मंगलवार, 31 मार्च 2009

गिद्ध के पाठकों के लिए एक विशेष लेख


भोपाल में फिल्मसिटी के लिए
‘एक रोशनी’ है प्रकाश की ‘राजनीति’


चेतन पंडित
(लेखक फिल्म अभिनेता हैं )

मैं प्रकाश झा की मल्टीस्टारर फिल्म ‘राजनीति’ कर रहा हूं। मेरे लिए यह फिल्म इस मायने में भी खास है क्योंकि इसकी शत-प्रतिशत शूटिंग भोपाल और इर्द-गिर्द हो रही है। चूंकि मैं देवास का रहने वाला हूं, इसलिए भी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है। खुशी इस बात की भी है, क्योंकि मध्यप्रदेश अब बड़े बैनरों की नजर में आने लगा है। लंबे समय से भोपाल में ‘फिल्मसिटी’ की संभावनाएं ढूंढी जा रही हैं। पिछले कुछेक साल से इस विषय पर विचार-विमर्श गहन हो चला है। निश्चय ही ‘राजनीति’ की ‘लौ’ इस प्रयास में ‘नई ऊष्मा’ संचारित करेगी।

दरअसल, फिल्में हों या सीरियल, सभी में फ्रेश लोकेशंस खासा महत्व रखती हैं। मेरा मानना है कि अकेले भोपाल नहीं, समूचे मध्यप्रदेश में ऐसे स्थल प्रचुरता में हैं, जिनकी तलाश/आस सभी निर्देशकों को होती रही है। मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक है। मैं अगर अभिनेता न होता तो शायद ड्राइवर बनना पसंद करता। मैं अकसर फुर्सत के पलों में लांग ड्राइव पर निकल जाता हूं। इसलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मध्यप्रदेश के हर अंचल चाहे वो मालवा हो या रेवांचल, बुंदेलखंड अथवा महाकौशल; सब जगह शूटिंग के लिए नई और अनदेखी लोकशंस बहुतायता में मौजूद हैं। ऐसे स्थल क्यों अछूते रह जाते हैं? यह सवाल सबके मन में कौंधता होगा। दरअसल, सिर्फ खूबसूरत और फ्रेश लोकेशन होना ही सबकुछ नहीं होता, सबसे महत्वपूर्ण होता हैं वहां तक संसाधनों की पहुंच। यही वजह है कि चाहते हुए भी निर्देशक ऐसी लोकेशन पर शूटिंग करने का साहस नहीं जुटा पाते।

प्रकाशजी का साहस
मैं प्रकाश झा की तारीफ करूंगा; जो सदैव इस तरह का साहस जुटाते आ रहे हैं। प्रकाशजी ‘राजनीति’ से नहीं, ‘मृत्युदंड’ से नई लोकेशंस को एक्सपोज करते आ रहे हैं। उनके बाद इन स्थलों पर फिल्म गतिविधियां तेज हुर्इं। इसीलिए एक उम्मीद बंधती है कि ‘राजनीति’ के बाद मध्यप्रदेश दूसरे बड़े फिल्ममेकर्स को भी अपनी ओर खींचने लगेगा। मैं ‘गंगाजल’ का उदाहरण देना चाहूंगा। प्रकाशजी ने इस फिल्म की शूटिंग के लिए महाराष्ट्र का एक छोटा-सा कस्बा ‘वाय’ चुना था। इस कस्बे में बड़ी संख्या में मंदिर हैं, इसलिए इसे ‘टेम्पल टाउन’ भी कहते हैं। सोच सकते हैं कि यह कस्बा सिनेमाई नजरिये से कितना खूबसूरत होगा! उस वक्त तक यह लोकेशन अनजान थी। ‘गंगाजल’ की सफलता के बाद यहां फिल्ममेकरों का जबर्दस्त रुझान बढ़ा। शाहरुख खान अभिनीत ‘स्वदेश’ में जो कस्बा नजर आया, वो भी ‘वाय’ था। प्रकाश झा ने इस कस्बे में शूटिंग की शुरुआत की, यह सिलसिला अब भी जारी है। ऐसी अनूठी और खूबसूरत लोकेशन मध्यप्रदेश में भी हैं। मैंने प्रकाशजी के साथ चारे फिल्में की हैं- लोकनायक, गंगाजल, अपहरण और अब राजनीति-सभी में नई लोकेशंस देखने को मिलेंगी। ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायणजी की जीवनी पर बनी थी, जिसमें मैंने मुख्य किरदार निभाया था। इसकी शूटिंग बिहार में की गई थी।

फिल्म सिटी की संभावना
‘अपहरण’ की शूटिंग मध्यप्रदेश के सतारा में की गई थी। दर्शकों को सदैव नई लोकेशंस लुभाती हैं। उनमें ऊब पैदा न हो और वे फिल्म का पूरा आनंद उठा सकें, इसके लिए निर्देशक हमेशा नए-नए स्थल खोजते रहते हैं। मैं मध्यप्रदेश में सिनेमाई चहल-पहल को लेकर बेहद गंभीर हूं। मेरा यही प्रयास रहता है कि फिल्ममेकरों को यहां के अनछुए ऐतिहासिक और प्राकृतिक स्थलों की ओर खींच सकूं। मध्यप्रदेश में फिल्मी गतिविधियां बढ़ने में कोई बड़ी रुकावटें नहीं हैं। मुंबई से इंदौर आना हो तो फ्लाइट से एक घंटे लगते हैं। भोपाल आने में दो घंटे। यहां ट्रकों से प्रोडक्शन इक्यूवमेंट लाने में बमुश्किल 24-25 घंटे जाया होते हैं। यानी सबकुछ पहुंच के भीतर है, जरूरत है तो सिर्फ सरकारीस्तर पर सकारात्मक क्रियान्वयन की। दरअसल, फिल्ममेकर्स तो बहुत चाहते हैं कि मध्यप्रदेश में आकर पूरी की पूरी फिल्म शूट करें, लेकिन इसके लिए यहां साधनों का होना भी बहुत जरूरी है। ये साधन सरकारी प्रयासों से ही जुटाए जा सकते हैं।

अनूठी लोकेशंस
आपने ‘बिल्लू बारबर’ में इरफान का घर देखा होगा। यह दक्षिण भारत का कोई कस्बा या गांव है। आपने ‘शोले’ में गब्बर का अड्डा देखा होगा, ये लोकेशंस शायद ही किसी दूसरी फिल्मों में देखने को मिली होंगी। धारावाहिक ‘मालगुडी डेज’ का गांव वाकई अद्भुत था। उसे देखकर मन प्रसन्न हो जाता था। इन लोकशंस के बारे में मैं कहना चाहूंगा-‘न भूतो न भविष्यति...न ऐसा पहला कभी देखा और शायद न देखने को मिले।’ बार-बार एक ही लोकेशंस को दिखाने से दर्शक बोरियत महसूस करने लगते हैं। सिर्फ दर्शक ही क्यों, आम आदमी की आंखों को भी वही स्थल लुभाता है, जो अद्भुत हो और साथ में जिसे उन्होंने पहले कभी देखा न हो। मुंबई में लोकेशंस का टोटा-सा पड़ गया है। आपने एक ही मंदिर कई धारावाहिकों में देखा होगा। यह फिल्मसिटी में है। अब तो यह स्थिति आ गई है कि ‘मैं जंगल, पेड़-पत्तियां देखकर बता देता हूं कि यह फिल्मसिटी है।’ यह जुमला-सा बन गया है। निर्देशक हो या कैमरामैन वह सदा फ्रेश लोकेशंस सूंघता फिरता है। नई लोकेशंस ठीक वैसी ही होती है, जैसी तरोताजा पुष्प की सुगंध। यही खुशबू दर्शकों को चाहिए।
आपने शाहरुख की अशोका फिल्म देखी होगी। इसकी शूटिंग जामगेट के पास हुई थी। यह स्थल इंदौर से महेश्वर जाते वक्त महू के रास्ते में पड़ता है। मैं एक स्थल का जिक्र और करना चाहूंगा, जो बागली के समीप धाराजी में है। हालांकि अब धाराजी नर्मदा के डूब क्षेत्र में आ चुका है। यहां एक पहाड़ है, जिसे कौड़िया कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि प्रकृति की अद्भुत कलाकृति इस पहाड़ सरीखा दुनिया में एक पहाड़ और है। पहाड़ के ऊपर 10-15 फीट ऊंचे स्तंभ देखने को मिलेंगे। जनश्रुति है कि नर्मदा नदी का बहाव मोड़ने के लिए भीम ने ये स्तंभ जमाए थे। ऐसी लोकेशन सदैव पसंद की जाती हैं। सच में बहुत अद्भुत जगह है वह। मैंने उसे तब देखा था जब मैं यहां आयशर कंपनी की एक कार्पोरेट फिल्म करने आया था।

अतुल्य है मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश में ऐसी एक नहीं, हजारों लोकेशंस हैं, जिन्हें कहानी के मांग के अनुसार फिल्मांकित किया जा सकता है। मैंने भोपाल में फिल्मसिटी की संभावनाओं पर प्रकाशजी से चर्चा की थी, वे मेरी बात से सहमत थे। उन्हें मध्यप्रदेश बहुत रास और पसंद आया है। राजनीति से जुड़े अजय देवगन की युवा और मनोज वाजपेयी की शूल का क्लाइमेक्स भोपाल में ही शूट किया गया था। वे भी मेरी बात से सहमत थे। उन्हें भी यहां की लोकशंस और सुकूनभरा माहौल बेहद रुचिकर लगा था। जब ‘राजनीति’ के लिए लोकेशन खोजी जा रही थी, तब मैंने प्रकाशजी की चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर अलंकृता से भोपाल का जिक्र किया था। यह मेरा दायित्व था-दोनों ओर से, पहला-कहानी की मांग के हिसाब से नई-खूबसूरत और सुविधाजनक लोकेशन बताना, दूजा-मध्यप्रदेश का होने के नाते अपने प्रदेश के हित में कुछ करने का। बाद में प्रोडक्शन टीम ने यहां आकर लोकेशन देखी और इसे चयनित कर लिया।

