सोमवार, 4 मई 2009


खुशी का नेचर


अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
प्रकृति सिर्फ हमारे स्वास्थ्य का ख्याल रखती है, बल्कि वह हमारी नैसर्गिक खुशी का कारण भी बनती है। बावजूद हम प्रकृति को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। वनों को नष्ट कर रहे हैं और ऐसी तमाम वन्य प्रजातियों को विलुप्त होने की कगार पर धकेल चुके हैं, जो किसी किसी रंग-रूप में हमें खुश होने का बहाना देती हैं। खुशी कारसप्रकृति से ही उपजता है? महसूस करिए खुशी और प्रकृति के अटूट रिश्ते की बुनावट...

यह स्वार्थपूर्ण मामला भी हो सकता है, लेकिन हमें स्वयं के लिए प्रकृति की देखभाल करने की आवश्यकता है। हमने अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए भव्य भवनों का निर्माण कर लिया है; टेलीविजन; कार-बसें; हवाई जहाज और ऐसी हजारों चीजें बना ली हैं, जो हमें ‘आडंबरी खुशी और झूठा सुख’ प्रदान करती हैं। इन सब चीजों के बीच भी हमें अगर कहीं से सच्ची खुशी’ मिलती है, तो वो सिर्फ प्राकृतिक चीजों जैसे-पेड़-पौधे; फूल-पत्तियों; पशु-पक्षियों; प्राकृतिक रंग, प्रदूषणमुक्त वायु आदि से। हम विज्ञान और तकनीक में काफी आगे निकल चुके हैं, लेकिन इन सब ‘माडर्न प्रोडक्ट्स’ के निर्माण की प्रेरणास्त्रोत और सामग्री प्रदाता प्रकृति ही तो है! कैसे? हम अपने घरों में लकड़ियों के दरवाजे; खिड़कियां ही लगवाना क्यों पसंद करते हैं? वो भी तब, जब स्टील और लोहा लकड़ी से सस्ता मिलता है? इसका जवाब यह है कि लकड़ी से हमारा पीढ़ियों का रिश्ता जुड़ा हुआ है। लकड़ी हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा है। यह भी नैसर्गिक खुशी की एक वजह है। हमारा घर कितना भी छोटा क्यों न हो; उसमें फूल-पौधों के गमले लगाने का भरसक प्रयास करते हैं। इसके लिए थोड़ी-सी ही सही, लेकिन जगह निकाल ही लेते हैं। क्योंकि इससे हमें सच्ची खुशी मिलती है।

एक उदाहरण
आप कुछ दिन ऐसे माहौल में रहिए, जहां भौतिक सुख-सुविधाओं की तनिक भी कमी न हो। बड़ा-सा बेडरूम हो, खूबसूरत ड्राइंगरूम हो, खाने के लिए महंगी क्राकरी हो, सोने के लिए मुलायम गद्दे, मनपसंद फिल्मों की सीडीज यानी आपके पास हर वो चीज हो; जिसकी आपने कभी ख्वाहिश की हो। इसके बाद आप किसी जंगल में चले जाइए। वहां इस तरह की कोई भी आधुनिक चीज न हो। आपको घास-फूंस पर सोना पड़े, फल खाकर दिन गुजारना पड़े, नहाने के लिए साबुन के बजाय मिट्टी का इस्तेमाल करना पड़े, कहने का तात्पर्य आपको वैसा जीवन गुजारना पड़े; जैसा हमारे वंशज जीते थे।
दोनों परिस्थितियों के बाद खुद निष्कर्ष निकालना कि आपको आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं से सच्ची खुशी मिली या नैसर्गिक माहौल से। हम जब भी कहीं सैर-सपाटे का कार्यक्रम बनाते हैं, तो अपनी प्राथमिकताओं में ‘नेचुरल ब्यूटी प्लेस’ को ही क्यों शामिल करते हैं? क्योंकि वहीं हमें सच्ची खुशी मिलती है।

