शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

खेल और संस्कृति


जो करे धन्य और धान्य वही खेल महान

पुराने खेल ‘खल्लास’

अमिताभ बुधौलिया

मैं बचपन में कंचे खूब खेला हूं। गिल्ली-डंडा खेलने में भी कमतर नहीं था। जब कभी गांव जाता था; तो पेड़ों पर चढ़कर पकड़ा-पकड़ी खेलने में भी खूब मजा आता था। थोड़ा बड़ा हुआ; तो क्रिकेट का भूत सवार हुआ। धुरंधर बल्लेबाज और अच्छा विकेट कीपर रहा। इसी दरमियान थोड़ा-बहुत समय निकालकर बैटमिंटन में भी हाथ आजमाता रहा। ...और हां; साइकिल के चक्के (स्टील की रिम) में लकड़ी फंसाकर उसे ऊबड़-खाबड़ गलियों में घुमाना परम आनंद की अनुभूति कराता था। लुकाछिपी का भी अपना एक क्रेज था। कबड्डी, खो-खो, चोर-सिपाही, खूब खेला। कई खेल खेले; लेकिन जो इन खेलों में आता था, वैसी तृप्ति आधुनिक खेलों से कभी नहीं मिली।

अब जब; बड़ा हो चुका हूं, तब बचपन में झांककर स्मृतियों को तरोताजा करता हूं, तो अपना ‘खेल-काल’ बहुत याद आता है। मीठी यादें जेहन को प्रफुल्लित कर देती हैं। मन मचल उठता है; गोया बोल रहा हो-‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’
अब आप किसी बच्चे से इन खेलों के बारे में पूछिए! संभव है कि; कई तो भारतीय लोकसंस्कृति/बाल संस्कृति में रचे-बसे और माटी में ‘सने’ इन खेलों में से कुछेक को परिभाषित भी नहीं कर पाएंगे। वहीं कई खेलों के बारे में तो आश्चर्य व्यक्त करते हुए प्रतिसवाल कर सकते हैं कि; ‘यह कौन-सा खेल था, कब और कैसे खेला जाता था?’
उम्रदराज पीढ़ी की बात छोड़िए; हम जैसे युवाओं को भी यह बात दु:खी कर सकती है कि; ‘हम अपने बच्चों को खेल विरासत के तौर पर क्या सौंपे?’

पिछले दिनों भारतीय संस्कृति की परिचायक इस पत्रिका ‘रंगकृति’ के संपादक रवि चौधरी मेरे घर आए और बोले-‘मैं यह अंक भारतीय परंपरागत खेलों को समर्पित करना चाहता हूं। वे खेल; जो भारत की लोककला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते रहे हों!’ एक व्यावसायिक नजरिये से आकलन किया जाए, तो ऐसी साम्रगी का पत्रिका में संकलन करना मुनाफे का सौदा नहीं कहा जा सकता। हां; यदि क्रिकेट जैसे खेलों पर सम्पूर्ण अंक निकालने का बात होती, तो यकीनन विज्ञापन कबाड़े जा सकते हैं। हालांकि यह प्रयास सराहनीय था, लेकिन जब मैंने उसे लेखकीय नजरिये से भांपा तो इस विषय पर लिखना बड़ा दुष्कर दिखलाई पड़ा। आखिर; शुरुआत कहां से करूं, क्या लिखूं, किस खेल पर लिखूं? आदि-आदि कई प्रश्न दिमाग में बिजली-की भांति कौंधने लगे। तीन-चार दिन तक तो समझ ही नहीं आया कि; क्या मैं लिख भी पाऊंगा कि नहीं? लेकिन सरस्वती देवी की कृपा से रास्ता भी मिल गया।
एक दिन मैंने रास्ते में पड़ने वाली एक झुग्गी बस्ती में कुछ बच्चों को सितौलिया(रबर या कपड़े की गेंद से गोलाकार या चौकोर पत्थरों पर मारकर भागना) खेलते देखा। मैंने भी बचपन में सितौलिया खूब खेला है। इन बच्चों को खेलता देखकर ठीक वैसी ही आनंद की अनुभूति हुई। कुछ देर बच्चों को खेलते देखता रहा। मुझे लिखने का रास्त मिल गया था, सोच मिल गई थी।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है! इसलिए नई चीजों/संस्कृतियों/जीवनशैली का जनम-मरण लाजिमी है। यह सिद्धांत खेलों पर भी लागू होता है। भौतिक संसाधनों में नई चीजों/आविष्कारों की निरंतर आमद हो रही है। समाज की दिशा बदली-देश की गति बदली और लोगों की मति बदली। लेकिन जब से ‘बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया!’ वाला फंडा समाज में प्रभावी हुआ है; तब से ‘तरक्की’ और ‘संभ्रांत’ शब्द के मायने बदल गए हैं। जिसके पास मनी; वही धन्य वही धनी! पैसे ने लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाई, सो नेशनल/मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने प्रोडक्ट्स घर-घर खपाने के उपाय खोजने प्रारंभ कर दिए। जिनके पास कम पैसा; वे भी धनाढ्य वर्ग के पीछे-पीछे चलने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। संभ्रांत घरों के बच्चे अब उसी खेल में दिलचस्पी लेते हैं, जिसमें जॉब हो या पैसा! गुल्ली-डंडा, सितौली, चोर-सिपाही जैसे खेल बकवास-सरीखे हो चले हैं। ये खेल अभिभावकों के लिए अब महज वक्त-बर्बादी से अधिक कुछ भी नहीं हैं। इस लोक-बदलाव ने खेलों से जुड़ीं कहावतों की न सिर्फ दिशा बदली बल्कि उनके ‘भाव’ में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। उदाहरण देखिए, वर्षों पहले तक एक कहावत बहुत प्रचलित थी-‘खेलोगे-कूदोगे; बनोगे खराब/पढ़ोगे-लिखोगे; बनोगे नवाब!’ यह कहावत तब तक; सटीक थी, जब तक खेल-संस्कृति को विकसित करने/उसे बढ़ाने केंद्र और राज्य सरकारों के पास कोई योजना नहीं थी, बजट नहीं था। अब स्थितियां बदल चुकी हैं। सो यह कहावत भी अब भाषाई संस्कृति का जीवाश्मभर रह गई है। लेकिन इस बदलाव के उपरांत कमाने-धमाने के खेलों की फेहरिस्त में परंपरागत और भारतीय गली-कूचों में विकसित गुल्ली-डंडा टाइप खेल सम्मिलित नहीं किए गए। क्रिकेट जैसे धनाढ्य और संभ्रांत खेल ने बाकी खेलों की दुर्गति करके रख दी। हॉकी, फुटबाल, जूडो जैसे कुछेक खेलों पर सरकार की कृपादृष्टि अवश्य बनी, लेकिन ये आज भी कुपोषण से जूझ रहे हैं।
संभव है कि अभी तक की सामग्री पढ़ने के बाद आपके जेहन में एक प्रश्न उठ सकता है कि; ‘ विषय जब परंपरागत और कभी लोकप्रिय रहे खेलों से संदर्भित है, तब इसमें पैसा कहां से यक्ष बनकर सामने आ गया?