सार्थक प्रयासों की जरूरत
मेरे एक निर्देशक मित्र हैं-अंशुमान किशोर सिंह। फिलहाल उनका कलर्स चैनल पर एक धारावाहिक ऑन एयर है-‘न आना इस देस लाडो’...वे भी स्वीकारते हैं कि मुंबई की सारी लोकेशंस एक्सपोज हो चुकी हैं, इसलिए फिल्ममेकरों को बाहर दूसरे प्रदेशों में निकला होगा। मैं अपनी ओर से मध्यप्रदेश का भी पक्ष रखता हूं। हालांकि यह सौ टका सच है कि फिल्ममेकरों को आकर्षित करने के लिए सरकार को ठीक वैसी पहल करनी होगी, जैसी गुजरात सरकार ने की है। इस प्रांत में मुख्यमंत्री नरेंद्र सिंह मोदी के प्रयास से मशहूर अभिनेता दिवंगत संजीव कुमार सिंह के नाम से फिल्मसिटी का निर्माण कार्य चल रहा है। इसके कानूनी सलाहकार हैं सुनील बोहरा। सुनील निर्देशक भी हैं। हम लोग ‘सिंटीकेट’ नाम से यूटीवी के लिए एक सीरियल शूट कर रहे हैं। उनके मुताबिक, ‘सबसे पहले यह बात दिमाग से निकाल देनी होगी कि फिल्मसिटी बनते ही मुनाफा शुरू हो जाएगा। इसके लिए चार-छह साल इंतजार करना होगा।’ वैसे भी ऐसे बड़े प्रोजेक्ट में व्यक्तिगतौर पर कोई भी पूंजी निवेश नहीं कर सकता। आवश्यकता जमीनी सुविधाओं की है, नफा-नुकसान का विषय तो बाद की बात है। ‘राजनीति’ के शूटिंग ने यहां फिल्मसिटी की संभावनाओं को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू कर दी है। यह अच्छी बात है क्योंकि ऐसा पहला मौका है जब यहां कोई मल्टीस्टारर फिल्म शूट हो रही है। इससे न केवल बड़े होटलों को फायदा मिला, बल्कि स्थानीय रंगकर्मियों और स्पाट बाय जैसे छोटे वर्करों को भी काम मिला।
अपनी बात खत्म करने से पहले मैं यह अवश्य कहना चाहूंगा कि फिल्मी गतिविधियां बढ़ने से युवाओं को अपनी क्षमतानुसार करियर ढूंढने में भी सहायता मिलेगी, क्योंकि मुंबई में ज्यादातर भीड़ सिर्फ ग्लैमर से वशीभूत होकर पहुंचती है, जबकि फिल्म मेकिंग में बहुत परिश्रम लगता है, उसमें अपनी जान फूंकनी पड़ती है। उम्मीद रहेगी कि सरकार इस दिशा में सकारात्मक पहलुओं के साथ सोचेगी, ताकि मध्यप्रदेश की माटी से जन्मी प्रकाश की ‘राजनीति’ ‘रोशनी’ बनकर ‘मार्ग’ प्रशस्त कर सके।
(जैसा कि उन्होंने पीपुल्स समाचार पत्र के लिए अमिताभ फरोग को बताया)

सोमवार, 30 मार्च 2009

उम्मीद/ भारतीय समाज और स्त्री



अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग '

देश से लाड़लियां ‘विलुप्त’ हो रही हैं और टेलीविजन से पुरुष! दोनों के पीछे एक ही कारण है-‘कन्या भ्रूण हत्या’। हाल में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेस (आईआईपीएस), मुंबई’ ने एक सर्वे कराया, जिसके आंकड़े चिंता पैदा करते हैं। भोपाल सहित तीन और बड़े शहरों ग्वालियर, इंदौर और जबलपुर में लड़कियों की संख्या 13 से 43 प्रतिशत कम हुई है। स्त्री के बगैर पुरुष का कोई अस्तित्व और वर्चस्व नहीं, इस सच को कौन झुठला पाएगा? पढ़ा-लिखा होना ‘सभ्य और संस्कारिता’ होने का सूचक माना जाता रहा है, लेकिन यह सर्वे ‘संभ्रांत समाज’ को शर्मसार करने के लिए बहुत है। दरअसल, शिक्षित होने का दुरुपयोग सबसे अधिक शहरवाले ही करते आए हैं। संभलना खुद को होगा, वरन् लिंग असंतुलन समाज को कई विकृतियों से भर देगा।


लड़कियों को बचाने की इस फिक्र के बीच एक सुखद पहल भी हुई। पिछले दिनों खरगौन के पास सांगवी-केली मार्ग में सूखे नाले से एक नवजात बच्ची मिली। इस लाड़ली के संरक्षण को लेकर लोगों में जो प्यार उमड़ा वह देर-सबेर ही सही, लड़कियों के सुखद भविष्य की उम्मीद अवश्य बांधता है। इस बच्ची में गांव की महिलाओं ने अपने स्तनपान से सांसें दीं। यहां के ‘पाटीदार युवा संगठन’ ने इस बच्ची को गोद लेने के लिए जो प्यार और जज्बा दिखाया, वह लड़कियों के अंधकारमय भविष्य में रोशनी की एक लौ पैदा करता है।
लड़कियों के संरक्षण की दिशा में देश के अग्रणी शिक्षण संस्थाओं में से एक ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’ ने एक अच्छी पहल की है। वैश्वीकरण और उदारवाद के युग में लिंग भेद और लैंगिग असमानता के वर्तमान स्वरूप को अध्ययन की परिधि में लाने के उद्देश्य से इग्नू ने लैंगिग अध्ययन के लिए एक अलग केंद्र की स्थापना की है। यह जुलाई से सक्रिय होगा। स्त्रियों के हक में उठी इस सुगंध से भोपाल भी अछूता नहीं है। राजधानी की चर्चित लेखिका उर्मिला शिरीष ‘भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की दशा और दिशा’ पर एक शोध कर रही हैं। इसमें स्त्री संघर्ष और समाज में उनकी बदलती भूमिका-छवि से लोग सीधे साक्षात्कार कर पाएंगे। इसमें कोई तर्क की गुंजाइश नहीं कि स्त्रियों में बनिस्वत पुरुष संघर्ष का अधिक माद्दा होता है। उनकी ऊर्जा विभिन्न स्थितियों परिस्थितियों में समाज को प्रभावित करती है। अगर समाज से लड़कियों की संख्या कम हो गई, तो हम अपने बीच से ‘स्त्री-ऊर्जा का क्षय’ कर देंगे, जो बुरे परिणाम पैदा करेगा। बच्चियों की संख्या घट रही है, लेकिन अच्छी बात यह है कि समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो लैंगिग भेद में विश्वास नहीं करता।
हाल में एक सर्वे और सामने आया है, जिसमें बच्चों के पोषण आहार से जुड़ीं कमियां उजागर हुई हैं। जहां तक बच्चों के खान-पान से जुड़ा मुद्दा है, इस मामले में भी लड़कियों को कुपोषित और भूखा ही रहना पड़ता है। यह सर्वे ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स)’ ने किया है। यहां के नेत्र विशेषज्ञों के मुताबिक, गर्भावस्था में पौष्टिक आहार की कमी के कारण बच्चे अंधेपन का शिकार हो रहे हैं। बहरहाल, देश के इस ‘अंधकारमय भविष्य’ में सिंगापुर की एक कंपनी ने रोशनी जगाई है। यहां की कंपनी ‘पीआर न्यूजवायर एशियानेट’ का सबसे बड़ा पोषकतत्व निर्माण केंद्र हर साल एशिया के दस लाख नवजात बच्चों की सहायता करेगा। इसमें बच्चियों की सेहत का विशेष ख्याल रखा जाएगा।
उधर, बच्चियों को बचाने की फिक्र ने टेलीविजन पर एक नई सोच और क्रांति को जन्म दिया है। लगभग हर चैनल पर लड़कियों को केंद्रित करके बनाए गए सीरियल प्रसारित हो रहे हैं। ‘बालिका वधू’ हो या हाल में शुरू हुए ‘न आना इस देश लाडो’...‘ज्योति’, ‘मेरे घर आई एक नन्ही परी’....आदि, सभी लड़कियों के शोषित-पोषित और साहसी प्रयासों को सामने लाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। कलर चैनल पर प्रसारित ‘उतरन’ की लड़कियां लड़कों से अधिक लाड़-प्यार पा रही हैं, तो ‘ज्योति’ की नायिका घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही है। ‘मेरे घर आई...’ और, ‘अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो’ सीरियल लड़की के जन्म पर खुशियां बिखेरते हैं, तो वहीं ‘न आना...’ कन्या भ्रूण हत्या के वीभत्स पहलू का खुलासा करता है। यानी हर चैनल पर लड़कियां बहुतायता में दिखाई पड़ रही हैं-फर्क इतना है कि कहीं वे चहक रही हैं, तो कहीं बिलख! वैसे, छोटे पर्दे पर लड़कियों का वर्चस्व इस बात का संकेत है कि पुरुष प्रधान समाज आहिस्ता ही सही, स्त्री को बराबरी पर बैठाने के लिए रजामंद होता जा रहा है।
सिनेमा में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ने वाली पहली अभिनेत्री थीं-देविका रानी। 3 मार्च,1908 में जन्मीं देविका रानी ने नायक प्रधान सिनेमा में नायिकाओं को बेहतर मुकाम दिलाया। वे ऐसी पहली नायिका थीं, जिन्हें ‘दादा साहेब फालके पुरस्कार’ मिला। स्त्रियां जीवन देती हैं-कई रंगों में, कई रूपों में और कई तौर-तरीकों से। इसका एक खुलासा हाल में हुआ। पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्रालय ने 15 सालों में हुए अंग प्रत्यारोपण के आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक, इस दौरान 2230 लोगों में ‘द ट्रांसप्लांटेशन आफ आर्गन एक्ट-1994’ के तहत अंग प्रत्यारोपित किए गए। इनमें अंगदान करने वालों में 49 प्रतिशत महिलाएं थीं। ऐसा स्वागतयोग्य साहस भोपाल के ‘आसरा वृद्धाश्रम’में रह रहीं महिलाएं भी कर चुकी हैं। दो साल पहले यहां की बुजुर्ग महिलाओं ने अंगदान करने फार्म भरे थे। बहरहाल, लाड़लियों पर मंडराते संकट के बीच रोशनियां भी तमाम हैं, जो बचाए रखेंगी उम्मीद।
(यह लेख भोपाल से प्रकाशित ‘पीपुल्स समाचार’ में छपा है।)

रविवार, 29 मार्च 2009

‘फिल्म लेखक संघ के अध्यक्ष’ जलीश शेरवानी से बातचीत...



