज बो रही हों? यह दीगर बात है कि ऐसे समाजसेवियों का दर्द सिर्फ इतना है कि पुरुष प्रधान समाज में उनका वर्चस्व डोलने लगा है। नारियां एकता के सीरियल देखकर मुखर/उग्र हो रही हैं। एकता कपूर के सीरियलों में काम करने वाले तमाम कलाकार भी इससे इत्तेफाक रखते हैं। वे एकता की कार्यशैली से भी पीड़ित हैं, लेकिन सैकड़ों संषर्घरत कलाकार ऐसे भी हैं, जो एकता कपूर का गुणगान करते थकते नहीं हैं। एकता का स्वरूप क्या है? इसे समझ पाना शायद तब तक संभव नहीं है, जब तक 'बालाजी टेलीफिल्म' अस्तित्व में है।
दरअसल, महिमा-मंडन और छीछालेदरी का यह सारा खेल 'बालाजी टेलीफिल्म' के गठन के बाद ही शुरू हुआ है। संभव है कि टेलीविजन के मनोरंजन उद्योग पर बालाजी के वर्चस्व ने एकता में गुरुर पैदा कर दिया हो...और यह भी हो सकता है कि कई लोग उनकी यह अभूतपूर्व सफलता पचा न पा रहे हों? कारण दोनों हो सकते हैं। एकता के चाल-चरित्र को लेकर अब फिल्में भी रची जाने लगी हैं। गणेश आचार्य की 'मनी है तो हनी है' में एकता के 'मर्दाना रवैये ' पर खूब कटाक्ष किया। गोया बालाजी टेलीफिल्म में काम करने वाले कलाकार बंधुआ मजदूर-सरीखे हों। यह हैरानी वाली बात भी हो सकती है कि पिछले कई सालों से एकता फिल्म उद्योग, खासकर टेलीविजन, तथाकथित समाजसेवियों और मीडिया के निशाने पर रही हैं, लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ। उनके होंठों पर सदैव मुस्कान अठखेलियां करती रहती है, मानों वे चिकने घड़े का प्रतीक हों।...लेकिन अब अचरज तो यह होता है कि बालाजी प्रोडक्शन की फिल्मों में भी एकता के ऐसे रंग-ढंग को मनोरंजन में ढाला जाने लगा है। हालिया रिलीज फिल्म 'सी कंपनी' इसका ताजातरीन उदाहरण है। यह भी संभव है कि एकता अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए ऐसा कर रही हों, या वे यह बताना चाहती हों कि उन पर कीचड़ उछालने वाले कोई दूध से धुले नहीं हैं। वहीं ऐसा भी आभास होता है कि एकता यह जताने का प्रयास कर रही हैं कि यह लड़की हर संकट में मुस्कराती रहेगी, जैसा फिल्म के एक दृश्य में होता है। अंडरवर्ल्ड डान यानी मिथुन चक्रवर्ती एकता को कड़ी फटकार लगाते रहते हैं, लेकिन वे तनिक भी विचलित नहीं होती और मुस्कराती रहती हैं।
दरअसल, कोई भी इंसान यह दावा और प्रमाण पेश नहीं कर सकता कि वह दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। चूक सबसे होती है, लेकिन जो उनसे सबक हासिल कर लेता है, वह श्रेष्ठ मानवों की श्रेणी में शुमार हो जाता है। एकता कपूर ने भी बहुत गलतियां की होंगी, लेकिन क्या इस बात को नकारा जा सकता है कि बालाजी टेलीफिल्म ने नवोदित कलाकारों के संघर्ष को कम किया है। आज बालाजी से हजारों कलाकार, तकनीशियन और अन्य विधाओं के माहिर लोग जुड़े हुए हैं। बालाजी उनके रोजी-रोटी का जरिया बना हुआ है। बालाजी टेलीफिल्म से जुडे मेरे कुछ मित्र बताते हैं कि वहां काम करके यूं लगता है मानों वे कलाकार नहीं, दिहाड़ी मजदूर हों। लेकिन वे इस बात को भी स्वीकारते हैं कि अगर बालाजी टेलीफिल्म न होता, तो न जाने कितने कलाकार संघर्ष करते-करते बुढा जाते।
यह विडंबना ही है कि बहुसंख्यक लोग अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते, लेकिन एकता ने अपने असंयमित व्यवहार पर तमाम हो-हल्ला के बावजूद खुद को संयमित रखा। 'सी कंपनी' में एक विदूषक की भूमिका निभाते हुए उन्होंने खुद का उपहास बनाया, ऐसा साहस बहुत कम लोग दिखा पाते हैं। शायद एकता ने यह बताने की कोशिश की है कि आलोचनाएं उन्हें कभी विचलित नहीं का पातीं, या उनके बुरे बर्ताव के लिए दूसरे लोग भी दोषी हैं...या उनके बारे में जैसा प्रचारित किया जाता है, वो सौ टका सच नहीं है! एकता का मकसद जो भी रहा हो, लेकिन उनका यह साहस सलाम के योग्य है।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

रोजगार गारंटी योजना हुई विफल

फजीहत बना पलायन

  • पल्लवी वाघेला
रोजगार गारंटी योजना की असफलता के चलते गुजरात सीमा से सटे गांवों में पलायन हो रहा है। हालांकि रोजगार की तलाश में इन इलाकों के गरीबजन पहले भी गुजरात की ओर जाते रहे हैं, लेकिन इस योजना की फ्लॉप हो जाने से पलायन तेजी से बढ़ा है। सीमावर्ती इन गांवों में भुखमरी जैसे हालात निर्मित हो गए हैं। बीमारियां लोगों के मनोबल को तोड़ रही हैं और शिक्षा की लौ बुझती दिखाई पड़ रही है।
लगातार जारी पलायन के पीछे रोजगार गारंटी में हो रहा भ्रष्टाचार मुख्य कारण बताया जा रहा है। अलीराजपुर और झाबुआ जिले के कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां जॉब कार्ड तो बने हैं, लेकिन वे पंचायत सचिव के पास पड़े रहते हैं। इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में फर्जी जॉब कार्ड का इस्तेमाल भी हो रहा है। दूसरी ओर कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां काम तो शुरू कर दिए गए, लेकिन वह अधूरे पड़े हैं। समय पर पैसा नहीं मिलता : जिन क्षेत्रों में रोजगार गारंटी योजना के तहत सही तरह से काम हो रहे हैं, वहां समय पर पैसा न मिलने के कारण मजदूर बगावती हो उठते हैं और अंतत: पलायन के लिए मजबूर हो जाते हैं। दरअसल काम तो शुरू कर दिए जाते हैं, लेकिन प्रशासनिक फाइलों में उलझा पैसा बाहर आने में इतना समय ले लेता है कि मजदूर इसकी अपेक्षा गुजरात जाना बेहतर समझते हैं। कहते हैं सरपंच गुजरात से लगी ग्राम पंचायत बड़ा उंडवा की सरपंच बिरजा बाई बताती हैं कि पढ़ी-लिखी न होने के कारण यह काम सचिव ही देखता था। उन्हें गांव वालों से पता चला कि मजदूरों के जॉब कार्ड सचिव के पास ही रखे रहते हैं और उन्हें काम नहीं मिल पाता। उन्होंने लिखित में जनपद पंचायत में सचिव मुकाम सिंह की शिकायत की। अब उनके यहां योजना का क्रियान्वयन सही तरीके से हो रहा है। ग्राम पंचायत बेहड़वा के सरपंच विश्राम सिंह चौगढ़ लाख प्रयासों के बाद भी पलायन नहीं रोक पा रहे हैं। वे कहते हैं कि लोगों को समझाना बहुत कठिन है। वह अपने 14-15 साल के लड़कों के लिए भी काम चाहते हैं। वह चाहते हैं उनके भी जॉब कार्ड बनें, जो संभव नहीं। गुजरात के मुकाबले यहां मजदूरी भी कम है और समय पर पैसा भी नहीं मिल पाता। ऐसे में हम चाह कर भी उन्हें रोक नहीं पाते।
यह भी समस्या
  • क्षेत्र के ग्रामीणों का कहना है कि गुजरात में अधिक और इका पैसा मिलता है, यह व्यवस्था यहां नहीं।
  • ग्रामीणों द्वारा रोजगार गारंटी के तहत बच्चों को रोजगार दिलाने की जिद की जाती है, जिसे पंचायत पूरा नहीं कर सकती।
  • कई जगह निर्धारित राशि 85 रुपए से कम का भुगतान किया जाता है।

( यह रपट दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में 20 सितंबर,08 प्रकाशित हुई है। देवी अहिल्याबाई यूनिवर्सिटी, इंदौर से पत्रकारिता की डिग्री लेने वालीं पल्लवी इन दिनों संवाद फेलोशिप के तहत पंचायतीराज में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर काम कर रही हैं)


शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

आतंकवाद की आग पर राजनीतिक रोटियों की सिकाई


...फिर कौन है देशद्रोही?

