- अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
बिहार और बिहारी भारत के लिए हमेशा चिंता का कारण रहे हैं, सिवाय कुछ अपवादों के। संदर्भ कई हो सकते हैं, लेकिन जब भी या जहां कहीं भी बिहार या बिहारियों को लेकर चर्चा या बहस शुरू होती है, देश की आधी से ज्यादा आबादी इस राज्य के विरोध में खड़ी दिखाई देती है। वजहें तमाम हैं, जो हमेशा नए विवादों को जन्म देती रही हैं। यह बिहारियों का दुर्भाग्य हो सकता है कि उनके राज्य में विकास को नहीं, स्वार्थ को सर्वोपरी माना जाता रहा है। कुछ प्रतिशत बिहारियों को छोड़ दिया जाए, तो इस राज्य की ज्यादातर आबादी सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों या बुराइयों का शिकार बनी हुई है। जो लोग थोड़ा-बहुत भी आर्थिक रूप से सुदृढ हैं, वे धीरे-धीरे अपने प्रदेश से पलायन कर रहे हैं। उनका यह जीवन संघर्ष दूसरे राज्यों पर बोझ-सा बन रहा है...और जो मराठी बनाम उत्तरभारतीय जैसे मुद्दों को जन्म दे रहा है। भारत का शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा, जहां बिहारियों ने अपनी बस्ती न बनाई हो?
बिहार पहले से ही बीमार था और रही सही कसर कोसी ने पूरी कर दी। लाजिमी है, बिहार को संभलने में सालों लग जाएंगे। यह आपदा अकेले बिहार के लिए दुःखदायी नहीं रही, दूसरे राज्यों के लिए भी चिंता का सबब बन गई है। भले ही दूसरे राज्य विपदा में फंसे बिहार की दशा देखकर मुंह न खोलें, लेकिन भीतर से उनमें उथल-पुथल मची हुई है। यह घबराहट इस बात को लेकर नहीं है कि बिहार का जनजीवन वापस पटरी पर लाने के लिए और कितनी मदद करनी पड़ेगी, चिंता इसे लेकर है कि अब और कितने बिहारी पलायन करेंगे...कितने उन पर बोझ बनेंगे? महाराष्ट्र को लेकर कोई संशय की स्थिति नहीं है, क्योंकि उत्तरभारतीयों को लेकर वहां जो घृणा के बीज बोये गए हैं, वे कभी न कभी तो पेड़ बनकर विषभरे फल पैदा करेंगे ही? इसलिए बिहारियों के लिए महाराष्ट्र की डगर अधिक कठिन है, बनिस्वत दूसरे राज्यों के।
कोई लाख कहे, लेकिन हर राज्य बिहारियों को अपने घर में ठीया देने से कतराता है। मुंबई के हर फुटपाथ, खोमचे, आटो रिक्शा और रोजगार के अन्य छुटपुट संसाधनों पर बिहारी काबिज हैं। मध्यप्रदेश, पंजाब और दिल्ली के स्थानीय वाशिंदे उनसे तंग आ चुके हैं। चिढ इसे लेकर नहीं है कि बिहारी धीरे-धीरे उनके रोजगार छीन रहे हैं, गुस्सा इस बात पर है कि उनके ही राज्य में बिहारियों द्वारा उन्हें रोजगार करने से रोका जाता है, अड़ंगा लगाया जाता है। बहरहाल, कुछ दिनों से बिहार की बाढ़ समूचे हिंदुस्तान में चर्चा का विषय बनी हुई है। देशभर से बिहारियों के लिए मदद पहुंच रही है, आपदा प्रबंधन के नाम पर अपना पेट भरने वाले भी खुश हैं, लेकिन इस विपदा को राज्यसभा सदस्य और शेतकरी संगठन के संस्थापक शरद जोशी ने देश पर मंडराता एक भयंकर संकट बताकर नई चिंता पैदा कर दी है।
'नदी नाम के हथियार का परीक्षण' शीर्षक से दैनिक भास्कर, भोपाल में 18 सितंबर को संपादकीय पृष्ठ पर छपा उनका यह लेख सनसनी पैदा करता है। दरअसल, बिहार की बाढ़ के लिए पडौसी मुल्क नेपाल को अधिक दोषी माना गया है। कोसी का जन्म नेपाल से होता है, जो भारत में प्रवेश करते-करते बड़ी नदी का रूप धारण कर लेती है। हैरानी की बात देखिए कि इस नदी पर नेपाल सरकार ने भारत की मदद से कुछ बांध बनाए हैं, बावजूद उसने पानी छोड़ते वक्त अपने मददगार मित्र देश का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा। हालांकि कोसी आज से नहीं, वर्षों से बिहार पर संकट बनकर टूटती रही है, लेकिन इस साल जो हुआ, उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। चूंकि चीन और भारत के संबंध कभी भी ठीक-ठाक नहीं रहे, इसलिए इस बार कोसी की बाढ़ को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है।