मैं स्पष्ट किए देता हूं। हम जिन खेलों की दुर्गति की बात कर रहे हैं; उन्हें गर्त तक पहुंचाने के मूल में पैसा ही है। वजहें अवश्य तीन हैं, लेकिन सबकी पैदाइश धन से ही हुई है।

उदाहरण : क्रिकेट दीगर खेलों को खा गया। कारण इसमें पैसा अपार है। आपका बच्चा क्रिकेट में नेशनल स्तर तक भी पहुंच गया, तो समझिए कि; उसकी सरकारी जॉब पक्की। यदि वह इंटरनेशनल टीम का हिस्सा बन गया या आईपीएल जैसे महाआयोजनों में चुन लिया गया, तब तो धन्य और धान्य हो जाएंगे माता-पिता/परिवार/कुटुम्ब/समाज आदि-आदि। सितौली, या टेशु जैसे खेलों के रास्ते यह स्वप्न देखना निहायत वेबकूफी कहलाएगी।

दूसरी वजह पैसे ने भौतिक सुख-साधन से जुड़ीं वस्तुओं में इजाफा कर दिया है। तकनीकी क्षेत्र में तरक्की से वीडियो गेम्स को जन्मा। इस खेल में दिमागी कसरत है, लेकिन शारीरिक मशक्कत कतई नहीं। दूसरा इसमें सांस्कृतिक मेल-मिलाप के अवसर भी नगण्य हैं। घर में दिनभर बैठे-बैठे गेम्स खेलते रहिए बस; दोस्तों/यारों से खुले मैदान में प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश धूल-धूसरित।

तीसरा कारण है ठेठ भारतीय समाज का ‘हाइजेनिक सोसायटी’में तब्दील हो जाना। इस अंग्रेजी शब्द ने कई नेशनल/मल्टी नेशनल कंपनियों को ‘तर’ दिया है, यानी उन्हें भारतवंशियों के बीच अपने प्रोडक्ट्स बेचने को अच्छा अवसर मुहैया कराया है। यदि आप टेलिवजन देखते हैं, तो ऐसे तमाम प्रोडक्ट्स के विज्ञापन भी देखें होंगे, जिनमें बच्चों को कीटाणुओं से कैसे बचाएं? बताया जाता है। मुझे कुछ प्रोडक्ट्स के उदाहरण देने में कोई संकोच नहीं। डिटॉल साबुन, सर्फ एक्सल जैसे बाथरूम प्रोडक्ट्स कीचड़ या माटी में सने-लदे बच्चों को स्वच्छ और कीटाणुमुक्त रखने का दावा करते हैं। यदि आपने गौर से देखा हो, तो ज्यादातर प्रोडक्ट्स के विज्ञापन में भी क्रिकेट या फुटबॉल जैसे गेम्स ही दिखाए जाते हैं। कहीं-कहीं कबड्डी जैसे खेल भी दिख जाते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि; मौजूदा भारतीय व्यवस्था में अब हर अभिभावक अपने बच्चे को ‘नीट एंड क्लीन’ देखना चाहता है/रखना चाहता है। भारत में पुराने जितने भी खेल हैं, उनमें से ज्यादातर में खेलने की अनिवार्यता ‘धूल-धूसरित’ होना है। यानी आप सितौली खेल रहे हों, या कबड्डी अथवा टेशु; सभी में कहीं न कहीं माटी अवश्य सम्मिलित है। कहीं धूल उड़ती है, तो कई माटी हाथों/पैरों में सनती है।...और जिन खेलो में माटी बदन पर नहीं सनती, जैसे चोर-सिपाही आदि; उनमें कपड़ों की उज्जवलता खत्म होने का डर बना रहता है। चोर-सिपाही के खेल में बच्चे धड़ाम-से एक-दूसरे को थप्पी मारते हैं। कहीं-कहीं हंसी-ठिठोली में खींचातानी भी होती है, ऐसे में कीमती कपड़े फटने और गंदे हो जाने की ‘आशंका’ भी बराबर बनी रहती है।