  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
मुंबई के मुस्लिम बहुल इलाकों में आतंकवादियों के प्रति नफरत जाहिर करना जानलेवा भी साबित हो सकता है। अकेली मुंबई नहीं, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में मुस्लिम बस्तियों में हिंदुस्तानी होने जैसे कोई भाव नजर नहीं आते। आप इन बस्तियों में एक अच्छे और देशभक्त भारतीय होने का साहस नहीं दिखा सकते, खासकर तब जब चर्चा या बहस का विषय आतंकवाद या पाकिस्तान हो। मुंबई का उदाहरण इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि देश की यह आर्थिक राजधानी हमेशा से आतंकवादियों के निशाने पर रही है। मैंने खुद इन बस्तियों में पाकिस्तानी रंग देखे हैं। यह बात मुंबई में 1993 में हुए बम विस्फोटों और दंगों के बाद की है। शायद 96 या 97 में अपने एक मित्र के साथ मुंबई घूमने गया था। मित्र के एक मुस्लिम परिचित थाणे इलाके की किसी बस्ती में रहते थे। हम दोनों तीन-चार दिन वहीं ठहरे। हम जितने दिन भी वहां रुके, मन में एक अज्ञात भय हमेशा बना रहा। यह भय हमारे हिंदू और हिंदुस्तानी होने की वजह से था।

मुद्दा यह नहीं है कि भारत में रहने वाली मुस्लिम कौम भारतीय कहलाने में गर्व क्यों महसूस नहीं करती, चिंता इसकी है कि अब हिंदू और मुसलमानों के बीच इतनी अधिक दूरी बढ़ चुकी है कि, भारत कहीं से भी धर्मनिरपेक्ष देश दिखाई नहीं देता। हम लाख कहते रहें, लेकिन कड़वा सच यही है कि हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता के भाव काफूर और काफिर हो चले हैं। भारत कभी भी सांप्रदायिक सौहार्द्र की कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतरा। आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता का क्या हश्र हुआ और क्या हो रहा है, यह जगजाहिर है। दुःखद और विडंबना यह है कि अब हर गली, हर शहर साम्प्रदायिक नफरत की हद में आ चुका है। साम्प्रदायिक अलगाववाद की आग से अकेला कश्मीर नहीं, कन्याकुमारी तक हिंदुस्तान झुलसा पड़ा है। जहां कहीं भी मुस्लिम बहुलता है, वहां दंगे होते रहे हैं या हमेशा कोशिशें जारी रहती हैं। बेशक दोष अकेले इस संप्रदाय का नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य, हर देशद्रोही हादसों में इन्हीं पर अंगुलियां उठती रही हैं। हिंदुओं के प्रति नफरत की कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन अपने देश से घृणा? कुछ समझ नहीं आता, आखिर देशद्रोही कौन है?

हाल में दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के बाद भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि और अधिक धूमिल हुई है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हर हादसे के पीछे एक मुस्लिम चेहरा/सोच और इरादा दिखाई दिया। दरअसल, आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक दल सदैव दो ध्रुवों में बंटे रहते हैं। मुस्लिम और हिंदू वोट बैंक का लालच इसकी मूल वजह रहा है। एक पार्टी बिना सोचे-समझे वर्षों से समूची मुस्लिम कौम को आतंकवादी ठहराने पर आमदा है, वहीं दूसरी पार्टी दोषियों को सिर्फ इस वजह से बचाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती क्योंकि वे उनका वोट बैंक हैं। सिर्फ वोट बंटोरने के मकसद से किसी सम्प्रदाय या संगठन का विरोधी या समर्थक होना देश के हित में कतई नहीं हैं। इसे भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी कहें, या राजनीति की गंदे सिद्धांत/सोच, पिछले कुछ सालों से आतंकवाद का नया रूप सामने आया है। मामला 13 दिसंबर, 2001 में भारतीय संसद पर हुए आतंकी हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु का हो या दिल्ली धमाके के मोस्ट वांटेड अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर का, एक प्रायोजित और सुनियोजित तरीके से समूची दुनिया के सामने भारत की साख पर बट्टा लगाने के प्रयास जारी हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि वोट बैंक की गर्ज से कुछ पार्टियां भी उनकी इस मुहिम को खुलकर या अंदरूनी तौर पर समर्थन दे रही हैं। अफजल गुरु को देशद्रोह साबित हो जाने के बावजूद फांसी नहीं दी जा सकी है। गुरु को बचाने के लिए कई संगठन दुनियाभर में हायतौबा मचाए हुए हैं। हैरानी इसमें नहीं कि गुरु को रिहा कराने के लिए कश्मीरी मुस्लिम नेता दिल्ली से लेकर लंदन तक अभियान छेडे हुए हैं, इस गंदे खेल में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें गुरु के गद्दार होने को लेकर कोई शंका नहीं है। समर्थन के पीछे सिर्फ सत्ता का लालच काम कर रहा है। अब यही खेल तौकीर को लेकर खेला जा रहा है। तौकीर की मां जुबैदा कुरैशी चीख-चीखकर मीडिया के सामने अपने बेटे को निर्दोष कह रही हैं, जबकि 2001 में वे उससे नाता तोड़ चुकी हैं।

1993 में मुंबई में हुए बम विस्फोटों के बाद भी आरोपियों को बचाने यही राजनीतिक पैंतरा अपनाया गया था। कौन दोषी है और कौन निर्दोष? सवाल यह नहीं है, मुद्दा यह है कि आखिर हर जांच के बाद अपने ही पुलिस तंत्र पर अंगुलियां क्यों उठाई जाती हैं? आतंकवादी घटनाओं पर सदैव पुलिस की नाकामी बताकर पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति देश के लिए बेहद घातक है। सबसे खतरनाक तब, जब दोषियों के समर्थन में उठ रहे हाथों को शह दी जा रही हो। इसे क्या कहेंगे कि तमाम आतंकी हादसों के बावजूद कांग्रेस सिमी जैसे संगठनों को लेकर चुप्पी साधे बैठी है, लेकिन उडीसा, कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों में ईसाई समुदाय पर हुए हमलों के मामले पर भगवा बिग्रेड पर प्रतिबंध की मांग उठा रही है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन वर्षों से कांग्रेस के निशाने पर रहे हैं।...पर सिमी का क्या किया जाए? क्योंकि सिर्फ केंद्र की चूक के चलते उस पर से प्रतिबंध हटते-हटते रह गया था। पूरा देश और वे लोग भी जो सिमी की वकालत कर रहे हैं, भली-भांति जानते हैं कि यह संगठन आतंकी गतिविधियों में लिप्त है, बावजूद इस पर नकेल नहीं कसी जा सकी है क्यों? कारण आतंकवाद के मुद्दे पर एकजुटता का अभाव। पोटा के मामले में भी यही देखने को मिला । संभव है इस कानून का दुरुपयोग हुआ हो, तो क्या कश्मीर से भी धारा 370 नहीं हटाई जानी चाहिए? आज से नहीं, तब से जब से कश्मीर मुद्दे ने जड़ पकड़ी है, वहां के मुस्लिमजन सेना पर अंगुली उठाते रहे हैं। फिर कश्मीर और अन्य प्रांतों को अलग-अलग तराजू पर क्यों तौला जा रहा है? खासकर तब, जब आतंकवाद का स्वरूप कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक सा हो।

दैनिक भास्कर के संपादकीय पेज (19 सितंबर) पर राजदीप सरदेसाई लिखते हैं-'जब तक ऐसे नरसंहारों को राजनेता विचारात्मक मसलों में तब्दील करते रहेंगे, दहशतगर्द हमेशा जीतेंगे।' पंजाब केसरी में विशेष संपादकीय के तहत अश्विनी कुमार दो टूक कहते हैं-'आतंकवाद का मुकाबला केवल कड़े कानून बनाने से ही नहीं होगा, इसके लिए इच्छाशक्ति का भी होना जरूरी है। यदि संकल्प ही नहीं, तो इच्छाशक्ति कैसे होगी?।' दरअसल, बात पोटा या टाडा की नहीं, राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीयत की है। बात जब देशहित की हो, तो निजी हित विस्मृत कर देने की बहुत जरूरत है।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

दोषी कौन कोसी या माओवादी?