दुनिया पर प्रभुत्त की लडाई में अमेरिका की चीन से ठन चुकी है, यह सब जानते हैं। ...तिब्बत पर चीन कब्जा जमाए हुए है और उसकी नजर भारत के सीमावर्ती राज्य पर भी टिकी हुई है। दूसरी ओर नेपाल और भारत के मधुर संबंध रहे हैं, लेकिन माओवादियों के सत्ता में आने के बाद यह रिश्ता संशय की स्थिति में हैं। चूंकि चीन माओवादियों का हितैषी और मददगार रहा है, ऐसे में दोस्ती के इस त्रिकोण में भारत की स्थिति सबसे ज्यादा कमजोर हुई है। यह सब जानते हैं कि भारत में चीनी उत्पाद अवैध रूप से नेपाल के रास्ते से ही पहुंचते हैं। नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने के बाद शायद इस गैर कानूनी निर्यात को और बल मिले। परमाणु मुद्दे पर अमेरिका और भारत के बीच रिश्तों की नई कहानी रचे जाने के बाद चीन का ईर्ष्यालु रवैया और जोर पकडेगा। भारत के कम्युनिष्ट नेताओं पर माओवादियों की गहरी छाप रही है। कुछ महीने पहले विदेश नीति के जानकार एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने लेख में उल्लेख किया था कि कम्युनिष्ट नेता चीन से अपनी निष्ठा दिखाने के लिए कभी भी भारत और अमेरिका के रिश्ते को मंजूरी नहीं देंगे। कहने का सीधा अर्थ यह है कि नेपाल में माओवादियों के सत्ता में आने के बाद चीन की कूटनीतिक चालों को और प्रशस्त मार्ग नसीब होगा। शरद जोशी की चिंता शायद वाजिब नजर आती है। लेखक का तर्क है कि आखिर कोसी ने इतना विकराल रूप पहले क्यों नहीं दिखाया? चूंकि अब कोसी की चाबी माओवादियों के हाथों में है....और चीन तथा उनकी खूब घुटती है, ऐसे में इस शंका को बल मिलना स्वाभाविक है कि कहीं कोसी की बाढ़ कोई खतरनाक प्रयोग तो नहीं था?
दरअसल, नेपाल के लिए कोसी एक ऐसा वाटर बम है, जिसे वह भारत के खिलाफ कभी भी आजमा सकता है। इस वाटर बम को कब इस्तेमाल करना है, अगर यह योजना चीन के दिमाग की उपज है, तो निःसंदेह भारत के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। ऐसे सबूत भी कई बार मिल चुके हैं कि माओवादी के नक्सलियों से गहरे संबंध रहे हैं। वे उन्हें ट्रेनिंग से लेकर आर्थिक मदद तक उपलब्ध कराते हैं। यह चिंता भी लाजिमी है, क्योंकि नक्सली समस्या से निपटने पर भारत को काफी धन और बल का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
अगर हाल-फिलहाल, भारत और अमेरिका का आर्थिक विश्लेषण किया जाए, तो दोनों की ही हालत ठीक नहीं है। अमेरिकी बाजार धडाधड़ गिर रहा है, वहीं अप्रत्याशित महंगाई ने भारत की कमर तोड़ कर रख दी है। केंद्र और कई राज्यों में चुनाव नजदीक हैं। इसके प्रबंधन के लिए बहुत पैसा चाहिए, ऐसे में ऐन वक्त पर बिहार की बाढ़ गरीबी में आटा गीला करने वाली स्थिति ही कही जाएगी। इसमें तर्क की कोई गुंजाईश नहीं कि कोसी की बाढ़ ने अकेले बिहार को नहीं डुबोया, समूचे हिंदुस्तान को परेशानी और संकट में डाला है। आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूप से। सामाजिक स्तर पर इसलिए क्योंकि बाढ़ के बाद बिहार से पलायन और बढेगा , जो दूसरे राज्यों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा करेगा। बात अकेले महाराष्ट्र की नहीं है, मध्यप्रदेश, पंजाब, दिल्ली आदि तमाम प्रदेशों में बिहारियों की आमद से घृणा और अधिक बढेगी। दो टूक कहें, तो कोसी की बाढ कहीं समूचे हिंदुस्तान को न ले डूबे!
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