महानगर
घर तक ही बची है पहचान मेरी...
यहां तो बस गुमनाम रहता हूं।
बैचेनी-सी बसी रहती है भीतर...
मुस्कुराता हूं,मिलनसार रहता हूं।
भागता रहता हूं, यहां से वहां...
थका हूं, लेकिन शांत रहता हूं।
मन कहता है चीख पडूं सब पर..
घर-परिवार वाला हूं....
सो...चुपचाप रहता हूं।
ईश्वर!
हे ईश्वर!
तुम कहां हो....
सुना था कि
कण-कण में बसे हो तुम...
हे ईश्वर!
मैंने तो कण-कण छान मारा!
पत्रकार
रातभर नींद नहीं आई...
क्या लिखूंगा आज...
कल वो बच्चा भूख से न मरता तो...
हे ईश्वर!
मेरा तो मरण हो जाता!
नेता
सब एक थाली के चट्टे-बट्टे हैं...
इसलिए हट्टे-कट्टे हैं।
अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
3 टिप्पणियां:
bahut acha likha ap ne . खासकर नेता पर जो दो लाइनें है ।
achchi rachnaye..
बैचेनी-सी बसी रहती है भीतर...
मुस्कुराता हूं,मिलनसार रहता हूं।
भागता रहता हूं, यहां से वहां...
थका हूं, लेकिन शांत रहता हूं।
ye to bada toing hai.....
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