कोसी का 'प्रचंड' रूप

  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
    बिहार और बिहारी भारत के लिए हमेशा चिंता का कारण रहे हैं, सिवाय कुछ अपवादों के। संदर्भ कई हो सकते हैं, लेकिन जब भी या जहां कहीं भी बिहार या बिहारियों को लेकर चर्चा या बहस शुरू होती है, देश की आधी से ज्यादा आबादी इस राज्य के विरोध में खड़ी दिखाई देती है। वजहें तमाम हैं, जो हमेशा नए विवादों को जन्म देती रही हैं। यह बिहारियों का दुर्भाग्य हो सकता है कि उनके राज्य में विकास को नहीं, स्वार्थ को सर्वोपरी माना जाता रहा है। कुछ प्रतिशत बिहारियों को छोड़ दिया जाए, तो इस राज्य की ज्यादातर आबादी सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों या बुराइयों का शिकार बनी हुई है। जो लोग थोड़ा-बहुत भी आर्थिक रूप से सुदृढ हैं, वे धीरे-धीरे अपने प्रदेश से पलायन कर रहे हैं। उनका यह जीवन संघर्ष दूसरे राज्यों पर बोझ-सा बन रहा है...और जो मराठी बनाम उत्तरभारतीय जैसे मुद्दों को जन्म दे रहा है। भारत का शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा, जहां बिहारियों ने अपनी बस्ती न बनाई हो?

बिहार पहले से ही बीमार था और रही सही कसर कोसी ने पूरी कर दी। लाजिमी है, बिहार को संभलने में सालों लग जाएंगे। यह आपदा अकेले बिहार के लिए दुःखदायी नहीं रही, दूसरे राज्यों के लिए भी चिंता का सबब बन गई है। भले ही दूसरे राज्य विपदा में फंसे बिहार की दशा देखकर मुंह न खोलें, लेकिन भीतर से उनमें उथल-पुथल मची हुई है। यह घबराहट इस बात को लेकर नहीं है कि बिहार का जनजीवन वापस पटरी पर लाने के लिए और कितनी मदद करनी पड़ेगी, चिंता इसे लेकर है कि अब और कितने बिहारी पलायन करेंगे...कितने उन पर बोझ बनेंगे? महाराष्ट्र को लेकर कोई संशय की स्थिति नहीं है, क्योंकि उत्तरभारतीयों को लेकर वहां जो घृणा के बीज बोये गए हैं, वे कभी न कभी तो पेड़ बनकर विषभरे फल पैदा करेंगे ही? इसलिए बिहारियों के लिए महाराष्ट्र की डगर अधिक कठिन है, बनिस्वत दूसरे राज्यों के।

कोई लाख कहे, लेकिन हर राज्य बिहारियों को अपने घर में ठीया देने से कतराता है। मुंबई के हर फुटपाथ, खोमचे, आटो रिक्शा और रोजगार के अन्य छुटपुट संसाधनों पर बिहारी काबिज हैं। मध्यप्रदेश, पंजाब और दिल्ली के स्थानीय वाशिंदे उनसे तंग आ चुके हैं। चिढ इसे लेकर नहीं है कि बिहारी धीरे-धीरे उनके रोजगार छीन रहे हैं, गुस्सा इस बात पर है कि उनके ही राज्य में बिहारियों द्वारा उन्हें रोजगार करने से रोका जाता है, अड़ंगा लगाया जाता है। बहरहाल, कुछ दिनों से बिहार की बाढ़ समूचे हिंदुस्तान में चर्चा का विषय बनी हुई है। देशभर से बिहारियों के लिए मदद पहुंच रही है, आपदा प्रबंधन के नाम पर अपना पेट भरने वाले भी खुश हैं, लेकिन इस विपदा को राज्यसभा सदस्य और शेतकरी संगठन के संस्थापक शरद जोशी ने देश पर मंडराता एक भयंकर संकट बताकर नई चिंता पैदा कर दी है।

'नदी नाम के हथियार का परीक्षण' शीर्षक से दैनिक भास्कर, भोपाल में 18 सितंबर को संपादकीय पृष्ठ पर छपा उनका यह लेख सनसनी पैदा करता है। दरअसल, बिहार की बाढ़ के लिए पडौसी मुल्क नेपाल को अधिक दोषी माना गया है। कोसी का जन्म नेपाल से होता है, जो भारत में प्रवेश करते-करते बड़ी नदी का रूप धारण कर लेती है। हैरानी की बात देखिए कि इस नदी पर नेपाल सरकार ने भारत की मदद से कुछ बांध बनाए हैं, बावजूद उसने पानी छोड़ते वक्त अपने मददगार मित्र देश का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा। हालांकि कोसी आज से नहीं, वर्षों से बिहार पर संकट बनकर टूटती रही है, लेकिन इस साल जो हुआ, उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। चूंकि चीन और भारत के संबंध कभी भी ठीक-ठाक नहीं रहे, इसलिए इस बार कोसी की बाढ़ को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है।

दुनिया पर प्रभुत्त की लडाई में अमेरिका की चीन से ठन चुकी है, यह सब जानते हैं। ...तिब्बत पर चीन कब्जा जमाए हुए है और उसकी नजर भारत के सीमावर्ती राज्य पर भी टिकी हुई है। दूसरी ओर नेपाल और भारत के मधुर संबंध रहे हैं, लेकिन माओवादियों के सत्ता में आने के बाद यह रिश्ता संशय की स्थिति में हैं। चूंकि चीन माओवादियों का हितैषी और मददगार रहा है, ऐसे में दोस्ती के इस त्रिकोण में भारत की स्थिति सबसे ज्यादा कमजोर हुई है। यह सब जानते हैं कि भारत में चीनी उत्पाद अवैध रूप से नेपाल के रास्ते से ही पहुंचते हैं। नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने के बाद शायद इस गैर कानूनी निर्यात को और बल मिले। परमाणु मुद्दे पर अमेरिका और भारत के बीच रिश्तों की नई कहानी रचे जाने के बाद चीन का ईर्ष्यालु रवैया और जोर पकडेगा। भारत के कम्युनिष्ट नेताओं पर माओवादियों की गहरी छाप रही है। कुछ महीने पहले विदेश नीति के जानकार एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने लेख में उल्लेख किया था कि कम्युनिष्ट नेता चीन से अपनी निष्ठा दिखाने के लिए कभी भी भारत और अमेरिका के रिश्ते को मंजूरी नहीं देंगे। कहने का सीधा अर्थ यह है कि नेपाल में माओवादियों के सत्ता में आने के बाद चीन की कूटनीतिक चालों को और प्रशस्त मार्ग नसीब होगा। शरद जोशी की चिंता शायद वाजिब नजर आती है। लेखक का तर्क है कि आखिर कोसी ने इतना विकराल रूप पहले क्यों नहीं दिखाया? चूंकि अब कोसी की चाबी माओवादियों के हाथों में है....और चीन तथा उनकी खूब घुटती है, ऐसे में इस शंका को बल मिलना स्वाभाविक है कि कहीं कोसी की बाढ़ कोई खतरनाक प्रयोग तो नहीं था?

दरअसल, नेपाल के लिए कोसी एक ऐसा वाटर बम है, जिसे वह भारत के खिलाफ कभी भी आजमा सकता है। इस वाटर बम को कब इस्तेमाल करना है, अगर यह योजना चीन के दिमाग की उपज है, तो निःसंदेह भारत के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। ऐसे सबूत भी कई बार मिल चुके हैं कि माओवादी के नक्सलियों से गहरे संबंध रहे हैं। वे उन्हें ट्रेनिंग से लेकर आर्थिक मदद तक उपलब्ध कराते हैं। यह चिंता भी लाजिमी है, क्योंकि नक्सली समस्या से निपटने पर भारत को काफी धन और बल का नुकसान उठाना पड़ रहा है।

अगर हाल-फिलहाल, भारत और अमेरिका का आर्थिक विश्लेषण किया जाए, तो दोनों की ही हालत ठीक नहीं है। अमेरिकी बाजार धडाधड़ गिर रहा है, वहीं अप्रत्याशित महंगाई ने भारत की कमर तोड़ कर रख दी है। केंद्र और कई राज्यों में चुनाव नजदीक हैं। इसके प्रबंधन के लिए बहुत पैसा चाहिए, ऐसे में ऐन वक्त पर बिहार की बाढ़ गरीबी में आटा गीला करने वाली स्थिति ही कही जाएगी। इसमें तर्क की कोई गुंजाईश नहीं कि कोसी की बाढ़ ने अकेले बिहार को नहीं डुबोया, समूचे हिंदुस्तान को परेशानी और संकट में डाला है। आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूप से। सामाजिक स्तर पर इसलिए क्योंकि बाढ़ के बाद बिहार से पलायन और बढेगा , जो दूसरे राज्यों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा करेगा। बात अकेले महाराष्ट्र की नहीं है, मध्यप्रदेश, पंजाब, दिल्ली आदि तमाम प्रदेशों में बिहारियों की आमद से घृणा और अधिक बढेगी। दो टूक कहें, तो कोसी की बाढ कहीं समूचे हिंदुस्तान को न ले डूबे!

