गुब्बारों जितनी भी नहीं उड़ी
‘एक नागार्जुन’ की काव्य-कथा
कुछ लोग उन्हें जनकवि बाबा नागार्जुन का एक नया अवतार मानते हैं। हालांकि कुछ इस तुलना से पूरी तरह असहमत हैं। सहमति-असहमतियों के इतर यह सच है कि प्रदेश के दतिया नगर में रहने वाले फक्कड़ कवि जलेश की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। निर्धनता के काले अंधेरे में जीवनयापन करने वाले इस कवि को इस बात से कोई मलाल नहीं है कि उनका गुजारा बच्चों को गुब्बारे बेचने से होता है। अपनी गरीबी को अपनी कविता की ताकत बनाने वाले जलेश के बारे में डॉ. नीरज जैन की रपट...
आप शायद विश्वास नही करेंगे कि जनकवि बाबा नागार्जुन का एक अवतार या नया संस्करण मध्यप्रदेश के दतिया नगर में रहता है। अनेक संदर्भों में इस अद्भुत जनकवि के दर्शन इस प्राचीन और सांस्कृतिक परम्पराओं वाले नगर में अत्यंत सहजता से किये जा सकते हैं, जिसने हिंदुस्तानी जबान को बुंदेली परिधान पहनाकर भाषा की व्यंजक क्षमताओं के साथ शानदार अठखेलियां की हैं।
सिर पर उगे अनुशासनहीन छोटे-बडे सफेद बाल, श्याम वर्ण और पांच फुटीय वृद्ध व इकहरा शरीर जिस पर प्राचीन धरोहरों की याद दिलाते मलगुजे पैंट-शर्ट; इन सब पर पहाड़ियों जैसी छोटी-छोटी आंखों वाला यह शख्स पहली नजर में किसी दीन-हीन याचक सा लगता है तिस पर बलराम के हल जैसा ध्वजनुमा काष्ठ-उपकरण अपने कंधे पर उठाए नगर की गंदी, पिछड़ी, दलित बस्तियों में बच्चों को ‘फुकना’ (गुब्बारे) बेचते हुए अक्सर देखा जाता है। शायद जिसे शहरी सभ्यता अपने दरवाजे पर भी खड़े होने की अनुमति न दे या फिर लुप्त हो चुकी प्रजाति का प्राणी समझे, वही शख्स जब कवि गोष्ठियों में कविता सुनाता है तो आमजन क्या सुधी श्रोताओं का वर्ग भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पाता। इसी कवि का पूरा नाम है हरप्रसाद रायकवार जलेश जो आज से चौरासी साल पहले उत्तर भारत की कहार (ढीमर) जाति के एक परिवार में पैदा हुआ, पानी से पेट भरना जिसका पुश्तैनी रोजगार रहा है।
आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जब पता लगता है कि उनकी पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और तीन अभी प्रकाश्य हैं। इतनी ही रचनाएं इधर-उधर बिखरी हैं व 1944 से लेकर आज तक वे देश-प्रदेश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं। बाबा नागार्जुन की तरह जलेश की रचनाधर्मिता आंचलिकता युक्त खड़ी बोली में तीखी चुुभन वाली बरछी की धार सी है जिसमें भीतर की कसक, बेचैनी, छटपटाहट और बाबा की तरह पर्दाफाश अभियान है। इस कारण ही वे व्यंग्योक्तियों के कवि हैं।
कवि जलेश का व्यक्तित्व गोष्ठियों या किताबों या पत्र-पत्रिकाओं में ही मुखर-प्रखर हो पाता है अन्यथा उनका अघोरी बाबाओं जैसा रूप ही उनके इर्द-गिर्द छाया रहता है। वे मोहल्ले के स्कूल के पास बैठकर बच्चों को गोली-बिस्कुट के साथ स्वनिर्मित खिलौने बेचते रहते हैं। स्कूल के बाद शहर की गलियों में गुब्बारे बेचते भी देखे जा सकते हैं। जहां उनकी तथाकथित दुकान सजती है वहीं गंदा नाला बहता रहता है, इतना ही नहीं घरों से फेंका गया कचरा भी उस विशुद्ध प्राकृतिक शॉपिंग-मॉल में एकत्रित किया जाता है। उनके शब्दों में अपना व्यापार जीवनयापन के लिए करते हैं और इसलिए भी कि हाथ-पांव-दिमाग सब चलता रहे। उनकी दृष्टि और रचनाशीलता में व्यर्थ कुछ नहीं जाता, एक तरफ भावनाओं की रिसाइकलिंग कर वे कविता रचते हैं तो दूसरी तरफ कबाड़ का विनिमय कर मुद्राएं। इस तरह आज के उपभोक्तावाद से लड़ने की उनकी यह निजी जिजीविषा है।