प्रतिघातमें राजनीति थी, गुलाल मेंछलावा

अमिताभ फरोग
करीब 20 साल पहले देश संक्रामक दौर से गुजर रहा था। राजनीति पर गंदगी के छींटे पड़ चुके थे। उसी दौरान आई थी एन चंद्रा की फिल्मप्रतिघात।इस फिल्म में दूषित राजनीति और सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध एक इंकलाब-सा माहौल पैदा किया था। इसे लिखा था-जलीश शेरवानी ने। जलीश फिल्म उद्योग के उन लेखकों में शुमार हैं, जिनके लेखन में आक्रोश, प्यार और समर्पण हर तरह के भाव झलकते हैं। फिल्मतेरे नामके गीतों मेंप्यार की तड़पपैदा करने की बात हो याकिलरके गीतफिरता हूं दर-बदरके मर्मान्तक शब्द, जलीश का अंदाजे-बयां जुदा रहा है। 70 से अधिक फिल्मों की पटकथा और गीतों के रचियता जलीश ने आगरा में मंचित हो रहे संभवत: दुनिया के सबसे महंगे नाटकों में से एकमोहब्बत ताजभी लिखा है। यह नाटक एक रिकार्ड है-जो प्रतिदिन मंचित हो रहा है।

राजनीति नहीं, छलनीति :
‘प्रतिघात’ करीब 21 साल पहले 1987 में रिलीज हुई थी। तब राजनीति कुछ और थी, आज एकदम उलट। अब राजनीति नहीं, छलनीति हो गई है। जैसे-जैसे लोगों के विचार बदले, स्वभाव बदले, वैसे-वैसे राजनीति भी बदल गई। मेरी ‘प्रतिघात’ से लेकर अनुराग कश्यप की ‘गुलाल’ तक पहुंचते-पहुंचते सियासी हाव-भाव, तेवर, चरित्र सबकुछ बदल गया है।

आर्थिक मंदी और सिनेमा:
‘आर्थिक मंदी’ शब्द सुनने में बेहद डरावना जान पड़ता है, लेकिन कोई बताए कि आखिर पैसा गया कहां? समुद्र में डूब गया या किसी ने आग लगा दी। दरअसल, समस्या उतनी बढ़ी है नहीं, जितनी दर्शाई गई। चूंकि मंदी की चपेट में सारे धंधे-उद्योग हैं, इसलिए फिल्म उद्योग इससे कहां अछूता रह सकता है। मंदी के कारण कम बजट की फिल्में अधिक बन रही हैं। हां, फिल्मों में आर्थिक मंदी की मार से कलाकार अधिक दु:खी हैं। वे करोड़ों रुपए मेहनताना वसूलते हैं, सो उन्हें ज्यादा नुकसान हुआ। लेखक को बमुश्किल 20-22 लाख मिलते हैं, अब दो-चार लाख कम मिल रहे हैं। हमारी स्थिति पहले भी कुछ खास नहीं थी, मंदी से भी कुछ नहीं बिगड़ी।

लेखकों की साख :
जिस दौर में सलीम-जावेद ने लिखते थे, उस वक्त कम फिल्में बनती थीं। आज हर हफ्ते 5-6 फिल्में रिलीज होती हैं। यही कारण था कि सलीम-जावेद ऐसे पहली लेखक हैं, जिन्हें नाम और शक्ल दोनों से दर्शक बखूबी पहचानते हैं। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि आज के लेखकों की कोई पहचान नहीं है। लोग गुलजार को जानते हैं, तो कमलेश पांडे को भी। नुसरत बद्र, प्रसून जोशी, समीर, अब्बास टायरवाला ऐसे तमाम नाम हैं, जिन्हें सिने दर्शक खूब पहचानते हैं। लेखक हो या निर्देशक अथवा कलाकार, सबकी पहचान तभी स्थापित होती है, जब फिल्म हिट हो जाए, नहीं तो कोई किसी को नहीं जानता-पहचानता।

लेखकों का वजूद :
लोग पूछते हैं कि प्रतिघात जैसी कोई दूसरी फिल्म क्यों नहीं लिखी? मैं स्पष्ट कर दूं, लेखकों की कलम निर्माता-निर्देशकों की अंगुलियों पर नाचती है। हम कुछ भी लिखते रहें, यदि ‘फिल्मी बनिया’ उसमें रुचि नहीं दिखाएंगे, तो सारा लिखा दो कौड़ी का समझो। मैं भी सपने देखता हूं कि ये लिखूंगा-वो लिखूंगा, भले ही चीज आकार ले सके अथवा नहीं, लेकिन हमारा भाग्य पूंजीपतियों की पसंद-नापसंद पर टिका होता है। फिल्म के जरिये क्या संदेश देना है? जैसे सवाल अब बकवास जान पड़ते हैं। अब पटकथाएं हालात नहीं, निर्माता-निर्देशकों की स्थिति को ध्यान में रखकर लिखी जाती हैं। मुझे प्रतिघात की पटकथा अच्छी लगी, लेकिन इस तरह की दूसरी फिल्में लिखने का मौका किसी से नहीं मिला। फिल्म‘द ट्रुथ यथार्थ’ के लिए अमेरिका में मुझे दो बार पुरस्कार भी मिला, फिर भी यही कहूंगा-वहीं लिखता हूं, जिसे कोई खरीदे।

मैं और मेरा अंतर्मन :
लोग कहते हैं कि मेरी बातें बहुत दिलचस्प होती हैं, लेकिन सच कहूं तो मैं अंदर से बहुत दु:खी हूं। यह दु:ख व्यक्तिगत नहीं, समाज को लेकर है। हमारे देश में सियासत के रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। मैं व्यवस्थागत खामियों का विरोध करना चाहता हूं, मैं किसी भी तरह के अत्याचार का विरोध करता हूं। बच्चियों से रेप के मामले में जो मृत्युदंड के पक्षधर नहीं हैं, मैं कहूंगा सबसे पहले इन्हीं को फांसी पर लटका देना चाहिए, तभी सिस्टम सुधरेगा।

जिंदगी चलने का नाम:
मैं मूलत: अलीगढ़ का रहने वाला हूं। मां-पिता का बहुत लाड़ला था। ऐसे में वे मुझे घर से बहुत दूर मुंबई कैसे भेज सकते थे? खैर, जैसे-तैसे करीब 30 साल पहले मुंबई पहुंचा। घर से भागकर आया था, इसलिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। सुबह घर से निकलता था, तो देर रात ही लौटना हो पाता था। मेरी यह दौड़ 1986 में खत्म हुई। पहली फिल्म ‘प्रतिघात’ लिखी, जो मुझे बहुत प्रिय है। इसके बाद मृत्युदाता, गेम, लोफर, संग्राम जैसी दर्जनों फिल्में लिख डालीं। 2001 में फिल्म ‘क्या यही प्यार है’ के लिए गीत लिखने का मौका मिला। चूंकि मैं शायर था, इसलिए गीत लिखने की शुरुआत हो गई। इसके बाद ‘मुझसे शादी करोगी’, ‘किलर’,‘तुमको न भूल पाएंगे’,‘हैलो’,‘हीरोज’ ‘पार्टनर’,‘खलबली’, ‘बैंकाक ब्लूज’ के लिए गाने लिखे। यह सिलसिला जारी है।

मोहब्बत ताज :
सिर्फ 80 मिनट में किसी के जीवन की सम्पूर्ण कहानी समेटना वाकई मुश्किलभरा लेखन कार्य था। मुझे यह नाटक लिखने में करीब 45 दिन लगे। मुझे खुशी है कि मैं अपने इस सपने को सम्पूर्णता के साथ साकार कर सका। आगरा के कलाकृति एम्पोरियम में इस नाटक का प्रतिदिन मंचन होता है। इसमें 60 कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं। अब तक का यह सबसे बड़ा लाइव शो कहा जा रहा है, क्योंकि इसे एक साथ 12 भाषाओं में सुनने की व्यवस्था है। इसके लिए हाईटेक रंगमंच तैयार किया गया है। इस नाटक के संवादों में आपको उर्दू के परंपरागत शब्दों के अलावा पारसी और ईरानी शब्द भी सुनने को मिलेंगे। दरअसल, थीम मुगल काल से जुड़ी हुई थी, इसलिए ऐसा करना आवश्यक था।
(यह इंटरव्यू भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में प्रकाशित हुआ है।)

गुरुवार, 26 मार्च 2009



वो छोटी छोरी का ‘आसमां छू लेना’...

यह कोई दो साल पहले की बात होगी। झांसी(उत्तरप्रदेश) से एक लड़की दीपा भोपाल पहुंचती है। मकसद था-अपनी बड़ी बहन और पिता की ख्वाहिशों को पूरा करना। ख्वाहिशें भी क्या-थोड़ा पैसा, ताकि छोटे भाई-बहन को कुछ योग्य बना दिया जाए। जिस शहर में भी संभव हो, अपना छोटा-सा घर बन जाए? ...और वक्त मिलने पर अपनी एंकरिंग माझते रहना! सपने मुट्ठीभर ही तो रहे होंगे?

25 मार्च, 2009 से दूरदर्शन पर एक रियलिटी शो शुरू हुआ है-‘छू लो आसमान।’ इसमें छोटे कद की दीपा आकाश नापने निकल पड़ी है। ‘जिंदगी इम्तिहान लेती है’...जिस पर खरा साबित होना कोई बच्चों का खेल नहीं। फिर भी इस लड़की ने ‘खेल’ जारी रखा-एक ऐसा खेल, जिसमें तमाम मोर्चों पर हार ही हार मिली, जीत अंशमात्र। यही नाममात्र की उम्मीदों ने कुछ नये सपनों की बुनियाद रखी। कुछ नये पथ बनाए, कुछ नई मंजिलें गढ़ीं।
दीपा झांसी से भोपाल एमबीए करने आई थी। अचानक एग्जाम पर बैन लग गया। लेकिन कुछ महीने बाद बैन हटा, तो उसे भोपाल के सबसे अच्छे कॉलेजों में शुमार आइपर में एडमिशन मिल गया। जो लोग समझते हैं कि दुनिया अचानक बदल जाती है, तो वे ठीक नहीं सोचते। अचानक कुछ होने में भी पीछे किए गए ढेरों प्रयास छिपे होते हैं। लोगों को भले ही आश्चर्य होता होगा कि सामान्य शक्ल-सूरत और छोटे कद की दीपा आकाश छूने कैसे निकल पड़ी? वो भी तब, जब उसकी मुट्ठी में फिलहाल कुछ भी नहीं है, न पैसा और न ही कोई ऐसा ‘पावरफुल सूत्र’, जो गाडफादर बनकर उसे आगे धकेलता रहे? मेरा मानना है कि आकाश छूने के लिए ताकत या पैसा नहीं, साहस की आवश्यकता होती है। एक ऐसा सपना देखना पड़ता है, जिसके साकार होने की नाममात्र उम्मीद के बावजूद हमें उसमें अपनी ऊर्जा लगानी पड़ती है। दीपा का भोपाल दूरदर्शन में एंकरिंग के लिए चयनित होना भी कइयों को अंचभित कर गया था...और छू लो आसामान जैसे दूरदर्शन के संभवत: सबसे बड़े रियलिटी शो में चयिनत होने पर भी वे सहज विश्वास नहीं कर पा रहे होंगे, लेकिन अकस्मात कुछ नहीं हुआ।
दीपा एक नहीं दो सपनों को जीती रही, पहला-अपनी बड़ी बहन स्नेहा, पिता और दो अन्य बहनों और एक छोटे भाइयों के बेहतर भविष्य की खातिर एमबीए करना। ताकि कोई अच्छा-सा जॉब मिल जाए, दूसरा-छोटे-छोटे अवसरों को पूरी शिद्दत के साथ भुनाने का प्रयास किया जाए-बिना कोई बड़ा सपना देखे। यही छोटे-छोटे सपने साकार होते गए और अब बड़े अचीवमेंट का आधार बनने लगे हैं। इन लड़कियों के सिर पर मां का आंचल नहीं है। पिता के पास 'भरपूर' पैसा नहीं, लेकिन संस्कार प्रचुरता में। इन्हीं संस्कारों ने लड़कियों को स्वावलंबी, स्वाभिमानी और साहस से परिपूर्ण बनाया।
बहरहाल, दीपा इन दिनों मुंबई में है। वह देशभर से चुनी गईं 12 प्रतिभागियों में शामिल है। सबसे अच्छी बात यह है कि उसके मन में ‘जीतकर ही आना है’ जैसी भावना पैदा नहीं हुई है, हां उसे जीतना है-यह सपना वह अवश्य देख रही है। उसे आसमान छूना ही है-यह अभिमान अब भी उससे दूर है, हां, उसे आकाश छू लेने की उम्मीद जरूर है। भरोसा है-रियलिटी शो या और कहीं, दीपा आसमान अवश्य छू लेगी।

मंगलवार, 24 मार्च 2009



चुनावी हिंसा में इंदौर नंबर-1

प्रमोद त्रिवेदी
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर प्रदेश में चुनाव के दौरान हिंसक घटनाओं को अंजाम देने वालों से निपटने चुनाव आयोग ने तगड़ा इंतजाम किया है। 55 हजार से अधिक असमाजिक तत्वों से निपटने आयोग बल्बरेटी मेपिंग अभियान चलाकर इन तत्वों के मंसूबों पर पानी फेरने की तैयारी कर चुका है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के समय 13500 मतदान केन्द्र संवेदनशील केन्द्रों की श्रेणी में रखा गया था। इन मतदान केन्द्रों पर बाहुबली कई तरीकों से उपद्रव फैलाकर चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं । कहीं धन बल का उपयोग होता है, तो कही बाहुबल का। इस दौरान हिंसक घटनाओं को लेकर चुनाव प्रभावित होता है, वहीं शांति व्यवस्था भी भंग होती है। पुरानी घटनाओं से सबक लेकर आयोग इन तत्वों पर पूरी तरह शिकंजा कसने का मन बना चुका है। इसके लिए पुराने के साथ नए उपद्रवियों की भी पहचान की जा रही है।

सांप्रदायिक तत्व भी निशाने पर
चुनाव में गड़बड़ी की आशंका को लेकर मतदान केन्द्रों को संवेदनशील माना जाता रहा है, लेकिन इस बार साम्प्रदायिक घटनाओं से प्रभावित क्षेत्रों को भी संवेदनशील मतदान केन्द्रों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों की पहचान करके इनके खिलाफ प्रतिबंधात्मक कार्रवाई की जा सकती है।

प्रदेश में इंदौर अव्वल तो शाजापुर शांतिप्रिय
मिनी मुम्बई कही जाने वाली प्रदेश की व्यावसायिक नगरी इंदौर में संवेदनशील मतदान केन्द्रों की संख्या सबसे अधिक है। पिछले वर्षों में इंदौर तथा इससे सटे इलाकों में सांप्रदायिक घटनाओं ने भी आयोग को सचेत कर दिया है। इन्दौर में वर्तमान में 528 संवेदनशील मतदान केन्द्र ,है वहीं शाजापुर जिले में मात्र 20 ही मतदान केन्द्र ही गड़बड़ी की आशंका वाले चिन्हित हैं । वैसे मालवा में सबसे कम गड़बड़ी चुनाव के दौरान देखी जाती है।

डकैतों की शरण स्थली चुनौती
डकैतों की शरण स्थली बना सतना जिला चुनाव शांति प्रक्रिया में चुनौती बनकर उभरा है। चित्रकूट क्षेत्र में डकैतों के आतंक से निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़ता है। हाल ही में डकैतों ने एक ही घर के 12 लोगों की हत्या करके अपने मंसूबे जाहिर कर दिए हैं। लोगों का मानना है कि डकैत समर्थक उम्मीदवार के पक्ष में वोट डलें, इसलिए चुनाव के ऐन पहले लोमहर्षक-घटना हुई। वैसे भी सतना प्रदेश में संवेदनशीलता के मामले में टॉप 10 में 5वां स्थान रखता है।


भोपाल आए सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सुरती ने कहा



खिड़की से आए पन्ने ने बदल दी जिंदगी

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सुरती उन कलाकारों में से हैं, जो उंगलियों की दक्षता या कैनवास पर उभरी सूक्ष्मताओं को कला नहीं मानते, उनकी नजर में सच्ची कला वह है, जो कैनवास पर थोपे गए रंगों को कुछ ऐसा दर्शाए, जो कभी सोचा या देखा न गया हो। वे लोक कला को जीवन का अनिवार्य अंग मानते हैं। उनकी अदभुत दक्षता सपने से कुछ अच्छा कुछ फंतासी से भरा हुआ सच है। अनुसंधान उनकी यात्रा में साफ झलकता है।

कार्टून से आपका पहला परिचय ?
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब गोरे सैनिक मलेशिया और वर्मा जाने के लिए मुंबई के गेट-वे ऑफ इंडिया में पानी के जहाज से उतरते और फिर माथेराम के लिए धीमी रफ्तार से चलने वाली रेल गाड़ियों में सवार होकर कलकत्ता (अब कोलकाता) के लिए रवाना हो जाते थे, हम धीमी रफ्तार से चलने वाली रेलगाड़ियों का पीछा करते थे। उस वक्त मैं करीब आठ-दस वर्ष का था, तब हिन्दुस्तान में कॉमिक्स थी ही नहीं। बहुत गरीब और मुफलिसी के दिन थे, लेकिन गोरे सैनिक चुइंगगम और टॉफी चबाते हुए , कॉमिक्स पढ़ते हुए तथा कुछ हम पर लुटाते हुए वहां से गुजरते थे। एक बार एक गोरे सैनिक ने एक पन्ना खिड़की से फेंका और वह हमारे हाथ आई, तब मैंने पहली बार कॉमिक्स देखी और नकल करना शुरू किया। नकल करते-करते अक्ल आ गई।

कार्टून विधा से आपका वास्तविक संबंध कब और कैसे हुआ?
1952-53 की बात है, जब स्काउट में ‘खरी कमाई डे’ में मैंने पहली बार टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक को अपना कार्टून बेचा। उसकी राशि तो याद नहीं, लेकिन पहली बार धर्मयुग में ढब्बूजी 15 रुपए में बिके और तब से तीस बरस का साथ रहा। धर्मवीर भारती कहा करते थे कि आबिद ने हिन्दी धर्मयुग को उर्दू बना दिया क्योंकि पाठक उसे आखिरी पन्ने से पढ़ना शुरू करते थे। इससे पूर्व पराग में बच्चों के लिए कार्टून बनाया करता था।

आपके कार्टून पर कभी कोई विवाद?
जब एनबीडी ने मेरे सौ कार्टून्स का अलबम आर्ट पेपर में छापा तो भगवा वालों ने कहा कि यह महिलाओं के गरिमा पर चोट है। उन लोगों ने एनबीडी को पत्र लिखकर इसे बेन कराने की बात कही। एनबीडी ने मृणाल पाण्डेय को निर्णायक बनाया। मृणाल ने कड़ा रुख अपनाते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यदि यह महिलाओं की गरिमा पर चोट है, तो धर्मवीर भारती धर्मयुग के माध्यम से यह चोट लगातार 30 वर्ष तक करते रहे उस वक्त क्यों नहीं आपत्ति उठाई गई।

कलाकार के जीवन में स्पेस का महत्व?
स्पेस का महत्व तो है, लेकिन मेरे सारे आइडिया मेरी पत्नी के हैं, यदि वह मुझे सपोर्ट नहीं करती तो मेरे पास इतने आइडिया नहीं होते। ढब्बूजी की कथा ही पति-पत्नी के बीच नोक-झोंक है। यह मैं तर्जुबे से ही कर पाया।

समकालीन या बाद में किसका नाम लेना चाहेंगे?
मारियो मेरांडा, आरके लक्ष्मण जो राजनीतिक विषय पर कार्टून बनाते थे और मेरा विषय सामाजिक है। नए में मैं मंजुल का नाम लेना चाहूंगा। बहुत ही बौद्धिक है। मुझे रश्क होता है कि मैं क्यों नहीं उसके तरह सोच पाता। उसके कार्टून से मुझे उसे पत्र लिखने के लिए विवश किया।

नया क्या रच रहे हैं?
गीजू भाई की कहानियां 10 भागों में प्रकाशित हो रहा है। यह पुस्तक हिन्दी के अलावा सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होगी। इसके अलावा बच्चों के लिए एक उपन्यास नवाब रंगीले हिन्दी में लिखा है। इसमें हंसते-हंसते बच्चे हिन्दुस्तान की राजनीति सीख जाएंगे।
(यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार के लिए रूबी सरकार ने लिया था। )