बुधवार, 17 सितंबर 2008

खौफ यहाँ भी है और वहां भी...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
पिछले गुरुवार के दोपहर की बात है, सीमा मलिक का फ़ोन आता है। वे चाहती थीं कि मैं फिल्म 'अ वेन्ज़डे ' जरूर देखूं और उस पर कुछ लिखूं। सीमा इस फिल्म में एक पुलिस अफसर की बीवी बनी हैं। अमूमन हर फिल्म अभिनेता/ अभिनेत्री पत्रकारों को इस गर्ज से फोन लगाते हैं कि वे फिल्म देखें और उनके किरदार पर अपनी टीका-टिप्पणी करें, ताकि उनके अभिनय का सटीक मूल्यांकन हो सके, लेकिन यहां ऐसा नहीं था। सीमा चाहती थीं कि यह फिल्म हर वो भारतीय देखे, जिसके भीतर थोड़ी -बहुत भी मानवीय संवेदना मौजूद है। इसे एक कलाकार का देश और समाज के प्रति नैतिक कर्तव्य भी मान सकते हैं। सीमा से बातचीत के कुछ दिन पहले दैनिक भास्कर (भोपाल) के नियमित कालम 'पर्दे के पीछे' में जयप्रकाश चौकसे ने भी लिखा था कि, यह फिल्म हर भारतीय को देखनी चाहिए। मैं इस कालम का नियमित पाठक हूं, सो, यह ठीक से जानता था कि जयप्रकाश चौकसे जब भी किसी फिल्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हैं, तो उसमें गंभीरता का गहरा भाव निहित होता है। ऐसे में सीमा का आग्रह दिल-ओ-दिमाग को उद्देलित कर गया कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है? सीमा भोपाल से ताल्लुक रखती हैं और भोजपुरी फिल्मों की बड़ी स्टार मानी जाती हैं।
खैर, जब 'अ वेन्ज़डे' देखी, तो स्प्ष्ट हो गया कि जयप्रकाश चौकसे और सीमा मलिक ने क्यों चाहा कि हर भारतीय यह फिल्म देखे? हिंदी सिनेमा पर 'दंगाई संस्कृति' का गहरा प्रभाव रहा है। दंगा को संस्कृति से इसलिए जोड़ रहा हूं, क्योंकि दंगाइयों में पाशविक विचार और आचरण एक प्रायोजित और सुनियोजित तौर-तरीकों से रोपित किए जाते हैं। उनके संस्कारों में क्रूरता और हिंसा के बीज बोए जाते हैं। कोई लाख कहे कि दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता, लेकिन जो सच है, झुठलाया नहीं जा सकता। दंगे के दौरान लूटपाट या अपनी दुश्मनी निकालने वाले ज्यादातर लोग जरूर अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि वे दंगाई संस्कृति के अनुयायी नहीं होते...वे तो मौकापरस्त कहलाएंगे। जबकि दंगाइयों को लूटपाट से नहीं, हिंसा से संतुष्टि मिलती है।
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा मुल्क होगा, जो हिंसा से अछूता हो! यह हिंसा सामान्य अपराध की श्रेणी में तो कतई नहीं आती। दंगे का आकार और प्रकार कुछ भी हो सकता है, लेकिन सबका मूल साम्प्रदायिक वर्चस्व या नस्लभेद ही है। अगर कोई इस तर्क से सहमत नहीं है, तो कोई एक ऐसा दंगा बता दे, जो मजहबी वर्चस्व या नस्लभेद या जातिगत ऊंच-नीच की वजह से न हुआ हो? यह दीगर बात है कि किसी भी प्रकार की हिंसा इनसानियत और मानव सभ्यता के लिहाज से उचित नहीं है, बल्कि यह घातक है। बावजूद मानव सभ्यता के साथ ही हिंसा का भी जन्म हो गया था। जीव-जगत हिंसा से परे कभी नहीं रहा।
बहरहाल, 'अ वेन्ज़डे' कोई देखे या न देखे, लेकिन दंगा संस्कृति में रचे-बसे हिंसक प्राणियों और उनके परिजनों को जरूर देखनी चाहिए। फिल्म इस वजह से खास नहीं है कि इसकी पटकथा में कसावट है या अनुपम खेर और नसरुद्दीन शाह का अभिनय बेहद प्रभावी है...फिल्म इसलिए देखने की जरूरत है, क्योंकि यह एक आम आदमी का आतंक से निपटने का एक आतंकी प्रयास है। इसे प्रशासनिक नज़रिए से एक नए आतंक का उदय भी कहा जा सकता है। संभव है कि फिल्म के डायरेक्टर नीरज पांडे के इस 'पलटवार तौर-तरीके' से सैकडों हिंदुस्तानी सहमत भी हों? फिल्म इस वजह से भी खास बन पड़ी है, क्योंकि इसमें पुलिस, मीडिया और सरकार पर अंगुली उठाने की बजाय, उनमें आतंकवाद के निर्मूलन के प्रति एक सोच-विचार एवं एक ही तौर-तरीका अख्तियार करने के प्रति मौन स्वीकृति दिखाई गई है। अहिंसावाद के अनुयायी 'अ वेन्ज़डे' को शायद ही पचा पाएं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हर चीज और हर आचार-विचार की एक सीमा होती है, आतंकवाद 'गांधीगीरी' की लिमिट से बाहर है।
यहां इसी मु्द्दे पर अनुराग कश्यप की फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' का भी जिक्र भी लाजिमी है। 1993 में मुंबई में हुए बम धमाकों पर बनी यह फिल्म दंगाई संस्कृति से संस्कारित लोगों के दिलो-दिमाग का पोस्टमार्टम कही जा सकती है। यह फिल्म भी दंगाइयों/ आतंकवादियों के परिजनों और उनके पालनहारों के लिए एक सबक है । इस फिल्म में भोपाल के ही राज अर्जुन ने छोटा, किंतु सशक्त किरदार निभाया है। राज जब भी सिनेमा पर चर्चा करते हैं, तो वे इस फिल्म का जिक्र करना नहीं भूलते। काफ़ी समय तक इस फिल्म पर बेन लगा रहा। जब तक उस पाबंदी हटी, अफसोस! लोगों का उस पर से ध्यान हट चुका था। 'ब्लैक फ्राइडे' और 'अ वेन्ज़डे' दोनों ही फिल्में एक ही विषय पर रची गई हैं, लेकिन दोनों के भाव अलग हैं। ब्लैक फ्राइडे बम धमाकों के आरोपियों में पुलिसिया खौफ की एक बानगी है। धमाकों के बाद पुलिस से भागते आतंकी और उनके परिजनों पर पुलिस का कहर यह बताने का प्रयास था कि निडर कोई नहीं है, न आम आदमी और न आतंकवादी। दूसरों का कत्ल करने वाले भी मौत से खौफ खाते हैं।

बुधवार, 10 सितंबर 2008

पहचान कौन?

दोस्तों,
यह पहेली बहुत आसान है। ये सभी बिग बास के घर के मेहमान हैं।

1
भूतनी जैसी हरकत करतीं , बोली इकदम ठेठ।
बिग बास के घर में रहतीं, सरनेम जिनका सेठ।।
राहुल की मुंहबोली बहना, आइटम नंबर वन।
जो उलझे वो मुंह की खाए, जानें वो हर फन।।
उद्दंड नारी, डरे फैमिली सारी...

2
अरा..र..रा..ये क्या हो गया, नामिनेशन में आया नाम।
माना जिसको अपना नेता, लगा दिया उसी ने काम।
बनी हुई हैं टीचर फिर भी बहुत बुरा है हाल।
सिखा रहीं पीटी बच्चों को, मिलते नहीं कदमताल।।
खूब करें काम, फिर भी हुई बदनाम...

3
बात-बात पर सुर जो साधें, दिनभर करते गान।
दोस्त बोलें, रहम करो, क्यों पका रहे हो कान।।
राजनीति के बड़े खिलाड़ी, गुपचुप चलते दाव।
बहला-फुसलाकर यारों की डुबो रहे हैं नाव।।
तेरा रूप विराट, हे सुर सम्राट...

