रविवार, 12 अप्रैल 2009

हृदय से निकला गान


वादियों में ‘सूफी’ की सुगंध
गुरजीत मलिक

सूफीवाद आध्यात्मिक स्तर पर मानव के अंतर्मन में झांकने की एक अवधारणा है। आत्मा की परमात्मा तक पहुंचने की लालसा, उसके लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का वर्णन सूफीवाद का आधार है। सूफीवाद का सिद्धान्त बहुत पुराना है। कश्मीर घाटी में इस सिद्धान्त का प्रादुर्भाव स्वाभाविक ही था, क्योंकि कश्मीर की वादियां, ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और उनकी नीरवता मन की एकाग्रता के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं। कश्मीर प्राकृतिक सौन्दर्य, शान्त वातावरण आत्मचिन्तन के लिए सबसे अच्छा स्थान है।

महान सूफी सन्त ख्वाजा अब्दुल कादिर जीलानी, जिन्हें लोग प्यार और आदर से पीर दस्तगीर साहब बुलाते हैं और अमीर-ए-कबीर, मीर सईद अली हमदानी अरब के जीलान और हमदान शहरों से अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए कश्मीर घाटी में आए थे। यह भी माना जाता है कि सम्राट अशोक जब सत्ता के आडम्बरों और दांव-पेंच से विचलित हो गए थे, तो मन की शान्ति हासिल करने के लिए यहां आए थे। सूफीवाद का सिद्धान्त केवल आध्यात्मिक ऊंचाइयों और मन की शान्ति प्राप्त करने का ही रास्ता नहीं है, बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता की नींव पर आधारित है। जहां सभी मानव एक समान हैं और इसका संबंध मानव के अस्तित्व से है। सूफीवाद हर प्रकार के धार्मिक आडम्बरों, नियमों, जाति-भेद, रंगभेद वगैरह से ऊपर है। इसे किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता। यह तो उस परमात्मा तक पहुंचने का मात्र एक रास्ता है। सूफी औपचारिक पूजा-पाठ या इबादत में यकीन नहीं करते। उनका मानना है कि कोई भी व्यक्ति अपनी आत्मा में झांककर उसे पहचान कर, आध्यात्मिक सुकून हासिल कर सकता है। उसके लिए उसे किसी भी इबादतगाह जाने की जरूरत नहीं है। खुद ईश्वर या वह परमात्मा तो स्वयं मनुष्य के अंदर है। बस उसे पहचानने भर की देर है। जैसा कि कश्मीरी कवयित्री लल देद ने भी कहा है-
‘गोरन दुपनम कुनी वतसुन नेबर दुपनम अंदर आसुन सुई,
लेली में गो वरह ते वासुन
तबी हुतूम नागई नासुन।‘
अर्थात् मेरे परम शक्ति ईश्वर ने मुझे एक ही शिक्षा दी। उसने कहा, बाहर से अंदर जाओ, सब आडम्बर छोड़कर अपनी आत्मा में गहरे पैठ जाओ। बस उसी दिन से मैंने सब कुछ त्याग दिया और निर्वस्त्र घूमने लगी। उनका मानना था कि मनुष्य को अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए किसी आवरण की आवश्यकता नहीं है। एक अन्य सूफी कवि शेख नूर-दीन नूरानी ने अपने विचार कुछ इस तरह प्रगट किए- पूरी जिन्दगी मैं तसबीह फेरता रहा, पर अफसोस! मैं अपने अंदर की बुराइयां दूर नहीं कर सका। अलमदारे कश्मीर को भी सूफीवाद से ही आत्मा का संतोष प्राप्त हुआ- मानवता की सेवा में ही परम सुख है। मोह, माया, लालच, वासना, राग, द्वेष आदि पर काबू पाकर ही हम उस परम शक्ति के निकट पहुंच सकते हैं। अकसर सूफी संत, सूखी घास, पत्ते और सब्जियां खाते थे। उनका मानना है कि जानवरों और पक्षियों को भी इंसानों की तरह जीने का हक है।

तोड़ दिए सारे बंधन
सूफीवाद ने न तो कभी इंसानी भेदभाव में यकीन किया है और न ही इसे बढ़ावा दिया है। इसी वजह से यह बिना किसी धार्मिक और सामाजिक भेदभाव के इंसानों में बराबरी की वकालत करता है। यह एक ऐसा रास्ता दिखाता है, जिस पर हर व्यक्ति शान्ति प्राप्त करने की दिशा में चल सकता है। सूफीवाद का मानना है कि इस ब्रह्माण्ड की रचना और इसमें आदमी का जन्म, भेदभाव के किसी सिद्धान्त के तहत नहीं हुआ है, बल्कि जन्म से मृत्यु तक आदमी एक इंसान ही रहता है, जिस पर किसी मजहब; जाति या नस्ल का ठप्पा नहीं लगा होता। सूफी तो यह भी मानते हैं कि यदि कोई अपनी अंतर्रात्मा को पहचान लेता है तो संगीत, नृत्य और मानवता की सेवा से बढ़कर इबादत का कोई और तरीका नहीं है। वे तो बेहिचक यह भी मानते हैं कि जब तक इंसान अपनी शारीरिक जरूरतों और लालच पर अंकुश नहीं लगाएगा, कोई भी धर्म उसे परमात्मा के नजदीक नहीं ले जा सकता। यही कारण है कि सूफी संत सूखी घास, सूखे पत्ते और सूखी सब्जियां खाते थे। हरी-भरी सब्जियां न खाकर वे यह बताना चाहते थे कि सब्जियों में भी जीवन होता है। सूफी इसे न सिर्फ जानते थे, बल्कि उसका सम्मान भी करते थे। वे यह साबित करना चाहते थे कि जहां पशु-पक्षियों को जिन्दा रहने का अधिकार है, वही आदमी के अस्तित्व के लिए इनका होना भी हवा, पानी और अन्य तत्वों जितना ही महत्वपूर्ण है।

