शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

खेल और संस्कृति


जो करे धन्य और धान्य वही खेल महान

पुराने खेल ‘खल्लास’

अमिताभ बुधौलिया

मैं बचपन में कंचे खूब खेला हूं। गिल्ली-डंडा खेलने में भी कमतर नहीं था। जब कभी गांव जाता था; तो पेड़ों पर चढ़कर पकड़ा-पकड़ी खेलने में भी खूब मजा आता था। थोड़ा बड़ा हुआ; तो क्रिकेट का भूत सवार हुआ। धुरंधर बल्लेबाज और अच्छा विकेट कीपर रहा। इसी दरमियान थोड़ा-बहुत समय निकालकर बैटमिंटन में भी हाथ आजमाता रहा। ...और हां; साइकिल के चक्के (स्टील की रिम) में लकड़ी फंसाकर उसे ऊबड़-खाबड़ गलियों में घुमाना परम आनंद की अनुभूति कराता था। लुकाछिपी का भी अपना एक क्रेज था। कबड्डी, खो-खो, चोर-सिपाही, खूब खेला। कई खेल खेले; लेकिन जो इन खेलों में आता था, वैसी तृप्ति आधुनिक खेलों से कभी नहीं मिली।

अब जब; बड़ा हो चुका हूं, तब बचपन में झांककर स्मृतियों को तरोताजा करता हूं, तो अपना ‘खेल-काल’ बहुत याद आता है। मीठी यादें जेहन को प्रफुल्लित कर देती हैं। मन मचल उठता है; गोया बोल रहा हो-‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’
अब आप किसी बच्चे से इन खेलों के बारे में पूछिए! संभव है कि; कई तो भारतीय लोकसंस्कृति/बाल संस्कृति में रचे-बसे और माटी में ‘सने’ इन खेलों में से कुछेक को परिभाषित भी नहीं कर पाएंगे। वहीं कई खेलों के बारे में तो आश्चर्य व्यक्त करते हुए प्रतिसवाल कर सकते हैं कि; ‘यह कौन-सा खेल था, कब और कैसे खेला जाता था?’
उम्रदराज पीढ़ी की बात छोड़िए; हम जैसे युवाओं को भी यह बात दु:खी कर सकती है कि; ‘हम अपने बच्चों को खेल विरासत के तौर पर क्या सौंपे?’