मंगलवार, 17 मार्च 2009

अनुभूति: कहने को शब्द नहीं, भीतर से हूं व्याकुल


हंसती-गाती, मुस्कुराती
गुड़िया-सीगुडी


एहसान कुरैशी


ब्रिटेन में बिग ब्रदर्स कार्यक्रम में भाग लेने वाली जेड गुडी बालीवुड अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी पर नस्लीय टिप्पणी के कारण चर्चा में रही। डॉक्टरों ने बताया कि वह चंद घंटों की ही मेहमान है।

पिछले दिनों टेलीविजन पर जेड गुडी को देखा, आंखें भर आईं। मेरे पास न तो कहने को कोई शब्द हैं और न ही लिखने को, लेकि भीतर से अत्यंत व्याकुल हूं। दिल रो पड़ने को करता है। दुनिया ने बहुत तरक्की कर ली है, इंसान के क्लोन तैयार कर लिए हैं, तो फिर गुडी क्यों मर रही है? हमने जन्म लिया है, तो दुनिया से जाना निश्चय है, लेकिन गुडी जैसी ‘प्रताड़ना’ हे मौत के देवता किसी को न देना! कैंसर सिर्फ गुडी को नहीं, बल्कि एक ऐसी ऊर्जा छीनकर ले जा रहा है, जिसने हम जैसे बहुतों का जीने के बिंदास रंगों से सीधे साक्षात्कार कराया।
मुझे जब कलर्स चैनल ने रियलिटी शो ‘बिग बॉस’ के लिए बुलाया, तब मुझे नहीं पता था कि मेरे साथ इस घर में और कौन-कौन से मेहमान रहेंगे? दरअसल, कार्यक्रम के शुरू होने से पहले उसमें शामिल प्रतिभागियों के नाम सार्वजनिक नहीं किए जाते, इसलिए मैं यही सोचता रहा कि पता नहीं घर के भीतर कैसे-कैसे लोग आएंगे? ‘बिग बॉस’ के पहले दिन जब हम सब प्रतिभागी इकट्ठे हुए, तब मुझे मालूम चला कि जेड गुडी भी हमारे साथ हैं। इससे पहले गुडी से मैं कभी रूबरू नहीं हुआ था। हां, ‘बिग ब्रदर’ के कारण मैंने उनके बारे में खूब सुन रखा था। चूंकि गुडी ‘बिग ब्रदर’ में शिल्पा शेट्टी पर की गई नस्लवादी टिप्पणियों के कारण चर्चाओं में आई थीं, इसलिए सच कहूं तो मेरे अंदर उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं था। चूंकि शिल्पा हमारे शो को होस्ट कर रही थीं, इसलिए उत्सुकता थी-यहां भी गुडी अवश्य कुछ न कुछ विवाद खड़ा करेंगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। खैर, पहले दिन हमारा एक-दूसरे से परिचय कराया गया। संजय निरूपम और पायल रोहतगी ने गुडी से मेरा परिचय कराते कहा-‘ये एहसान कुरैशी हैं, यहां के मशहूर हास्य कवि।’ मैंने उनका अभिवादन अपनी काव्य शैली में-‘जेड गुडीजी...जेड गुडीजी...’ किया, तो उसके होंठों पर शरारती हंसी तैर उठी थी। एकदम छोटे-छोटे बाल और बड़ा-सा मुंह-जिससे जब भी कोई शब्द फूटे, तो सामने वाला बगैर हंसे नहीं रह सकता। गुडी पेशे से नर्स रही हैं। मैंने पढ़ रखा था कि गुडी ने दुनिया बहुत नहीं देखी, लेकिन रियलिटी टीवी से बहुत देखा है। दर्शक उन्हें पसंद करते हैं, लेकिन मीडिया को वे फूटी आंख भी नहीं सुहाती। गुडी का सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है, लेकिन ‘सेंस आफ ह्यूमर’ लाजवाब। तीन दिन में गुडी ने पूरा घर हिलाकर रख दिया था। हिलाना इस मायने में क्योंकि वह बेहद टूटी-फूटी हिंदी इस्तेमाल करती थी, लेकिन हिंदी फिल्म गानों पर यूं उछलती-कूदती कि हम सब हंस-हंस के लोटपोट हो जाते। हम लोग उससे अकसर हिंदी गाना गाने को कहते।
संभावना सेठ और गुडी की खूब पटती थी। संभावना और गुडी अकसर नाचते-गाते रहते। गुडी को भारतीय जीवनशैली पर बड़ी हैरानी होती थी। हममें से कई दिनभर कुछ न कुछ खाते-पीते रहते थे, इस पर गुडी खूब मजे लेती। उसे भारतीय खान-पान में रुचि नहीं थी, लेकिन वह चखकर सब देखती थी। वह जूस पीती रहती या फल खा लेती। गुडी की एक परफ्यूम कंपनी है, जिसकी बोटलिंग गुजरात में होती है। मैं इत्र का बेहद शौकीन रहा हूं।
गुडी को जब यह बात मालूम चली, तो उसने मुझे अपनी कंपनी का परफ्यूम देते हुए बताया था कि ‘बिग ब्रदर’ से हुई कमाई उसने शेयर में भी लगाई है। गुडी का यह बर्ताव देखकर मेरे मन में उसके प्रति भावनाएं बदल चुकी थीं। दरअसल, कई बार हमारे सामने ‘झूठ’ को इस करीने से पेश किया जाता है कि हमें वही ‘सच’ लगने लगता है। शायद गुडी के बुरी छवि के पीछे भी यह वजह रही होगी। शिल्पा शेट्टी से दुर्व्यवहार मामले में गुडी ने मायूसी भरे शब्दों में कहा था कि मीडिया ने उसके शब्दों को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया। अगर उसके मन में शिल्पा या भारत के प्रति कोई दुर्भावना होती, तो वह यहां आती ही नहीं। एक दिन संजय निरूपम ने मुझसे कहा-‘एहसानजी यह लेडी बहुत चालाक है। कैमरे के सामने कैसे पेश आना है, यह भली-भांति जानती है। आपने देखा नहीं कि हमेशा कैसी अप-टू-डेट रहती है।’
उस पल मुझे भी लगा था कि वाकई गुडी को सुर्खियों में बने रहना आता है, लेकिन जब उसके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना और मौज-मस्ती शुरू हुई, तब लगा कि यह लेडी वैसी है नहीं, जैसा मीडिया बताती है। गुडी बमुश्किल तीन दिन ही ‘बिग बॉस’ के घर में रह पाई। एक दिन जब वह ‘कन्वेंशन रूम’ से बाहर निकली तो आंखें सुर्ख थीं।
एक हंसती-मुस्कराती गुडी को अचानक गमगीन देखकर हम सब भी हैरान थे। गुडी ने बताया कि उसे कैंसर है, जो धीरे-धीरे उसे मौत की ओर ढकेल रहा है। यह सुनकर हम सभी सन्न रह गए थे। उस वक्त तो हमें लगा कि शायद टीआरपी के चक्कर में चैनलवाले यह अफवाह उड़ा रहे हैं, लेकिन जब गुडी ने बताया कि कुछ दिन पहले उसने टेस्ट कराया था जिसकी रिपोर्ट में कैंसर निकला है,तो हमारे पास कहने को जैसे शब्द हीं नहीं बचे थे। वह रातभर रोती रही और हम लोग उसे झूठा ढांढस बधाते रहे, शायद इसे ही ‘झूठी मानवता’ कहेंगे। उस खबर के बाद गुडी का उछलना-कूदना, गाना सब बंद हो चुका था।
उसे अपने बच्चों की चिंता सताने लगी थी। मैं उस दिन का मंजर कभी नहीं भूल सकता। दो दिन पहले जिस औरत के ओठों से हंसी टपकती रहती थी, कमर हमेशा किसी गाने पर मटकने को मचलती रहती थी, अचानक सबकुछ ठहर-सा गया था। कितनी जल्दी जिंदगी की तस्वीर बदल जाती है, मैंने काफी करीब से देखा है। किसी चमत्कार की उम्मीद बिलकुल भी नहीं है, फिर भी मैं आशाओं के दीप जलाए रखना चाहता हूं।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009


गुलामी से बेहतर है संघर्ष : चेतन

फिल्म राजनीति में अभिनय करने वाले चेतन पंडित कहते हैं कि भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है। यहां की लोकेशन किसी भी फिल्म निर्माता को अपनी ओर खींच सकती है।
जिन आंखों में सपने होते हैं, उन आंखों में भविष्य होता है और जहां भविष्य होता है, वहां आगे बढ़ने की अदम्य इच्छाशक्ति का संचय होने लगता है। गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष करने को बेहतर बताने वाले अभिनेता चेतन पंडित हिन्दुस्तानी फिल्म को किसी दायरे में समेटना नहीं चाहते। इन दिनों उनकी केंद्रीय चिंता में प्रदेश में एक मजबूत और बेहतर फिल्म इंडस्ट्री का निर्माण होना है। इसमें संस्कृति और इतिहास की शानदार चीजें शामिल हों। इस अनूठे प्रयास को साकार करने की दिशा में अपनी पहल और इस दौर की राजनीति और कला जगत से जुड़ी हर पहलू पर उन्होंने बड़ी संजीदगी और ईमानदारी से बेबाक संवाद किया। चेतन पंडित इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में राजनेता की भूमिका अदा कर रहे हैं। इससे पूर्व उन्होंने प्रकाश झा के साथ गंगाजल, लोकनायक, अपहरण जैसी फिल्मों में काम किया है। विश्राम सावंत के निर्देशन में उनकी अगली फिल्म 26 नवंबर को हुए मुंबई हमले पर आधारित है, इस फिल्म में वे मेजर उन्नीकृषणन की भूमिका में होंगे।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने चेतन पंडित को कितना गढ़ा?
गुरु हमें सिखाते हैं या नहीं, ऐसा सोचकर हम कभी नहीं सीख सकते। हमारी प्रवृत्ति तो ऐसी होनी चाहिए कि हम कैसे और क्या सीखें। हमें अपने अंदर इतनी कूव्वत पैदा करनी चाहिए कि गुरु हमें सिखाने के लिए बाध्य हो।