4
बोलचाल में अदब झलकता, मोहक है मुस्कान।
बैर न पालें कभी किसी से, यार छिड़कते जान।।
रंग चढ़ा ग्लैमर का ऐसा, बदल दिए फीचर।।
कामेडी के मास्टर हैं वो, कभी रहे टीचर।
हंसते-हंसते कट जाएं रस्ते, यही उनका संदेश..
(जवाब अगली पोस्ट में)

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

व्यंग्य-कहानी

शायराबाई की उमर


  • अमिताभ बुधौलिया'फरोग'
    हमारे मोहल्ले में एक नई-नवेली दुल्हन की भांति आगमन हुआ था शायराबाई का। उड़ते-उड़ाते सिर्फ इतनी -सी बात कानों तक आई थी, कि वे किसी सरकारी दफ्तर में मुलाजिम हैं और हाल ही में उनका यहां तबादला हुआ है। शायराबाई का आना क्या हुआ, मानो बूढ़ों की भी जवानी लौट आई थी। सालों से बंद पड़ीं खिड़कियां, जो अभी तक सिर्फ इस वजह से नहीं खुलती थीं कि कहीं टूटी-फूटी पड़ी सीवेज लाइन की दुर्गंध और मच्छरों का झुंड घरों में बीमारियां न ले आए, शायराबाई के आने के बाद से बेधड़क चैबीसों घंटे खुली रहने लगी थीं। इन खिड़कियों से बड़े-बूढ़े और जवान सभी के ताकने-झांकने का सिलसिला चल पड़ा था। मच्छरों और गंदगी से बीमारियों का डर मानों मिट-सा गया था। या यूं कहिए, शायराबाई की सिर्फ एक झलक पाने की खातिर पड़ोसियों में जोखिम उठाने का साहस पैदा हो गया था।

एक रोज अलसुबह अपने घर पर मोहल्ला सुधार समिति के स्वयंभू मुखिया पोपले साहब की मौजूदगी से मैं दंग रह गया। वजह, सारा मोहल्ला हमें ‘कोरे कवि’ के नाम से पुकारता था...और यह संबोधन पोपले साहब ने ही बतौर उपाधि हमें प्रदान किया था। सो, मेरा चैंकना स्वाभाविक था। इससे पहले कि मैं कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोल पाता, पोपले साहब फुदक-से पड़े-‘कवि महोदय, पता है मोहल्ले में एक नई पड़ोसन आई है? खूब तारीफ सुन रखी है उसकी...।’ मैंने मुस्कराते हुए कहा-‘शायराबाई...यही नाम है न उसका...? ‘हां, हां, नाम-वाम को छोड़िए, हमें तो यह भी मालूम चला है कि उन्हें भी आपकी तरह कविता-वविता लिखने का शौक है।’ पोपले साहब कुछ यूं बोले मानों वे अभी-अभी शायराबाई की जीवनी रटकर आए हों। मैंने हैरानी से पूछा-‘पोपले साहब, आपने कैसे जाना...’? पोपले साहब कुछ देर मंुह बाये आकाश में ताकते रहे। उनकी शक्ल यूं लग रही थी मानों शायराबाई से उनका कोई पुराना टांका फिट रहा हो और शायद कोई पुराना वाक्या याद आ गया हो। अचानक पोपले साहब ने दाएं-बाएं देखा और फुसफुसाए-‘कवि महोदय, किसी को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए, तो मैं बताने का तैयार हूं?’ मेरी जिज्ञासा कुलाचे भरने लगी थी-‘आप बेफिक्र रहें।’ ‘मेरी बाई उनके यहां भी चैका-बासन करने जाती है। उसी ने बताया है कि मैडम घंटों कागज पर कुछ लिखती रहती हैं। बीच-बीच में कुछ गुनगुनाती भी हैं। बस समझते देर नहीं लगी। क्योंकि आप भी तो घंटों यूं ही....। ’इतना कहने के साथ ही पोपले साहब खींसें निपोरने लगे। ‘ही...ही...ही...।’ उनके पिचके गालों के भीतर से नकली दांत कुछ पल के लिए यूं झांके मानों फोटो खींचते वक्त फ्लैश चमकता है। पोपले साहब का बोलना जारी था-‘कवि महोदय, हमारे लिए भी कोई अच्छी-सी एक-दो कविताएं-वविताएं लिख दीजिए।’ मैंने आश्चर्य से पूछा-‘क्यों’? उन्होंने कुछ यूं नजरें चुराई जैसे सुहाग की सेज पर दुल्हन सकुचाती है-‘मेरे हिसाब से एक कवि उनका सामीप्य जल्द पा सकता है।’

मोहल्ले के और भी कई लोग मेरे पास कविता लिखवाने आए। हालांकि सबका बहाना अलग-अलग था। किसी का कहना था-‘महोदय, बच्ची को स्कूल में बालसभा के दौरान कविता सुनाने को कहा गया है।’ कोई बोला-‘आपकी कविता की बहुत तारीफ सुन रखी है, इसलिए सोचा चलो एक कविता लिखवाकर ले ली जाए। मौके-बेमौके सुनाने के काम आएगी।’ मुझे समझते देर नहीं लगी कि पोपले साहब की बाई ने ‘किसी से न कहना’ कहते-कहते शायराबाई के कवित्त प्रेम के बारे में मोहल्लेभर में ढिंढोरा पीट डाला है। मेरे पास कुछ ऐसे महाशय भी आए, जो मोहल्ला सुधार समिति के चिपकू पदाधिकारी कहे जाते हैं। खैर मैंने भी सोचा चलो, यह अच्छा अवसर है अपनी कलम भुनाने का। वैसे भी अखबारों और मैग्जीन से बेरंग लौटती कविताओं को खपाने-कमाने का इससे बेहतर मौका भला कहां मिलने वाला था। अगले दिन मैंनेे घी के कनस्तर से एक बोर्ड बनवाकर अपने दरवाजे पर लटका दिया। उस पर बड़े-बड़े लाल-काले अक्षरों में लिखवा दिया था-उचित रेट पर कविता खरीदने के लिए संपर्क करें। पहले आएं और लेटेस्ट कविता पाएं। शायराबाई के अनदेखे हुस्न का जादू मोहल्लेवालों के सिर चढ़कर बोल रहा था। हालांकि अभी तक किसी को भी शायराबाई के हुस्न का दीदार करने का चांस नहीं मिला था। पोपले साहब ने फिजूल की बातों में उलझाकर एक-दो मर्तबा शायराबाई के बुर्के के अंदर झांकने का प्रयास जरूर किया, लेकिन उनकी खूंखार कुतिया के कारण दाल न गल सकी। इक दिन मैंनेे सुना कि पोपले साहब ने गुपचुप ढंग से यह घोषणा कर दी है कि जो शायराबाई की उम्र का राज फाश करेगा वे उसे समिति में कोई बड़ा पद दिलवा देंगे। दरअसल, समिति आयोजनों के नाम पर साल में चार-छह बार चंदा उगाह लेती थी। यह दीगर बात है कि इन आयोजनों में समिति के सदस्यों के अलावा अन्य किसी को घुसने का मौका नहीं दिया जाता था। या यूं कहिए कि पोपले साहब इन आयोजनों को गुप्त मीटिंग का नाम देकर दारू-मुर्गा पार्टी पर बेवजह बोझ डालना मुनासिब नहीं मानते थे। घोषणा के बाद बेरोजगार युवाओं ने सोचा-चलो कमस्कम पार्टियों में शामिल होने का मौका तो मिलेगा। कुछ शरारती लड़कों ने एक-दो बार मौका देखकर शायराबाई का बुर्का खींचने का प्रयास किया, लेकिन हर बार उनकी कटखनी कुतिया मार्ग में रोड़ा बनकर सामने आ अड़ी। एक रोज मैं किराना खरीदने करोड़ीमल की दुकान पर पहुंचा। देखा करोड़ीमल मुंह लटकाए बैठे हैं। बात-बात पर खींसें निपोरने वाले करोड़ीमल का लटका हुआ मुंह देखकर मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने वजह पूछी। मेरा पूछना क्या था करोड़ीमल सुबक पड़े- ‘हाय, मैं तो कहीं का नहीं रहा...? बेचारी इतनी कम उम्र में चल बसी। अब मुझे कौन पूछेगा...? हाय मेरी शायरा...।’ इतना सुनना था कि मेरा तो दिल धक्क से रह गया। ‘शायराबाई तुम नहीं रहीं? अब मेरा क्या होगा...कौन खरीदेगा मेरी कविताएं...?’ करोड़ीमल ने जब मुझे यह बुदबुदाते सुना तो वे बिफर पड़े-‘आपके मुंह में कीड़े पड़ें...शायराबाई सैकड़ों साल जियें। मैं तो शायराबाई की प्यारी कुतिया के बारे में कह रहा था। अब वो नहीं रही तो मैं किसको बिस्कुट खिलाने जाऊंगा?’ करोड़ीमल की बात सुनकर पहले तो मुझे बेहद खीज पैदा हुई क्योंकि एक बारगी तो मेरी भी जान-सी निकल गई थी। फिर संतोष की सांस लेते हुए बिना कुछ कहे मैं वहां से निकल आया।