पिछले दिनों भारतीय संस्कृति की परिचायक इस पत्रिका ‘रंगकृति’ के संपादक रवि चौधरी मेरे घर आए और बोले-‘मैं यह अंक भारतीय परंपरागत खेलों को समर्पित करना चाहता हूं। वे खेल; जो भारत की लोककला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते रहे हों!’ एक व्यावसायिक नजरिये से आकलन किया जाए, तो ऐसी साम्रगी का पत्रिका में संकलन करना मुनाफे का सौदा नहीं कहा जा सकता। हां; यदि क्रिकेट जैसे खेलों पर सम्पूर्ण अंक निकालने का बात होती, तो यकीनन विज्ञापन कबाड़े जा सकते हैं। हालांकि यह प्रयास सराहनीय था, लेकिन जब मैंने उसे लेखकीय नजरिये से भांपा तो इस विषय पर लिखना बड़ा दुष्कर दिखलाई पड़ा। आखिर; शुरुआत कहां से करूं, क्या लिखूं, किस खेल पर लिखूं? आदि-आदि कई प्रश्न दिमाग में बिजली-की भांति कौंधने लगे। तीन-चार दिन तक तो समझ ही नहीं आया कि; क्या मैं लिख भी पाऊंगा कि नहीं? लेकिन सरस्वती देवी की कृपा से रास्ता भी मिल गया।
एक दिन मैंने रास्ते में पड़ने वाली एक झुग्गी बस्ती में कुछ बच्चों को सितौलिया(रबर या कपड़े की गेंद से गोलाकार या चौकोर पत्थरों पर मारकर भागना) खेलते देखा। मैंने भी बचपन में सितौलिया खूब खेला है। इन बच्चों को खेलता देखकर ठीक वैसी ही आनंद की अनुभूति हुई। कुछ देर बच्चों को खेलते देखता रहा। मुझे लिखने का रास्त मिल गया था, सोच मिल गई थी।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है! इसलिए नई चीजों/संस्कृतियों/जीवनशैली का जनम-मरण लाजिमी है। यह सिद्धांत खेलों पर भी लागू होता है। भौतिक संसाधनों में नई चीजों/आविष्कारों की निरंतर आमद हो रही है। समाज की दिशा बदली-देश की गति बदली और लोगों की मति बदली। लेकिन जब से ‘बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया!’ वाला फंडा समाज में प्रभावी हुआ है; तब से ‘तरक्की’ और ‘संभ्रांत’ शब्द के मायने बदल गए हैं। जिसके पास मनी; वही धन्य वही धनी! पैसे ने लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाई, सो नेशनल/मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने प्रोडक्ट्स घर-घर खपाने के उपाय खोजने प्रारंभ कर दिए। जिनके पास कम पैसा; वे भी धनाढ्य वर्ग के पीछे-पीछे चलने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। संभ्रांत घरों के बच्चे अब उसी खेल में दिलचस्पी लेते हैं, जिसमें जॉब हो या पैसा! गुल्ली-डंडा, सितौली, चोर-सिपाही जैसे खेल बकवास-सरीखे हो चले हैं। ये खेल अभिभावकों के लिए अब महज वक्त-बर्बादी से अधिक कुछ भी नहीं हैं। इस लोक-बदलाव ने खेलों से जुड़ीं कहावतों की न सिर्फ दिशा बदली बल्कि उनके ‘भाव’ में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। उदाहरण देखिए, वर्षों पहले तक एक कहावत बहुत प्रचलित थी-‘खेलोगे-कूदोगे; बनोगे खराब/पढ़ोगे-लिखोगे; बनोगे नवाब!’ यह कहावत तब तक; सटीक थी, जब तक खेल-संस्कृति को विकसित करने/उसे बढ़ाने केंद्र और राज्य सरकारों के पास कोई योजना नहीं थी, बजट नहीं था। अब स्थितियां बदल चुकी हैं। सो यह कहावत भी अब भाषाई संस्कृति का जीवाश्मभर रह गई है। लेकिन इस बदलाव के उपरांत कमाने-धमाने के खेलों की फेहरिस्त में परंपरागत और भारतीय गली-कूचों में विकसित गुल्ली-डंडा टाइप खेल सम्मिलित नहीं किए गए। क्रिकेट जैसे धनाढ्य और संभ्रांत खेल ने बाकी खेलों की दुर्गति करके रख दी। हॉकी, फुटबाल, जूडो जैसे कुछेक खेलों पर सरकार की कृपादृष्टि अवश्य बनी, लेकिन ये आज भी कुपोषण से जूझ रहे हैं।
संभव है कि अभी तक की सामग्री पढ़ने के बाद आपके जेहन में एक प्रश्न उठ सकता है कि; ‘ विषय जब परंपरागत और कभी लोकप्रिय रहे खेलों से संदर्भित है, तब इसमें पैसा कहां से यक्ष बनकर सामने आ गया?

मैं स्पष्ट किए देता हूं। हम जिन खेलों की दुर्गति की बात कर रहे हैं; उन्हें गर्त तक पहुंचाने के मूल में पैसा ही है। वजहें अवश्य तीन हैं, लेकिन सबकी पैदाइश धन से ही हुई है।

उदाहरण : क्रिकेट दीगर खेलों को खा गया। कारण इसमें पैसा अपार है। आपका बच्चा क्रिकेट में नेशनल स्तर तक भी पहुंच गया, तो समझिए कि; उसकी सरकारी जॉब पक्की। यदि वह इंटरनेशनल टीम का हिस्सा बन गया या आईपीएल जैसे महाआयोजनों में चुन लिया गया, तब तो धन्य और धान्य हो जाएंगे माता-पिता/परिवार/कुटुम्ब/समाज आदि-आदि। सितौली, या टेशु जैसे खेलों के रास्ते यह स्वप्न देखना निहायत वेबकूफी कहलाएगी।