अभिभावक भी चाहते हैं कि उनका बच्चा ग्राउंड में जाए तो क्रिकेट या टेनिस जैसे ‘कमाऊ’ खेल खेले और यदि वो घर पर है, तो शांति से कंम्पयूटर गेम या सांप-सीढ़ी में रमा रहे। इससे उनकी शांति में भी खलल नहीं होगा और न ही बच्चे गंदे होंगे, उनके कपड़े मैले-कुचैले होने की गुंजाइश रहेगी।

चिकित्सक भले ही राग अलापते हों कि; कम्प्यूटर और इसी किस्म के दूसरे इनडोर गेम्स से बच्चों का दिमाग तो तेज होता है, लेकिन शारीरिक विकास बिलकुल नहीं, लेकिन वे भी अपने बच्चों को बाहर खेलने से रोकते हैं। कथनी-करनी में यह अंतर भी खेलों को खाए जा रहा है।

लोग इस बात को अब स्वीकार करना ही नहीं चाहते कि; कंचा, चोर-सिपाही, पेड़ों पर चढ़कर खेले जाने वाले पुरातन खेल बच्चों की पाचन शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक विकास में भी सहायक होते हैं। हालांकि ऐसे खेलो में बच्चों की रुचि कम नहीं हुई है, उन्हें रास्ते से भटकाया गया है।

अभिभावकों ने कभी यह नहीं सोचा कि; तमाम हाईजेनिक इंतजामों और मल्टी विटामिन्स/टॉनिक्स/च्यवनप्राश खाने के बावजूद उनका बच्चा बूढ़े-पुराने लोगों की स्टेमिना पैदा क्यों नहीं कर पाता? आधुनिकता का लबादा सिर्फ शहरी लोगों ने ही नहीं ओढ़ा है, गांव और देहात भी इससे अछूते नहीं हैं। गांवों से भी पुराने खेल ‘खल्लास’ होते जा रहे हैं। इसके पीछे अधुनातन होने को स्वांग भी है।

प्राचीन खेलों के पतन से कला और संस्कृति दोनों पर चोट

हर खेल के पीछे कोई कला और संस्कृति निहित होती है । यानी कला-संस्कृति और खेल तीनों के मिश्रण से ही जन्मती है जीवनशैली। कोई भी खेल ऐसा नहीं है, जो संस्कृति या कला से न जुड़ा हो। साइकिल का चक्का लकड़ी में फंसाकर घुमाने का खेल कहां से जन्मा? आप सोचकर बताइए? मैं ही बताए देता हूं। पहले के समय में कुम्हार बैलगाड़ी के पहिये(जिसे चाक कहा जाता था) को लकड़ी से घुमाकर घड़े, दीये, मटके आदि बनाता रहा है। बच्चों ने साइकिल के अनुपयोगी पहिये(स्टील रिम) में लंबवत लकड़ी फंसाकर रगड़ते हुए उसे घुमाने का हुनर पैदा किया। इस खेल से बच्चा बैलेंस सीखता है और दौड़ते रहने से कसरत भी होती है। बैलेंस करना एक कला है।
एकदम नई पीढ़ी की बात न करें, तो हममें से भी कइयों ने टेशु का खेल नहीं देखा होगा।
‘मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दही बड़ा!’ जैसे बोल अब मुश्किल से गांव-देहात में ही सुनने को मिलते हैं। शहरों के लिए तो यह खेल बेगाना हो चला है। किशोरियों का खेल नौत्ता तो गोया विलुप्तप्राय है। ये दोनों ही खेल भारतीय कला और संस्कृति के परिचायक रहे हैं।
आपको बता दें कि आश्विन मास में पितृ पक्ष लगते ही गांव-देहात में पंद्रह दिन तक लड़कियां नौत्ता खेल खेलती थीं। इस खेल में कच्ची दीवारों पर गोबर से देवी की मूर्ति बनाई जाती थी। उसका कौड़ियों और फूलों से श्रृंगार किया जाता था। फिर आरती कर प्रसाद बंटता था। अब तो गांवों में भी यह खेल देखने को तरस जाएंगे।
वहीं नवदुर्गा के बाद दशहरे से लेकर पूर्णिमा तक बच्चे टेसू-झांझी खेलते थे। इस खेल में लोकसंस्कृति के कई आयाम देखने और सुनने को मिलते रहे हैं। अब यह खेल भी लगभग लुप्त है।
इस जैसे तमाम खेलों में कोई न कोई ऐतिहासिक कहानी का बखान निहित होता था, यानी खेल-खेल में आप अपनी कला और सांस्कृतिक विरासत से भी रूबरू होते थे। मैं ‘थे’ शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अब ये खेल कहीं दिख जाएं, ऐसी संभावना न के बराबर है।
बहरहाल, पैसे से जन्मी आधुनिक संस्कृति ने पुराने खेलों का जो बिगाड़ा किया है, वो अब शायद ही दुबारा दुरुस्त किया जा सकेगा।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

पृथक बुंदेलखंड



-बुंदेलखंड मध्यभारत के दो बड़े राज्यों उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला एक विशाल पठारी इलाका है। यहां करीब 78 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में आबादी निवास करती है। यहां की 95 फीसदी आबादी तंगहाल है।

 -पिछले 5 वर्ष के दौरान बुंदेलखंड में करीब 5000 किसानों ने आत्महत्या की है। अधिकतर मामलों की वजह किसानों द्वारा कर्ज न चुका पाना है।

क्यों भाजपा-कांग्रेस को खा रहा ‘बंटवारे का डर’