शायराबाई की कुतिया के मरने की खबर मौहल्ले में आग की भांति फैली। देखते ही देखते मौहल्लेभर के हर उम्र लोग उनके घर यूं लपके मानों उन्हें इसी घड़ी का इंतजार रहा हो। मन मेरा भी नहीं माना। मैंने भी शायराबाई के घर की ओर कूच किया। वहां जाकर देखा तो लोग यूं मुहं लटकाए रूंआसे खड़े थे मानों कब कोई सहानुभूतिपूर्वक उनके कांधे पर हाथ रखे और वे फूटफूटकर रो सकें। जो लोग अपने घर के कामकाज में हाथ बंटाने से शर्म महसूस करते थे वे कुतिया के जनाजे का इंतजाम करने में गौरवांवित महसूस कर रहे थे। हालांकि कुतिया का मातम तो सिर्फ एक बहाना था। सब इस चक्कर में इकट्ठे हुए थे शायद इस दुखद घड़ी में ही सही, लेकिन कमस्कम एक बारगी शायराबाई की सूरत देखने का मौका मिल जाए। लोगों को शायराबाई का बुर्का एक जबरिया सामाजिक प्रथा- सा नजर आने लगे था। वे जो अपनी बहू-बेटियों का अकेले घर से निकलना भी उचित नहीं मानते थे, बुर्के को शायराबाई की आजादी पर पाबंदी मानने लगे थे। लोगों ने काफी तांक-झांक की लेकिन शायराबाई का बुर्का टस से मस नहीं हुआ। हालांकि कुछ लोग इस बात से ही खुश थे कि जनाजे में शामिल होने पर उन्हें शायराबाई के मुख से एक शब्द ही सही, लेकिन प्यार से ‘शुक्रिया’ सुनने का सौभाग्य तो मिला। ऐसे लोग शायराबाई के मिलनसार स्वभाव की तारीफ करते नहीं थक रहे थे।अगले दिन पोपले साहब ने खुलेआम घोषणा कर दी-जो भी शायराबाई की उम्र पहेली को बूझ देगा, वे समिति के मुखिया का पद उसे सौंप देंगे। इस घोषणा ने मानों युवाओं में क्रांति-सी ला दी। वे दिन-रात, मौके-बेमौके इसी फिराक में रहते कि किसी तरह से शायराबाई की झलक देखने का अवसर मिल जाए। उधर, मेरी उम्र के लोगों में भी पद का लालच कुलाचें भरने लगा था। वजह, जब से समिति का गठन हुआ था, तब से सिवाय इक्के-दुक्के जुगाड़ू लोगों के कोई भी उसमें घुसने में कामयाब नहीं हो पाया था। एक रोज अमावस्या की सर्द रात में अचानक शायराबाई के घर से शोर उठा। वे जोर-जोर से ‘चोर-चोर’ चिल्ला रही थीं। बमुश्किल दस मिनट लगे होंगे कि शायराबाई के चाहने वाले दौड़ते-भागते वहां जा पहुंचे। यूं लगा मानों वे रातभर जागते हुए इसी घटना का इंतजार कर रहे हों ताकि उन्हें अपनी बहादुरी दिखाने का मौका मिल सके। अचानक पोपले साहब चीखे-‘वो देखो, उस छत पर... चोर...?’ इतना सुनना था कि लोग छत की ओर ऐसे भागे जैसे रणभूमि में कोई सिपाही दुश्मन की ओर लपकता है। लोगों ने आव देखा न ताव चोर पर दनादन लात-घूंसे बरसाने शुरू कर दिए। पहले हम मारेंगे के हालात निर्मित होने से कई आपस में ही भिड़ बैठे। चोर ने मौके का लाभ उठाया और वहां से भाग निकला। अगले दिन मैं घर में बिस्तर पर पड़ा-पड़ा कराह रहा था। दरअसल, शायराबाई के घर चोर नहीं मैं गया था। मैं दर्द से कम शायराबाई की उम्र से ज्यादा दुखी था। पोपले साहब घर पर आए और बोले-‘महोदय, मैंने कल आपको पहचान लिया था, लेकिन इस वजह से चुप रहा ताकि शायराबाई की उम्र का राज हम दोनों के बीच ही रहे।’ इतना कहकर उन्होंने यूं सीना ताना मानों शायराबाई की उम्र कोई पाकिस्तानी किला हो, जिसे उन्होंने अकेले फतह कर लिया हो। मैं चुप रहा। वे गिड़गिड़ाने की मुद्रा में थे- ‘प्लीज जल्द बताइए, सब्र का बांध टूटा जा रहा है...?’ मैं अब भी खामोश रहा। वे नाराज हो गए-‘महोदय, आप एक दोस्त के साथ गद्दारी कर रहे हैं...? आप मुझे शायराबाई की उम्र बता दीजिए, मैं भरोसा दिलाता हूं कि मुखिया का पद आपको सौंप दूंगा।’ मैं रात की घटना के बारे में सोचने लगा। शायराबाई बहुत देर तक कुछ लिखती रहीं और फिर बिस्तर पर पहुंची। जैसे ही उन्होंने बुर्का उतारा मैं दंग रह गया। बुर्के के पीछे एक 50 साल की औरत थी। मेरे ओंठ थम न सके और घायल परिंदे की भांति फड़फड़ा उठे-‘हें! ऐ भगवान, यह क्या देख रहा हूं...?’ शायराबाई ने पलटकर खिड़की की ओर ताका। जैसे ही उनकी नजर मेरी आंखों से टकराई वे चीख पड़ीं-‘चोर-चोर।’ अगले दिन पोपले साहब फिर घर आए। वे बहुत उदास थे। पूछने पर सुबक पड़े-‘महोदय, शायराबाई अब हमारे बीच नहीं रहीं...?’ मैं सन्न रह गया-‘क्या हुआ उन्हें...?’ पोपले साहब ने आंसू पोंछे और इतना कहते हुए निकल गए-‘उनका किसी दूसरे शहर में तबादला हो गया है। हम सब उन्हें स्टेशन तक छोड़कर आ रहे हैं।’ मैंने खिड़की से झांककर गली में देखा-घरों की खिड़कियां बंद थीं। हमने भी राहत की सांस ली और अपनी खिड़की की चटखनी लगा दी।

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भोपाली पत्रकार साथियो,
ये सभी वो पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ हटकर काम किया है। वे मिसाल बने, वे कमाल बने...सो स्वाभाविक है कि इनसे हम हर मोर्चे पर जीतने और सफलता का परचम फहराने का हुनर सीख सकते हैं।

1

अर्जुन सिंह के मित्र सरीखे, मोहक है मुस्कान।
साधारण-सी जीवनशैली, असाधारण इनसान।।
राजनीतिक लेखन में ऊंची जिनकी साख।
नई दुनिया में वर्षों रहकर खूब जमाई धाक।।
सुहागपुर की इस शख्सियत को ह्दय से सलाम...