विद्यालय में प्रवेश के लिए किसी प्रकार की विशेष तैयारी ?
दाखिले से पूर्व भारत भवन के बहिरंग प्रांगण में गोपाल दुबे जी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तैयारी में मदद की थी।

बतौर कलाकार मुंबई में कितना संघर्ष करना पड़ा?
गुलामी के कसैले अहसासों से निरंतर संघर्ष को मैं बेहतर मानता हूं। आज जो जहां हैं, सभी को अपने-अपने ढंग से संघर्ष करना पड़ रहा है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। मुंबई जाने के बाद हमने एफ.एम. में बतौर उद्घोषक काम किया। उस दौरान प्रतिदिन चार निर्माता-निर्देशक के पास अपनी पोर्टफोलियो के साथ जाया करते थे। यही संपर्क आगे काम आया। इसी तरह मैं एकता कपूर, प्रकाश झा से मिला था। जब प्रकाश झा लोकनायक जयप्रकाश पर फिल्म बनाने की बात सोच रहे थे, तो उन्हें मेरी याद आई और उन्होंने मुझे बुलवा भेजा। उन्होंने मुझे इशारा भर किया था और मैं उत्साह और आत्मविश्वास के साथ हां कह दिया। इसके बाद हमने लोकनायक पर अध्ययन करना शुरू किया। इससे पूर्व सेंट्रल स्कूल में पढ़ाई के दौरान सिर्फ एक अध्याय ही उन पर पढ़ा था। जब उन पर अध्ययन प्रारंभ किया तो उनका शख्सियत सही मायने में समझ में आया।

आपके पसंदीदा लेखक?
वैसे तो हमने दुनिया की कई भाषाओं और कई विधाओं की पुस्तकें पढ़ता हूं, लेकिन मुझे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी और ईदगाह कहानी आज भी याद है। बंगला उपन्यास कोसाई बागान का भूत, रविशंकर की पत्नी और उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब की बेटी अन्नपूर्णा की जीवनी मुझे बहुत प्रिय है।

सिनेमा को ग्लेमर मानने वाले नवोदित कलाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
सतही ग्लेमर देखकर नहीं,पूरी तैयारी और आत्मविश्वास के साथ फिल्म इंडस्ट्री में आए। मप्र में कलाकारों में अद्भुत अभिनय क्षमता है, इसलिए निरंतर कार्यशाला आयोजित होने चाहिए। उन्होंने एक कविता सुनाकर कि पेड़ खड़े हैं, क्योंकि जमीन से गड़े हैं।

क्या आपके जीवन में कनुप्रिया के आने से आपके बहुआयामी प्रतिभा को विस्तार मिला?
कनु द्वारा संचालित चिल्ड्रेन थिएटर किल्लौल में संगीत देता हूं। कनु निरंतर बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजत करती हैं। अभी गर्मी में पृथ्वी थिएटर के साथ मिलकर कार्यशाला आयोजित करने जा रही हैं।

स्त्री शक्ति को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?
मां ने मुझे पहली बार नाटक के लिए मंच दिया। आदिशक्ति के रूप में हम देवी को पूजते हैं। मैं यह मानता हूं कि हर दिन स्त्री के नाम होना चाहिए। वैचारिक रूप से हमें उनका सम्मान करना चाहिए, न कि एक दिन। लेकिन पिता की भूमिका भी मेरे लिए मायने रखता है, क्योंकि उन्होंने मुझे सदा मार्गदर्शन किया।

कहीं सचमुच राजनेता बनने का इरादा तो नहीं?
बिल्कुल नहीं, अभिनय में अभी लम्बी यात्रा तय करनी है।

यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार के लिए रूबी सरकार ने लिया था

सोमवार, 9 मार्च 2009


मेलों की ऊर्जा से
जी उठा गौहर महल

अमिताभ फरोग
जोश और उल्लास का प्रतीक होते हैं मेले। मेलों में ऊर्जा निहित होती है, जो सकारात्मक बदलाव का सबब बन सकती है। कैसे? अगर इसे देखना है, तो भोपाल के गौहर महल चले आइए! जिन्होंने पहले कभी इस ऐतिहासिक इमारत को नहीं देखा, वे बार-बार यहां आना चाहेंगे।...और जो वर्षों पहले कभी यहां आए हैं, वे फिर से सांस भरते अपने गौहर महल को देखकर अच्छा महसूस करेंगे। दरअसल, ऐतिहासिक इमारतों को ‘अर्बन हाट’ में बदलने की अनूठी कोशिश गौहर महल के लिए संजीवनी साबित हुई है। यहां लगने वाले मेलों ने ‘एक पंथ-दो काज’ वाली कहावत को सार्थक किया है। पहला-शिल्पकारों और अन्य विधाओं से जुड़े कलाकारों को व्यापक बाजार मुहैया कराया है-दूजा सैलानियों की नजर में आने से गौहर महल का पुराना वैभव फिर से लौट आया है। यह ठीक वैसी ही स्थिति है, जैसे किसी उपेक्षित बुजुर्ग को सम्मान-प्यार मिल जाना।