 बिगड़ सकती है सियासी बुनावट, राजस्व हानि की भी चिंता

उत्तरप्रदेश विधानसभा में पारित चार राज्यों के प्रस्ताव(जिसमें बुंदेलखंड भी सम्मिलित है) ने सिर्फ यूपी नहीं; मध्यप्रदेश की राजनीतिक में भी हलचल पैदा कर दी है। दरअसल, यूपी के महज 7 जिलों की 32 विधानसभा क्षेत्रों मात्र से बुंदेलखंड प्रांत की परिकल्पना पूर्ण नहीं होती; इसमें मध्यप्रदेश के छह जिलों-दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह सागर को भी अंगीकार करना होगा। यदि ‘बुंदेलखंड प्रांत’ को आर्थिक दृष्टिकोण से भी सुदृढ करना है, तो इसमें प्रस्तावित जिले; जो सभी मध्यप्रदेश के खाते से जाएंगे-मुरैना, श्योपुर, भिंड, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना और अशोकनगर को भी उसके नक्शे में जोड़ना होगा। भूख, बेरोजगारी और पानी से आकंठ त्रस्त ‘बुंदेलखंड’ यदि नये प्रांत का रूप अख्तियार करता है, तो इसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नफा-नुकसान क्या होंगे? अमिताभ बुधौलिया की विशेष रपट...

  
‘यूपी में बहुत दम है!’ समाजवादी पार्टी के लिए अमिताभ बच्चन ने यह स्लोगन दिया था। ‘दमखम’ वाली इस यूपी में फिलहाल मायावती के एक फैसले ने राजनीतिक खलबली पैदा कर दी है। यहां सपा का तो पहले से ही ‘दम’ फूला हुआ था, अब कांग्रेस की भी हालात ऊपर-नीचे हो रही है। मायावती ने प्रदेश के चार टुकड़े करने का विधानसभा में जो प्रस्ताव पास कराया है, उसने मध्यप्रदेश की राजनीति में भी उबाल पैदा कर दिया है। दरअसल, बुंदेलखंड प्रांत की मांग वर्षों से चली आ रही है और अब मायावती के इस फैसले से इसे और अधिक बल मिला है। चूंकि मायावती के प्रस्तावित बुंदेलखंड में मध्यप्रदेश वे छह जिले सम्मिलित नहीं हैं, जिनके बगैर पृथक बुंदेलखंड प्रांत का सपना साकार नहीं होता। सो, मध्यप्रदेश में भी पृथक बुंदेलखंड पर बहस छिड़ गई है।

 भाजपा क्यों नहीं पृथक बुंदेलखंड की मांग के साथ...
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पृथक बुंदेलखंड प्रांत की मांग को एक सिरे से खारिज कर दिया है। मध्यप्रदेश में आने वाले बुंदेलखंड अंचल के मंत्रियों का तर्क है कि; यदि नया राज्य बना, तो वह अपनी स्थापना से ही बीमार हो जाएगा। वे छोटे राज्य बनाने को औचित्यहीन मानते हैं। जल संसाधन मंत्री जयंत मलैया के मुताबिक;‘मप्र विधानसभा में पृथक बुंदेलखंड राज्य का प्रस्ताव पारित नहीं होगा।’ वहीं पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव तर्क देते हैं-‘संभावित राज्य बीमारी में ही पैदा होगा और बीमार ही बना रहेगा!’ कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया भी कुछ ऐसा ही मानते हैं-‘बड़े राज्यों के निर्माण से ही विकास की संभावनाएं बलवती होंगी।’ ये तीनों ही मंत्री बुंदेलखंड से आते हैं और उनका तर्क बाजिव भी है, लेकिन नजरिया राजनीति से प्रेरित है। इसकी दो वजहें हैं पहला; वर्ष 2000 में मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ बनने के बाद मध्यप्रदेश के विकास की रफ्तार मध्यम पड़ी है। दिलचस्प पहलू यह है कि छत्तीसगढ़वासी सम्मिलित मध्यप्रदेश में बेहद पिछड़े हालात का सामना कर रहे थे। चूंकि छग में मात्र 20 फीसदी आबादी ही शहरों में बसती है, ऐसे में ग्रामीण अंचलों का खूब दोहन/शोषण हुआ, वो भी तब; जब वहां भरपूर खनिज संपदा, पानी और वन हैं। छत्तीसगढ़ में34 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है, जबकि 12 प्रशित पिछड़े और 50 फीसदी लोग अन्य पिछड़ा वर्ग में शुमार हैं। यहां की 80 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी और लघु उद्योगोें पर आश्रित है। पृथक राज्य बनने के बाद छग में जलसंसाधनों पर खूब काम हुआ है। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, जो इसकी आर्थिक उन्नति का सूचक है।