2

श्यामल जिनका रंग है, व्यक्तित्व में प्रकाश।
राजनीति की बीट के, हैं रिपोर्टर खास।।
बास-सा बर्ताव परंतु, अधीनस्थों का रखते ध्यान।
कर्म किए जा फल की छोडो, यही बांटते ज्ञान।।
बुलंद जागरण की बुलंद आवाज...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

रविवार, 7 सितंबर 2008

कन्या भ्रूण ह्त्या रोकने और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की मुहिम

लड़कियों के हक में उठी मुहिम



  • अलीराजपुर से लौटकर पल्लवी वाघेला
    कन्या भ्रूण हत्या रोकने और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में धीरे-धीरे ग्रामीण महिलाएं भी जागृत हो रही हैं। इनमें से कुछ ने तो सामूहिक रूप से कन्या भ्रूण हत्या का विरोध करने और शिक्षा को बढ़ावा देने का बीड़ा भी उठाया है। ग्रामीण महिलाओं का ऐसा ही एक दल ग्राम पंचायत चिचलगुडा में क्रियाशील है। अलीराजपुर जिले की छोटी सी ग्राम पंचायत की यह सभी महिलाएं अनपढ़ हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या और अंगूठा छाप होने का दर्द खूब समझती हैं।
    हर तीज-त्यौहार पर गीतों के माध्यम से कन्या भ्रूण हत्या का विरोध और लड़कियों को पढाने की अलख या फिर छोटे-छोटे नाटक। कुछ इसी तरह के प्रयास इन दिनों अलीराजपुर जिले की ग्राम पंचायत चिचलगुडा में नजर आ रहे हैं। इस पंचायत की सरपंच केकडी बाई के नेतृत्व में पंचायत की लगभग 22 महिलाएं मिलकर पिछले पांच माह से कन्या भ्रूण हत्या के विरोध और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में अपने स्तर पर मुहिम चलाए हुए हैं। हालांकि अनुसूचित जनजाति में पहले कन्या भ्रूण हत्या अधिक बडी समस्या नहीं थी, लेकिन पिछले दो वर्षों में इस क्षेत्र में इस समस्या ने आकार लेना शुरू किया है। इसी तरह बालिका शिक्षा के मामले में भी यह क्षेत्र पिछडा रहा है। इसी को ध्यान में रखकर इस पंचायत की सरपंच केकडी बाई और कुछ महिलाओं ने इस क्षेत्र में सकारात्मक प्रयास शुरू किया।

आधुनिकता की देन है यह कुप्रथा
इस दल की एक महिला रामजी बाई कहती हैं-’कन्या भ्रूण हत्या जैसी गंदी रीति पहले हमारे यहां नहीं थी, यह सब शहरी हवा लगने के बाद हुआ है।‘ दरअसल वैसे तो अनुसूचित जनजाति में बेटी की शादी में दहेज लेने का रिवाज है। इसलिए पुराने समय में इस क्षेत्र में कन्या भ्रूण हत्या का रूप विकराल नहीं था। हां, लडकी को बोझ मानने की सोच तब भी बनी हुई थी। इस दल की सदस्यों के अनुसार आधुनिकता की हवा ने कन्या भ्रूण हत्या की सोच को बढावा दिया है। यही वजह है कि पिछले कुछ समय से यहां भी कन्या भ्रूण हत्या का अपराध बढ रहा है।

कैसे करती हैं काम
इस दल ने लोक भाषा में बालिका शिक्षा को बढावा देने और कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कुछ गीत, नाटक और तोरण तैयार किए हैं। अपने घर होने वाले कार्यक्रमों और ग्राम सभा में यह महिलाएं इन तोरण का इस्तेमाल करती हैं। इसी तरह व्रत-त्यौहार और शादी में गाए जाने वाले गीतों के बीच अपने गीत और नाटक का प्रयोग भी यह महिलाएं जागरुकता लाने में करती हैं। इन गीत और नाटकों में उनकी लोक संस्कृति और पुरानी परंपराओं का हवाला भी दिया गया है।

इनका कहना है
'मेरे घर में चार बेटियां हैं। मैं उन्हें और अपने गांव की बेटियों को खूब पढाना चाहती हूं। अब हमारे यहां भी लोग बेटियों को मारने लगे हैं, इसलिए हम गांव की औरतों ने सोचा कि हमें ही कुछ करना चाहिए। इसके लिए मुझे मेरी बेटियों ने भी बढावा दिया।'


केकडी बाई, सरपंच ग्राम पंचायत चिचलगुडा


( यह रपट दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में प्रकाशित हुई है। देवी अहिल्याबाई यूनिवर्सिटी, इंदौर से पत्रकारिता की डिग्री लेने वालीं पल्लवी इन दिनों संवाद फेलोशिप के तहत पंचायतीराज में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर काम कर रही हैं)

शनिवार, 6 सितंबर 2008

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भोपाली पत्रकार साथियो,
ये सभी वो पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ हटकर काम किया है। वे मिसाल बने, वे कमाल बने...सो स्वाभाविक है कि इनसे हम हर मोर्चे पर जीतने और सफलता का परचम फहराने का हुनर सीख सकते हैं।

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दुनियादारी की चिंता की जिनको नहीं फिकर।
हेल्थ-धर्म की बीट देखते, सेहतमंद फिगर।
जिंदादिल इंसान, हंसाकर कर देते हैं पस्त।।
जागरण की नौकरी करते हैं, रहते हरदम मस्त।।
जीवन में हंसते रहने का सीखो इनसे मंत्र ...

2
ऊंची जिनकी साख है, अजय हैं जिनके शब्द।
देख ’चकल्लस‘ उनकी सारे हो जाते हैं निःशब्द।।
जीवटता की मिसाल हैं, कर्मशील इनसान।
नवदुनिया की बढ़ा रहे हैं वर्षों से ये शान।।
इन्हीं पंक्तियों में ढूंढों, इस आदर्श का नाम...

3
जर्नलिज्म की दुनिया में बहुत बड़ा है नाम।
नई सोच के पत्रकारों में श्रेष्ठ रहा है काम।।
अफसर-सा अंदाज है, लेकिन रहते हरदम कूल।
काम किया है संग जिसने भी, नहीं वो सकता भूल।।
नेम-सरनेम के बीच में जो, लिखते हैं कुमार...

4
हैं मराठी, ऊंची कद-काठी, बेहद शांत स्वभाव।
भास्कर में तोला करते थे, प्राइम प्रापर्टी के भाव।।
हेल्थ बीट या हो अपकंट्री, खूब किया है काम।
सोसायटी में साख बढ़ी, पर बहुत सरल इंसान।
नागपुर रिटर्न, नई पारी की तैयारी...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

पहचान कौन?

भोपाली पत्रकार साथियो,
ये सभी वो पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ हटकर काम किया है। वे मिसाल बने, वे कमाल बने...सो स्वाभाविक है कि इनसे हम हर मोर्चे पर जीतने और सफलता का परचम फहराने का हुनर सीख सकते हैं।

1
ठाकुर हैं, सो रौब झाड़ते, लेकिन निर्मल मन।
सैल्यूट मारती खाकी उनको, फुर्तीला है तन।।
रीवा के वो रहने वाले, दफ्तर उनका घर।
रोज पूछतीं भाभी उनसे, कब लौटोगे प्रियवर।।
बच्चों-सा करते हैं, अधीनस्थों से प्यार...

2
शब्दों के ऊंचे हैं खिलाड़ी, बेहद शांत स्वभाव।
बात करें तो लगता ऐसे, हो वर्षों से लगाव।।
नाम में जिनके जीत छिपी है, ऊंचा है मुकाम।
प्रिंट-इलेक्ट्रोनिक दोनों में खूब किया है काम।।
शब्दों के सफर में बनाई पहचान..

3
राजा हैं पर रहे घुमंतू, आदिम जाति में साख।
जंगल-जंगल करी रिपोर्टिंग, खूब जमाई धाक।।
नक्सलवादी मुद्दों पर जिनका नहीं दूसरा सानी।
धारदार लिखने में माहिर, किंतु नहीं अभिमानी।
गुरु, फिर से करो कोई कमाल शुरू..

4
कामेडी के किंग कभी थे, अब संजीदा काम।
नई पीढी के पत्रकारों में खूब कमाया नाम।।
थोड़े-थोड़े बाल हैं, खूब चबाते मूंछ।
भास्कर में गुमनाम थे, अब सभी रहे हैं पूछ।।
प से उनका नेम, श्री से शुरू सरनेम।
  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

प्रशासनिक फेरबदल में अटका रोजगार गारंटी योजना का पैसा

कुँए बने सरपंचों के जी का जंजाल

  • अलीराजपुर से लौटकर पल्लवी वाघेला
  • अलीराजपुर के जिला बनने की खुशियाँ सरपंचों पर भारी पड़ रही हैं। दरअसल, प्रशासनिक उलटफेर के चलते रोजगार गारंटी योजना के भुगतान में पेंच आ गए हैं। कई सरपंच पिछला भुगतान लटकने से पशोपेश की स्थिति में हैं।
    नवगठित जिले अलीराजपुर के सरपंच इन दिनों रोजगार गारंटी योजना में कराए गए काम का पैसा लेने के लिए अफसरों के चक्कर काट रहे हैं। दरअसल, अलीराजपुर पहले झाबुआ जिले का हिस्सा था। झाबुआ के तत्कालीन कलेक्टर राजकुमार पाठक (वर्तमान में धार में पदस्थ) ने सरपंचों को गांवों में विकास की धारा बहाने और जल संवर्धन का संदेश देते हुए ज्यादा से ज्यादा काम कराने को कहा था। उन्होंने रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत ज्यादा से ज्यादा जॉब कार्ड बनाने और गांव में कुओं के निर्माण की बात कहते हुए इसका पूरा पैसा सेंक्शन कराने का आश्वासन भी दिया था। अब नवगठित जिले अलीराजपुर के कलेक्टर चंद्रशेखर बोरकर हैं। उनका कहना है कि इतने सारे कुँए एक साथ क्यों खोदे गए? इनके लिए पैसा स्वीकृत नहीं किया जा सकता। दरअसल, जिले के अनेक सरपंचों ने अपने क्षेत्र में अधिक से अधिक संख्या में कुएं निर्मित किए हैं, जो अपने शुभारंभ की राह देख रहे हैं और सरपंच को गांव वालों से गालियां सुननी पड़ रही हैं।