रिश्ते की बुनियाद
प्रकृति और हमारा रिश्ता कोई नया नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि पेड़-पौधे; वनस्पतियों और वन्य जीवों के बगैर हम जिंदा रह ही नहीं सकते। एक ख्याली पुलाव पकाइए?
100-200 साल बाद हमारे आसपास जीव-जंतु और वन्य संपदा नहीं होगी; होगी तो सिर्फ तकनीक और आधुनिक संसाधन, क्या वैसे अप्राकृतिक माहौल में हम दिल से खुशी महसूस कर पाएंगे? हमारे घरों में गमले नहीं होंगे, दरवाजों और खिड़कियों पर लकड़ियों की चौखटें/पलड़े नहीं होंगे, वातावरण में शुद्ध हवा का अभाव होगा, ऐेसे में हम कितने दिन जी पाएंगे; वो भी सच्ची खुशी के बगैर? वास्तविकता तो यह है कि यह स्वप्न ही हमारी रूह कंपाने के लिए बहुत है।
करीब 25 साल पहले हार्वर्ड विज्ञानी ईओ विल्सन ने ‘वायोफीलिया’ नामक अपनी परिकल्पना में दो टूक कहा
था-‘हम प्रकृति की मौजूदगी में ही पलते-बढ़ते हैं। उसकी अनुपस्थिति हमें पीड़ित कर देती है।’ विल्सन के मुताबिक,‘प्रकृति से निकटता हमें आध्यात्मिक और मानसिक खुशी प्रदान करती है।’ तमाम शोधों से खुलासा हो चुका है कि वे मरीज बहुत जल्द स्वस्थ होते हैं, अस्पताल में जिनके बिस्तर खिड़कियों के पास लगे रहते हैं। दरअसल, खिड़कियों से अंदर झांकती प्रकृति हमारे जीवन को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है। जंगलों में रहने वाले व्यक्तियों में मानसिक तनाव जैसी बीमारी बहुत कम देखने को मिलेंगी; क्योंकि प्रकृति का सामीप्य उनके इर्द-गिर्द नकारात्मक ऊर्जा पैदा होने से रोकता है। अमेरिकन लेखक रिचर्ड लाव तर्क देते हैं-‘आधुनिक समाज में रहने वाले बच्चे ‘नेचर-डेफिसिट डिस्आर्डर-(प्रकृति की कमी से उत्पन्न विकार)’ का शिकार हो जाते हैं; क्योंकि वे मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से प्राकृतिक संसार से वंचित होते हैं।’

इसलिए करें फिक्र
...तो प्रकृति का संरक्षण हमारे लिए कितना हितकर है, यह बात तो समझ में आ गई होगी, लेकिन हम क्या करें? यह सवाल जरूर दिमाग में कौंधने लगा होगा। यहां एक उदाहरण दिया जा सकता है। हम वाहनों में पेट्रोल-डीजल जैसे ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। हममें से कइयों की आदत होती है कि रेड सिग्नल पर भी वाहन बंद नहीं करते। वाहनों की समय पर सर्विस नहीं कराते। हमारे वाहन धुआं उगलते रहते हैं; प्रदूषण फैलाते रहते हैं और हम चुप बने रहते हैं। हमारी यह आदत प्रकृति से दोस्ती नहीं, दुश्मनी निभाने का एक जरिया बन रही है। क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चे खिलौने के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्राथमिकता क्यों देते हैं? रोबोट और वीडियो गेम जैसे तकनीकी गेम्स उन्हें ‘परम आनंद’ क्यों नहीं दे पाते? बच्चे चिड़ियाघर का नाम सुनते ही क्यों चहकने लगते हैं? हम भी जब अपने घरों में पेंटिंग्स, पोस्टर आदि लगाते हैं, तो सबसे पहले हमारे विचार प्रकृति की ओर चले जाते हैं। यह सब उस बात का संकेत हैं कि ‘असली खुशी-सच्ची खुशी’ हमें प्रकृति की निकटता से ही मिल सकती है।

प्रकृति से निकटता
प्राकृतिक चीजों और जीवों का सामीप्य पाने को हम सदैव उल्लासित/बैचेन रहते हैं। प्रकृति को अपनी कला, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान आदि में समेटने की भूख हमारे भीतर हमेशा मौजूद रहती है। दार्शनिक डेनिस ड्यूटन ने अपनी पुस्तक ‘द आर्ट इंस्टिंक्ट’ में प्रकृति और मानव के अटूट रिश्तों की कई कड़ियां खोली हैं। उनका मानना है कि लोगों को महासागरों, पहाड़ों और वृक्षों के करीब रहना अधिक भाता है। हम अत्याधुनिक होने की आस में प्रकृति पर कितनी भी चोट करें, उसे नजरअंदाज करें; नष्ट करें, लेकिन हमारे मन-मस्तिष्क में प्रकृति से जुड़े रहने की तड़प सदैव बनी रहती है। डिस्कवरी चैनल पर प्रकृति से जुड़े विषयों के कार्यक्रम सबसे अधिक पसंद किए जाते हैं, तो उसकी वजह केवल यह है कि हम उसका सामीप्य पाकर खुशी महसूस करते हैं। हम जब भी किसी बीमार को देखने जाते हैं, तो उसके लिए फूल ले जाना नहीं भूलते; क्योंकि फूलों की नैसर्गिक खुशबू, रंग और बुनावट जीने का माद्दा पैदा करती है। दवाइयों; दर्द भरी कराहों और नीरस वातावरण में फूलों का गुलदस्ता मरीज को भीतर से अपने जीवन के प्रति आनंदित और उद्देलित कर देता है।