दूसरी वजह पैसे ने भौतिक सुख-साधन से जुड़ीं वस्तुओं में इजाफा कर दिया है। तकनीकी क्षेत्र में तरक्की से वीडियो गेम्स को जन्मा। इस खेल में दिमागी कसरत है, लेकिन शारीरिक मशक्कत कतई नहीं। दूसरा इसमें सांस्कृतिक मेल-मिलाप के अवसर भी नगण्य हैं। घर में दिनभर बैठे-बैठे गेम्स खेलते रहिए बस; दोस्तों/यारों से खुले मैदान में प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश धूल-धूसरित।

तीसरा कारण है ठेठ भारतीय समाज का ‘हाइजेनिक सोसायटी’में तब्दील हो जाना। इस अंग्रेजी शब्द ने कई नेशनल/मल्टी नेशनल कंपनियों को ‘तर’ दिया है, यानी उन्हें भारतवंशियों के बीच अपने प्रोडक्ट्स बेचने को अच्छा अवसर मुहैया कराया है। यदि आप टेलिवजन देखते हैं, तो ऐसे तमाम प्रोडक्ट्स के विज्ञापन भी देखें होंगे, जिनमें बच्चों को कीटाणुओं से कैसे बचाएं? बताया जाता है। मुझे कुछ प्रोडक्ट्स के उदाहरण देने में कोई संकोच नहीं। डिटॉल साबुन, सर्फ एक्सल जैसे बाथरूम प्रोडक्ट्स कीचड़ या माटी में सने-लदे बच्चों को स्वच्छ और कीटाणुमुक्त रखने का दावा करते हैं। यदि आपने गौर से देखा हो, तो ज्यादातर प्रोडक्ट्स के विज्ञापन में भी क्रिकेट या फुटबॉल जैसे गेम्स ही दिखाए जाते हैं। कहीं-कहीं कबड्डी जैसे खेल भी दिख जाते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि; मौजूदा भारतीय व्यवस्था में अब हर अभिभावक अपने बच्चे को ‘नीट एंड क्लीन’ देखना चाहता है/रखना चाहता है। भारत में पुराने जितने भी खेल हैं, उनमें से ज्यादातर में खेलने की अनिवार्यता ‘धूल-धूसरित’ होना है। यानी आप सितौली खेल रहे हों, या कबड्डी अथवा टेशु; सभी में कहीं न कहीं माटी अवश्य सम्मिलित है। कहीं धूल उड़ती है, तो कई माटी हाथों/पैरों में सनती है।...और जिन खेलो में माटी बदन पर नहीं सनती, जैसे चोर-सिपाही आदि; उनमें कपड़ों की उज्जवलता खत्म होने का डर बना रहता है। चोर-सिपाही के खेल में बच्चे धड़ाम-से एक-दूसरे को थप्पी मारते हैं। कहीं-कहीं हंसी-ठिठोली में खींचातानी भी होती है, ऐसे में कीमती कपड़े फटने और गंदे हो जाने की ‘आशंका’ भी बराबर बनी रहती है।

अभिभावक भी चाहते हैं कि उनका बच्चा ग्राउंड में जाए तो क्रिकेट या टेनिस जैसे ‘कमाऊ’ खेल खेले और यदि वो घर पर है, तो शांति से कंम्पयूटर गेम या सांप-सीढ़ी में रमा रहे। इससे उनकी शांति में भी खलल नहीं होगा और न ही बच्चे गंदे होंगे, उनके कपड़े मैले-कुचैले होने की गुंजाइश रहेगी।

चिकित्सक भले ही राग अलापते हों कि; कम्प्यूटर और इसी किस्म के दूसरे इनडोर गेम्स से बच्चों का दिमाग तो तेज होता है, लेकिन शारीरिक विकास बिलकुल नहीं, लेकिन वे भी अपने बच्चों को बाहर खेलने से रोकते हैं। कथनी-करनी में यह अंतर भी खेलों को खाए जा रहा है।

