रविवार, 29 मार्च 2009

‘फिल्म लेखक संघ के अध्यक्ष’ जलीश शेरवानी से बातचीत...



प्रतिघातमें राजनीति थी, गुलाल मेंछलावा

अमिताभ फरोग
करीब 20 साल पहले देश संक्रामक दौर से गुजर रहा था। राजनीति पर गंदगी के छींटे पड़ चुके थे। उसी दौरान आई थी एन चंद्रा की फिल्मप्रतिघात।इस फिल्म में दूषित राजनीति और सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध एक इंकलाब-सा माहौल पैदा किया था। इसे लिखा था-जलीश शेरवानी ने। जलीश फिल्म उद्योग के उन लेखकों में शुमार हैं, जिनके लेखन में आक्रोश, प्यार और समर्पण हर तरह के भाव झलकते हैं। फिल्मतेरे नामके गीतों मेंप्यार की तड़पपैदा करने की बात हो याकिलरके गीतफिरता हूं दर-बदरके मर्मान्तक शब्द, जलीश का अंदाजे-बयां जुदा रहा है। 70 से अधिक फिल्मों की पटकथा और गीतों के रचियता जलीश ने आगरा में मंचित हो रहे संभवत: दुनिया के सबसे महंगे नाटकों में से एकमोहब्बत ताजभी लिखा है। यह नाटक एक रिकार्ड है-जो प्रतिदिन मंचित हो रहा है।

राजनीति नहीं, छलनीति :
‘प्रतिघात’ करीब 21 साल पहले 1987 में रिलीज हुई थी। तब राजनीति कुछ और थी, आज एकदम उलट। अब राजनीति नहीं, छलनीति हो गई है। जैसे-जैसे लोगों के विचार बदले, स्वभाव बदले, वैसे-वैसे राजनीति भी बदल गई। मेरी ‘प्रतिघात’ से लेकर अनुराग कश्यप की ‘गुलाल’ तक पहुंचते-पहुंचते सियासी हाव-भाव, तेवर, चरित्र सबकुछ बदल गया है।

आर्थिक मंदी और सिनेमा:
‘आर्थिक मंदी’ शब्द सुनने में बेहद डरावना जान पड़ता है, लेकिन कोई बताए कि आखिर पैसा गया कहां? समुद्र में डूब गया या किसी ने आग लगा दी। दरअसल, समस्या उतनी बढ़ी है नहीं, जितनी दर्शाई गई। चूंकि मंदी की चपेट में सारे धंधे-उद्योग हैं, इसलिए फिल्म उद्योग इससे कहां अछूता रह सकता है। मंदी के कारण कम बजट की फिल्में अधिक बन रही हैं। हां, फिल्मों में आर्थिक मंदी की मार से कलाकार अधिक दु:खी हैं। वे करोड़ों रुपए मेहनताना वसूलते हैं, सो उन्हें ज्यादा नुकसान हुआ। लेखक को बमुश्किल 20-22 लाख मिलते हैं, अब दो-चार लाख कम मिल रहे हैं। हमारी स्थिति पहले भी कुछ खास नहीं थी, मंदी से भी कुछ नहीं बिगड़ी।

लेखकों की साख :
जिस दौर में सलीम-जावेद ने लिखते थे, उस वक्त कम फिल्में बनती थीं। आज हर हफ्ते 5-6 फिल्में रिलीज होती हैं। यही कारण था कि सलीम-जावेद ऐसे पहली लेखक हैं, जिन्हें नाम और शक्ल दोनों से दर्शक बखूबी पहचानते हैं। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि आज के लेखकों की कोई पहचान नहीं है। लोग गुलजार को जानते हैं, तो कमलेश पांडे को भी। नुसरत बद्र, प्रसून जोशी, समीर, अब्बास टायरवाला ऐसे तमाम नाम हैं, जिन्हें सिने दर्शक खूब पहचानते हैं। लेखक हो या निर्देशक अथवा कलाकार, सबकी पहचान तभी स्थापित होती है, जब फिल्म हिट हो जाए, नहीं तो कोई किसी को नहीं जानता-पहचानता।