शाम के समय बलराम के हल जैसा एक ध्वज दण्ड उठाए जलेश गली-गली गुब्बारे बेचते हैं। गली-मोहल्लों के कृष्ण-कन्हैया उन्हें फुकना वाले बब्बा कहकर ही बुलाते हैं। कभी-कभी उनका नागार्जुनीय व्यक्तित्व युधिष्ठिर के प्रिय साथियों की जमात को सक्रिय करता है। दतिया रियासत का सांस्कृतिक पक्ष बेहद गौरवशाली रहा है। यहां पालकी ढोने वाले कर्मचारी को पलकया कहा जाता था। ऐसे ही एक पलकया बलीराम की पत्नी सरस्वती ने दिनांक 30 सितम्बर 1926 को हरप्रसाद जी को जन्म दिया। कविता लिखने का शौक बचपन से लग गया। उन दिनों दतिया के दीवान एनुद्दीन नाम के शख्स हुआ करते थे जो गजब के साहित्य प्रेमी थे। आये दिन गोष्ठियां-मुशायरे वगैरह आयोजित होते थे। हर प्रसाद जी भी इन्हें सुनने जाने लगे। शौक परवान चढ़ता गया तो अपना उपनाम भी रख लिया निषाद, जो कि उनकी जाति का सूचक था, फिर लगा कि जलेश ज्यादा सार्थक है तो जलेश रख लिया।
आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जब पता लगता है कि उनकी पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और तीन अभी प्रकाश्य हैं। इतनी ही रचनाएं इधर-उधर बिखरी हैं व 1944 से लेकर आज तक वे देश-प्रदेश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं। बाबा नागार्जुन की तरह जलेश की रचनाधर्मिता आंचलिकता युक्त खड़ी बोली में तीखी चुुभन वाली बरछी की धार सी है जिसमें भीतर की कसक, बेचैनी, छटपटाहट और बाबा की तरह पर्दाफाश अभियान है। इस कारण ही वे व्यंग्योक्तियों के कवि हैं।
कवि जलेश का व्यक्तित्व गोष्ठियों या किताबों या पत्र-पत्रिकाओं में ही मुखर-प्रखर हो पाता है अन्यथा उनका अघोरी बाबाओं जैसा रूप ही उनके इर्द-गिर्द छाया रहता है। वे मोहल्ले के स्कूल के पास बैठकर बच्चों को गोली-बिस्कुट के साथ स्वनिर्मित खिलौने बेचते रहते हैं। स्कूल के बाद शहर की गलियों में गुब्बारे बेचते भी देखे जा सकते हैं। जहां उनकी तथाकथित दुकान सजती है वहीं गंदा नाला बहता रहता है, इतना ही नहीं घरों से फेंका गया कचरा भी उस विशुद्ध प्राकृतिक शॉपिंग-मॉल में एकत्रित किया जाता है। उनके शब्दों में अपना व्यापार जीवनयापन के लिए करते हैं और इसलिए भी कि हाथ-पांव-दिमाग सब चलता रहे। उनकी दृष्टि और रचनाशीलता में व्यर्थ कुछ नहीं जाता, एक तरफ भावनाओं की रिसाइकलिंग कर वे कविता रचते हैं तो दूसरी तरफ कबाड़ का विनिमय कर मुद्राएं। इस तरह आज के उपभोक्तावाद से लड़ने की उनकी यह निजी जिजीविषा है।
शाम के समय बलराम के हल जैसा एक ध्वज दण्ड उठाए जलेश गली-गली गुब्बारे बेचते हैं। गली-मोहल्लों के कृष्ण-कन्हैया उन्हें फुकना वाले बब्बा कहकर ही बुलाते हैं। कभी-कभी उनका नागार्जुनीय व्यक्तित्व युधिष्ठिर के प्रिय साथियों की जमात को सक्रिय करता है। दतिया रियासत का सांस्कृतिक पक्ष बेहद गौरवशाली रहा है। यहां पालकी ढोने वाले कर्मचारी को पलकया कहा जाता था। ऐसे ही एक पलकया बलीराम की पत्नी सरस्वती ने दिनांक 30 सितम्बर 1926 को हरप्रसाद जी को जन्म दिया। कविता लिखने का शौक बचपन से लग गया। उन दिनों दतिया के दीवान एनुद्दीन नाम के शख्स हुआ करते थे जो गजब के साहित्य प्रेमी थे। आये दिन गोष्ठियां-मुशायरे वगैरह आयोजित होते थे। हर प्रसाद जी भी इन्हें सुनने जाने लगे। शौक परवान चढ़ता गया तो अपना उपनाम भी रख लिया निषाद, जो कि उनकी जाति का सूचक था, फिर लगा कि जलेश ज्यादा सार्थक है तो जलेश रख लिया।
जमीन से जुड़ा कवि
जमीन से जुड़े जलेश का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है- ‘सट्टा’ जिसने उन्हें अंचल में खूब ख्याति दिलाई। कुछ पंक्तियां हैं-
हम उसी देश के वासी हैं
जिस देश में सट्टा होता है
हर हाथ में चाकू होता है