इसलिए भी चिंता बाजिव
विकास की गाथा जिन तीन चीजों-बिजली, पानी और सड़क से लिखी जाती है, उसमें छग सम्पन्न प्रांतों में शुमार है। बिजली उत्पादन के मामले में छग भारत के कुछेक गिने-चुने प्रांतों में शामिल है, जहां बिजली संकट जैसे शब्द सुनने को नहीं मिलते। वहीं स्टील, अल्युमिनियम, कोल माइन जैसी खनिज संपदा भी प्रचुरता में है। वन संपदा के मामले में भी छग बहुत सम्पन्न है। यहां कुल क्षेत्रफल के करीब 40 फीसदी में वन संपदा मौजूद है।
कहने का आशय यह है कि; मध्यप्रदेश और छग दोनों जगहें भाजपा की सरकारें हैं। दोनों ही प्रांतों में दूसरी मर्तबा भाजपा काबिज हुई है, लेकिन जब विकास की बात होती है, तो मध्यप्रदेश छग अलग होने के बाद से लगातार बिजली और पानी के संकट से जूझ रहा है। खनिज संपदा का भी ठीक से दोहन नहीं हो पा रहा है। बोले तो; मध्यप्रदेश स्वयं को छग अलग होने के बाद से पिछड़ा महसूस करने लगा है।
दूसरा मध्यप्रदेश के जिन छह जिलों को पृथक बुंदेलखंड में सम्मिलित किए जाने की बात हो रही है, वे भी खनिज संपदा के मामले में धनी हैं। उदाहरण के तौर पर अकेले पन्ना जिले से केंद्र सरकार को 700 करोड़ रुपए, जबकि मध्यप्रदेश सरकार को करीब 1400 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता है। उल्लेखनीय है कि पन्ना पिछले 5000 सालों से हीरा खदानों के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यहां अब तक करीब 40 हजार कैरेट हीरा निकाला जा चुका है, जबकि अनुमान है कि 14 लाख कैरेट के भंडार अभी मौजूद हैं। वहीं सागर और छतरपुर में तांबा, राक और चूना पत्थर , दतिया में सीसा अयस्क और गेरू मिट्टी, टीकमगढ़ में बैराइटिस और अभ्रक, पन्ना में अग्निरोधी मिट्टी आदि की प्रचुरता है। बुंदेलखंड से प्राप्त ग्रेनाइट पत्थर की विदेशों में खासी मांग है। विशेषकर जर्मनी, जापान और इटली में इनका बड़े पैमाने पर निर्यात होता है। बांदा में बॉक्साइट का अकूत भंडार है। बुंदेलखंड के तालाबों की मछलियां कोलकाता में खूब बिकती हैं। यहां के जंगलों में मिलने वाला तेंदूपत्ता हरा सोना कहा जाता है। खजुराहो और दतिया जैसे पर्यटन स्थल सालभर लोगों को आकर्षित करते रहते हैं। बीना (सागर)में मध्यप्रदेश की संभवत: सबसे बड़ा उद्योग ‘तेल शोधक परियोजना’ तैयार हो चुकी है। इस पर करीब 6400 करोड़ रुपए व्यय हुए हैं। 60 लाख टन ली. क्षमता का यह तेल शोधक संयन्त्र भारत तथा ओमान सरकार के सहयोग से स्थापित हुआ है। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिलकर लगभग 1000 करोड़ रुपए का राजस्व सरकार के खाते में जमा कराते हैं, लेकिन दुर्भाग्य इसका 10 फीसदी भी उस पर खर्च नहीं होता। यह ठीक वैसी स्थिति है जब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश एक थे। छग कमाता था और मध्यप्रदेश बैठकर ऐश करता था। चूंकि अब कमाऊ बेटा न्यारा हो चुका है, सो मध्यप्रदेश नहीं चाहता कि बुंदेलखंड भी उससे मुंह मोड़ ले!
यानी दो टूक शब्दों में कहा जाए, तो यदि पृथक बुंदेलखंड प्रांत बनता है, तो मध्यप्रदेश के हाथ से खजाना निकल जाएगा। कारखानों की बात छोड़ दी जाए, तो ज्यादातर खनिज संपदा का सरकार से ज्यादा माफिया दोहन कर रहा है। यह भी बुंदेलखंड के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है।

यह है राजनीतिक गणित
राजनीतिक दृष्टिकोण से ‘पृथक बुंदेलखंड प्रांत’ का प्रस्ताव एक अलग गणित पैदा करता है। चूंकि अगले वर्ष 2012 में यूपी में विधानसभा चुनाव हैं, सो मायावती को इससे निश्चय ही फायदा पहुंचने वाला है। जहां तक यूपी वाले बुंदेलखंड की बात की जाए, तो यहां से 4 सांसद और 32 विधायक चुनकर आते हैं। वर्ष 2007 के विस चुनाव में बसपा को 14 सीटें मिली थीं, जबकि सपा के खाते में पांच और कांग्रेस को महज 3 सीटों से संतोष करना पड़ा था। भाजपा यहां अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी। निश्चय ही माया द्वारा फेंका गया बंटवारे का ‘मोह पांस’ उन्हें चुनाव में फायदा पहुंचाएगा।
लेकिन जब इस मुद्दे से मध्यप्रदेश को जोड़ा जाए, तो यहां वर्ष, 2013 में विधानसभा चुनाव हैं। वर्तमान में मध्यप्रदेश की कुल 231 विधानसभा सीटों में से 151 पर भाजपा(जनशक्ति के पांच विधायकों के विलय के बाद), 66 पर कांग्रेस, 7 पर बसपा, जबकि सपा के खाते में सिर्फ 1 सीट शामिल है। जहां तक मध्यप्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड की दलीय स्थिति देखी जाए तो छह जिलों दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर की कुल 30 विधानसभा सीटों पर 20 पर भाजपा, 7 पर कांग्रेस, जबकि सपा, बसपा के खाते में सिर्फ 1-1 सीटें आई हैं। एक सीट पर निर्दलीय का कब्जा है। यदि जातिगत जनंसख्या की बात की जाए, तो यूपी और मध्यप्रदेश दोनों के सम्मिलित बुंदेलखंड में पिछड़े और दलित वर्ग की बहुलता है। लाजिमी है, इसका चुनाव में सबसे अधिक फायदा बसपा को पहुंचने वाला है। सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को होगा। ऐसे में बसपा को छोड़कर कोई भी पार्टी नहीं चाहती कि; बुंदेलखंड प्रांत की मांग जोर पकड़े। अब तो कांग्रेस भी नहीं। यह बात और है कि दो साल पहले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी जब प्यासे बुंदेलखंड का दर्द जानने दौरे पर थे, तब उन्होंने पृथक बुंदेलखंड की वकालत की थी।
उल्लेखनीय है कि इसी 28 जुलाई को राहुल गांधी के नेतृत्व में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और यूपी के प्रभारी दिग्विजय सिंह, मध्यप्रदेश के प्रभारी बीके हरिप्रसाद और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी प्रधानमंत्री से मिलने गए थे। इन्होंने मप्र और यूपी दोनों के संयुक्त केंद्रीय बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के गठन की मांग उठाई थी। इसके लिए उन्होंने 8000 करोड़ रुपए का विशेष पैकेज दिए जाने की बात भी की थी। हालांकि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और यूपी की मुख्यमंत्री मायावती दोनों ने इसका विरोध किया था।