लोग इस बात को अब स्वीकार करना ही नहीं चाहते कि; कंचा, चोर-सिपाही, पेड़ों पर चढ़कर खेले जाने वाले पुरातन खेल बच्चों की पाचन शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक विकास में भी सहायक होते हैं। हालांकि ऐसे खेलो में बच्चों की रुचि कम नहीं हुई है, उन्हें रास्ते से भटकाया गया है।

अभिभावकों ने कभी यह नहीं सोचा कि; तमाम हाईजेनिक इंतजामों और मल्टी विटामिन्स/टॉनिक्स/च्यवनप्राश खाने के बावजूद उनका बच्चा बूढ़े-पुराने लोगों की स्टेमिना पैदा क्यों नहीं कर पाता? आधुनिकता का लबादा सिर्फ शहरी लोगों ने ही नहीं ओढ़ा है, गांव और देहात भी इससे अछूते नहीं हैं। गांवों से भी पुराने खेल ‘खल्लास’ होते जा रहे हैं। इसके पीछे अधुनातन होने को स्वांग भी है।

प्राचीन खेलों के पतन से कला और संस्कृति दोनों पर चोट

हर खेल के पीछे कोई कला और संस्कृति निहित होती है । यानी कला-संस्कृति और खेल तीनों के मिश्रण से ही जन्मती है जीवनशैली। कोई भी खेल ऐसा नहीं है, जो संस्कृति या कला से न जुड़ा हो। साइकिल का चक्का लकड़ी में फंसाकर घुमाने का खेल कहां से जन्मा? आप सोचकर बताइए? मैं ही बताए देता हूं। पहले के समय में कुम्हार बैलगाड़ी के पहिये(जिसे चाक कहा जाता था) को लकड़ी से घुमाकर घड़े, दीये, मटके आदि बनाता रहा है। बच्चों ने साइकिल के अनुपयोगी पहिये(स्टील रिम) में लंबवत लकड़ी फंसाकर रगड़ते हुए उसे घुमाने का हुनर पैदा किया। इस खेल से बच्चा बैलेंस सीखता है और दौड़ते रहने से कसरत भी होती है। बैलेंस करना एक कला है।
एकदम नई पीढ़ी की बात न करें, तो हममें से भी कइयों ने टेशु का खेल नहीं देखा होगा।
‘मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दही बड़ा!’ जैसे बोल अब मुश्किल से गांव-देहात में ही सुनने को मिलते हैं। शहरों के लिए तो यह खेल बेगाना हो चला है। किशोरियों का खेल नौत्ता तो गोया विलुप्तप्राय है। ये दोनों ही खेल भारतीय कला और संस्कृति के परिचायक रहे हैं।
आपको बता दें कि आश्विन मास में पितृ पक्ष लगते ही गांव-देहात में पंद्रह दिन तक लड़कियां नौत्ता खेल खेलती थीं। इस खेल में कच्ची दीवारों पर गोबर से देवी की मूर्ति बनाई जाती थी। उसका कौड़ियों और फूलों से श्रृंगार किया जाता था। फिर आरती कर प्रसाद बंटता था। अब तो गांवों में भी यह खेल देखने को तरस जाएंगे।
वहीं नवदुर्गा के बाद दशहरे से लेकर पूर्णिमा तक बच्चे टेसू-झांझी खेलते थे। इस खेल में लोकसंस्कृति के कई आयाम देखने और सुनने को मिलते रहे हैं। अब यह खेल भी लगभग लुप्त है।
इस जैसे तमाम खेलों में कोई न कोई ऐतिहासिक कहानी का बखान निहित होता था, यानी खेल-खेल में आप अपनी कला और सांस्कृतिक विरासत से भी रूबरू होते थे। मैं ‘थे’ शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अब ये खेल कहीं दिख जाएं, ऐसी संभावना न के बराबर है।
बहरहाल, पैसे से जन्मी आधुनिक संस्कृति ने पुराने खेलों का जो बिगाड़ा किया है, वो अब शायद ही दुबारा दुरुस्त किया जा सकेगा।

कोई टिप्पणी नहीं: