बुधवार, 24 सितंबर 2008

आगे की सुधि लेहु...
  • पंकज शुक्ल
मुझसे अक्सर लोग ये पूछते हैं कि मैंने भोजपुरी भाषी ना होने के बावजूद पहली फिल्म भोजपुरी में ही क्यो बनाई? सच मानें तो इस सवाल का जवाब खुद मुझे भी अब तक समझ नहीं आया। जितने बजट में भोले शंकर बनी है, उतने बजट में खोसला का घोसला और भेजा फ्राई जैसी फिल्में आसानी से बन जाती हैं। फिर, भोले शंकर ही क्यों? शायद इसलिए कि जब मैंने फिल्म मेकिंग का फाइनल फैसला लिया तो उस समय मनोज तिवारी ही मुझे सबसे सुलभ और सस्ते सुपर स्टार नज़र आए। पहली ही फिल्म अगर बिना किसी सितारे के बना दी जाए तो फिल्मी दुनिया में पहचान हो पानी मुश्किल होती है। ये अलग बात है कि जब से भोले शंकर की मेकिंग के दौरान मनोज तिवारी की एक के बाद एक लगातार कोई नौ फिल्में लाइन से फ्लॉप हो गईं, और भोले शंकर में अगर मिथुन चक्रवर्ती ना होते तो शायद भोले शंकर भी मनोज तिवारी की दो और फिल्मों ए भौजी के सिस्टर और छुटका भइया ज़िंदाबाद की तरह रिलीज़ की ही राह तक रही होती। ये दोनों फिल्में भोले शंकर के पहले से बन रही हैं और अब तक सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, तो बस इसी वजह से कि मनोज तिवारी को टक्कर देने अब केवल रविकिशन ही नहीं बल्कि तीन चार और तीसमारखां भोजपुरी सिनेमा में आ पहुंचे हैं। ख़ैर, मैं तो यही चाहता हूं कि मनोज तिवारी दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करें (शोहरत में, सेहत में नहीं)। बस वक्त आ गया है कि वो अब सोलो हीरो फिल्में करने की ज़िद छोड़ें, अपनी फीस में कम से कम 50 फीसदी की कटौती करें और भोजपुरी सिनेमा को फिर से वैसा ही सहारा दें, जैसा कि फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला से उन्होंने दिया था। भोले शंकर की चर्चा को यहीं पर विराम और अब आगे की बात...।भोले शंकर जब से बन कर तैयार हुई है और टी सीरीज़ की मार्फत इसके प्रोमोज़ और गाने टीवी चैनलों तक पहुंचे हैं, मुझे कम से चार भोजपुरी फिल्मों के ऑफर मिल चुके हैं। कम से कम दो निर्माताओं ने मिथुन चक्रवर्ती के साथ एक और भोजपुरी फिल्म बनाने की गुजारिश की। दिल्ली के एक निर्माता मनोज तिवारी और निरहुआ को लेकर एक कॉमेडी फिल्म बनाना चाहते हैं। लेकिन, मैंने अभी तक ना तो किसी को ना किया है और ना ही हां। भोजपुरी सिनेमा चाहे तो अपने कील कांटे दुरुस्त कर जल्द ही दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों की तरह सम्मानित सिनेमा की श्रेणी में आ सकता है। इस बात में दम बना रहेगा तभी मुंबई मंत्रा जैसी और कंपनियां इस भाषा में पैसा लगाने की हिम्मत जुटा पाएंगी। अभय सिन्हा जी की फिल्म हम बाहुबली के रशेज मैंने देखे हैं। रवि किशन ने इसमें मंटू गोप के तौर पर कमाल का काम किया है। फिल्म का फोटोग्राफी काबिले तारीफ है और संगीत में भोले शंकर के बाद धनंजय मिश्रा ने फिर कमाल किया है।