क्यों मुकरीं उमाश्री...
हालांकि मध्यप्रदेश सरकार अप्रैल 2007 में ‘बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण’ का गठन कर चुकी है। इस प्राधिकरण को अब तक 1.17 करोड़ रुपए मिल चुके हैं। मार्च 2012 से पहले इतनी ही राशि और राज्य सरकार देगी, लेकिन इसमें अब थोड़ा पेंच है। दरअसल, बुंदेलखंड में खासा प्रभाव रखने वालीं पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की भाजपा में वापसी शिवराज सिंह को रास नहीं आई है। ऐसे में अटकलें लगाई जा रही हैं कि वे ‘बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण’ को और पैसा देने के मूड में नहीं हैं। इसकी एक वजह और है। उमा भारती ने जब ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ का गठन किया था, तब उन्होंने पृथक बुंदेलखंड प्रांत की मांग को उचित ठहराया था। दिसंबर, 2009 में भाजश के प्रदेश अध्यक्ष अशोक त्रिपाठी ने कहा था-‘सुश्री भारती पृथक बुंदेलखंड राज्य की मांग उठाकर छोटे-छोटे नये राज्यों के गठन की मुहिम में शामिल हो गई हैं।’ श्री त्रिपाठी ने यहां तक कहा था कि; बुंदेलखंड के गठन की उम्मीद में पार्टी की एक इकाई गठित करने जा रहे हैं। उन्होंने दो टूक कहा था कि; उमा भारती ऐसी एक मात्र राजनेता हैं, जो पृथक बुंदेलखंड की मांग के जरिये क्षेत्र में वन और खनिज माफिया को समाप्त करना चाहती हैं।
लेकिन जून, 2011 को जैसे ही भाजश का भाजपा में विलय हुआ और इसके बाद उमा भारती को यूपी का प्रभार सौंपा गया, वे इस मुद्दे पर चुप हो गर्इं।

बड़ा अजीब तर्क
पृथक बुंदेलखंड के विरोध में कुछ और भी तर्क दिए जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के कई नेताओं का कहना है कि उप्र और मप्र के बुंदेलखंड में काफी भिन्नताएं हैं, इसलिए इन्हें मिलाकर एक राज्य का निर्माण करना उचित नहीं है। इसमें सबसे बड़ी भिन्नता राजनीतिक स्तर पर है। अभी तक मध्यप्रदेश में दो दलों के बीच सीधी टक्कर होती है, जबकि उप्र में कई छोटे दल हैं। यदि यूपी का हिस्सा भी एमपी के बुंदेलखंड में मिल गया, तो बसपा भी यहां अपना प्रभाव जमा लेगी। कुछेक नेताओं का तर्क है कि मप्र में खदानें हैं, वन हैं, खनिज हैं; लेकिन उप्र में इसका अभाव है। इसके अलावा सांस्कृतिक स्तर पर भी विभिन्नताएं हैं। वैसे यह कितनी हैरान कर देने वाली बात है कि; जहां राहुल गांधी ‘केंद्रीय बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण’ पर जोर देते हुए 8000 करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की मांग उठा चुके हैं, वहीं अब कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल ‘पृथक बुंदेलखंड’ के निर्माण को खर्चीला साबित करने पर तुले हुए हैं। दोनों दलों के नेताओं का तर्क है कि यदि अलग राज्य का गठन हुआ, तो इसके बुनियादी निर्माण पर करीब 2000 करोड़ रुपए खर्च होंगे। सबसे शर्मनाक बात यह है कि एम और यूपी के ‘संयुक्त बुंदेलखंड’ के विकास के लिए केंद्र सरकार विशेष पैकेज के नाम पर वर्ष 2009-2010 से लेकर अगले तीन सालों के लिए करीब 7266 करोड़ रुपए का बजट दे चुकी है। इसमें से यूपी के खाते में 3506 करोड़ और एमपी के हिस्से में 3760 करोड़ रुपए आए, लेकिन दुर्भाग्य इतनी बड़ी रकम मिलने के बावजूद किसी भी जिले की औसत विकास दर 14-14 प्रतिशत से ऊपर नहीं उठ पाई। इसकी सबसे बड़ी वजह रही भ्रष्टाचार।

