सोमवार, 30 मार्च 2009

उम्मीद/ भारतीय समाज और स्त्री



अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो...

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग '

देश से लाड़लियां ‘विलुप्त’ हो रही हैं और टेलीविजन से पुरुष! दोनों के पीछे एक ही कारण है-‘कन्या भ्रूण हत्या’। हाल में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेस (आईआईपीएस), मुंबई’ ने एक सर्वे कराया, जिसके आंकड़े चिंता पैदा करते हैं। भोपाल सहित तीन और बड़े शहरों ग्वालियर, इंदौर और जबलपुर में लड़कियों की संख्या 13 से 43 प्रतिशत कम हुई है। स्त्री के बगैर पुरुष का कोई अस्तित्व और वर्चस्व नहीं, इस सच को कौन झुठला पाएगा? पढ़ा-लिखा होना ‘सभ्य और संस्कारिता’ होने का सूचक माना जाता रहा है, लेकिन यह सर्वे ‘संभ्रांत समाज’ को शर्मसार करने के लिए बहुत है। दरअसल, शिक्षित होने का दुरुपयोग सबसे अधिक शहरवाले ही करते आए हैं। संभलना खुद को होगा, वरन् लिंग असंतुलन समाज को कई विकृतियों से भर देगा।


लड़कियों को बचाने की इस फिक्र के बीच एक सुखद पहल भी हुई। पिछले दिनों खरगौन के पास सांगवी-केली मार्ग में सूखे नाले से एक नवजात बच्ची मिली। इस लाड़ली के संरक्षण को लेकर लोगों में जो प्यार उमड़ा वह देर-सबेर ही सही, लड़कियों के सुखद भविष्य की उम्मीद अवश्य बांधता है। इस बच्ची में गांव की महिलाओं ने अपने स्तनपान से सांसें दीं। यहां के ‘पाटीदार युवा संगठन’ ने इस बच्ची को गोद लेने के लिए जो प्यार और जज्बा दिखाया, वह लड़कियों के अंधकारमय भविष्य में रोशनी की एक लौ पैदा करता है।
लड़कियों के संरक्षण की दिशा में देश के अग्रणी शिक्षण संस्थाओं में से एक ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’ ने एक अच्छी पहल की है। वैश्वीकरण और उदारवाद के युग में लिंग भेद और लैंगिग असमानता के वर्तमान स्वरूप को अध्ययन की परिधि में लाने के उद्देश्य से इग्नू ने लैंगिग अध्ययन के लिए एक अलग केंद्र की स्थापना की है। यह जुलाई से सक्रिय होगा। स्त्रियों के हक में उठी इस सुगंध से भोपाल भी अछूता नहीं है। राजधानी की चर्चित लेखिका उर्मिला शिरीष ‘भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की दशा और दिशा’ पर एक शोध कर रही हैं। इसमें स्त्री संघर्ष और समाज में उनकी बदलती भूमिका-छवि से लोग सीधे साक्षात्कार कर पाएंगे। इसमें कोई तर्क की गुंजाइश नहीं कि स्त्रियों में बनिस्वत पुरुष संघर्ष का अधिक माद्दा होता है। उनकी ऊर्जा विभिन्न स्थितियों परिस्थितियों में समाज को प्रभावित करती है। अगर समाज से लड़कियों की संख्या कम हो गई, तो हम अपने बीच से ‘स्त्री-ऊर्जा का क्षय’ कर देंगे, जो बुरे परिणाम पैदा करेगा। बच्चियों की संख्या घट रही है, लेकिन अच्छी बात यह है कि समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो लैंगिग भेद में विश्वास नहीं करता।