मेलों की ऊर्जा से फिर जी उठा है गौहर महल। यहां लगने वाले मेलों का अंदाज-ए-बयां कुछ और ही।...और व्यवस्थापकों की कार्य में डूब जाने की प्रवृत्ति, सरकार की पहल और अपनी धरोहर से प्यार करने वालों की कोशिशों ने गौहर महल के अस्तित्व को बिखरने से बचा लिया है। आमतौर पर अब, जब कभी भी गौहर महल का जिक्र होता है, तो वहां के मेले जेहन में रोशनी-से जगमगा उठते हैं। लेकिन आज से 8-10 साल पहले क्या कोई गौहर महल झांकने जाता था? निश्चय ही अगर गौहर महल को ‘अर्बन हाट’ के रूप में न बदला जाता, तो उसके ऐतिहासिक संदर्भों को समझने के लिए कागजों की ही मदद लेनी पड़ती, लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। मेला देखने के बहाने ही सही, पिछले कुछेक सालों में गौहर महल की दहलीज पर लाखों लोग चढ़े...पहली बार, दूसरी बार और कई बार स्थानीय और बाहरी सैलानियों का यहां आना हुआ। इससे पहले गौहर महल अतिक्रमण की चपेट में था और शराबियों-जुआरियों और अपनी धरोहर की कद्र न करने वालों के कुकृत्यों से शर्मसार हो रहा था। गौहर महल का हरेक कोना खुद को बचाने की गुहार करता प्रतीत होता था।
यूं ही नहीं आता बदलाव
भारत सरकार ने जब ऐतिहासिक इमारतों को संरक्षण देने के मकसद से नई कार्ययोजना बनाई, तब प्रदेश सरकार ने अनूठी पहल की और गौहर महल को अर्बन हाट में बदलने पर विचार किया। इस तरह दोनों सरकारों के सहयोग से गौहर महल में देश का पहला ‘हेरिटेज-अर्बन हाट’ शुरू हुआ। आप प्रत्यक्ष जाकर देखिए, कि मेलों के साथ धरोहरों को बचाने जागी नई चेतना ने गौहर महल में कितनी स्फूर्तिभर दी है। गौहर महल की देखरेख में लगे अफसरों और कर्मचारियों का जोश और बेहतर प्रबंधन के चलते यहां के पट सैलानियों के स्वागत को आतुर रहते हैं। गौहर महल के मेले सबक हैं, उन हाट बाजारों के लिए जिनके निर्माण पर करोड़ों रुपए फूंके गए, बावजूद उनकी चमक फीकी ही साबित हुई है। वहीं यहां के सफल मेलों ने ऐतिहासिक इमारतों और धरोहरों को बचाने की एक नई सोच को जन्म दिया है। कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
क्या मेलों में वाकई ऊर्जा निहित होती है, जो परिवर्तन ला सकने में सक्षम है? इस सवाल का जवाब ढूंढना है तो भोपाल हाट और गौहर महल का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए। राजधानी की एक बड़ी झुग्गी बस्ती को विस्थापित कर निर्मित कराए गए भोपाल हाट का उद्घाटन 28 फरवरी, 2005 में सरस मेले से हुआ था। दिल्ली हाट की कार्बन कापी भोपाल हाट लोकप्रियता के मामले में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। यह हाट ‘पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग, मध्यप्रदेश’ की देखरेख में चल रहा है। उधर, गौहर महल को ‘मध्यप्रदेश हस्तशिल्प और हथकरघा विभाग’ पोषित कर रहा है। पहली इमारत अत्याधुनिक है, 21वीं सदी की भवनकला का अद्भुत निर्माण है, वास्तुशिल्प में 16 शृंगारित है....और सैलानियों को खींचने का माद्दा रखती है, फिर भी बुझी-बुझी-सी जान पड़ती है। दूजी-भोपाल की पहली महिला शासक कुदसिया बेगम, जिन्हें गौहर बेगम भी कहते थे-ने 1820 में बनवाया था, वर्षों मृतप्राय-सरीखी पड़ी रही...फिर से सांस भरने लगी है। मुगल और हिंदू वास्तुशिल्प से शृंगारित गौहर महल और आधुनिक भोपाल हाट में ऐसा क्या अंतर है, जो एक के उत्थान और दूसरे के ‘पतन’ का कारण बना? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अत्यंत आवश्यक है। दोनों का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाए, तो जवाब बहुत आसानी से मिल जाएगा। दोनों ही हाट का उद्देश्य ग्रामीण उत्पादों को बाजार मुहैया कराना है, लेकिन भोपाल हाट इसके लिए प्रतिबद्ध है, जबकि गौहर महल इस बाध्यता से मुक्त है। लेकिन यह भी एक बड़ा प्रश्न है दोनों रोजगार के सरोकार से पूर्णत: संलिप्त हैं, तो विषमताएं घर क्यों कर रही हैं? भोपाल हाट में दाल-दलिया का बाजार लगाना प्रशासनिक विवशता हो सकती है, लेकिन इसे सिद्धांत के रूप क्यों भोगा जा रहा है? दाल-दलिया के आठ-दस पैकेट बेचकर भला कौन दो-जून की रोटी कमा सकता है? जाहिर है कमाई का गणित कुछ और है! दूसरी बड़ी चूक यहां प्रबंधकीय-व्यवस्थाओं की दिखाई पड़ती है, जो ‘फ्लाप’ मेलों का कारण बनी। खैर, भोपाल हाट का दुर्भाग्य एक अलग विषय है, मुख्य मुद्दा मेले से चमकी गौहर महल की किस्मत का है। करीब 150 साल तक गौहर महल दुर्भाग्य को जीता रहा। आंगन-छत, दरो-दीवार पर ‘कालिख-से चिपके’ अतिक्रमणकारियों ने अपनी धरोहर को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ...और निश्चय ही अगर गौहर महल को ‘अर्बन हाट’ में के रूप में सहेजा-संवारा न जाता तो यह धरोहर अपनी अंतिम सांसें गिन रही होती।
गौहर महल का स्वर्णिम काल
इस इमारत को करीब 17 साल पहले ‘मध्यप्रदेश हस्तशिल्प और हथकरघा विकास विभाग’ को सुपुर्द किया गया था। यहां 92 से 2004 तक प्रतिवर्ष दो-तीन मेले लगाए जाते रहे। प्रति मेले में प्रतिदिन 300-400 सैलानी पहुंचते थे। हर मेला औसतन 10-12 दिन लगता रहा है। यानी इस तरह हजारों लोग गौहर महल पहुंचे। सैकड़ों लोगों ने पहली बार भोपाल के नवाबी वैभवकाल से सीधे साक्षात्कार किया। 1 नवंबर, 06 का दिन गौहर महल के लिए नई सुबह लेकर आया, जब मध्यप्रदेश की स्थापना के ‘स्वर्णजयंती महोत्सव’ के दौरान गौहर महल के मेलों ने एक नई अंगड़ाई ली। हालांकि वर्ष, 2004 में जब गौहर महल का कायाकल्प किया गया, तब से ही सकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत मानी जा सकती है। भारत के रेलमंत्री लालूप्रसाद यादव ने अपने जिस प्रबंधकीय कला-कौशल के बूते रेलवे को मुनाफे का उपक्रम बनाया, यात्रियों को हवाई जहाज से उतारकर रेलों में बैठाया, रेलवे के प्रति यात्रियों में विश्वास पैदा किया, ठीक वैसा ही उदाहरण यहां के लिए भी दिया जा सकता है। मेलों को कैसे आकर्षक बनाया जाए, शिल्पकारों और अन्य लोगों के लिए स्वरोजगार के नए साधन-संसाधन कैसे विकसित किए जाएं, ग्रामीण और परंपरागत उत्पादों को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय बाजार कैसे मुहैया कराया जाए...और इसके संग-संग मेलों की ‘उर्वरा शक्ति’ का उपयोग करते हुए गौहर महल को कैसे संरक्षित रखा जाए? ऐसे तमाम सवालों का सटीक जवाब ढूंढ निकाला गया, बेहतर प्रबंधन से। गौहर महल समय-समय पर स्वयंसेवी संस्थाओं को भी मेला आयोजित करने के लिए दिया जाता है। इसके एवज में उनसे व्यवस्था और रखरखाव के नाम पर शुल्क लिया जाता है। यहां स्थायीतौर पर दो शोरूम संचालित हो रहे हैं-मृगनयनी प्लस और ट्राइब्स इंडियन। ट्राइब्स इंडिया से बतौर किराया पांच हजार रुपए लिया जाता है।
बेहतर प्रबंधन का इससे सशक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है कि जहां हर मेले से आगंतुक एक-डेढ़ करोड़ रुपए की चीजें खरीदकर स्वरोगारियों के विकास का रास्ता प्रखर कर रहे हैं, वहीं उनकी नजरें फिर से गौहर महल के सौंदर्य पर इनायत हुई हैं। 2004 के बाद से अब तक यहां औसतन हर साल 14-15 मेले लगते आ रहे हैं। इनमें रोजाना 800 से 1000 लोग पहुंचते हैं। शनिवार और रविवार को यह संख्या तीन-चार हजार के करीब होती है। खुश होने की एक वजह और है कि इन सैलानियों में प्रतिदिन 15-20 परदेसी भी होते हैं, जो बसा ले जाते हैं गौहर महल के अभूतपूर्व सौंदर्य को अपने दिल में।
ऐसी लागी लगन
अच्छा व्यवहार दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाता है। यहां के कर्मचारियों ने इसी सोच को बेहतर ढंग से भुनाया है। कामता प्रसाद पटेल, ये पिछले महीने ही यहां नियुक्त हुए हैं। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं, लेकिन व्यवहार और कार्य में अव्वल। मेला घूमने आए लोगों की बेतहाशा पूछताछ और वजह-बेवजह सहायता मांगने की आदत के बावजूद कामता झुंझलाते नहीं हैं। वे हंसते हुए सेवा-भाव में लग जाते हैं।...और उस व्यक्ति के प्रबंधकीय कला-कौशल को शायद ही आप नजरअंदाज कर पाएं। सुदेश श्रीवास्तव। मेले के प्रभारी। मेला-आयोजनों के दौरान ये 10-12 घंटे नौकरी करते मिल जाएंगे।
एक विवाह ऐसा भी
यह प्रबंधकीय कला-कौशल ही तो था कि ‘राजश्री’ जैसे बड़े फिल्म प्रोडक्शन को गौहर महल तक खींच लाया गया। बहुत कम लोग जानते होंगे कि गौहर महल में शूटिंग करने के एवज में राजश्री ने प्रतिदिन 50 हजार रुपए दिए थे। शूटिंग छह दिन चली थी। इस पैसे को टूरिज्म इनकम के रूप में भी तौला जा सकता है। फिल्म के सहायक कलाकार कुनाल कुमार कहते हैं-मैंने भोपाल के बारे में खूब सुना था, लेकिन गौहर महल से अनजान था। मैंने देखा है कि इस इमारत के पुराने वैभव को लौटाने कारीगरों ने कितनी मेहनत की होगी। शूटिंग से फुर्सत के दौरान मैं एक-दो बार मेला घूमने भी आया। वाकई मेलों ने भी इस ऐतिहासिक स्थल को बचाने में सार्थक भूमिका निभाई है।
हम ही तो हैं गाइड
मेलों में आए शिल्पियों और अन्य स्वरोजगारियों के स्वागत का अंदाज गौहर महल सरीखी अन्य ऐतिहासिक इमारतों के बचाने में सार्थक फार्मूला साबित हो सकता है। इन्हें सबसे पहले गौहर महल के इतिहास से रूबरू कराया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि कैसे अपनी धरोहर बचाई और संरक्षित रखी जा सकती है।
एक प्रयास दतिया में भी
बुंदेलखंड की ऐतिहासिक नगरी दतिया का एक प्राचीन तालाब भी ऐसे ही प्रयास से जी उठा है। तांत्रिक अनुष्ठान के लिए दुनियाभर में चर्चित पीताम्बरा पीठ से सटा हुआ है प्राचीन तालाब तरण तारण। अतिक्रमण और जल स्त्रोतों में अवरोध होने का नतीजा यह तालाब दशकों तक भोगता रहा। पिछले साल शासन/ प्रशासन के सकारात्मक प्रयासों से अंगूरी बैराज(लघु बांध) से यहां पाइप लाइन डाली गई। तालाब में पानी भरा, तो लोगों वर्षों इसे सूखता देखते आ रहे लोगों की आंखों में पानी भर आया। समुचित प्रयास हुए। तालाब के घाट संवारे गए और उसे पर्यटन स्थल के रूप में हल्का-फुल्का विकसित किया गया। परिणाम आज वहां बोटिंग हो रही है, लोगों में तालाब बचाने की प्रेरणा जागी है और कइयों को रोजगार मिल गया है। गौहर महल और तरण तालाब ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें अपनी धरोहरों का वैभव लौटाने, उनमें नई ऊर्जा भरने का अनूठा प्रयास झलकता है।