बंटवारे का गणित
  • बुन्देलखंड-13 जिले (बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, झांसी, जालौन, ललितपुर, महोबा, उत्तर प्रदेश क्षेत्र से एवं छतरपुर, दमोह, दतिया, पन्ना, सागर, टीकमगढ़ मध्य प्रदेश से)।
  • ये हैं रोड़े-इस पथरीले इलाके में हमेशा पानी का संकट, सूखा, भुखमरी व किसान आत्महत्याओं की युगलबन्दी, कोई स्थायी उद्योग नहीं, कृषि नाम मात्र की, ज्यादातर ऊसर-परती व ऊबड़, खाबड़ जमीन, पलायन आय का अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं है।
  • वन क्षेत्र-उत्तर प्रदेश के सात जिलों में अनिवार्य 33 प्रतिशत वन क्षेत्र के मुकाबले बांदा में 1.21 प्रतिशत वन क्षेत्र व अन्य की स्थिति, 21.6 प्रतिशत चित्रकूट अधिकतम से ज्यादा नहीं है। मध्य प्रदेश के 6 जिलों में छतरपुर, पन्ना इलाके में ही आंशिक वन क्षेत्र है वह भी ईंधन उपयोगी ही है।
  • खनिज सम्पदा- बुन्देलखण्ड के चित्रकूट मण्डल के चार जिलों में जिस गति से खनिज संसाधनों का दोहन हो रहा है। चाहे वन हो या पहाड़ उसे बचा पाने की रणनीतियां नहीं हैं। यही स्थिति मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ व छतरपुर की है। जहां सरकार ने आस्ट्रेलिया की एक कम्पनी को बेतहासा खनन के लिए पहाड़ों व नदियों के पट्टे कर दिए हैं।
  • कृषि क्षेत्र-विश्वबैंक की रिपोर्ट कहती है कि हमारे अध्ययन का उद्देश्य गरीबी के कारकों का पता लगाना था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 57 प्रतिशत पूर्वी व मध्य प्रदेश में 40 प्रतिशत उद्योग क्षेत्र है। जब कि बुन्देलखंड में तीन से चार प्रतिशत है। कृषि क्षेत्र बुन्देलखंड में 5 प्रतिशत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पूर्वी क्षेत्र में 45 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, असम तथा पश्चिम बंगाल के 300 गांवों का सर्वेक्षण करके जो तथ्य जुटाए गए हैं उसमें बुंदेलखंड भी शामिल था।
  • उद्योग-आजादी की औद्योगिक क्रान्ति को छोड़ दे तो यहां ऐसी कोई परियोजना नहीं आई है, जो लोगों को रोजगार दे सके। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी के जमाने में झांसी में बीएचईएल (भेल), सूती मिल के साथ बिजौली में औद्योगिक एरिया विकसित किया गया था। आज भेल को छोड़कर अधिकांश उद्योग बंद हो चुके हैं। बरूआसागर का कालीन उद्योग, रानीपुर के करघे चरमरा गए हैं, मऊरानीपुर का टेरीकाट गरीबों से बहुत दूर हो चुका है, चित्रकूट की बरगढ़ ग्लास फैक्ट्री, बांदा का शजर व बुनकरी उद्योग और कताई मिल फैक्ट्री के हजारों मजदूर परिवारों सहित पलायन कर गए हैं।
  • नदियां- गंगा, यमुना, वेत्रवती, केन (कर्णवती), पहूज, घसान, चंबल, बेतवा, काली सिंघ, मंदाकिनी, बागै यहां की सदानीरा नदियां रही हैं, जिन पर आश्रित रहती है बुन्देलखंड की कृषि।
  • बड़े बांध या विनाश परियोजनायें-केन बेतवा नदी गठजोड़ राष्ट्रीय परियोजना बांध प्रयोगों के प्रयोगशाला क्षेत्र स्वरूप बुन्देलखण्ड के लिये प्रस्तावित है। परियोजना की डीपीआर रिपोर्ट के अनुसार 22.4 करोड़ रुपए 31 मार्च 2009 तक खर्च हो चुके हैं जबकि इसकी कुल प्रस्तावित धनराशि 7,614.63 रुपए (सात हजार छ: सौ पन्द्रह करोड़ रुपए) है। 90 प्रतिशत केन्द्र अंश व 10 प्रतिशत राज्य सरकार के अनुदानित कुल 806 परिवारों के विस्थापन वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार और 10 गांवों के पलायन की पुरोधा है यह परियोजना। परियोजना क्षेत्र में दौधन बांध एवं पावर हाउस 2182 हेक्टेयर भूमि में बनाया जाना है। इस योजनान्तर्गत 4317 हेक्टेयर कृषि जमीन नहरों के प्रबन्धन पर खर्च होगी। केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना के अन्तर्गत छह परियोजनाओं व नहरों के विकास में 6499 हेक्टेयर भूमि किसानों से अधिग्रहीत की जानी है। बुन्देलखंड के पर्यावरण विद, सामाजिक कार्यकर्ता, संगठनों ने परियोजना प्रस्ताव के समय से लेकर आज तक इसका विरोध ही किया है। इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड में 3500 किलोमीटर लम्बी नहरें, 1581 नलकूप भी स्थापित हैं।
  • तालाबों की तबाही- टीकमगढ़, छतरपुर, महोबा के विशालकाय सागर जैसे तालाबें और चन्देलकालीन जलस्रोतों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। मिटते हुए जल संसाधन बुन्देलखण्ड में सूखा जनित आपदाओं के प्रमुख कारण हैं।
  • खनिज दोहन- बुन्देलखण्ड में यू तो हीरा, सोना, ग्रेनाइट, अभ्रक, बालू, रेत, सागौन, शजर, लौह अयस्क भण्डार (छतरपुर), यूरेनियम के अकूत भण्डार हैं। यहां की खनिज सम्पदा से उत्तरप्रदेश के बुन्देलखण्ड वाले सात जनपदों से ही 510 करोड़ रुपए का वार्षिक राजस्व उत्तर प्रदेश सरकार को प्राप्त होता है और राज्य सरकारों को सभी खनिज सम्पदाओं के दोहन से 5000 करोड़ रुपए राजस्व मिलता है, लेकिन बेतहासा खनिज दोहन बुन्देलखण्ड के स्थायी विकास और राज्य की अवधारणा में बाधक साबित होने के मजबूत तथ्य हैं।
  • बिजली प्लांट- झांसी के पास पारीछा वियर में ही विद्युत संयत्र से 660 मेगावाट बिजली उत्पादन होता है। अन्य हिस्सों में बिजली संयत्र स्थापित नहीं किये जा सके हैं।