भोले शंकर और हम बाहुबली दोनों की मेकिंग किसी हिंदी फिल्म से कम नहीं है। निर्माण की लागत भी कमोबेश बराबर ही है। भोले शंकर की कीमत वैसे बाज़ार की दरों पर लगाई जाए तो दो करोड़ से कम नहीं बैठती, लेकिन अपने व्यवहार के चलते मैंने अपने निर्माता के कम से कम तीस चालीस लाख रुपये इस फिल्म की मेकिंग में बचाए। वैसे सच पूछें तो भोजपुरी सिनेमा के दर्शकों को भी अब अच्छे और बुरे का फर्क समझ आने लगा है। ये अलग बात है कि बिहार के निर्माताओं के बही खाते अब भी पुराने ढर्रे पर ही चलते हों और उनसे निकलकर निर्माताओं की झोली तक पैसा पहुंचना अब भी दूर की कौड़ी लगता हो। पूरी फिल्मी दुनिया बिहार के वितरकों के नाम पर जो बातें कहती है, वो पूरी तरह गलत नहीं होतीं, ये अब कुछ कुछ मुझे भी लगने लगा है। मुंबई में हिंदी फिल्मों पर चर्चा होते समय बात जब इनकी लागत की रिकवरी की होती है तो कोई भी निर्माता बिहार से आमदनी की बात सोचता तक नही है। ये इसके बावजूद कि बिहार में कोई 600 थिएटर हैं और इनमें से कोई 450 थिएटर्स में अब भी नियमित तौर पर फिल्में देखी जाती हैं।यानी कि एक ढंग की भोजपुरी फिल्म मरी से मरी हालत में बिहार में छह महीने के भीतर कम से कम साठ से लेकर सत्तर लाख का कारोबार करती है। हां, शुरू के चार छह हफ्तों के बाद ऐसी किसी फिल्म के बिहार के किसी थिएटर में चलने का ज़िक्र किसी वितरक के बही खातों में नहीं होता। ये कमाई बस पर्चियों पर गिनी जाती है और वितरक की तिजोरी में ही सिमटकर रह जाती है। मैं जब पिछली बार बिहार में था तो निरहुआ रिक्शावाला वहां तब भी अंदरुनी इलाकों में चल रही थी, लेकिन शायद ही निरहुआ रिक्शावाला के निर्माताओं को अब ओवरफ्लो के नाम पर कुछ भी बिहार से मिलता होगा। वक्त अब पेशेगत ईमानदारी का और बिहार की छवि मुंबई के निर्माताओं के बीच निखारने का है। वक्त बिहार के सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की दशा सुधारने का भी है। पसीने से तरबतर होने के बावजूद फिल्म देखते लोगों को आरा में देख मेरा सिर श्रद्धा से वहीं झुक गया था। ये वो लोग हैं जो सितारे बनाते हैं। और भोजपुरी के सितारे हैं कि एक बार आसमान में चमकने के बाद ज़मीन पर आने का नाम ही नहीं लेते। कहा सुना माफ़।
(अभी हाल में निर्माता-निर्देशक पंकज शुक्ल की भोजपुरी फिल्म भोले शंकर रिलीज हुई है। उन्नाव जिले(उत्तरप्रदेश) के छोटे-से गांव मंझेरिया कला में जन्मे पंकज का जुझारूपन उनके कृतित्व में स्पष्ट देखा जा सकता है। पहले उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ पत्रकारिता में खूब धाक जमाई। वहां से मन उचटा तो मुंबई नगरिया की ओर कूच कर गए। उनके हुनर और हौसले को वाकई सलाम करना होगा कि पूंजीपति फिल्म निर्माताओं के बीच उन्होंने अपनी जगह बनाने में सफलता हासिल की। 12 सितंबर को रिलीज हुई 'भोले शंकर' बिहार में बम-बम भोले के जयघोष सी लोकप्रिय हो चुकी है। अब बारी दिल्ली, यूपी , पंजाब और मुंबई की है। उनका यह लेख भोजपुरी फिल्मों के सुनहरे भविष्य का खाका खींचता है। बोलो जय बम भोले...)

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