शनिवार, 7 मार्च 2009

इंटरव्यू- सुरेखा सीकरी


असल जिंदगी में महिला शिक्षा की
पक्षधर हैं बालिका वधू की दादी सा
कलर्स चैनल पर प्रसारित हो रहे सीरियल बालिका वधू की दादी सा यानी सुरेखा सीकरी सीरियल में बेशक औरतों को पुरानी विचारधाराओं में जीने का उपदेश देती रहती हों, लेकिन असल जीवन में वे महिला शिक्षा और उनकी आत्मनिर्भरता की प्रबल पक्षधर हैं। हां, वे इस बात से अवश्य चिंतित हैं कि महिला सशक्तिकरण की अंधी होड़ में कहीं औरत मर्द-सरीखी कठोर न हो जाए, वह अपना स्त्रीत्व न बिसरा दे। महिला दिवस के संदर्भ में सुरेखा सीकरी से खास बातचीत॥
बालिका वधू ने सुरेखा सीकरी को आधुनिक महिलाओं के आंख की किरकिरी बना दिया है। जब तक वे स्क्रीन पर दिखाई देती हैं, तब तक महिलाएं उन्हें कोसती ही रहती हैं। हालांकि ऐसा व्यक्तिगत रूप से नहीं, अपितु किरदार के लिए होता है। दरअसल, वे जितनी शिद्दत से अपने किरदार में जीती हैं, वह दर्शकों के मन-मस्तिष्क को भेद जाता है। वास्तविक जीवन में कलाप्रेमी उनके अभिनय को सिर आंखों पर बैठाते हैं। यह बुजुर्ग कलाकार स्क्रीन पर जितनी रूढि़वादी और पुरातनपंथी रहती है, वास्तविक जीवन में भारतीय महिलाओं की तरक्की को लेकर उससे कहीं ज्यादा खुशी महसूस करती है।
दादी सा के चरित्र से समानता
जैसा कल्याणी(दादी सा) करती है, वैसा असल जीवन में मैं कभी नहीं चाहती। हां, कल्याणी की कही कुछ बातों से मैं जरूर इत्तेफाक रखती हूं। मसलन घर के काम में कुशलता के लिए कल्याणी बार-बार बहुओं को टोकती है, उसकी ये बात किसी तरह गलत नहीं। मैंने कभी भेदभाव नहीं देखा मैं मानती हूं कि शायद आज भी कुछ घरों में बेटे-बेटी के बीच भेदभाव होता होगा, लेकिन मैं खुशकिस्मत हूं क्योंकि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। लोग पूछते हैं, इस केरेक्टर को निभाने के लिए मैंने किसे स्टडी किया? सच कहूं तो मैंने अपनी जिंदगी में इस तरह का केरेक्टर कभी देखा ही नहीं। मेरा परिवार चिकित्सकों और शिक्षकों का परिवार था, जिसमें सोच काफी व्यापक थी। मुझे अच्छी शिक्षा दिलाई गई। परिवार से कोई भी अभिनय के क्षेत्र में नहीं था, बावजूद मेरे निर्णय पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई।
समाज से भी मिली स्वीकृति
अपनी किशोरावस्था में मैंने कभी अपने कैरियर के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था। इसी दौरान मैंने कुछ प्ले देखे और उन्होंने मुझे अभिनय क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया। जब 1965 में मैंने थियेटर ज्वाइन किया तो उस वक्त इस क्षेत्र में महिलाएं काफी कम थीं, लेकिन प्रबल इच्छाशक्ति आपकी राहें आसान कर देती है। अभिनय मेरे खून में नहीं था, लेकिन मुझे लगता है मैंने इसे अपने खून में प्रवाहित कर दिया है।
अहं को आड़े न आने दें
मैंने देखा है कि कई जगह मर्द अपने अहंकार के कारण महिलाओं को सपोर्ट नहीं करते या उनकी प्रतिभा को दबाते हैं। कहीं न कहीं इसके लिए घर का माहौल भी जिम्मेदार है। मेरे पति प्रोडक्शन से जुड़े हैं और मेरे हर फैसले में मेरे साथ खड़े होते हैं। अपने बेटे को भी मैंने इसी तरह के संस्कार दिए हैं, जो उसे महिलाओं के सम्मान के साथ ही उन्हें सपोर्ट करना भी सिखाए।
बदली है स्थिति
महिलाओं की स्थिति में सुखद बदलाव नजर आ रहा है। वे खुली हवा में सांस ले रही हैं। वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। हालांकि इस सब के बीच एक डर भी सताता है कि कहीं कैरियर की दौड़ में वे खुद की पहचान ही न भूल जाएं। कई महिलाओं को देखा है, जो घर के काम को दोयम दर्जे का समझती हैं। महिला सशक्तिरण यह नहीं। मेरी नजर में महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिला अपने आप को समझे, अपनी जरूरतों को समझे। अपनी क्षमताओं को समझ कर अपनी पहचान कायम करें और सबसे खास बात दूसरों के बहकावे में न आए।
सुरेखा सीकरी के बारे में
देहरादून में जन्मीं सुरेखा सीकरी ने थियेटर के जरिए अभिनय क्षेत्र में कदम रखा। अपने अभिनय के जरिए इन्होंने नारी के कई चुनौतीपूर्ण किरदारों को पर्दे पर जीवंत किया। सुरेखाजी द्वारा अभिनीत फिल्मों में किस्सा कुर्सी का, परिणति, लिटिल बुद्धा, मम्मो, सरदारी बेगम, जुबैदा, मिस्टर एंड मिसेस अय्यर, रेनकोट आदि फिल्में शामिल हैं। इसके अलावा टेलीविजन के कई प्रोजेक्ट का हिस्सा भी ये रही हैं। उत्कृष्ट अभिनय के लिए दो नेशनल और संगीत अकादमी अवार्ड जीत चुकी सुरेखा जी को हाल ही में आइटा अवार्ड दिया गया है।
(यह साक्षात्कार दैनिक जागरण, भोपाल के लिए पल्लवी वाघेला ने लिया था )

मन बदल रहे, तो दुनिया भी बदलेगी
अमिताभ फरोग
हाल में ‘स्त्री ताकत’ का एक नया उदाहरण सामने आया। यह ताकत उन महिलाओं में पैदा हुई, जो सदियों तक बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ रहीं।...और जब उनका जुड़ाव आधुनिक कहे जाने वाले समाज से हुआ, तब भी वे घर-परिवार और खेती-बाड़ी के कामकाज से उबर नहीं सकी। कुछ दिन पहले इन आदिवासी महिलाओं ने भरे त्यौहार के बीच शराबबंदी का ऐलान कर दिया। भील और भिलाला आदिवासियों के ब्याह पर्व-‘भगोरिया’ में मदिरा का तिरस्कार सचमुच चमत्कारिक परिवर्तन ही कहा जाएगा।
बड़वानी के पार्टी में आयोजित भगोरिया के रंग में मदिरा भंग नहीं डाल सकी। यह इस मायने में भी यादगार रहेगा, क्योंकि मदिरालयों का विरोध उन आदिवासी औरतों ने किया, जिन्हें खेती-बाड़ी और बच्चों के पालन-पोषण के अलावा दुनियादारी से सीधा कोई सरोकार नहीं रहता। चूंकि यहां महिलाओं की गांधीगिरी पहली बार सामने आई, इसलिए उम्मीद बंधती है कि ‘शराबबंदी’ की यह पहल आगे और रंग लाएगी। झाबुआ, आलीराजपुर और पश्चिमी निमाड़ के आदिवासी अंचल में जगह-जगह ताड़ के पेड़ दिखाई दे जाएंगे। ताड़ का फल नारियल-सरीखा होता है, जिसमें पानी भरा रहता है, जिसे ताड़ी कहा जाता है। ताड़ी आदिवासियों का प्रिय और परंपरागत पेय है। औरत-पुरुष, युवा-बच्चे सभी इसका नियमित सेवन करते हैं। इस पूरे अंचल में पानिया पकवान खूब चाव से खाया जाता है। मक्के के आटे से बनने वाले पानिया(बाटी) में आदिवासी लोग ताड़ी का इस्तेमाल भी करते हैं। ताड़ी पीना, मदिरा पीने से एकदम भिन्न है। पहला आदिवासी परंपराओं का एक हिस्सा है, जबकि दूसरा आधुनिक होते ‘आदि समाज' की एक भयंकर बुराई। यह शासन-प्रशासन के लिए भी चिंता का विषय है। उन्मुक्त जीवन बसर करने वाले आदिवासी मदिरापान के बाद अकसर उदंड हो जाते हैं, जो पारिवारिक कलह और आपसी मनमुटाव का कारण बन जाते हैं। तमाम सरकारी और गैर सरकारी योजनाओं के बावजूद यहां के आदिवासियों के जीवनस्तर में उम्मीद के मुताबिक सुधार नहीं दिखता। हालांकि इसके पीछे कई कारण हैं। आदिवासियों की अज्ञानता और शराब जैसे व्यसनों को आधुनिकता का पैमाना मानने की गलती उनके विकास में रोड़ा बनती रही है। इस पूरे इलाके में माना जाता है कि जब फसल घर आती है, तो आदिवासी बतौर जश्न छककर मदिरापान करते हैं। मदिरा पीकर उत्पात करते हैं और इस मौसम में अपराध भी खूब बढ़ जाते हैं। पुलिस को मार्च से अप्रैल के बीच काफी सजग रहना पड़Þता है। मदिरा आदिवासियों के विकास में एक बड़ी बाधा रही है। भगोरिया आदिवासियों का प्रमुख पर्व माना जाता है, ऐसे मौके पर किसी दुर्व्यसन के प्रति जागरूकता लाने की कोशिश किसी साहस से कम नहीं आकी जा सकती। खासकर तब, जब आवाज औरतों ने बुलंद की हो। पाटी बड़वानी से करीब 26 किलोमीटर दूर है। यहां शराब की दो दुकानें हैं। गुरुवार को जब यहां आदिवासी पूरे उल्लास से मांदल की थाप पर थिरक रहे थे, उसी वक्त‘जाग्रत आदिवासी दलित संगठन’ की महिलाएं शराब की दुकानों के सामने गांधीगिरी कर रही थीं। लाउडस्पीकर पर शराब की बुराइयां गिनाई जा रही थीं। यकीनन इस शराबबंदी मुहिम ने कइयों के मन बदल दिए होंगे।इन दिनों कलर्स चैनल पर एक सीरियल प्रसारित हो रहा है-‘बालिका वधू।’ इस सीरियल में दादी-सा (कल्याणी) का किरदार निभा रही हैं सुरेखा सीकरी। संभव है स्क्रीन पर उनकी परंपरागत सोच देखकर दर्शक उन्हें खरी-खोटी सुनाते होंगे, लेकिन वास्तविक जीवन में सुरेखा स्त्री शिक्षा और स्वावलंबन की प्रबल पक्षधर हैं। वे तर्क देती हैं-‘स्त्री के स्वाभिमान के बगैर समाज में सकारात्मक परिवर्तन संभव नहीं है।’ बाल विवाह भारतीय समाज की एक ऐसी बीमारी है, जिसका दर्द रह-रहकर बार-बार उठता रहता है। इस बीच एक अच्छी खबर जरूर मिली। कपूरथला में एक महिला ने अपनी चार वर्षीय बेटी शकीना को बालिका वधू बनने से बचा लिया। शकीना का निकाह उसका पिता ही करने जा रहा था। बच्ची की मां रानी का यह साहस इसलिए भी सराहनीय है, क्योंकि वह उस अंचल/समुदाय और प्रांत में निवास करती है, जहां बाल विवाह होना आम बात है। महिलाओं की एक और पहल बुंदेलखंड की धरोहर को बचाने के रूप में सामने आई है। समूचे बुंदेलखंड में वीर हरदौल को लोक देवता के रूप में पूजा जाता है। ओरछा में बने हरदौल मंदिर में गाई जाने वाली गालियां (परम्परागत गीत), उन्हें चढ़ाया जाने वाला प्रसाद और उनकी पूजा में लगने वाली सामग्री गहन शोध का विषय है। इसकी जिम्मेदारी उठाई है जर्मनी की हम्बुर्ग यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर तत्याना ओरान्स्काया ने। वे बुंदेलखंड में बने हरदौल मंदिर और चबूतरों को खोज कर मंदिरों में महिलाओं को इकट्ठा करती हैं और उनसे वीर हरदौल की गालियां सुनकर रिकार्डिंग करती हैं। बुंदेलखंड का अपना एक वैभवशाली इतिहास रहा है, लेकिन इसे हमारा दुर्भाग्य और लापरवाही ही कहेंगे कि हम अपनी पुरा संपदा और धरोहरों को बचाने में दिलचस्पी नहीं ले सके। बहरहाल, इन प्रयासों ने भारतीय समाज को एक नई ऊर्जा प्रदान की है, जो हमें सकारात्मक शक्ति देगी। इन कोशिशों की लौ स्त्री शक्ति से जागृत हुई है, इसलिए रोशनी दूर तक फैलने की उम्मीद है।