मेरे पिता श्री कंठमणि बुधौलिया वर्षों समाजवादी आंदोलन से जुडे रहे। मीसा के दौरान जेल यात्रा की। बीडी मजदूरों के हित में कई बडे आंदोलन किए। फिलहाल, वकालात कर रहे हैं। उनकी लिखी एक विद्रोही गजल..
बूढे दरख्त सा चरमरा रहा हूं...
बूढे दरख्त सा चरमरा रहा हूं...
क्रेता और विक्रेता का ही संबंध बचा है अब इंसान में,
अब तो मुश्किल पहचानना यारो अंतर घर और दुकान में॥
देखो खादी विचार नहीं अब लाइसेंस है आखेट का,
चित्र लगाकर बैठे हैं शिकारी गांधी का अब मचान में॥
चित्र लगाकर बैठे हैं शिकारी गांधी का अब मचान में॥
जिसने कद बढाया अपना तोडे घुटने उसके दरवारे-आम,
आखिर अंतर होता है बुनियादी सिंहासन और पायदान में॥
आखिर अंतर होता है बुनियादी सिंहासन और पायदान में॥
भाषा, संस्कृति, धर्म-मजहब के इन बूढों को तो देखो,
आतिशबाजी का खेल-खेलते हैं आस्था के खलिहान में॥
आतिशबाजी का खेल-खेलते हैं आस्था के खलिहान में॥
जिनके दरवाजे बंधी हुई हैं योजना की कामधेनुएं,
यक्ष, किन्नर-वरुण देवता हैं आज के हिंदुस्तान में।
यक्ष, किन्नर-वरुण देवता हैं आज के हिंदुस्तान में।
वहेलियों के सम्मेलन में अभिनंदित होती हैं गुलेलें,
जब भी परिंदे उडान भरते हैं खुलकर के आसमान में।
जब भी परिंदे उडान भरते हैं खुलकर के आसमान में।
ये तो गलतबयानी दोस्तों इतिहास उठाकर देख लो,
मुर्दों ने कब विद्रोह किया है जाकर के श्मशान में।
मुर्दों ने कब विद्रोह किया है जाकर के श्मशान में।
बोटी देखकर दुम हिलाए वरना काटे और गुर्राए,
कुत्ते जैसी सीरत देखो दफ्तर बैठे श्रीमान में।
कुत्ते जैसी सीरत देखो दफ्तर बैठे श्रीमान में।
न वो रौनकें, न मुक्त ठहाके महफिल भी न यार की,
बूढे दरख्त सा चरमरा रहा हूं जिंदगी की दालान में।
बूढे दरख्त सा चरमरा रहा हूं जिंदगी की दालान में।
1 टिप्पणी:
आंदोलनों से उपजी और वहाँ के लिए उपयोगी सुंदर रचना है।
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