हाल में एक सर्वे और सामने आया है, जिसमें बच्चों के पोषण आहार से जुड़ीं कमियां उजागर हुई हैं। जहां तक बच्चों के खान-पान से जुड़ा मुद्दा है, इस मामले में भी लड़कियों को कुपोषित और भूखा ही रहना पड़ता है। यह सर्वे ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स)’ ने किया है। यहां के नेत्र विशेषज्ञों के मुताबिक, गर्भावस्था में पौष्टिक आहार की कमी के कारण बच्चे अंधेपन का शिकार हो रहे हैं। बहरहाल, देश के इस ‘अंधकारमय भविष्य’ में सिंगापुर की एक कंपनी ने रोशनी जगाई है। यहां की कंपनी ‘पीआर न्यूजवायर एशियानेट’ का सबसे बड़ा पोषकतत्व निर्माण केंद्र हर साल एशिया के दस लाख नवजात बच्चों की सहायता करेगा। इसमें बच्चियों की सेहत का विशेष ख्याल रखा जाएगा।
उधर, बच्चियों को बचाने की फिक्र ने टेलीविजन पर एक नई सोच और क्रांति को जन्म दिया है। लगभग हर चैनल पर लड़कियों को केंद्रित करके बनाए गए सीरियल प्रसारित हो रहे हैं। ‘बालिका वधू’ हो या हाल में शुरू हुए ‘न आना इस देश लाडो’...‘ज्योति’, ‘मेरे घर आई एक नन्ही परी’....आदि, सभी लड़कियों के शोषित-पोषित और साहसी प्रयासों को सामने लाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। कलर चैनल पर प्रसारित ‘उतरन’ की लड़कियां लड़कों से अधिक लाड़-प्यार पा रही हैं, तो ‘ज्योति’ की नायिका घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही है। ‘मेरे घर आई...’ और, ‘अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो’ सीरियल लड़की के जन्म पर खुशियां बिखेरते हैं, तो वहीं ‘न आना...’ कन्या भ्रूण हत्या के वीभत्स पहलू का खुलासा करता है। यानी हर चैनल पर लड़कियां बहुतायता में दिखाई पड़ रही हैं-फर्क इतना है कि कहीं वे चहक रही हैं, तो कहीं बिलख! वैसे, छोटे पर्दे पर लड़कियों का वर्चस्व इस बात का संकेत है कि पुरुष प्रधान समाज आहिस्ता ही सही, स्त्री को बराबरी पर बैठाने के लिए रजामंद होता जा रहा है।
सिनेमा में पुरुषों का वर्चस्व तोड़ने वाली पहली अभिनेत्री थीं-देविका रानी। 3 मार्च,1908 में जन्मीं देविका रानी ने नायक प्रधान सिनेमा में नायिकाओं को बेहतर मुकाम दिलाया। वे ऐसी पहली नायिका थीं, जिन्हें ‘दादा साहेब फालके पुरस्कार’ मिला। स्त्रियां जीवन देती हैं-कई रंगों में, कई रूपों में और कई तौर-तरीकों से। इसका एक खुलासा हाल में हुआ। पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्रालय ने 15 सालों में हुए अंग प्रत्यारोपण के आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक, इस दौरान 2230 लोगों में ‘द ट्रांसप्लांटेशन आफ आर्गन एक्ट-1994’ के तहत अंग प्रत्यारोपित किए गए। इनमें अंगदान करने वालों में 49 प्रतिशत महिलाएं थीं। ऐसा स्वागतयोग्य साहस भोपाल के ‘आसरा वृद्धाश्रम’में रह रहीं महिलाएं भी कर चुकी हैं। दो साल पहले यहां की बुजुर्ग महिलाओं ने अंगदान करने फार्म भरे थे। बहरहाल, लाड़लियों पर मंडराते संकट के बीच रोशनियां भी तमाम हैं, जो बचाए रखेंगी उम्मीद।
(यह लेख भोपाल से प्रकाशित ‘पीपुल्स समाचार’ में छपा है।)

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

प्रभावी लेख
अमिताभ जी......आज समाज को जागरूक रखने के लिए ऐसे प्याक्तियों की जरूरत है जो इस बात को घर घर पहुंचा सकें.

धन्य वाद है आपको इस लेख के लिए