शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

चोरी की है 'लगे रहो मुन्नाभाई' की कहानी

ईमानदारी और गांधीगिरी का संदेश देती फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई की नींव में बेईमानी के बीज पड़े हैं। दरअसल भोपाल के भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स का दावा है कि फिल्म का सेंट्रल आइडिया और कहानी का भूलभूत ढांचा लखनऊ के राइटर सैयद आफाक हुसैन उर्फ आफाक अलमास द्वारा लिखित पुस्तक महात्मा से चुराया गया है। भोपाल का गांधी स्टार्स ग्रुप गांधीगिरी के सिद्धांत पर काम करता है और अब लेखक आफाक अलमास को न्याय दिलाने के लिए गांधीगिरी के तरीके का ही प्रयोग करना चाहता है। पल्लवी वाघेला की ख़बर...

फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई आई और देश भर में गांधीगिरी की धूम मच गई। लेकिन कम ही लोगों को इस बात की जानकारी है कि लखनऊ के आफाक अलमास इस विषय पर दस वर्ष पूर्व ही पुस्तक महात्मा लिख चुके हैं। यही नहीं 1998 में महात्मा गांधी की इस परिकल्पना को पुस्तक का रूप देने से पहले 1994 में महात्मा की वापसी नाम से नाटक का मंचन भी उनके निर्देशन में हुआ है। राइटर आफाक अलमास का कहना है कि जिन लोगों ने पुस्तक महात्मा पढ़ी है या फिर इस नाटक के दर्शक रहे हैं, वे बेहतर समझ सकते हैं कि फिल्म की स्कि्रप्ट का सेंट्रल आइडिया पूरी तरह इस पुस्तक पर आधारित है।

नाटक और फिल्म में समानता
-नाटक की थीम में महात्मा गांधी के होने का आभास व्यक्ति को होता है और कहानी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। लगे रहो में भी यही थीम नजर आती है।
-नाटक में महात्मा गांधी माफिया किंग भैरव प्रसाद को नजर आते हैं। लगे रहो में डॉन मुन्नाभाई को।
-भैरव प्रसाद गांधीजी के आदर्शो का इस्तेमाल चुनाव जीतने में करता है। लगे रहो में मुन्नाभाई सेकंड ईनिंग हाउस को वापस लेने में इसका इस्तेमाल करते हैं।
-नाटक में गांधी जी की अहिंसा नीति से शहर में हुआ उपद्रव शांत होता है। फिल्म में इसी तरह सेकंड इनिंग हाउस वापस प्राप्त किया जाता है।
-नाटक के अंत में गांधीजी कहते हैं -मेरा काम खत्म हुआ, मैं जा रहा हूं, मैं था ही कब? मैं सिर्फ तुम्हारा ख्याल था और ख्याल मर नहीं सकता। फिल्म में भी गांधीजी ठीक इसी तरह जाते हुए दिखाए गए हैं। फिल्म का यह अंत फिल्म का खास मैसेज था। इसे हूबहू महात्मा की वापसी नाटक से उठाया गया है।

न्याय में हम देंगे सहयोग
भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स के संस्थापक गौरव गौतम कहते हैं कि हमने लगे रहो.. देखने के बाद ही अपने इस गांधीगिरी ग्रुप का गठन किया था। यह आश्चर्य की बात है कि ईमानदारी का पाठ सिखाने वाली इस फिल्म का निर्माण ही बेईमानी करके हुआ है। अब हम गांधीगिरी के तरीके से ही आफाक सर को न्याय दिलाने में मदद करेंगे।

नाटक पर आधारित पुस्तक
आफाक अलमास की पुस्तक महात्मा उन्हीं के नाटक महात्मा की वापसी का विस्तृत रूप है। यह पुस्तक उप्र सरकार के संस्थान फखरुद्दीन अली अहमद मैमोरियल कमेटी के आर्थिक सहयोग से 1998 में उर्दू भाषा में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद इस नाटक का पुन: मंचन किया गया।

लंबी चुप्पी के पीछे कई कारण थे
लेखक आफाक कहते हैं कि फिल्म लगे रहो और मेरे नाटक महात्मा की वापसी में आश्चर्यजनक समानता है। यदि कोई फर्क है तो केवल इतना कि ड्रामे की अपनी सीमाएं हैं और फिल्म का फारमेट काफी विस्तृत। इस विवाद पर इतने समय चुप्पी साधे रखने के संबंध में आफाक कहते हैं -सितंबर 2006 में फिल्म लगे रहो.. आई थी, उन दिनों मैं मुंबई में ही स्कि्रप्ट राइटिंग का काम कर रहा था। फिल्म आते ही मैंने विधु विनोद और राजकुमार हिरानी से मिलने की कोशिश की। हर बार मुझे कोई न कोई बहाना बना टाल दिया गया। मैंने एसएमएस भी किया लेकिन जवाब नहीं मिला। उस वक्त मुझे समझ ही नहीं आया क्या करूं। उस दौरान मेरी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ नहीं थी। इसी में लगभग 8-9 माह निकल गए। इसके बाद मैं लखनऊ आया और अपने वकील आदित्य तिवारी की मदद से निर्माता और लेखक दोनों को नोटिस पहुंचाया। उनकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर उन्हें रिमाइंडर भी पहुंचाया। इस बीच मेरी कुछ पर्सनल प्रॉब्लम भी रही, जिनके कारण मुझे अपने इस कदम पीछे लेने पड़े। अब गांधीगिरी से लड़ाई आफाक बताते हैं - अभी आगरा में प्ले मोहब्बत द ताज का निर्देशन कर रहा हूं। इसी में भोपाल के गौरव गौतम भी हैं। गौरव और उनके ग्रुप भोपाल ग्रुप ऑफ गांधी स्टार्स के सदस्यों ने मुझे वापस अपनी लड़ाई लड़ने का हौसला दिया है। अब इस ग्रुप की मदद से गांधीगिरी का तरीका अपना कर हम न्याय की गुहार लगाना चाहते हैं। दूसरों के साथ न हो अन्याय आफाक कहते हैं कि फिल्म को आए काफी समय हो चुका है, लेकिन इससे गुनाह तो कम नहीं हो जाता। वह कहते हैं यह पहली बार नहीं हुआ। क्षेत्रीय भाषा के साहित्य और इनके कांसेप्ट को इसी तरह चुरा लिया जाता है क्योंकि इनका दायरा सीमित होता है। मुझे लगता है यदि ऐसा होता है तो इसके मूल लेखक को इसका कुछ लाभ तो दिया ही जाना चाहिए। मूल लेखक कुछ अभाव और कुछ दबाव के कारण अपनी आवाज भी बुलंद नहीं कर पाते।
(यह ख़बर दैनिक जागरण के भोपाल संस्करण में प्रकाशित हुई है)

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

yeh sach to pori industry ko mallom padnaa chahiye

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आज की दौर में लगभग सभी कहानियाँ, सभी संगीत की धुनें चोरी करी हुए होती है फ़िल्म इंडस्ट्री द्बारा ...........