गिद्धों के पुरखे नजर आयेंगे वे...
जो दूर किया करती थी अलगाव को...
जलाकर राख कर दी उसी नाव को।
उस शख्स से कौन जीतेगा यहाँ...
लगाकर बदल देता है जो दाव को।
देश का संविधान तक परोसा थाल में...
तुम्हीं बताओ और क्या परोसू जनाब को।
झगड़े/दंगा कराने में उस्तादों के उस्ताद हैं...
खून-खराबे में बदल देते हैं तनाव को।
गिद्धों के पुरखे नजर आयेंगे वे...
उतार कर देखो जरा इनकी नकाब को।
धरती रखी है सिर शेष नाग के वे...
सदियों से पढ़ा रहे हैं इसी किताब को।
बारूद से भर दी गई है वो नहर...
जो जाती थी यारो मेरे गांव को।
ठूंस दी धर्म की अफीम कंठों में...
ओंठ तक नही मिलते हैं इन्कलाब को।
आप खामो खां बकने लगे हैं गालियाँ...
मैंने तो रखा है सामने आपके हिसाब को।
कंठमणि बुधौलिया
2 टिप्पणियां:
साधु! साधु! बुधोलियाजी। यह हमारे समय का अभाग्य है कि ऐसी बातों को लोग सराहते तो हैं किन्तु याद नहीं रखते और याद रखते भी हैं तो उन पर अमल नहीं करते। किन्तु कही गई बात न तो व्यर्थ होती है और न ही नष्ट।
ऐसी बातों को लोगों कह जबान पर जगह मिलती ही मिलती है।
फिर से साधुवाद।
बारूद से भर दी गई है वो नहर...
जो जाती थी यारो मेरे गांव को।
बहुत बहुत खूबसूरत बुधोलिया जी.........
सब के सब शेर लाजवाब हैं, सटीक, सार्थक, समयानुसार
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