पंख होते तो...
नि:संदेह अगर हमारे भी पंख होते; तो हम उड़ते हुए प्रकृति के विविध रंग-रूपों और रसों को आत्मसात कर पाते। पंख न भी सही, लेकिन पक्षियों के माध्यम से हम अपनी खुशियों को पंख तो लगा ही सकते हैं। पक्षी प्रकृति की एक ऐसी रचना हैं, जिनकी निकटता हमारे भीतर के अवसाद को खींच निकालती है। इसलिए अगर हम सच्ची खुशी की तलाश में हैं, तो एक माध्यम पक्षियों के बसेरे के रूप में भी हमें मिल सकता है। कहने का मतलब हम अपने घरों में पक्षियों के लिए घर बना सकते हैं। अलग-अलग तरह के पक्षी अलग-अलग आकार के बर्ड हाउस की तरफ आकर्षित होते हैं। इसलिए हमें उनका घर बनाने से पहले उनकी आदतों के बारे में थोड़ी-बहुत मालूमात हासिल कर लेना चाहिए। अगर आपके घर में पेड़ है, तो बर्ड हाउस बनाने के लिए इससे बेहतर जगह और कोई हो ही नहीं सकती। बर्ड हाउस जमीन से कम से कम पांच फीट ऊंचा रखें, ताकि पक्षियों को फ्रेंडली माहौल मिले और वे निडर होकर इसका इस्तेमाल कर सकें। घर में अगर जगह हो तो फलदार पेड़-पौधे लगाएं। अगर आप वाकई दिल से प्रकृति को सहेजने-संवारने का संकल्प ले चुके हैं, तो यकीन मानिए; आपके बर्ड हाउस में पक्षी बसेरा अवश्य करेंगे।

प्रकृति स्वयं ईश्वर नहीं होती, लेकिन यह ईश्वर के होने का प्रमाण है।
जेम्स हेनरी हंट
(अमेरिकी कवि और लेखक)

प्रकृति के साथ एक हो जाओ
‘रात तारों की झिलमिलाहट को देखो! उसके साथ खिलखिलाओ। हिलो-मिलो! तुम भी तारे हो जाओ तारों के साथ। पानी की लहरों में झांको। लहर बन जाओ। हवा का झोंका आया, हवा हो जाओ। हरे वृक्ष के पास खड़े होकर हरे हो जाओ। फूल के पास फूल हो जाओ। ऐसे तल्लीन हो जाओ प्रकृति में और तुम सत्य को पा लोगे, क्योंकि वह सब तरफ मौजूद है। फिर तो तुम्हे याद अपने आप आने लगेगी। फिर तो तुम्हारी पहचान गहराने लगेगी।’
ओशो
का सोवे दिन रैन-पुस्तक से
एक अनुभव


‘पशु-पक्षियों, फूलों, पेड़-पौधों और अन्य प्राकृतिक चीजों के रूप में प्रकृति हमें हमारे जीवित होने का अहसास कराती है। इसके अलावा हमें यह भी आभास दिलाती है कि हम जीव-जगत की विधिताओं में विशिष्ट स्थान रखते हैं। यही विशिष्टता हमारे अंदर प्रकृति और जीव-जंतुओं के प्रति आदर का भाव पैदा करती है। कुछ साल पहले मैं भारतीय अभियान दल के साथ दक्षिणी धु्रव की यात्रा पर गया था। बर्फ से ढके धरती के इस टुकड़े पर घास का एक तिनका तक नहीं उगता। वहां जाकर महसूस हुआ कि प्रकृति मतलब पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के बगैर जीवन कैसे नीरस और निर्जीव हो जाता है।’
विनय मिश्रा (मनोवैज्ञानिक)

कविता
खुशी की लगी बोली।
हर किसी को चाहिए थीं खुशियां।
खरीदने वालों का तांता लगा था,
आगे-पीछे के चक्कर में
हाथापाई भी हुई,
गाली-गलौज भी।
घर-गोदाम भर लिए
खुशियों के।
कहीं चोरी न हो जाए
इसलिए पहरेदार लगाए गए।
चिंता में रातें गुजार दीं।
कुल मिलाकर वक्त के साथ
खुशियां दर्द बनकर रह गर्इं।
जो बेघर, बे-गोदाम थे,
जो खुशियां नहीं खरीद पाए थे
वे खुश थे, क्योंकि उन्होंने
खुशियों को खरीदने का
साहस नहीं किया था।
लोकेन्द्रसिंह कोट

(यह लेख पीपुल्स समाचार, भोपाल की रविवारीय पत्रिका में छपा है )

2 टिप्‍पणियां:

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

अच्छी रचना के लिए बधाई...

अभिषेक मिश्र ने कहा…

प्रकृति से जुडाव मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जिसे वह जबरन दबाने का प्रयास करता दिखता है. अच्छी पोस्ट.