    सरपंचों का मत
    ग्राम पंचायत बेहड़वा के विश्राम चौंगड़ बताते हैं कि पूर्व कलेक्टर (राजकुमार पाठक) के कहने पर पंचायत में लगभग 17 कुओं का निर्माण कराया है, लेकिन इसका पैसा मिलने में बेहद दिक्कत आ रही है। विश्राम बताते हैं-हम काम खूब करा लें, लेकिन काम के बाद राशि नहीं मिलती और राशि आती भी है तो बेहद कम और देर से। अभी बने कुएं तो जी का जंजाल बन गए हैं। पुराने कलेक्टर साहब के कहे अनुसार कुएं बनवा दिए। अब नए कलेक्टर साहब का कहना है कि मैंने तो तुम्हें यह काम कराने के लिए नहीं कहा था। पैसा नहीं होने के कारण रोज गावं वालों की गालियां सुनते हैं।
    इनका कहना है
    मांग न होने पर भी बिना सोचे समझे अंधाधुंध काम खोले गए हैं। इतनी बड़ी संख्या में काम शुरू होगा तो राशि की दिक्कत आना स्वाभाविक है। जिन कुओं का काम शुरू किया गया है, उनमें से कई पैसा न होने के कारण अधूरे भी पड़े हैं। लेकिन बीच में हमारे पास राशि की दिक्कत थी। अब राशि जैसे-जैसे आएगी हम भुगतान का प्रयास करेंगे, लेकिन इसमें वक्त लगेगा। हां, अभी हमारा लक्ष्य केवल अधूरे खोले गए कामों को पूरा करना है। हम नए काम के लिए स्वीकृति नहीं देंगे।


चंद्रशेखर बोरकर, कलेक्टर जिला अलीराजपुर

धार जिले में भी मेरा यही लक्ष्य है कि गांव में अधिक से अधिक कुएं बनाए जाएं और जल संवर्धन संबंधी कार्य हों। झाबुआ कलेक्टर के रूप में भी मैंने यही चाहा था और पंचायत में अधिक से अधिक कुएं बनवाने के लिए पैसा देने की बात कही थी। मेरे समय में स्वीकृत हुए काम का पैसा कोई रोक नहीं सकता। हां, जो काम शुरू हो गया और उस पर मैं स्वीकृति नहीं दे सका, उसे लेकर प्राब्लम हो सकती है, लेकिन परिस्थितियां बदलती हैं तो शुरुआत में दिक्कतें आती ही हैं। नई परिस्थितियों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता।

राजकुमार पाठक, कलेक्टर जिला धार

( यह रपट दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में प्रकाशित हुई है। देवी अहिल्याबाई यूनिवर्सिटी, इंदौर से पत्रकारिता की डिग्री लेने वालीं पल्लवी इन दिनों संवाद फेलोशिप के तहत पंचायतीराज में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर काम कर रही हैं

पहचान कौन?

1
कूच किया दिल्ली से, फिर भी बने रहे स्टार।
भारत भर में जमा रखे हैं, सूचना तंत्र के तार।।
अभी-अभी भोपाल में आए, ऊंचा जिनका नाम।
अच्छे-खासे दास हो गए देखके जिनका काम।।
लिखने में उस्ताद, मोहल्लाभर में धाक॥

2
माथे चढ़ा न पद का मद, न बदला रंग-रूप।
मुट्ठी में दुनिया लेकिन, वैसा ही रहा स्वरूप।।
रचने को इतिहास चले वो, फिर से नई तैयारी है।
भोपाल को दी आवाज नई, अब इंदौर की बारी है।।
बनी रहे ये शान, जीत लो जहान॥


3
टाटा ने टाटा किया, छोड़ दिया सिंगूर।
लटखकिया लटक गई, खट्टे रहे अंगूर।।
जीत गए कृषक यह बाजी, मानी सबने हार।
लाचार हुई नारी के आगे, बंगाली सरकार।।
वीरांगना-सी शैली, खूब निकाले रैली।

4
दुनिया वाले मानें लोहा, किया भाई ने मुंह काला।
खूब नचाया अंग्रेजों को, पर पप्पू कान्ट डांस साला।
किंग खान जब बोले चक दे, जमीं पे लाए ये तारे।
अर्धनारीश्वर बनकर भैया, दिखा रहे अब रंग न्यारे।
आसमान में उड़ते हैं, टाटा-टाटा करते हैं॥
  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

बुधवार, 3 सितंबर 2008

कोसी को वोट नहीं चाहिए

  • सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव की कलम से
कोसी को वोट नहीं चाहिए। वो अल्हड़ है, उफनती-फुफकारती, जिधर रास्ता मिला, उधर निकल गई। लील गई जिंदगियां, उजाड़ दिया आशियाना।नेताओं को वोट चाहिए। वो भी बिहार के नेता। चारा तक नहीं छोड़ते तो वो कोसी के इस कहर जैसे मौके को अपने हाथ से कैसे जाने देंगे। जितना ज्यादा पानी का लेवल, उतनी ज्यादा राजनीति। राहत और बचाव में जितनी देर, जितनी अनियमितताएं हो, उतना ही भला। एक दूसरे पर निशाना साधने और जनता का शुभचिंतक दिखने का इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता है।कुछ बानगी देखिए--लालू ने कहा कि केंद्र ने खजाना खोल दिया है, जी खोलकर मदद कर रहे हैं लेकिन राज्य सरकार राहत पहुंचा नहीं पा रही है। अगर केंद्र ने एक हजार करोड़ रुपए और ढेर सारी राहत सामग्री देने का ऐलान कर दिया है तो क्या ये सारे सामान बिहार सरकार के मंत्रियों और नेताओं ने अपने घर में रख लिया है? जाहिर है ऐसे में नीतीश कुमार अगर भड़कते हैं तो सही है कि जनता परेशान है और इन्हें राजनीति सूझ रही है। इस भड़कने में कहीं न कहीं अपनी नाकामी की खींझ भी है। कुशहा बांध के कटाव को समय रहते रोकने की नाकामी से लाखों लोगों को बाढ़ प्रभावित इलाकों से निकालने और उन्हें दो वक्त की रोटी मुहैया कराने तक की नाकामी की खीझ.दरअसल अगर तंत्र ही भ्रष्ट हो, लोग ही संवेदनहीन हों तो अकेले सरकार क्या कर लेगी? बिहार में बाढ़ घोटाले पहले भी हो चुके हैं। जितनी भयावह बाढ़, उतना बड़ा घोटाला। बाढ़ पीड़ितों का हाल देखकर इस बार भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि घोटालों का खेल बदस्तूर जारी है वरना इतनी मदद, इतनी राहत, जा कहां रही है?संवेदनहीनता की जो ख़बरें आ रही हैं, उसे देख-सुनकर रोंगटे खड़े हो जायं। शायद बिहार में ही ऐसा हो सकता है। बाढ़ में फंसे लोगों को जिंदगी देने के लिए मोटी रकम भी वसूली जा रही है। बचाव के लिए सरकारी बोट कम हैं, ऐसे में प्राइवेट नाव वाले लोगों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने के लिए मोटी रकम वसूल रहे हैं। ये सरकार की नहीं, मानवता की नाकामी है। मानवता नाम की कोई चीज नहीं है। दबंग ऐसे हालात में भी अपनी दबंगई से बाज नहीं आ रहे हैं। राहत कैंपों में उनके मवेशियों के लिए जगह जरूर होनी चाहिए, गरीब ज़नता चाहे पानी में डूब जायं।बाढ़ प्रभावित इलाकों से जो तस्वीरें आ रही हैं, वो विचलित करने वाली हैं। लेकिन अपने ही लोगों की आंखों से टपकते आंसू उनकी संवेदना को जागृत नहीं कर पा रहे हैं, जिनसे उम्मीद है कि वो उन्हें इस आपदा से बचा लेंगे।