मंगलवार, 19 अगस्त 2008

यह 'आलोक' जिलाए रखना

भारतीय प्रजा-तंत्र की सबसे बड़ी विडंबना और दुर्भाग्य रहा है कि इसमें प्रजा हमेशा ठगती रही है। जैसा तथाकथित तंत्र ने चाहा, वैसा उसे मुड़ना पड़ा, झुकना पड़ा और चलना पड़ा । गोया सफेदपोश और लालफीताशाही के लिए ’तंत्र‘ कोई ’तांत्रिक क्रियाओं-सा‘ काम कर रहा हो। यानी मुर्दों-सरीखी जनता वैसे ही क्रिया-कलाप करेगी, वही बोलेगी, वही सुनेगी....जैसा यह दोनों तांत्रिक चाहते हैं। इसे प्रजा-तंत्र की कमजोरी कहें या बदकिस्मती....दोनों ही अपने मूल काम के उलट भूमिका निभा रहे हैं। प्रजा से तंत्र बना है और इसकी स्वतंत्रता प्रजातंत्र की मजबूती का आधार है, लेकिन स्थितियां और परिस्थितियाँ निरंतर विलोमगामी होती जा रही हैं। तंत्र जितना पुख्ता हो रहा है, प्रजा उतनी ही निःसहाय या कहें डरपोक होती जा रही है। प्रजा-तंत्र जैसे राजनीतिज्ञों और प्रशासकों के लिए महज कठपुतली बनकर रह गया है।
लोकतंत्र के सजग प्रहरियों में शुमार आलोक तोमर ने क्या किया, क्यों किया, उनकी मंशा क्या थी...यह सभी सवाल अब इसलिए भी बेमानी हो जाते हैं कि क्योंकि उन्होंने जिस जुर्म की सजा भोगी है, वैसा ‘पाप‘ हर शहर, हर मोहल्ले और हर घर में रोज हो रहा है। जिन्हें आलोक का ’पाप‘ नहीं मालूम, उन्हें बताना जरूरी है कि इन पर आरोप है कि इन्होंने अपने संपादन में निकलने वाली एक पत्रिका में डेनिश कार्टूनिस्ट का एक कार्टून प्रकाशित किया था। इस कार्टून को एक धर्म विशेष की भावनाओं को आहत करने वाला निरूपित किया गया था। सवाल इस बात का नहीं है कि ऐसे कृत्य के लिए क्या सजा होनी चाहिए, मुद्दा यह है कि आलोक तोमर के ’कथित पाप‘ को ’महापाप‘ में परिवर्तित करने तंत्र का जिस ढंग से 'यूज' किया गया, उसे क्या माना जाए? क्या धर्म को मुद्दा बनाकर अपनी खुन्नस निकालना अधर्म नहीं?
मैं आलोक का पक्षधर नहीं, लेकिन अगर हम आलोक को सिर्फ एक आम भारतीय के रूप में देखें, तो क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि भले ही हम उनके लिए कुछ न कर सकें, तो कमस्कम अपना मुंह तो खोलें, कुछ शब्द तो बोलें। स्वार्थ का यह आलम प्रजा और तंत्र दोनों के लिए घातक है। वे लोग जो लोकतंत्र के रहनुमा होने का अलाप करते-फिरते हैं, क्या उनका दायित्व नहीं बनता कि अधिक न सही ऐसे दूषित तंत्र के खिलाफ अपनी कलम तो चलाएं?
जिन्दगी जिंदादिली का नाम है
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं
अमिताभ बुधौलिया फरोग

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