हर हाथ में कट्टा होता है।
डाके पड़ते हैं ग्रामों में
चोरी हो भगवद् धामों में
घर की इज्जत घर के बाहर
लुटती है जहां विरामों में।
छुट्टा सांड़ों से बारी का
खुलकर चौपट्टा होता है।
यहां विरामों से जलेश का आशय होटलों आदि से है जो उनकी सपाट, स्वाभाविक संस्कारों वाली शैली का प्रमाण है। उनकी भाषा आखिरी आदमी की भाषा है जो अंग्रेजी के कुछ शब्दों को किसी भी दूसरी जुबां से ज्यादा पसंद करता है-
नर हो या बालक या नारी,
बहुतों को इसकी बीमारी
लकड़ी ला ललुआ लगा रहा,
लकड़ी ला लछिया बेचारी
ओपन क्लोज की पत्ती पर
आए दिन रट्टा होता है।
मंच से दूर
जलेश को कभी मंच नहीं मिला। लेकिन, पत्र-पत्रिकाओं में वे कई बार छपे। मुम्बई के पत्र ‘रंग’ और कानपुर के ‘सुकवि’ में जलेश की अनेक रचनाएं प्रकाशित हुर्इं। 1969-70 में रंग पत्र में कवियों को म्याऊं शब्द पर समस्या पूर्ति की चुनौती दी गई। जलेश की कविता को इसमें पहला पुरस्कार हासिल हुआ-
म्याऊं सुन मूषक, हिरण सुनकर छुपे दहाड़
मौन साध चुप मैं रहूं सुनकर उनकी झाड़।
सुनकर उनकी झाड़, कटाकट बजत बत्तीसी
चंद क्षणों को मिलत धूल में शक्ल-रईसी
व्यथित हुआ हूं, व्यथा-कथा मैं किसे सुुनाऊं
कवि जलेश नारीवश करता म्याऊं-म्याऊं।।
इसी तरह बे-पेंदी के लोटे पर उन्होंने समस्या की पूर्ति की-
कभी हाथ मत धोइये, दल-बदलू को मार
कवि जलेश यदि चाहते हो स्वदेश उद्धार।
हो स्वदेश उद्धार, धार पैनी से काटो।
जात रसातल देश, शेष बनकर आ डाटो।
करो पूर्ण कर्तव्य, भवन जन सुखद होइये
डुबो-डुबो बे-पेंदी लोटा हाथ धोइये।
फाग का उस्ताद
जलेश की अभिव्यक्ति की शैली अपने वर्ग की भाषा और उनके सरोकारों के निकट है। उनके द्वारा रचित फाग देखें-
फागें हैं खांडे-से पैनी, ज्यों लुहार की छैनी,
ठण्डे-तातें काटत छिन में दिन-दूनी सुख दैनी।
हास्य व्यंग्य श्रृंगार प्यार की सूदी बनी नसैनी,
कंय जलेश कछु-कछु तौ फागें मीठी जैसी फैनी।
साहित्यिक विचारों-आंदोलनों से अनभिज्ञ जलेश ने साहित्य जगत के दांव-पेचों को जानने-समझने में कोई रुचि नहीं ली। स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा की तर्ज पर जलेश के भाव जिस तरह उमडे कविता बन गये।
तिय कहीं लिपिस्टिक की लाली
पाउडर से अंग निखार रही।
पर कहीं महीनो में स्वकेश
कडुआ दे तेल संवार रही।
क्या कभी जार्जेट साड़ी से ,
गाढ़ा कर सकता होड़ सखे
क्या कर दूं भंडा-फोड़ सखे?
कवि की विडम्बना
कितनी बिडम्बना है कि जीवन के 84 बसंत देख चुके महाकवि का आज तक कोई अभिनंदन-सम्मान आदि नहीं हुआ। साहित्य की दुकानों से पेट पालने वाले किसी बुद्धिजीवी ने आज तक जलेश की कोई सुध नहीं ली। सच्ची बात यह भी है कि जलेश ने कभी भी अपने साहित्य को अपनी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया, वरना दतिया की जानी या अनजानी गलियों में फुकना (गुब्बारे) फुला-फुला कर बाल गोपालों के बीच अपना मन बहलाने वाले जलेश ने साहित्य के क्षेत्र में वह योगदान दिया है कि अनेक दलित-विमर्शकों को चुल्लू भर पानी ढूंढ़ना पड़े। उनके 85 वें बसंत-दर्शन पर मुझे उनके स्तरीय अभिनंदन की कामना है जो कि जलेश को बिल्कुल नहीं है।
नया नागार्जुन
गरीबी के बाद भी जलेश ने अपनी काव्य यात्रा को कृतियों का रूप दिया। उनकी प्रकाशित पांच काव्य कृतियां, जो उन्होंने 1955 से 1975 के मध्य लिखीं-
गरीबी के बाद भी जलेश ने अपनी काव्य यात्रा को कृतियों का रूप दिया। उनकी प्रकाशित पांच काव्य कृतियां, जो उन्होंने 1955 से 1975 के मध्य लिखीं-
कहार उत्थान
दुधारा
युगल पच्चीसी
व्यंग्य बल्लरी
फाग मदन माल
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