लेखकों का वजूद :
लोग पूछते हैं कि प्रतिघात जैसी कोई दूसरी फिल्म क्यों नहीं लिखी? मैं स्पष्ट कर दूं, लेखकों की कलम निर्माता-निर्देशकों की अंगुलियों पर नाचती है। हम कुछ भी लिखते रहें, यदि ‘फिल्मी बनिया’ उसमें रुचि नहीं दिखाएंगे, तो सारा लिखा दो कौड़ी का समझो। मैं भी सपने देखता हूं कि ये लिखूंगा-वो लिखूंगा, भले ही चीज आकार ले सके अथवा नहीं, लेकिन हमारा भाग्य पूंजीपतियों की पसंद-नापसंद पर टिका होता है। फिल्म के जरिये क्या संदेश देना है? जैसे सवाल अब बकवास जान पड़ते हैं। अब पटकथाएं हालात नहीं, निर्माता-निर्देशकों की स्थिति को ध्यान में रखकर लिखी जाती हैं। मुझे प्रतिघात की पटकथा अच्छी लगी, लेकिन इस तरह की दूसरी फिल्में लिखने का मौका किसी से नहीं मिला। फिल्म‘द ट्रुथ यथार्थ’ के लिए अमेरिका में मुझे दो बार पुरस्कार भी मिला, फिर भी यही कहूंगा-वहीं लिखता हूं, जिसे कोई खरीदे।

मैं और मेरा अंतर्मन :
लोग कहते हैं कि मेरी बातें बहुत दिलचस्प होती हैं, लेकिन सच कहूं तो मैं अंदर से बहुत दु:खी हूं। यह दु:ख व्यक्तिगत नहीं, समाज को लेकर है। हमारे देश में सियासत के रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। मैं व्यवस्थागत खामियों का विरोध करना चाहता हूं, मैं किसी भी तरह के अत्याचार का विरोध करता हूं। बच्चियों से रेप के मामले में जो मृत्युदंड के पक्षधर नहीं हैं, मैं कहूंगा सबसे पहले इन्हीं को फांसी पर लटका देना चाहिए, तभी सिस्टम सुधरेगा।

जिंदगी चलने का नाम:
मैं मूलत: अलीगढ़ का रहने वाला हूं। मां-पिता का बहुत लाड़ला था। ऐसे में वे मुझे घर से बहुत दूर मुंबई कैसे भेज सकते थे? खैर, जैसे-तैसे करीब 30 साल पहले मुंबई पहुंचा। घर से भागकर आया था, इसलिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। सुबह घर से निकलता था, तो देर रात ही लौटना हो पाता था। मेरी यह दौड़ 1986 में खत्म हुई। पहली फिल्म ‘प्रतिघात’ लिखी, जो मुझे बहुत प्रिय है। इसके बाद मृत्युदाता, गेम, लोफर, संग्राम जैसी दर्जनों फिल्में लिख डालीं। 2001 में फिल्म ‘क्या यही प्यार है’ के लिए गीत लिखने का मौका मिला। चूंकि मैं शायर था, इसलिए गीत लिखने की शुरुआत हो गई। इसके बाद ‘मुझसे शादी करोगी’, ‘किलर’,‘तुमको न भूल पाएंगे’,‘हैलो’,‘हीरोज’ ‘पार्टनर’,‘खलबली’, ‘बैंकाक ब्लूज’ के लिए गाने लिखे। यह सिलसिला जारी है।

मोहब्बत ताज :
सिर्फ 80 मिनट में किसी के जीवन की सम्पूर्ण कहानी समेटना वाकई मुश्किलभरा लेखन कार्य था। मुझे यह नाटक लिखने में करीब 45 दिन लगे। मुझे खुशी है कि मैं अपने इस सपने को सम्पूर्णता के साथ साकार कर सका। आगरा के कलाकृति एम्पोरियम में इस नाटक का प्रतिदिन मंचन होता है। इसमें 60 कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं। अब तक का यह सबसे बड़ा लाइव शो कहा जा रहा है, क्योंकि इसे एक साथ 12 भाषाओं में सुनने की व्यवस्था है। इसके लिए हाईटेक रंगमंच तैयार किया गया है। इस नाटक के संवादों में आपको उर्दू के परंपरागत शब्दों के अलावा पारसी और ईरानी शब्द भी सुनने को मिलेंगे। दरअसल, थीम मुगल काल से जुड़ी हुई थी, इसलिए ऐसा करना आवश्यक था।
(यह इंटरव्यू भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में प्रकाशित हुआ है।)

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जलील साहब के साथ बातचीत और पुराने और आज के सन्दर्भ में आये परिवर्तन को सही ढंग से उतारा है इस बातचीत मैं. शुक्रिया