कहां है बुंदेलखंड
  • यूपी में कानपुर से दक्षिण की तरफ जाते ही यमुना पार करने पर बुंदेलखंड शुरू हो जाता है। इसका विस्तार यूपी के सात और एमपी के छह जिलों में है। ये जिले हैं झांसी, चित्रकूट ,बांदा, हमीरपुर, महोबा, जालौन और ललितपुर (यूपी में), दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह (एमपी)। बुंदेलखंड का यूपी में पड़ने वाला यानी उत्तरी हिस्सा समतल मैदान है। लेकिन जैसे जैसे दक्षिण की तरफ बढ़ते हैं, पथरीली जमीन बढ़ती है। इसके प्रमुख शहर हैं झांसी और सागर।
 कब मुख हुई पृथक बुंदेलखंड की मांग
  • -आजादी के पहले से ही बुंदेलखंड निर्माण के लिए आंदोलन का सूत्रपात हो गया था। ओरछा नरेश वीर सिंह देव ने 1941 में प्रांत निर्माण के पूर्व इस क्षेत्र की सांस्कृतिक एकता के अभिलेखीकरण पर जोर देते हुए पं.बनारसी दास चतुर्वेदी, यशपाल जैन, कृष्णानंद गुप्त, अंबिका प्रसाद, दिव्या आदि साहित्यकारों को कुंडेश्वर में आमंत्रित कर रूपरेखा बनाई थी।
  • वर्ष 1953 में जब न्यायमूर्ति फजरत अली की सदारत में पहला राज्य पुनर्गठन आयोग गठित हुआ, तो उसके सामने भी बुंदेलखंड राज्य निर्माण का प्रस्ताव आया।
  • आयोग के एक सदस्य केएम पणिक्कर ने बुंदेलखंड क्षेत्र के एकीकरण की आवश्यकता अनुभव की। हालांकि उन्होंने इसे स्वतंत्र राज्य बनाने के बजाय आगरा राज्य बनाकर इसमें उत्तरप्रदेश से तत्कालीन झांसी डिवीजन तथा मध्यभारत से भिंड, मुरैना, ग्वालियर व शिवपुरी चार जिलों को सम्मिलित करने का सुझाव दिया था। सागर, पन्ना, दमोह, टीकमगढ़ व छतरपुर के बारे में उन्होंने मत व्यक्त नहीं किया। आयोग ने 30 सितंबर 1955 को जब अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया तो उसमें पणिक्कर के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया।
  • बुंदेलखंड के निर्माण के लिए सर्वाधिक प्रभावी जनजागरण अभियान 1989 से 2001 तक स्व.शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा की ओर से चलाया गया। इसकी स्थापना नौगांव मप्र में की गई थी, किंतु बाद में संगठन की सुविधा के विचार से मोर्चा का मुख्यालय झांसी लाया गया।
  • शंकरलाल मेहरोत्रा ने मप्र के पूर्व मंत्री बिट्ठल भाई पटेल (सागर), राजा बुंदेला (ललितपुर-मुंबई), मुकुंद कुमार गोस्वामी (चरखारी), सुरेश (दमोह), हरिमोहन विश्वकर्मा (झांसी) आदि को जोड़कर जीवन के अंतिम क्षण तक बुंदेलखंड राज्य के लिए संघर्ष किया।
  • 1995 में शंकरलाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में नौ आंदोलनकारियों ने सुरक्षा घेरा तोड़कर संसद में पर्चे फेंके थे। इस पर उन्हें दंडित किया गया। 1996 में हमीरपुर-महोबा के तत्कालीन सांसद गंगाचरण राजपूत ने लोकसभा में बुंदेलखंड प्रांत के निर्माण की मांग उठाई।
  • 1999 में शंकरलाल मेहरोत्रा ने 1997 में छोटे राज्यों की मांग करने वाले 12 संगठनों का झांसी में महासम्मेलन बुलाया। इसमें रालोद के अध्यक्ष अजित सिंह को संयोजक, पूर्व राज्यपाल मधुकर दिघे अध्यक्ष व शंकरलाल मेहरोत्रा महामंत्री बनाये गए।
  • शंकरलाल मेहरोत्रा का 20 नवंबर 2001 को निधन हो गया। इसके बाद विधायक बादशाह सिंह ने बुंदेलखंड इंसाफ सेना बनाकर पृथक राज्य के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने तक की घोषणा कर डाली, लेकिन बसपा में शामिल होने के बाद उनके तेवर ठंडे पड़ गये। यही हश्र गंगाचरण राजपूत का हुआ, जब वे सपा में शामिल हो गये थे लेकिन बसपा में आने के बाद उन्होंने फिर पृथक राज्य की चर्चा शुरू कर दी।
  • राजा बुंदेला ने हाल में बुंदेलखंड कांग्रेस बनाकर पृथक राज्य के मुद्दे पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, हालांकि उन्हें कोई गंभीरता से नहीं ले रहा। शिवप्रकाश सिंह कल्लू भैया ने बुंदेलखंड विकास मंच बनाकर हमीरपुर व जालौन जिले में युवाओं को पृथक राज्य के समर्थन में लामबंद किया।


‘बुंदेलखंड का असली स्वरूप मध्यप्रदेश का हिस्सा मिलाने से ही बनेगा। पन्ना, टीकमगढ़ आदि जिलों से बुंदेलखंड को राजस्व मिलता है। भौगोलिक,सामाजिक, सांस्कृतिक, पर्यटन, रीति-रिवाज आदि सब एक होकर बनने से बुंदेलखंड का महत्व है।

हरिमोहन विश्वकर्मा, पूर्व अध्यक्ष बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा