रविवार, 31 जनवरी 2010

वीआईपी (विजय ईश्वरलाल पवार, कॉमेडियन)


मेरी असली आवाज जाने कहां खो गई
अमिताभ फरोग
यह सचमुच मजेदार बात है कि; जो आदमी सैकड़ाभर फिल्म कलाकारों की आवाजें निकालकर अपनी मिमिक्री से लोगों को हंसाता हो-गुदगुदाता हो, कभी-कभार उसे अपनी असली आवाज ढूंढनी पड़ जाती है। सोनी टेलीविजन के चर्चित कॉमेडी शो ‘कॉमेडी सर्कस’ में जबर्दस्त परफर्म करने वाले विजय ईश्वरलाल पवार बोले तो; वीआईपी शनिवार को भोपाल में थे।

मिमिक्री की उलझन? वीआईपी अपने अंदाज में कुछ यूं बयां करते हैं-‘आपको एक मजेदार बात बताता हूं-मेरे दोस्त बोलते हैं कि; वीआईपी एक ऐसा कैरेक्टर है, जो प्यासा भी होगा, तो भी अपनी आवाज में नहीं पुकारेगा। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि, कइयों ने मेरी असली आवाज आज तक नहीं सुनी है।’ वीआईपी मिमिक्री करते हैं-‘हाय! मेरी असली आवाज पता नहीं कहां खो गई?’
दुनिया को हंसाने वाले वीआईपी अपना मनोरंजन कैसे करते हैं? वे दिलचस्पी लेकर बोलते हैं-‘मैं अपने दोस्तों से जोक्स सुनता हूं। मूड बना तो जॉनी भाई(लीवर) के घर जाकर बैठ जाता हूं। उनसे खूब बतियाता हंूं, हंसी-मजाक करता हूं। उनसे गुफ्तगू करना अच्छा लगता है।’
वीआईपी जॉनी लीवर से इतने प्रभावित क्यो हैं? वे अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं-‘जॉनी भाई सिर्फ अच्छे कलाकार नहीं, भले इंसान भी हैं। मुहावरे में बोलूं तो; वे ऐसे हरे-भरे पेड़ हैं, जिनको झुकने में कोई संकोच नहीं होता।’
दुनिया को हंसाने वाले अपनी रूठी बीवी को कैसे मनाते हैं? वीआईपी मुस्कराकर बोले-‘करना क्या? बस मिमिक्री शुरू कर देता हूं। कभी हिजड़ा बन जाता हूं, तो कभी शाहरूख!’
वीआईपी कब गंभीर होते हैं? यह सवाल उनकी संवदेनाओं को झकझोर देता है-‘मैं तब बेहद गंभीर हो उठता हूं, जब देखता हूं कि कोई किसी के संग ज्यादती कर रहा है, एट्टीट्यूट दिखा रहा है।’
वीआईपी अपने बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं-‘मुझे अच्छी तरह याद है, जब मेरे पिताजी (ईश्वरलाल) एक आर्गनाइजर के पास मुझे लेकर गए थे। वह आदमी लगभग दुत्कारने की मुद्रा में बोला था- चलो-चलो, यहां ये क्या करेगा? उस वक्त मेरा दिल बहुत दु:खा था। मैं तड़प उठा था। मन ही मन ईश्वर से बोला था- हे भगवान मुझे कामयाब आदमी अवश्य बनाना, ताकि ये व्यक्ति मुझसे खुद आकर प्रोग्राम करने का निवेदन करे। ईश्वर ने ऐसा किया। अब वह आदमी मुझसे कई बार संपर्क करके प्रोग्राम के लिए बोलता है, लेकिन अब मेरे पास समय नहीं है। वैसे आपको बात दूं कि मुझे लाफ्टर से भी रिजेक्ट कर दिया गया था। दरअसल, किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। लोग मेरा नंबर मांगते थे, लेकिन वे बहाना बनाकर टरका देते थे।’
...तो वीआईपी क्या अब वाकई वीआईपी हो गए हैं? वे साफगोई से जवाब देते हैं-‘नहीं, मैं आज भी पहले जैसा ही हूं। मैं कोई पीए-वीए नहीं रखता, कोई भी मुझसे सीधे कांन्टेक्ट कर सकता है।’ वीआईपी थोड़े दार्शनिक हो उठते हैं-‘मेरा मानना है कि कभी भी कोई बड़ा आदमी बन सकता है, लेकिन छोटे-बड़े का भेद नहीं रखना चाहिए। सबकी रिसपेक्ट करो।’
वीआईपी ने जब पहली बार ‘हिजड़े’ की मिमिक्री की, तब उन्हें घर से क्या रियेक्शन मिला? वीआईपी हंसते हैं-‘बच्चे बोले- क्या डैडी; स्कूल में सारे दोस्त चिढ़ाते हैं।’
वीआईपी संभवत : ऐसे पहले स्टैंडअप कॉमेडियन हैं, जो सिर्फ मिमिक्री ही नहीं करते; बल्कि तमाम फिल्म कलाकारों की हूबहू ‘बॉडी-लैंग्वेज’ कॉपी कर सकते हैं। वे कहते हैं-‘रियली! स्वप्निल और मैं आलराउंडर हूं। विश्वास न हो, तो किसी की शक्ल बनाकर दिखाऊं?’
अलवर(राजस्थान) के वीआईपी करीब 8 साल के अंतराल में दूसरी बार भोपाल आए हैं। वे शहर को लेकर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं-‘यहां सब अपने से लगते हैं।’
‘कॉमेडी सर्कस-2’ के विनर वीआईपी सुर भी खूब साधते हैं। वे किशोर स्टाइल में बोलते हैं-‘मुझे गुनगुनाना अच्छा लगता है। वैसे मेरी फैमिली में संगीत रचा-बसा है। श्रीमतीजी का नाम संगीता है। लड़का मधुर और लड़की का नाम हमने ध्वनी रखा है। यानी वीआईपी की म्यूजिक फैमिली।’
वीआईपी ‘ट्रेडमार्क मिमिक्री’ आर्टिस्ट कहे जाते हैं क्यों? वे गुदगुदाते हैं-‘शायद इसलिए, क्योंकि मेरे कुछ डायलॉग्स की टैगिंग हो गई है। जैसे-शटर अप-डाउन। दरअसल, शूटिंग के दौरान मेरे मुंह से यूं ही निकल गया था- चलो कॉमेडी की दुकान खोलते हैं? लोगों को यह सुनने में मजा आया, तो यह टैग बन गया।’
कॉमेडी में फूहड़ता के लिए वीआईपी पाकिस्तानी कलाकारों को दोषी मानते हैं, क्यों? वे गंभीरता ओढ़ते हैं-‘पाकिस्तानी कलाकारों ने ही कॉमेडी में अश्लीलता फैलाई। लोगों को चस्का लग गया, वोटिंग अच्छी होने लगी, तो प्रोड्यूसर्स भी डिमांड करने लगे।’
वीआईपी की संतुष्टि? वे यह कहते हुए बातचीत को विराम देते हैं-‘एक बारगी पैसा भले ही कम मिले, लेकिन लोगों का रिस्पांस बेहतर मिलना चाहिए।’

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

दिव्यंका त्रिपाठी (टेलीविजन अभिनेत्री)


मैं ‘गुमनाम’ होना चाहती हूं
अमिताभ फरोग
जीटीवी के सीरियल ‘बनूं मैं तेरी दुल्हन’ के जरिये घर-घर में खासी लोकप्रिय हुर्इं दिव्यंका फिलहाल सारे बड़े ऑफर्स ठुकरा रही हैं, क्योंकि उनकी ख्वाहिश है कि लोग विद्या को अपने दिमाग से बिसरा दें। जिस दिन ऐसा हो जाएगा, दिव्यंका एक नये ‘चरित्र’ में ‘दर्शन’ देंगी! क्यों चाहती हैं, दिव्यंका ऐसा? दार्शनिक नजरिये से उन्हीं की जुबानी...

दिव्यंका सिर्फ सूरत से नहीं; दिल से भी बेहद खूबसूरत, सौम्य और सरल हैं। ऐसा उनके करीबी बोलते हैं। इसकी एकाध नहीं; तमाम वजहें हैं। इन दिनों दिव्यंका अपने घर आई हुई हैं। उन्होंने मुंबई में एक शानदार फ्लैट खरीदा है। उसके इंटीरियर पर वर्क चल रहा है। वहां उनके मित्र इसकी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं और यहां भोपाल में दिव्यंका घर सजाने शॉपिंग कर रही हैं। भला भोपाल से शॉपिंग क्यों? दिव्यंका आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया देती हैं-‘भला भोपाल से शॉपिंग क्यों नहीं? भोपाल में क्या नहीं मिलता! फ्री हूं, सोचा घर चलती हूं, वहीं से खरीदारी भी हो जाएगी।’
दिव्यंका ने मुंबई में जो फ्लैट खरीदा है, उसे वे अपनी मम्मी को बतौर सरप्राइज गिफ्ट देना चाहती हैं। यह अक्खा मुंबई और भोपाल में उनके सभी करीबी भली-भांति जानते हैं, लेकिन यह बहुतों को नहीं पता होगा कि दिव्यंका ने अभी तक नये इंटीरियर के साथ घर के फोटोग्राफ्स अपने मम्मी-पापा को नहीं दिखाए हैं, कारण? दिव्यंका एक लाड़ली बिटिया के तौर पर बोलती हैं-‘मैं उन्हें सरप्राइज देना चाहती हूं। यह उनके प्रति मेरे अपार प्यार जताने का एक जरिया है। हालांकि मम्मी-पापा ने फ्लैट देखा हुआ है, लेकिन नया इंटीरियर कैसा है, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है।’
लंबे ब्रेक की वजह? वे साफगोई से बोलती हैं-‘मैं तीन साल लगातार काम करते-करते थक चुकी थी। सोचा थोड़ा आराम कर लूं।’
यह लंबा ब्रेक कहीं दिव्यंका को गुमनाम न कर दे? दिव्यंका दार्शनिक लहजे में धाराप्रवाह बोलती हैं-‘ऐसा बिलकुल नहीं है। फिल्म और टेलीविजन दोनों लाइनों में यही तो फर्क है। फिल्मों में आउट ऑफसाइट का मतलब आउट ऑफ माइंड भी होता है। मैं आउट ऑफ साइट अवश्य हुई हूं, लेकिन आउट ऑफ माइंड नहीं। वैसे सच कहूं तो, मैं चाहती भी हूं कि लोग विद्या को पूरी तरह से भूल जाएं। लोग यह भूल जाएं कि दिव्यंका कभी किसी सीरियल में आई थी। यदि लोग विद्या को नहीं भूलेंगे...बनूं मैं...को नहीं बिसराएंगे, तो वे मुझमें वैसी ही छवि ढूंढने की कोशिश करेंगे और न मिली; तो निराश होंगे। इसलिए मैं गुमनाम होना चाहती हूं। मीडिया से भी इसी वजह से दूरी है। मैं अकारण पब्लिसिटी नहीं चाहती। मुझे ग्लैमर की कोई भूख नहीं है। मुंबई ही क्यों, मैंने भोपाल में भी अपने बड़े-बड़े होर्डिंग देखे हैं, इन सबसे अब उकता चुकी हूं। कुछ नया करना चाहती हूं, इसलिए इन दिनों ब्रेक लिया है।’
दिव्यंका खुलासा करती हैं-‘मेरे पास लगातार बड़े ऑफर्स आते रहते हैं। बिग बॉस, नच बलिए जैसे रियलिटी शो के अलावा स्टेज प्रोग्राम्स के लिए भी मुझसे कान्टेक्ट किया जाता रहा है, लेकिन मैंने इनकार कर दिया। ऐसा नहीं है कि प्रोड्यूसर या डायरेक्टर के पास कोई दूसरी च्वाइस नहीं है या मेरे पास काम नहीं है, यहां मामला आत्मसंतुष्टि का है। हम दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है। मुंबई स्वीट सिटी है। वहां लोग ईगो लेकर नहीं बैठते। इसलिए प्रॉब्लम जैसी कोई चीज नहीं है। दरअसल, मैं सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने के लिए काम नहीं करना चाहती। कह लीजिए, मुझे अच्छे काम से संतुष्टि मिलती है।’
ब्रेक के बाद फिल्म या टेलीविजन, कहां ‘दर्शन’ देंगी दिव्यंका? दिव्यंका शब्दों को खूबसूरती से पिरोती हैं-‘मैं कुछ भी प्लान नहीं करती। बनूं मैं...अचानक मिला और आगे भी जो कुछ होगा अकस्मात ही होगा। मैं जो भी करती हूं एक झटके में करती हूं। इसलिए भविष्य के बारे में अभी से नहीं बता सकती। हां, इतना अवश्य कहूंगी कि मैं सिनेमा या टेलीविजन में भेद नहीं करती, बस काम अच्छा होना चाहिए। मैं उदाहरण देना चाहूंगी-मेरे पास लोकल से भी एक आॅफर आया है। मेरे एक बहुत करीबी हैं, जिनके साथ भोपाल में काफी काम किया है, वे एक अच्छी कहानी लिख रहे हैं। अगर उस वक्त मैं खाली रही, तो आपको भोपाल दूरदर्शन पर भी दिख सकती हूं।’

बुधवार, 27 जनवरी 2010

शालीन भनोत (एनडीटीवी इमेजिन के सीरियल ‘दो हंसों का जोड़ा’ के सूर्यकमल)


हरेक आदमी दिल से ‘सूर्यकमल’ है

अमिताभ फरोग
छह वर्ष पहले जबलपुर का एक युवक अपने फैमिली बिजनेस के सिलसिले में मुंबई जाता है। वहां एमटीवी के रियलिटी शो ‘रोडीस’ में पार्टिसिपेट करता है और विनर भी बन जाता है। बस; यही से उसकी जिंदगी एक नया मोड़ ले लेती है। वह बिजनेसमैन से एक्टर बन जाता है। यह किसी मूवी की स्टोरी नहीं है, बात शालीन भनोत की हो रही है। एनडीटीवी इमेजिन पर शुरू हुए राजश्री प्रोडक्शन के सीरियल ‘दो हंसों का जोड़ा’ में लीड कैरेक्टर सूर्यकमल बने शालीन अपने अगले-पिछले लम्हों और इस सीरियल की पृष्ठभूमि पर खूब बतियाए...

शायद आपको याद होगा कि; ‘स्टार प्लस’ के रियलिटी शो ‘नच बलिए-4’ के विनर रहे शालीन और उनकी डांस पार्टनर दलजीत कौर को जब शाहरूख खान 50 लाख रुपए कैश और एक चमचमाती कार बतौर प्राइज दे रहे थे, तब इस विजेता की बॉडी लैंग्वेज में किंग खान-सा जुनून झलक रहा था। अब जबकि; ‘दो हंसों को जोड़ा’ में शालीन की तुलना शाहरूख से की जा रही है, तो शालीन खुश तो बहुत हैं, लेकिन जवाब डिप्लोमेटिक मिलता है-‘दो हंसों का जोड़ा और शाहरूख की फिल्म रब ने बना दी जोड़ी दोनों में खासा अंतर है। यह सच है कि सूर्यकमल में शाहरूख का स्केच नजर आता है, लेकिन दोनों का बैकग्राउंड बहुत अलग है। कहानी डिफरेंट है।’
कहीं शालीन शाहरूख के फैन तो नहीं? वे शब्दों को अल्पविराम देते हैं और फिर हंसते हैं-‘मेरे फेवरेट तो अमिताभ बच्चन हैं। वैसे मैं हर उस आदमी का फैन हूं, जो कुछ हटकर करते हैं, अपनी फील्ड में बेहतर परफर्म करते हैं।’
शालीन और सूर्यकमल में कितना अंतर है? वे स्पष्ट करते हैं-‘वास्तविक जिंदगी में मैं सूर्यकमल जैसा तो कतई नहीं दिखता। हां, दिल से मैं क्या; हर आदमी सूर्यकमल जैसा होता है। दरअसल, हम अपने-अपने कामों में इतने बिजी रहते हैं कि अपने भीतर की सादगी को पहचान ही नहीं पाते। आप कभी 15-20 मिनट एकांत में बैठकर अपनी जीवनशैली का विश्लेषण कीजिए। आप खुद को अंदर से सूर्यकमल जैसा सीधा-सच्चा, इनोसेंट ही पाएंगे या बनाने की सोचेंगे। दुनियाभर के आडंबरों से पीछा छुड़ाकर आप सिम्पल लाइफ जीने की सोचेंगे। मैं भी छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढता हूं, जैसा सूर्यकमल का नेचर है। मैं अपने नाम के अनुरूप शालीन भी हूं और थोड़ा बिंदास भी।’
क्या शालीन सचमुच एक्टर बनना चाहते थे? वे खुलासा करते हैं-‘रियली, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक्टर बनूंगा। यह सब इत्तेफाकन हुआ। लेकिन मैं ईश्वर का शुक्रगुजार हूं, कि उन्होंने मुझे जीवन की सही राह दिखा दी।’
क्या शालीन को वाकई डांसिंग में रुचि है या सिर्फ ‘नच बलिये-4’ के लिए उन्होंने डांस सीखा था? वे बताते हैं-‘मेरी मां सुनीता भनोत कथक नृत्यांगना है, इसलिए बचपन से ही डांस में रुचि रही है। नच बलिये..के माध्यम से मुझे टेब, स्ट्रीट, साल्सा, इंडियन और वेस्टर्न जैसी नृत्यशैलियां भी सीखने को मिलीं। हालांकि डांस रेगुलर तो नहीं कर पाता, लेकिन अवार्ड आयोजनों में मौका मिलता रहता है। मुझे लगता है कि यह हुनर भविष्य में बहुत काम आएगा।’
‘दो हंसों का जोड़ा’ के माध्यम से अपने करियर की ‘ऊंची उड़ान’ भरने जा रहे शालीन अपना आकलन बयां करते हैं-‘मैं खुश हूं कि मुझे हर शेड निभाने का मौका मिला। संगम में मदन के कैरेक्टर में मेरा निगेटिव शेड दर्शकों को खूब पसंद आया। वहीं नागिन में मैंने कनिष्क एवं केशव के रूप में दोहरी भूमिका भी निभाई। सात फेरे, दिल मिल गए, गृहस्थी में भी आप सबका मुझे ढेर-सारा प्यार मिला।’
शालीन ने ‘प्यारे मोहन’ में एक छोटा-सा किरदार भी निभाया था। वे दो टूक कहते हैं-‘काम छोटा हो या बड़ा, उसमें आपका प्रभाव दिखाई देना चाहिए। मैं यही प्रयत्न करता हूं।’
कहते हैं कि शालीन 10-12 घंटे से ज्यादा शूटिंग नहीं करते? वे साफगोई से बोलते हैं-‘राजश्री प्रोडक्शन की विशेषता है कि वे अपने कलाकारों का पूरा ख्याल रखते हैं। इसलिए यह कह सकता हूं कि मैं ही नहीं; राजश्री भी इससे अधिक काम नहीं कराता।’
शालीन भोपाल का जिक्र छेड़ने पर हंसते हैं-‘स्कूल की पढ़ाई के वक्त भोपाल का नाम सुनकर डर-सा जाता था, क्योंकि वहां एग्जाम की कापियां चेक होने जाती थीं। हालांकि यह बचपन की बात है, भोपाल बहुत अच्छा शहर है। मैं दो-तीन बार वहां आया हूं। बहुत हेल्पफुल और प्यारे लोग हैं। मैं अपने शब्दों में कहूं, तो भोपाल सिर्फ मध्यप्रदेश की ही नहीं; प्यार की राजधानी भी है।’
15 नवंबर, 1983 को जबलपुर में जन्मे शालीन की स्कूलिंग ‘नचिकेता स्कूल’ से हुई है। वहीं उच्च शिक्षा उन्होंने मुंबई के मीठीबाई कॉलेज से कम्पलीट की है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010


‘भाव’ खाने लगे हैं गजोधर भैया!
आपने अपने गजोधर भैया को ‘बाम्बे टू गोवा’ में एक खोजी लेखक की भूमिका में तो देखा ही होगा? रात में प्रोग्राम्स और दिनभर ‘कुंभकरणी नींद’ लेने वाले गजोधर भैया चुटकुले और कॉमिक आइटम लिखने के लिए कब वक्त निकालते होंगे? यहां इसकी बहस बाजिब नहीं है! प्रश्न गजोधर भैया के ‘भाव’ का है।
कानपुर के जाने माने कवि बलई काका के सुपुत्र राजू के ‘भाव’ इन दिनों आसमान पर हैं! ...और यह माइलेज मिला है उन्हें ‘बिग बॉस-तृतीय’ के बाद।
बताया जाता है कि वे अपनी पूरी टीम के साथ परफर्म करने के करीब 8 लाख रुपए वसूलते हैं। हां, यह दीगर बात है कि गुरुवार को भोपाल में एक निजी कार्यक्रम के दौरान अपनी प्रस्तुति देने आए राजू श्रीवास्तव को लगभग आधा रेट ही मिला। पूछो क्यों? यह अंदर की बात नहीं; मोल-तोल का मामला है। ‘बोलो मुंह फाड़कर, फिर जो मिले-सो भला।’ इसे मार्केटिंग का नया फंडा भी कह सकते हैं।
यह नायाब फंडा उनके नये पीए पीयूष उपाध्याय की देन हो सकता है? पीयूष बाबू अपने ‘बॉस’ को ‘सबसे महंगे, सबसे खास कॉमेडियन’ बनाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते। पीयूष ने गजोधर भैया के कानों में मंत्र फूंका है कि; ‘बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की!’ बोले तो; मीडिया से मिलो, लेकिन भाव यूं दिखाओ-जैसे गजोधर भैया ने बड़ी मुश्किल से उनके लिए समय निकाला हो!
गुरुवार को भी कुछ ऐसा ही हुआ। पीयूष दिनभर मीडिया से बोलते रहे कि अभी गजोधर भैया सो रहे हैं! देर शाम जब गजोधर भैया मीडिया से मिले, तब कहीं मालूम चला कि वे तो घंटों से फालतू बैठे हैं? इस आलतू-फालतू कीफंडेबाजी का नतीजा यह हुआ कि जब गजोधर ने मंच संभाला, आधे श्रोता खा-पीकर अपने-अपने घर को रवाना हो चुके थे। इस प्रोग्राम में ज्यादातर लोग गांव से आए थे। एक ने चुटकी ली-‘लगता है गजोधर भैया की कॉमेडी गांव वालों के सिर से निकल गई?’
इस ‘भाव-ताव’ के चक्कर में गजोधर भैया अपने मित्रों को भी घास नहीं डाल रहे। उल्लेखनीय है कि हाल में सुनील पाल के प्रोडक्शन की पहली फिल्म ‘भावनाओं को समझो’ रिलीज हुई है। इस फिल्म में राजू श्रीवास्तव ने भी किरदार निभाया है। राजू इस फिल्म पर जैसे चर्चा ही नहीं करना चाहते, आखिर क्यों? एक मशहूर कॉमेडियन आश्चर्य मिश्रित शब्दों में दो टूक कहते हैं-‘शायद राजू इसलिए फिल्म की पब्लिसिटी नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं इससे सुनील की मार्केट वैल्यू न बढ़ जाए? फिर उनके भाव का क्या होगा?’
जागो गजोधर भैया, जागो!
(यह कॉलम पीपुल्स समाचार, भोपाल में प्रकाशित होता है )

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

राजू श्रीवास्तव (मशहूर स्टैंडअप कॉमेडियन)


(राजू और अमिताभ फरोग)
अरे भैया का बताएं! हमें तो अपनों ने ही हरा दिया
अमिताभ फरोग
कानपुरिया गजोधर भैया बोले तो; राजू श्रीवास्तव ‘बिग बॉस-तृतीय’ से एक सबक सीख कर निकले हैं, वो यह कि; कभी-कभी ख्याति भी नैया डुबा डालती है। दरअसल, ‘बिग बॉस’ में नामिनेट होने के बाद उन्हें अपने यार-दोस्तों ने भी सिर्फ यह सोचकर वोट नहीं दिए कि,‘राजू तो फेमस हैं, उन्हें दो-चार वोट से क्या फर्क पड़ेगा’? राजू ‘आकृति ग्रुप’ के स्थापना दिवस पर प्रोग्राम देने भोपाल आए हुए थे।

जब सारा मीडिया बोल रहा था कि; ‘बिग बॉस-तृतीय’ तो सिर्फ राजू ही जीतेंगे, ऐसे में पहले ही नॉमिनेशन में घर से बाहर कैसे हो गए? राजू श्रीवास्तव अपनी गजोधर स्टाइल में मजेदार खुलासा करते हैं-‘अरे भैया का बताएं? हम समझत रहे कि हमारे दोस्त-यार हमार को वोट देंगे, लेकिन वे तो बेवफा निकले। दरअसल, बिग बॉस के घर से पहले ही नॉमिनेशन में बाहर हो जाने पर मैं भी हैरान था। दोस्तों से पूछा तो उनका तर्क था कि; अबे उन 13 लोगों में सबसे ज्यादा पॉपुलर आदमी तो तू ही था! सबसे ज्यादा चर्चित चेहरा कहां बाहर आने वाला है? यह सोचकर हमने वोटिंग की तरफ ध्यान ही नहीं दिया! बस, भैया यह सोचते हुए हमारे दोस्तों ने भी हमें वोट नहीं किया, तो बाहर तो आना ही था।’
सुना है कि ‘बिग बॉस’ के बाद गजोधर भैया ‘बॉस’ हो गए हैं? राजू हंसते हुए पलटवार करते हैं-‘अरे नहीं; बॉस बनाना तो आप लोगों और पब्लिक के हाथ में है।’
‘बिग बॉस-तृतीय’ के फिक्स होने की आशंकाओं पर राजू बैकफुट पर जाते हैं-‘जिसका मेरे पास कोई सबूत नहीं, उस बारे में कोई चर्चा नहीं कर सकता। हां, इतना अवश्य मालूम चला है कि; विंदू ने अपने दोस्तों के मार्फत लाखों रुपए के एसएमएस कराए थे। वैसे विंदू की जीत से मुझे खुशी हुई है। वह मेरा अच्छा दोस्त बन गया है। मैंने कभी जीत की ओर ध्यान नहीं दिया था। अकसर जब बिग बॉस के घर में विनिंग प्राइज एक करोड़ रुपए की चर्चा होती थी, तब कहीं मैंने जीत को लेकर सोचना शुरू किया था। ओवरआॅल देखा जाए, तो 9 हफ्ते घर में रहा। उसके बाद बाहर सही सलामत निकल आया, इसकी खुशी है। वजह; वहां काफी लड़ाई-झगड़ा होना लगे थे।’
राजू कानपुर में स्टैंडअप कॉमेडियंस का एक ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खोलने जा रहे हैं। वे इसमें आड़े आ रहे राजनीतिक पेंच पर व्यंग्य कसते हैं-‘यह पूरा फुल फ्लैश वर्क है। इसके लिए मंत्रियों के आगे-पीछे घूमना पड़ेगा। इसलिए स्लो काम चल रहा है। फिलहाल लोकल एमएलए के सहयोग से जमीन उपलब्ध होने जा रही है।’
राजू स्टैंडअप कॉमेडियंस को प्रतिष्ठित कलाकारों की श्रेणी में रखने को लेकर काफी गंभीर हैं-‘फाल्गुनी पाठक हों या अदनान; दोनों को फिल्मी गानों के अलावा एलबम्स से भी काफी लोकप्रियता मिली, इस तरह के प्रयास स्टैंडअप कॉमेडियंस को लेकर भी होने चाहिए। हमारा अपना उद्योग होना चाहिए।’
सुनील पाल के प्रोडक्शन की पहली फिल्म ‘भावनाओं को समझो’ पर राजू अपनी भावनाओं को फुल रफ्तार से बाहर नहीं निकलने देते। फिल्म को मिले रिस्पांस पर वे सिर्फ इतना कहते हैं-‘सुनील मेरे भाई हैं। हमसब बगैर किसी डिमांड के उनके साथ खड़े हुए।’
राजू इस सवाल पर चुप्पी साध गए कि; उनकी फिल्म को मध्यप्रदेश में वितरक क्यों नहीं मिले?
राजू की फ्यूचर प्लानिंग? वे बताते हैं-‘एक नए चैनल मस्ती की लांचिंग करनी है। कलर्स के साथ कुछ प्रोग्राम्स पर चर्चा चल रही है। फरवरी में बिग एफएम के साथ भी एक कार्यक्रम शुरू हो रहा है।’

रविवार, 17 जनवरी 2010

यूटीवी बिंदास का रियलिटी शो बतौर विनर मिले 10 लाख रुपए


सिद्धार्था के जरिये समीर का ‘बिग स्विच’
अमिताभ फरोग
दिल्ली की जानीमानी रईस फैमिली ‘खन्ना बिल्डर्स’ के वारिस सिद्धार्था खन्ना ‘आधुनिक रॉबिनहुड’ बनकर उभरे हैं। उनकी और ‘स्लम बॉय’ समीर की जोड़ी नेयूटीवी बिंदास के रियलिटी शो ‘बिग स्विच’ का खिताब अपने नाम कर लिया है। उन्हें बतौर प्राइज 10 लाख रुपए कैश मिले हैं।

एक कहावत है-‘मुंह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा होना!’ सिद्धार्था पर यह 100 प्रतिशत फिट बैठती है। उन्होंने अपने माता-पिता के सामने कभी भी; कोई भी बड़ी से बड़ी ख्वाहिश पेश की, वह तुरंत पूरी की जाती रही है। अगर सिद्धार्था का मूड विदेश में वीकेंड मनाने का हुआ, तो उन्हें ‘मनी-अरैंजमेंट’ जैसी प्रॉब्लम्स का कभी भी सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन ‘बिग स्विच’ के बाद जैसे उनकी जिंदगी में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। वे सिर्फ पैसे ही नहीं; हर चीज का महत्व बखूबी समझ गए हैं।
हाई क्लास सोसायटी की लग्जरियस लाइफ से अचानक ‘मलिन बस्ती’ में जाना, कैसा अनुभव रहा? सिद्धार्था दार्शनिक शैली में बोलते हैं-‘सबसे पहले तो मैं यूटीवी बिंदास का थैंक्स कहना चाहूंगा, जिन्होंने मुझे जीने का मकसद सिखाया/बताया। सच कहूं, तो मैंने ऐसी लाइफ के बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। मैंने जिस फैमिली में जन्म लिया, वहां ऐशो-आराम की रत्तीभर भी कमी नहीं है। इस शो में आकर मैंने अपनी मातृभूमि से असली जुड़ाव महसूस किया। यहां आकर मालूम हुआ कि अपने हक के लिए कैसे लड़ा जाता है, पैसे की अहमियत क्या होती! दरअसल, शो में टॉस्क दिए जाते थे, जिनमें दो-दो रुपए तक जीत में हासिल होते थे। यह जीत मुझे भीतर से संतोष देती थी। मैंने महसूस किया, कि गरीब लोगों के लिए दो-चार रुपए भी कितनी बड़ी कीमत रखते हैं।’ आस्ट्रेलिया से ‘हॉस्पिटिलिटी मैनेजमेंट’ से ग्रेजुएट सिद्धार्था अपनी जीत को कुछ यूं शेयर करते हैं-‘मैं बयां नहीं कर सकता कि; इस शो ने मुझे कितना आत्मीय सुख दिया है। मैं तो तभी खुद को धन्य महसूस करने लगा था, जब यूटीवी ने शो में आने का ऑफ़र दिया था। चूंकि यह रियलिटी शो टोटली सोशल वर्क पर बेस्ड था, इसलिए सोचा कि; देखता हूं कि मैं किसी गरीब लड़के का सपना साकार कर पाता हूं कि नहीं!’ बिंदास लाइफ जीने में बिलीव करने वाले सिद्धार्था खुलासा करते हैं-‘मालूम था कि वहां लग्जरी लाइफ बहुत याद आएगी। स्लम एरिया की लाइफ में स्वयं को एडजेस्ट कर पाना अत्यंत मुश्किल होगा, लेकिन मैंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया। इसलिए पहले ही दिन से स्वयं की आदतें बदलीं और वहां के माहौल में खुद को ढालना शुरू कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं कह सकता कि सारे अनुभव सुखद रहे, लेकिन जिंदगी में कड़वे अनुभव से ही सही रास्ता मिलता है।’
25 वर्षीय सिद्धार्था स्वीकारते हैं कि ‘बिग स्विच’ के बाद जैसे उनकी लाइफ ही बदल गई है-‘मैं लग्जीरियस लाइफ जीने में अभ्यस्त रहा हूं, लेकिन अब महसूस हो गया है कि देश और समाज की तरक्की तभी संभव है, जब सारे लोग बराबरी से आगे बढ़ें। मैं समीर का सपना पूरा करने का जरियाभर बने रहना नहीं चाहूंगा; अपनी माटी, अपनी सोसायटी के लिए भी बहुत कुछ करने का मन बना लिया है। सबकुछ ठीक रहा तो मैं गरीब बच्चों की एजुकेशन, खान-पान और जनसुविधाओं की दिशा में कुछ सार्थक प्रयास अवश्य करूंगा। मैं अपने हिंदुस्तान को हर मायने में सबसे आगे देखना चाहूंगा।’
मैं अपने जैसे ख्वाहिशमंद लोगों के काम आऊं, तो खुशी होगी
‘बिग स्विच’ के विनर के तौर पर समीर को 10 लाख रुपए मिले हैं। इस पैसे से वे अपना सपना साकार करेंगे। समीर खुलासा करते हैं-‘मैं एक ईवेंट मैनेजमेंट कंपनी शुरू करना चाहता हूं। हालांकि मैं जानता हूं कि यह राशि बहुत कम है, लेकिन कोशिशें ही रंग लाती हैं। मुझे यकीन है कि यह छोटा-सा प्रयास एक दिन बड़ी कंपनी में अवश्य तब्दील होगा।’ इस जीत से समीर बहुत रोमांचित हैं-‘मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि मैं बहुत लोकप्रिय हो गया हूं। मैंने सिर्फ पैसा ही नहीं कमाया, अपने परिवार के लिए सम्मान और ख्याति भी अर्जित की है। मेरे परिजन बहुत खुश हैं।’ समीर हंसते हैं-‘जब से मैं इस शो के मार्फत प्रसिद्ध और अमीर हुआ हूं, कुछ दोस्तों को जलन होने लगी है। खैर, मैंने इस शो में कई अच्छे दोस्त भी बनाए हैं।’ समीर सिद्धार्था की तारीफ करना नहीं भूलते-‘मैंने उसके रूप में एक अच्छा दोस्त पाया है। हमारी ट्यूनिंग अच्छी थी।’

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

उदय दाहिया (स्टैंडअप कॉमेडियन और अभिनेता)


मैं तो शक्ल से ही छटा बदमाश दिखता हूं

अमिताभ फरोग
स्टैंडअप कॉमेडियन’ उदय दाहिया अब ‘भाईगीरी’ पर उतर आए हैं। लेकिन एक कहावत है कि;‘शादी की घोड़ी डांस देखे बगैर एक इंच भी नहीं हिलती-डुलती’...ठीक यही स्थिति उदय की है। वे डॉन बनकर भी लोगों को हंसाना नहीं छोड़ेंगे! सिर मत खुजलाइए! दरअसल, उदय दाहिया सुनील पाल के प्रोडक्शन की पहली फिल्म ‘भावनाओं को समझो’ में डॉन के किरदार में दिखाई देंगे। यह फिल्म 15 जनवरी को रिलीज हो रही है। फिल्म के प्रमोशन बाबत उदय सोमवार को भोपाल में थे।

‘भावनाओं को समझो’ उदय की भी पहली फिल्म है। इसमें वे डॉन छोटू छटेला का रोल निभा रहे हैं। उदय चहकते हैं-‘13 जनवरी को मुंबई में फिल्म का प्रीमियर हो रहा है। इसमें गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड के रिप्रजेंटेटिव भी शामिल हो रहे हैं। यह फिल्म एक रिकार्ड गढ़ने जा रही है। यह इसलिए; क्योंकि इसमें भारत, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और दूसरे अन्य देशों के 51 स्टैंडअप कॉमेडियंस शामिल हैं। गिनीज बुक के सामने अपना दावा पेश करने हमें बहुत मेहनत करनी पड़ी। सभी कॉमेडियंस को अखबारों की कटिंग्स आदि जैसे पुख्ता सबूत पेश करने पड़े।’
क्या यह ‘बाम्बे टू गोवा’ का सेकेंड पार्ट तो नहीं? उदय दाहिया तर्क देते हैं-‘वो फिल्म अच्छी थी और यह बहुत बेहतर। अगर आपके दिमाग में यह बात बैठी है कि इसमें स्टैंडअप कॉमेडियंस बेशुमार हैं, तो निश्चय ही इसमें फूहड़ता/अश्लीलता होगी, तो आप भ्रम पाले हुए हैं। इस फिल्म को आप दादा-दादी और पोतों सभी के संग बैठकर देख सकते हैं। मेरा दावा है कि सिनेमा हॉल में कोई बगैर हंसे नहीं रह पाएगा।’
क्या उदय डॉन की भूमिका में लोगों को प्रभावित कर पाएंगे? वे मुस्कराते हैं-‘लोग कहते हैं कि; मैं तो शक्ल से ही छटा बदमाश दिखता हूं। वैसे भी मैं डॉन के रूप में लोगों को डराऊंगा नहीं, हंसा-हंसाकर लोटपोट कर दूंगा।’
दर्शक आप लोगों की भावनाओं को क्यों समझें? उदय अपने चुटीले अंदाज में बोलते हैं-‘अरे भाई, समझना ही होगा! आपको शायद पता नहीं होगा कि मैं भोपाल कैसे गिरते-पड़ते पहुंचा हूं। परसों अंडमान में शो था। वहां से मुझे चेन्नई होते हुए मुंबई और फिर ट्रेन से इटारसी पहुंचना था। लेकिन चेन्नई फ्लाइट लेट हो गई और मैं रविवार को करीब 9.30 बजे मुंबई पहुंचा। तक तक ट्रेन रवाना हो चुकी थी। मैंने तत्काल में रिजर्वेशन लिया था। पैसे तो गए ही, मैं भोपाल न पहुंच पाने को लेकर चिंतित था। फिर सोचा प्लेन से भोपाल चलते हैं, तो फ्लाइट सारी बुक मिलीं। मैंने हार नहीं मानी और इंदौर तक फ्लाइट से आया और वहां से टैक्सी से भोपाल पहुंचा। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं अपने प्रदेश को लेकर कितना भावुक हूं। इसलिए यहां के लोगों को मेरी भावनाएं समझते हुए फिल्म देखनी ही होगी, क्योंकि मैं उनका अपना हूं।’
कॉमेडी के बदलते तेवर-रंग पर उदय प्रतिक्रया देते हैं-‘कॉमेडी दो तरह की होती है। पहली वो, जिसे सबके बीच बैठकर सुना/देखा जा सके। यह विशुद्ध कॉमेडी है। इसमें लोग खुलकर यानी ठहाका मारकर हंसते हैं। दूसरी वो; जिसमें लोग शर्मनाक हंसी हंसते हैं। इसे फूहड़ कॉमेडी कहते हैं। सबका अपना-अपना टैलेंट और अपने-अपने दर्शक। हां, जिस कॉमेडियन की रचना/प्रस्तुति पर लोग घरों पर चर्चा करें, उसे दुहराएं वो आर्टिस्ट सदैव याद किया जाता है।’
क्या कॉमेडियंस के बुरे दिन आने वाले हैं? उदय दो टूक कहते हैं-‘मुझे नहीं लगता कि कॉमेडी के कभी बुरे दिन आएंगे। दरअसल, कॉमेडी भी म्यूजिक की भांति है। क्लासिकल, सुगम संगीत और वेस्टर्न म्यूजिक सबका अपना-अपना श्रोता वर्ग होता है, ठीक वैसी ही स्थिति कॉमेडी की है। किसी को साफ-सुथरे पंच सुहाते हैं, तो किसी को फूहड़ता में आनंद मिलता है। सबकी अपनी-अपनी पसंद है।’
अपने आसपास के वातावरण से कॉमेडी के पंच चुनने वाले उदय कहते हैं-‘मैं शक्ल से कॉमेडियन कतई नहीं लगता। इसलिए मैं अपनी रचनाओं पर अधिक मेहनत करता हूं।’ उदय कॉमेडी को सबसे टफ टैलेंट मानते हैं-’एक्टिंग हो या सिंगिंग या डांसिंग सबकी कार्यशालाएं होती हैं, लेकिन कॉमेडी नेचुरल टैलेंट है। इसकी कोई ट्रेनिंग नहीं होती। आपको स्वयं अपना मूल्यांकन करना होगा। यदि आपको लगता है कि आपमें लोगों को हंसाने का हुनर है, तो आप शुरू हो जाइए।’
उदय की क्या ख्वाहिशें हैं? वे साफगोई से बोलते हैं-‘इनसान की ख्वाहिशें अनंत होती हैं।...और होनी भी चाहिए, क्योंकि जिस दिन आप संतुष्ट हो गए, उसी दिन से खुद को खत्म समझ लीजिए।’

सोमवार, 11 जनवरी 2010

पीपुल्स सेलेब्रिटी/वैष्णवी (फिल्म/टेलीविजन अभिनेत्री)



ईशु ने सच्चा रास्ता दिखा दिया है
अमिताभ फरोग
यह सचमुच किसी चमत्कार जैसा है कि; एक लड़की जिसने 8 वर्ष की उम्र में रामसे ब्रदर्स की सबसे चर्चित भूतिया फिल्म ‘वीराना(1985)’ से डरते-डरते अपना सिनेमाई सफर शुरू किया, उसके दिल से स्वयं प्रभु ईशु ने दुनियाभर के तमाम ‘डर’ निकाल दिए हैं। करियर के कई उतार-चढ़ाव के बाद अचानक वैष्णवी की जिंदगी में कुछ ऐसा घटित हुआ कि; वे आध्यात्मिक हो गर्इं। वे अपना जीवन दार्शनिक अंदाज में जीती हैं-फिल्में करती हैं, सीरियल करती हैं और इन सबके बीच से अच्छा-खासा वक्त निकालकर प्रभु ईशु के सुझाए रास्ते पर चलकर सोशल वर्क भी करती हैं। ‘भोपाल उत्सव मेले’ में आयोजित सांस्कृतिक संध्या में अपनी डांस/सिंगिंग प्रस्तुति देने आर्इं वैष्णवी ने खोलीं अपने जीवन में आए बदलाव की परतें...

‘थैंक्स टू क्राइस्ट! उन्होंने मुझे जीवन का उचित रास्ता दिखाया। प्रभु ईशु के प्रति मेरी आस्था हालांकि 17 वर्ष पहले जागृत हुई थी। उस वक्त मेरी फिल्मों में एंट्री ही हुई थी। तब कुछ ऐसा घटित हुआ कि; मैं उन्हीं के बताए रास्ते पर चल पड़ी, लेकिन करीब साढ़े तीन साल पहले मैं पूरी तरह से उनकी भक्त हो गई। मुझे लगता है कि; परमेश्वर ही मुझे अब मेरी मंजिल की ओर ले जा रहा है। मुझमें आत्मविश्वास जागृत हो गया है। अब कह सकती हूं कि मेरे लिए अब कुछ भी असंभव नहीं है।’
वैष्णवी जीसस और अपने बीच में किसी को नहीं आने देतीं। वे बताती हैं-‘इसी 31 दिसंबर को मेरे पास न्यू ईयर सेलिबे्रशन के ढेरों ऑफ़र आए, लेकिन मैंने साफ मना कर दिया, क्योंकि वह समय मैं जीसस की प्रेयर में बिताना चाहती थी। इसे आप संयोग कहें या चमत्कार; इस एक हफ्ते में मुझे दो फिल्मों के आफर्स मिले हैं। यही नहीं, लंबे समय से अटका पड़ा डीडी चैनल के मेरे एक शो का पायलट भी पास हो गया है। इसमें मैं लीड कैरेक्टर में हूं। इसकी शूटिंग फरवरी में शुरू होगी।’
वैष्णवी धर्मशास्त्रों के अलावा ‘दर्शन’ में भी रुचि रखती हैं। क्या वे दार्शनिक हो चुकी हैं? वैष्णवी उपदेशमयी शैली में बोलती हैं-‘हो सकता है कि मेरी बातें सुनकर लोगों सोचते हों कि; यह बहुत फिलॉस्फी झाड़ रही है, लेकिन सत्य यही है कि; जो लोग स्प्रीचुअल होते हैं, वे फिलास्फर हो ही जाते हैं।’
तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वैष्णवी सोशल एक्टिविटी के लिए वक्त अवश्य निकालती हैं। वे बताती हैं-‘मुझे लगता है कि; हमें कभी यह नहीं’ सोचना चाहिए कि अकेले हम क्या कर सकते हैं? मैं अपनी ओर से कोशिश रही हूं। मेरी एजुकेशन कम्प्लीट नहीं हो सकी, इसलिए मैं बच्चों की एजुकेशन पर अधिक वर्क कर रही हूं। मेरा मानना है कि यदि देश को आगे ले जाना है, तो बच्चों का पढ़ा-लिखा होना बेहद जरूरी है। मैं हेल्पस ऑफ जीसस संस्था से जुड़ी हुई हूं। यह ओल्ड एज होम और अनाथ आश्रम संचालित करती है। हम वर्सोवा(मुंबई) में एक बालवाड़ी खोलने जा रहे हैं, जिसमें 200 बच्चों की परवरिश और एजुकेशन होगी। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये बच्चे बिलकुल भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। भोपाल की एक संस्था बेटी बचाओ आंदोलन के रूप में अच्छा कार्य कर रही है। मेरा मानना है बेटियां भी बेटों से कम नहीं होतीं। ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जिन पर काम करना मुझे सुकुन देता है। मैंने न्यूट्रिशियन का कोर्स किया है। इसलिए संभव है कि सोशल सर्विस के रूप में इस योग्यता का इस्तेमाल भी करूं।’
13 वर्ष पहले दूरदर्शन के सीरियल ‘शक्तिमान’ में रिपोर्टर गीता विश्वास के रूप में बच्चों में लोकप्रिय हुर्इं वैष्णवी अनुपम खेर और रघुवीर यादव जैसे मझे हुए कलाकारों के साथ फिल्म ‘सांचा’ में बेहद गंभीर रोल में नजर आएंगीं। वे उल्लासित होकर बोलती हैं-‘यह रोल मिर्च-मसाला की स्मिता पाटिल-सरीखा है, बस टेक्सचर, लुक डिफरेंट है। यह मूवी यूपी के र्इंट भट्टों में कार्य करने वाले मजदूरों की जिंदगी पर बन बनी है। फिल्म बहुत अच्छी है। इसके लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी। कई दिनों वर्कशॉप हुई, जिसमें कैरेक्टर की खूबियां सिखाई गर्इं।’

वैष्णवी सबटीवी के लिए एक कॉमेडी शो भी कर रही हैं। वे दार्शनिक लहजे में बोलती हैं-‘वैसे हरेक किरदार एक चैलेंज होता है, यदि उसे आप शिद्दत से निभाएं। फिर भी कॉमेडी करना बेहद टफ है। इसमें टाइमिंग का खासा महत्व होता है। यह शो बहुत जल्द आपको देखने को मिलेगा।’
वैष्णवी आमिर खान से बहुत प्रभावित हैं-‘ही इज माई रोल मॉडल। वे वाकई में हिस्ट्री मेकर हैं।’
मूलत: मध्यप्रदेश की वैष्णवी हैदराबाद में पली-बढ़ी हैं। वे चहकती हैं-‘मेरे पिता ईश्वर महंत दुर्ग में रहे हैं। मैं भोपाल की खूबसूरती देखकर बहुत खुश हूं। सोच रही हूं कि किसी दिन फैमिली के साथ यहां कुछ दिनों के लिए घूमने-फिरने आऊं।’ वैष्णवी का अंतिम लक्ष्य क्या है? वे फिर दार्शनिक शैली अपनाती हैं-‘मैं तो बस परमेश्वर के बताए रास्ते को फॉलो कर रही हूं। उनकी कृपा रही तो अच्छी मूवी भी मिलेंगी और अवार्ड भी।’

वैष्णवी ने ‘सहारा वन’ के रियलिटी शो ‘सास वर्सेज बहू’ में ‘बेस्ट डांस सीरिज’ का खिताब जीता था। -वैष्णवी को बचपन में बेबी स्वाती के नाम से जाना जाता था। -वैष्णवी ने सीरियल छोटी मां और भास्कर भारती जैसे सीरियल भी किए हैं।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

शुभांगी अत्रे (लीड एक्ट्रेस ‘दो हंसों का जोड़ा’)


मुझे राजश्री की हर बात अच्छी लगती है
अमिताभ फरोग मार्केटिंग से ‘एमबीए’ शुभांगी अत्रे बखूबी जानती हैं कि सक्सेस होने के लिए ‘रिलेशंस और इमोशंस दोनों’ की अहमियत समझना बेहद जरूरी होता है। दरअसल, तमाम आर्टिस्ट स्वयं की मार्केटिंग करते-करते रिश्ते/नातों को बिसरा देते हैं। शुभांगी ने खुद को इस अहंकार/स्वार्थ से बचाए रखा है। वे आज भी एकता कपूर की चहेती हैं और ‘राजश्री’ जैसे प्रतिष्ठित प्रोडक्शन में भी अपनी एंट्री कराने में सफल रही हैं। शुभांगी ‘एनडीटीवी इमेजिन’ पर शुरू होने जा रहे सीरियल ‘दो हंसों का जोड़ा’ में लीड एक्ट्रेस ‘प्रीति’ का रोल निभा रही हैं।

‘बालाजी टेलीफिल्म’ के सीरियल ‘कस्तूरी’ में लीड रोल कर चुकीं शुभांगी अत्रे ‘दो हंसों का जोड़ा’ को लेकर बेहद उत्साहित हैं। वे बताती हैं-‘यह कंसेप्ट मेरे दिल के बहुत करीब है। मेरे भी बड़े-बड़े ड्रीम रहे हैं, जो धीरे-धीरे साकार हो रहे हैं। ठीक ऐसी ही स्थिति इस सीरियल की एक्ट्रेस प्रीति की है। सपनों में जीने वाली 22 वर्षीय प्रीति संस्कारों की नगरी वृंदावन में रहती है। उसकी अपनी एक अलग ही दुनिया है। उसके कुछ रंगीले ख्वाब हैं, जिन्हें वह अपनी झोली में समेटना चाहती है। वह उन्मुक्त परिंदे की भांति खुले आसमान में उड़ना चाहती है। प्रीति को कुछ-कुछ फिल्मी बोल सकते हैं। हां, इसके बावजूद वह संस्कारित है, भारतीय संस्कृति/सभ्यता और घर-परिवार के आदर्शों की उसे फिक्र है।’
टेलीविजन पर लंबे ब्रेक की वजह? शुभांगी कहती हैं-‘कस्तूरी के बाद मुझे ऐसे ही किसी अच्छे रोल का इंतजार था। हालांकि इस बीच ढेरों आॅफर मिले, लेकिन मैं कुछ ऐसा चाहती थी, ताकि लोग मुझे हमेशा याद रखें। राजश्री ने मेरी यह ख्वाहिश पूरी कर दी है।’
शुभांगी अपने कैरेक्टर को लेकर क्या फीलिंग कर रही हैं? वे मुस्करा उठती हैं-‘थोड़ा नर्वस हूं, क्योंकि मुझे राजश्री ने बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। उन्होंने मुझ पर लीड रोल के लिए भरोसा किया है। उस पर मुझे खरा उतरना है। हां, मैं एक्साइट भी हूं, क्योंकि कस्तूरी के बाद मुझे ऐसे ही कैरेक्टर की तलाश थी।’
‘राजश्री प्रोडक्शन’ में ऐसा क्या है? शुभांगी तारीफों के पुल बांधना शुरू करती हैं-‘राजश्री के बारे में जितना बोला जाए, कम है। मुझे राजश्री की हर बात अच्छी लगती है, चाहे वो कहानी हो या डायलॉग। राजश्री की फिल्में हों या सीरियल, सब भारतीय संस्कारों से जुड़े होते हैं। उनकी क्रियेटिविटी में सोसायटी के लिए कोई न कोई लेशन निहित होता है। दरअसल, बहुत ज्यादा एक्सपेरिमेंट के चलते ज्यादातर सीरियल्स आधुनिकता के ढोंग में भारतीय संस्कृति/संस्कार और सभ्यता की छीछालेदर करने से भी बाज नहीं आते। राजश्री में ऐसा नहीं है। यही एकमात्र ऐसा प्रोडक्शन हाउस है, जिसने भारतीय परंपराओं और संस्कारों को पकड़कर रखा है।’
एक अच्छे कलाकार की खूबी? शुभांगी दार्शनिक शैली में बतियाती हैं-‘जो भी कैरेक्टर मिले, उसे डूबकर निभाया जाए। मैं भी यही कोशिश करती हूं। हालांकि मैंने एक्टिंग की कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली है और न ही थियेटर किया है, लेकिन मेरा मानना है कि अगर आपमें टैलेंट है, तो आपको कोई इगनोर नहीं कर सकता।’
शुभांगी रिलेशंस को शिद्दत से निभाती हैं। जब वे कस्तूरी कर रही थीं, तब साथी कलाकार रूपा गांगुली(महाभारत की द्रोपदी) से उनका गहरा लगाव हो गया था। इस रिश्ते में आज भी उतनी ही गर्माहट है। रूपा गांगुली तो आज भी उन्हें अपनी बेटी के समान मानती हैं।
शुभांगी मध्यप्रदेश को बिलांग करती हैं। उनकी ससुराल इंदौर में है, जबकि ननिहाल भोपाल में। भोपाल कैसा लगता है? इस सवाल पर शुभांगी जैसे चहक-सी उठती हैं-‘ब्यूटीफुल, वंडरफुल, ग्रेट...! भोपाल में मेरा मायका है। मेरी दीदी भी रहती हैं। इसलिए अकसर वहां जाना होता है। बहुत खूबसूरत शहर है-भोपाल। मुहावरे में बोलूं तो, मैंने तो पूरा-पूरा भोपाल छाना हुआ है।’

बुधवार, 6 जनवरी 2010

सुनील पाल (फिल्म निर्माता और निर्देशक ‘भावनाओं को समझो’)


‘भावनाओं को समझो’ मूवी देखिए, मजा आएगा
अमिताभ फरोग
‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ से फिल्ममेकर बने सुनील पाल अपने प्रोडक्शन की पहली फिल्म ‘भावनाओं को समझो’ को लेकर काफी उत्साहित हैं। वे देशभर में फिल्म के प्रमोशन बाबत विजिट कर रहे हैं और सिने प्रेमियों से अपनी गुदगुदाने वाली शैली में आग्रह कर रहे हैं कि; हमारी ‘भावनाओं को समझो’ मूवी देखिए, बहुत मजा आएगा।

महाराष्ट्र के चंदनपुर में जन्मे सुनील पाल संभवत: ऐसे पहले स्टैंडअप कॉमेडियन हैं, जिन्होंने मंच से ऊंची छलांग मारते हुए फिल्म प्रोडक्शन में कदम रखा है। वे अपने ‘मल्टीपरपज टैलेंट’ की उपज ‘भावनाओं को समझो’ को लेकर अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं-‘वाकई यह बहुत अच्छी मूवी बन पड़ी है। मैं यह इसलिए नहीं कह रहा, क्योंकि मैं इसका प्रोड्यूसर/डायरेक्टर और राइटर हूं; आप मूवी देखना, बहुत मजा आएगा।’
सुनील की भावनाएं दर्शकों को कितना गुदगुदाएंगी? वे मूवी की खासियत बयां करते हैं-‘यह बेहद अनूठी फिल्म है। इसमें सिर्फ कॉमिक टच भर नहीं है, इसमें इमोशन है, ड्रामा है, एक्शन है...यानी आर्ट/क्राफ्ट एंड टेक्निक; हर पहलू से मूवी की बेहतर बुनावट हुई है। इसमें हमने मधुर संगीत भी संजोया है। श्रेया घोषाल, सोनू निगम, शान और सुनिधि चौहान जैसे फेमस सिंगर्स के नग्मे आपके कानों में रस घोल देंगे। यह बॉलीवुड की ऐसी इकलौती मूवी है, जिसमें एक-दो नहीं, 51 स्टैंडअप कॉमेडियंस आपको हंसा-हंसाकर लोटपोट कर देंगे। इसी विशेषता के कारण गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड के प्रतिनिधियों को मूवी के प्रीमियर पर आमंत्रित किया गया है। मुझे यकीन है कि; वो लोग हमसब की भावनाओं को समझेंगे और मूवी को गिनीज बुक में जगह मिलेगी।’
इससे पहले पाल वर्ष, 2007 में आई ‘बाम्बे टू गोवा’ में बस मालिक लाल का कैरेक्टर निभा चुके हैं। इस फिल्म में कॉमेडियन एहसान कुरैशी और राजू श्रीवास्तव भी मौजूद थे। स्क्रिप्ट की बेसिक थीम धन के पीछे भागभमभाग थी। फिर ‘भावनाओं को समझो’ में नया क्या है? सुनील दोनों फिल्मों का विश्लेषण करते हैं-‘बाम्बे टू गोवा भी अच्छी फिल्म थी। वह कितना चली, नहीं चली...यह दीगर बात है। भावनाओं...की कहानी अवश्य 1000 करोड़ की प्रापर्टी के इर्द-गिर्द रची गई है, लेकिन इसका ट्रैक बाम्बे टू...से डिफरेंट है। इसमें राजू, एहसान, जॉनी लीवर, नवीन प्रभाकर, उदय दाहिया आदि सबने अपने टैलेंट का 100 परसेंट आउटपुट देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।’
सुनील अपनी भावनाओं को सिनेप्रेमियों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वे उत्साह से बोलते हैं-‘पब्लिसिटी को नजरअंदाज कतई नहीं किया जा सकता। मैं दिल्ली और मुंबई के अलावा जहां भी शो करने गया या जाता हूं, वहां के लोगों को अपनी फिल्म देखने के लिए आमंत्रित करना नहीं भूलता। वहीं कई चैनल्स के प्रोग्रामों में भी हमें आमंत्रित किया गया है, जिनमें आप समय-समय पर हमारी टीम के फन का आनंद उठा सकेंगे। मैं तो अपनी ओर से अच्छी पब्लिसिटी कर रहा हूं, भगवान ने चाहा तो सबकुछ बेहतर होगा।’
‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज प्रथम’ के बाद कॉमेडी शोज में ‘अभद्र भाषा और फूहड़ शैली’ के घालमेल पर सुनील एकदम दो टूक बोलते हैं-‘इसके लिए अकेले चैनलों पर दोष मढ़ना गलत है।...और इस बुराई के लिए कॉमेडियंस तो कतई जिम्मेदार नहीं। अगर दर्शक ऐसे प्रोग्राम्स को नकार देंगे, तो चैनलों की क्या मजाल, जो वे दुबारा ऐसे प्रोग्राम्स बनाएं? कहते हैं न कि कसाई से ज्यादा मांस का सेवन करने वाला जिम्मेदार होता है।’
सुनील कहां से ढूंढते हैं कॉमिक पंच? वे दार्शनिक लहजे में बोलते हैं-‘आपका सेंस आॅफ ह्यूमर लाजवाब होना चाहिए, हर चीज को देखकर, महसूस करके या उसके संपर्क में आकर आप आनंदित हो सकते हैं। मैं भी रोजमर्रा की चीजों, आप और हमलोगों से जुड़ीं बातों को ही चुटकुलों/कविताओं में इस्तेमाल करता हूं। बस उनमें थोड़ा मिर्च-मसाला डाल देता हूं, ताकि वे श्रोताओं को भीतर तक गुदगुदा दें।’
सुनील पाकिस्तानी कॉमेडियंस की बढ़ती लोकप्रियता से कतई आशंकित नहीं है। वे बिंदास बोलते हैं-‘अगर वे यहां आकर अपनी कला का प्रदर्शन करके कमा-खा रहे हैं, तो इसमें बुराई क्या है? वे भी हमारी तरह कलाकार हैं और कला सियासी सरहदों से परे है।’
अपने जन्मस्थली चंदनपुर के प्रति अटूट प्रेम रखने वाले सुनील कहते हैं-‘कर्मभूमि और जन्मभूमि; हमें दोनों का बराबर सम्मान करना चाहिए। हम जिधर भी जाएं, उस जमीं का सम्मान भी हमें करना आना चाहिए।’
सुनील ने ‘फिर हेराफेरी(2006)’ और ‘अपना सपना मनी-मनी(2006) जैसी हिट फिल्मों में मामूली किरदार भी निभाया है। हालांकि इसके बाद उन्हें ‘फूल एन फाइनल(2007)’ और ‘क्रेजी-4(2008)’ में अपना टैलेंट दिखाने का ठीक मौका मिला। सुनील दार्शनिक लहजा अख्तियार करते हैं-‘उन्हीं छोटे-छोटे कामों ने मुझे इस मुकाम पर पहुंचाया कि; मैं आज फिल्म प्रोड्यूस कर रहा हूं, लिख रहा हूं और उसे डायरेक्टर भी कर रहा हूं। आप छोटे-बड़े के फेर में न पड़ते हुए निरंतर अच्छा कार्य करते जाइए, रिजल्ट बेहतर मिलता रहेगा।’
सुनील का सूत्रवाक्य है-‘जहां माल, वहां पाल!’ इसका क्या आशय है? सुनील दो टूक कहते हैं-‘मुझे ईश्वर ने लोगों को हंसाने का हुनर दिया है, सो मैं उससे अपना घर-परिवार चला रहा हूं। वैसे यह वाक्य मैंने चुनावी प्रचार के लिए तैयार किया हुआ है। दरअसल, चुनाव के बाद नेता और जनता दोनों अपने-अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई पार्टी सभाओं में भीड़ जुटाने हमारे फन को इस्तेमाल करती है, तो हम पैसा क्यों न कमाएं?’

फिल्म में मेरा किरदार है सबसे निराला, बना हूं मैं इसमें एडवोकेट बाबूलाल फांसीवाला! मुझे यह फिल्म करते वक्त खूब मजा आया। शूट करते वक्त हम खुद भी हंस-हंसकर लोटपोट हो जाते थे। इससे आप आकलन कर सकते हैं कि मूवी आपको कितना गुदगुदाएगी। एहसान कुरैशी, फिल्म के मुख्य कलाकार
यकीन मानिए, मूवी आपका भरपूर मनोरंजन करेगी। यह मेरे करियर की पहली मूवी है। इसमें मैंने छोटू छटेला का किरदार निभाया है, जो डॉन है। सुनील सिर्फ अच्छे कॉमेडियन ही नहीं है, इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने साबित कर दिया है कि वे डायरेक्टर भी बेहतर हैं। उदय दहिया, फिल्म के मुख्य कलाकार

-मूवी में मध्यप्रदेश के तीन मशहूर कॉमेडियंस एहसान कुरैशी, उदय दाहिया और केके नायकर भी महत्वपूर्ण रोल में हैं-13 जनवरी को मुंबई में गिनीज बुक के रिप्रजेंटेटिव के समक्ष होगा मूवी का प्रीमियर-सुनील ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज-2005’ के विनर रहे हैं। यह कॉमेडी शो स्टार वन पर प्रसारित हुआ था।

रविवार, 3 जनवरी 2010

चेतन भगत की तरह आफाक अलमास हुसैन भी छले गए हैं


‘इडियट्स’ ही नहीं, ‘मुन्नाभाई‘ भी छलिया!
अमिताभ फरोग
यह सिर्फ चिकोटीभर काटने का मामला नहीं है, विधु विनोद चोपड़ा पर एक नहीं; दो बार छल-कपट का आरोप लगा है। ‘3 इडियट्स’ चेतन भगत; तो ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ आफाक अलमास हुसैन के लिए ‘छलिया’ साबित हुई है। हालांकि दोनों ही लेखकों ने ‘फिल्म लेखक संघ’ में अपनी शिकायत न ले जाकर सीधे मीडिया के सामने भड़ास निकाली है, इसलिए ‘संघ’ चुप्पी साधे हुए है।

यह सफलता के ‘रंग में भंग’ पड़ने-सरीखा मामला है। ...और ऐसा दूसरी बार हुआ है। चेतन भगत ने सिर्फ ‘3 इडियट्स’ के प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजकुमार हीरानी पर ‘श्रेय छीनने’ का आरोप मढ़ा है, आफाक अलमास हुसैन ने तो ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ की स्क्रिप्ट पर चोरी का इल्जाम लगाते हुए लीगल नोटिस तक भेजा था। यह दीगर बात है कि; यह कदम थोड़ी देर से उठाया गया, इसलिए विवाद तूल नहीं पकड़ सका।
विधु और राजकुमार ने ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के माध्यम से भले ही दुनियाभर को नैतिकता का पाठ पढ़ाया हो, लेकिन वे स्वयं दूध के धुले नहीं है। कुछ महीने पहले ‘भोपाल ग्रुप आॅफ गांधी स्टार्स’ ने आरोप लगाया था कि; ‘लगे रहो...’ का सेंट्रल आइडिया और कहानी का मूलभूत ढांचा जानेमाने लेखक और निर्देशक आफाक अलमास हुसैन की पुस्तक ‘महात्मा’ से चुराया गया है। पिछले वर्ष ग्रुप ने इस बाबत आगरा में प्रेस कान्फेंस भी आयोजित की थी।
मूलत : लखनऊ के श्री आफाक मायूसी भरे शब्दों में बोलते हैं-‘यह पुस्तक मैंने 12 वर्ष पहले लिखी थी। इसी विषय पर वर्ष 1994 में महात्मा की वापसी नाम से नाटक का मंचन भी किया गया था। इसका निर्देशन मैंने स्वयं किया था। जिन लोगों ने यह पुस्तक पढ़ी है या फिर इस नाटक के दर्शक रहे हैं, वे बेहतर समझ सकते हैं कि लगे रहो...की स्क्रिप्ट का बेसिक कन्सेप्ट कहां से उठाया गया?’
उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक उप्र सरकार के संस्थान ‘फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी’ के आर्थिक सहयोग से 1998 में उर्दू भाषा में प्रकाशित हुई थी।
आफाक दु:खी मन से कहते हैं-‘सितंबर 2006 में लगे रहो.. रिलीज हुई थी। मैंने तत्काल विधु विनोद और राजकुमार हीरानी से मिलने की कोशिश की, लेकिन वे कोई न कोई बहाना बनाकर मुझे टालते रहे। मैंने उन्हें एसएमएस भी भेजा, लेकिन जवाब नहीं मिला। मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि, इतने अमीर लोगों से टक्कर ले सकूं। इस ऊहापोह में करीब 8-9 महीने निकल गए। इस दौरान जब मैं मुंबई से लखनऊ आया, तब अपने वकील आदित्य तिवारी की मदद से निर्माता और लेखक दोनों को नोटिस पहुंचाया। उनकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर उन्हें रिमाइंडर भी पहुंचाया। इस बीच मेरी कुछ पर्सनल प्रॉब्लम भी रही, जिनके कारण मुझे अपने इस कदम पीछे लेने पड़े।’
‘3 इडियट्स’ को लेकर उठे ताजा विवाद पर आफाक कहते हैं-‘चेतन को उनका प्रॉपर क्रेडिट मिलना ही चाहिए था। चेतन चर्चित लेखक हैं, इसलिए मीडिया का भी उन्हें बहुत सपोर्ट मिल रहा है, लेकिन मैं अकेले जूझता रहा। मेरी लड़ाई भले ही अधूरी रही गई हो, लेकिन इससे गुनाह तो कम नहीं हो जाता?
----------------
मैं आज भी अपनी बात पर अडिग हूं, कि लगे रहो मुन्नाभाई की कहानी मेरी पुस्तक महात्मा से प्रेरित है। मैंने इस फिल्म के रिलीज होने के बाद विधु विनोद चोपड़ा को अपने वकील के माध्यम से नोटिस भी भेजा था, लेकिन उन्होंने खामोशी ओढ़े रखी। आर्थिक परिस्थिति बोलो या कुछ और; मैं सही वक्त पर लीगल एक्शन नहीं ले सका। जहां तक फिल्म लेखक संघ में शिकायत दर्ज कराने का मामला है, तो पुस्तक कॉपीराइट थी, इसलिए वहां जाने की जरूरत क्या थी? वैसे भी संघ निर्माता/निर्देशकों के विरुद्ध कभी एक्शन नहीं लेता। विवाद ज्यादा तूल पकड़ने लगे, तो वह बैठाकर समझौता करा देते हैं। भले ही अब मैं कुछ लीगल एक्शन नहीं ले सकता, लेकिन जो सच है, वो तो सच ही रहेगा।
आफाक अलमास हुसैन लेखक, महात्मा (लगे रहो मुन्नाभाई इस किताब से प्रेरित बताई जाती है)

‘यदि कोई लेखक एसोसिएशन में आकर कम्प्लेन करता है, तो हम मामले को सुलटाने का प्रयास करते हैं। चेतन भगत सीधे मीडिया के पास चले गए, इसलिए मैं इस बारे में कोई कमेंट नहीं कर सकता। फिल्म इंडस्ट्री एक फैमिली की तरह है, इसमें विवाद भी होते हैं और उनका निपटारा भी किया जाता है। न तो चेतन भगत और न ही आफाक अलमास एसोसिएशन के पास शिकायत लेकर आए, इसलिए इस बारे में हम कुछ नहीं कर सकते।’
जलीश शेरवानी अध्यक्ष, फिल्म लेखक संघ
फैक्ट
-करीब 35 करोड़ के बजट की ‘3 इडियट्स’ ने 2 अरब का बिजनेस कर चुकी है -करीब 15 करोड़ लागत की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने करीब 56 करोड़ का बिजनेस किया था। -अभिजात जोशी हैं ‘3 इडियट्स’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के लेखक -आफाक अलमास दुनिया के दूसरे बड़े प्ले ‘मोहब्बत द ताज’ के निर्देशक रहे हैं और इन दिनों मुंबई में कई सीरियल लिख रहे हैं।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

पंकज त्रिपाठी (सीरियल ‘पाउडर’ के नवेद अंसारी)


सोचा न था डॉन बनूंगा
अमिताभ फरोग
यह बमुश्किल पांच वर्ष पुराना किस्सा है। ठेठ कस्बाई एक युवा ऊंचे ख्वाब लेकर मायानगरी पहुंचता है। तब करोड़ों की आबादी से भरी/ठुंसी मुंबई नगरिया में वह भी भीड़ का हिस्सा मात्र था। एक स्ट्रगलर एक्टर! आज जुहू जैसे पॉश एरिया में उसके 50/50 फीट के होर्डिंग लगे हैं। ‘ऐसा सिर्फ मायानगरी में ही संभव है!’ रविवार से सोनी चैनल पर शुरू हो रहे टेलीविजन इंडस्ट्री के संभवत: सबसे महंगे फिक्शन ‘पाउडर’ में ड्रग माफिया नवेद अंसारी के कैरेक्टर को निभा रहे पंकज बयां कर रहे हैं कि; उन्होंने लाखों स्ट्रगलर्स की भीड़ में कैसे स्थापित की खुद की पहचान?

पंकज एक किस्सा सुनाते हैं-‘मैंने कुछ दिन पहले ही कार खरीदी है। थोड़ा वक्त निकालकर मैं अपनी पत्नी के संग जुहू चौपाटी घूमने निकला। वहां ‘पाउडर’ के प्रमोशन बाबत मेरे बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए हैं। यह देखकर कितनी खुशी हुई, शब्दों में बयां नहीं कर सकता। आप कल्पना कर सकते हैं कि; पांच वर्ष पहले मैं लोगों से रास्ता पूछते-पूछते जिस प्लेस पर पहुंचा था, वहां आज मेरे बड़े-बड़े होर्डिंगं लगे हुए हैं। शायद इसीलिए मुंबई को मायानगरी कहते हैं!’
बड़े पर्दे पर ड्रामा गढ़ने वाले विशाल भारद्वाज की ओमकारा(2006) में ‘किचलू’ जैसा छोटा-सा किरदार निभा चुके पंकज खुद को कुछ यूं परिभाषित करते हैं-‘मैं कभी छोटे-बड़े रोल के फेर में नहीं पड़ा। हां, इसका विश्लेषण अवश्य किया कि; फलां कैरेक्टर दर्शकों पर कितना प्रभाव छोड़ पाएगा? इसे सौभाग्य कहें, या मेरे काम चुनने का तरीका; चाहे ओमकारा हो या शौर्य, मेरा हर रोल फिल्म का टर्निंग पाइंट रहा है।’
फिल्मों की बात हो या टेलीविजन पर ‘बाहुबली’और अब ‘पाउडर’ का मामला अथवा टाटा टी का ‘जागो रे’ व आइडिया सेल्युलर का ‘नो...’ एड कैम्पेन; पंकज को निगेटिव शेड ही मिले हैं, क्यों? पंकज हंसते हैं-‘शायद मेरी शक्ल विलेन-सी है! खैर, यह अजीब संयोग ही है, लेकिन मैं मुंबई सिर्फ एक्टर बनने आया था, हीरो या विलेन नहीं। मैंने भावना तलवार के निर्देशन में धर्म मूवी की; इसमें भी मैं निगेटिव शेड में था। मेरे लिए यह मूवी कई मायनों में खास थी, पहला मेरा कैरेक्टर बेहद सशक्त था, दूसरा मुझे पंकज कपूर जैसे मझे हुए अभिनेता के संग कार्य करने का मौका मिला। यह मूवी कान्स फिल्म फेस्टिवल-07 और इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आॅफ इंडिया-07 सभी जगह खूब सराही गई। वैसे मैं हर तरह के रोल निभाना चाहता हूं। मणिरत्नम की रावण में एक हिजड़ा बना हूं। यह बेहद चैलेंजिंग कैरेक्टर है। कुशर प्रसाद का भूत में मेरा कैरेक्टर एक देहाती आदमी का प्रतिनिधित्व करता है। प्रियदर्शन के साथ भी एक मूवी कर रहा हूं। इसमें अक्षय कुमार, अजय देवगन और परेश रावल जैसे स्टार काम कर रहे हैं। प्रियदर्शन के नाम से ही आप आकलन कर सकते हैं कि यह मूवी दर्शकों को हंसाएगी।’
यशराज कैम्प तक पहुंच? पंकज कहते हैं-‘कैम्प कोई भी हो; अगर आपकी एप्रोच सही है, आप टैलेंटेड हैं; तो चांस जरूर मिलता है। मुझे अमिताभ बच्चन अभिनीत तीन पत्ती में एक छोटा-सा रोल आॅफर किया गया था। किन्हीं कारणों से मैंने मना कर दिया। वहां यशराज प्रोडक्शन के हेड कास्टिंग डायरेक्टर अभिमन्यु से मुलाकात हुई थी। उन्होंने मुझे आदित्य चोपड़ा से मिलवाया। चार राउंड में ऑडीसन टेस्ट हुआ, तब कहीं जाकर मुझे नवेद कैरेक्टर के लिए सिलेक्ट किया गया।’
‘अंडरवर्ल्ड’ विषय पर सिनेमा और टेलीविजन दोनों में खूब काम हुआ है, ऐसे में ‘पाउडर’ कितना असरकारक साबित होगा? पंकज उत्साह से बोलते हैं-‘यह शो सिर्फ ड्रग्स माफिया की कहानीभर नहीं है, इसमें मानवीय संबंधों की बुनावट भी देखने को मिलेगी। मुझे यकीन है कि पाउडर टेलीविजन इंडस्ट्री की प्रोडक्शन वैल्यू में आमूल-चूल बदलाव ला देगा। इंडियन टेलीविजन में यह ऐसा पहला शो है, जिसे सिनेमा कैमरे से शूट किया गया है। इसमें एक्चुअल लोकेशंस यूज की गई हैं। दुबई, बैंकॉक, मनाली, दिल्ली, गोवा; कहानी में जो लोकेशन चाहिए थी, हम वहां गए। शो को सिनेमाई भव्यता देने के मकसद से एक एपीसोड शूट करने में 10 दिन तक लगे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि; सीरियल में ऐसी-ऐसी महंगी प्रॉपर्टी इस्तेमाल की गई हैं, जो बड़े बजट की फिल्मों में ही पॉसिबल हैं। आपने कई फिल्मों में लिमोजिन कार देखी होगी। करीब ढाई करोड़ की यह गाड़ी विशेष आर्डर पर तैयार होती है। दुबई में हमारी शूटिंग के दौरान इसे इस्तेमाल किया गया। बजट भी किसी दूसरे शो के मुकाबले दोगुना तक खर्च हुआ है। कहने का आशय यह है कि; टेलीविजन में ऐसा साहस यशराज कैम्प ही कर सकता है। प्रोडक्शन वैल्यू के लिहाज से यह ग्रेट वर्क है। इसके प्रोडक्शन से जुड़ा हर क्रियेटिव पर्सन स्पेशल है। मसलन : इसे लिखा है रामू की कई फिल्मों के लेखक अतुल संभरवाल ने। इसमें ख्यात स्टंट डायरेक्टर श्याम कौशल ने एक्शन की कमान संभाली है। वहीं सिनेमाटोग्राफी केजी गणेशन की है। यानी हर बंदा फिल्म सिनेमा में जबर्दस्त काम कर चुका है।’
भोपाल में फिल्म प्रोडक्शन की संभावनाओं पर बतियाते वक्त पंकज उत्साहित हो जाते हैं-‘भोपाल मेरे दिल के बहुत करीब है। मैंने यहां दो प्रोजेक्ट किए हैं। पिछले वर्ष यहां कुशर प्रसाद का भूत मूवी की शूटिंग करने आया था। मेरा नजरिया है कि; आने वाले 10 वर्ष में मुंबई के बाद भोपाल दूसरा बड़ा फिल्मी हब बनने जा रहा है। भोपाल फिल्म प्रोडक्शन के प्रत्येक पैमाने पर फिट बैठता है। यह शहर सस्ता है, सुगम है और लोकेशंस भी बेशुमार हैं। यहां हर साल दो-तीन प्रोडक्शन हाउस डेरा जमाए रहते हैं। आपको बता दें कि रावण की शूटिंग भी भोपाल में ही प्रस्तावित थी। यह पिछली फरवरी की बात है, तब यहां प्रकाश झा राजनीति और आमिर खान द फॉलिंग की शूटिंग कर रहे थे। इसलिए सारे होटल बुक थे। आखिरकार मणिरत्नम को अपनी करीब 500 यूनिट की टीम को लेकर कोलकाता कूच करना पड़ा। यह फिल्म भी मेगा स्टारर है।’
आपकी नजर में सफलता का पैमाना? पंकज बगैर लागलपेट के बोलते हैं-‘मेरा सोचना है कि दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं है। हां, इसके लिए आपको ठीक रास्ते पर चलना होगा, ईमानदारी से अपने कार्य को अंजाम देना होगा। ईमानदारी सिर्फ प्रोफेशन में ही नहीं; लाइफ में भी अत्यंत आवश्यक है। किसी का दिल न दु:खाओ, अपने लक्ष्य को पाने निरंतर कड़ी मेहनत करते रहिए। जो जितना डिजर्व करता है, उसे उतना अचीव अवश्य होता है।’