सूफीवाद का सकारात्मक प्रभाव
अगर लोग इस सूफीवादी दर्शन को पूरी तरह अपना लें, तो इंसानी अस्तित्व की सार्वभौमिकता का प्रभाव काफी विस्तृत और सकारात्मक हो जाता है। यह तभी संभव है, जब हम सूफीवादी दर्शन को समझें। सूफीवाद, एक आत्मा की भटकन का लेखा-जोखा है। परमात्मा से मिलने की यात्रा में आत्मा, कई मंजिलों से होकर गुजरती है और हर मंजिल पर उसके हजारों नकाब उतरते जाते हैं। आखिरी मंजिल पर, विषय, वासना और भौतिक तत्वों से वह पूरी तरह मुक्त हो जाती है और तब उसका सामना होता है परमात्मा से।

सूफी के मायने
सूफी शब्द सूफ शब्द से बना है। ‘सूफ’ ऊनी कपड़ा होता है, जिसे फकीर पहनते हैं। यह अपनी इच्छा से गरीब रहने और संसार व सांसारिक सुखों को त्यागने का प्रतीक है। कश्मीरियत, कश्मीरी संस्कृति और रिवाजों की प्रतीक है और यह सूफीवादी दर्शन पर आधारित है। हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचारा कश्मीरियत की बुनियाद है, जो सूफीवाद की ही देन है। कश्मीर घाटी में हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक और सांस्कृतिक समानता, उनके एक जैसे रीति-रिवाज तथा परम्पराएं सूफीवाद से प्रभावित हैं। शायद दुनिया में कश्मीर ही अकेली ऐसी जगह है, जहां श्रद्धालु शाह हमदान की दरगाह, और गुरुद्वारा छटी पादशाही के दर्शन एक साथ करते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक पवित्र अमरनाथ यात्रा का शताब्दियों से मुसलमान ही नेतृत्व करते आए हैं। दरअसल, अमरनाथ में भगवान शिव की पवित्र गुफा की खोज एक मुसलमान चरवाहे, बूटा मलिक ने की थी। तब से लेकर आज तक, चढ़ावे का एक निश्चित हिस्सा मलिक के वंशजों को दिया जाता है।

भाईचारे की मिसाल

हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की इससे बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है कि हर वर्ष लाखों से अधिक तीर्थ-यात्री पवित्र अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के दर्शन करते हैं। स्थानीय निवासी बढ़-चढ़कर इस यात्रा में अपने हिन्दू भाइयों को हर सुख-सुविधा मुहैया कराते हैं। आतंकवाद के चलते ऐसी अनेक घटनाएं सामने आई हैं, जब स्थानीय मुसलमानों और सिख बन्धुओं ने पैसा इकट्ठा करके हिन्दू धार्मिक स्थलों की मरम्मत कराई, जिन्हें कुछ धर्मान्ध लोगों ने नुकसान पहुंचाया था। बारामूला स्थित शिवमंदिर इस सद्भावना की एक जीती-जागती मिसाल है। आज भी उनसे प्राप्त होने वाली आमदनी उन्हें उनके नए निवास स्थानों तक पहुंचा रहे हैं। घाटी का हर व्यक्ति इस आशा में जी रहा है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब उनके बिछुड़े भाई अपने घरों को लौट आएंगे, क्योंकि उनके बिना कश्मीर की संस्कृति अधूरी है, कश्मीरियत अधूरी है। घाटी के सभी पवित्र स्थलों के प्रति हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों में समान श्रद्धा भाव है। सभी धर्मों के लोग दरगाह चिरार-ए-शरीफ, बाबा-ऋषि, अश्मुकाम और घाटी के अन्य पवित्र स्थलों में श्रद्धा से आते हैं। महाशिवरात्रि के दिन घाटी के मुसलमान हिन्दू भाइयों का स्वागत करते हैं, उन्हें अखरोट पेश करते हैं और बदले में हिन्दू अपने मुसलमान भाइयों का स्वागत इलायची और मिश्री से करते हैं।

कश्मीरी संस्कृति
कश्मीरी संस्कृति की सदियों से चली आ रही एकता और विविधता, जिससे घाटी में एक अनोखा सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनता है। इसीलिए 1947 में, जब पूरा देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, तब राष्टÑपिता महात्मा गांधी को यहीं से उम्मीद की एक किरण नजर आई थी। देश का यही एकमात्र हिस्सा ऐसा था, जहां साम्प्रदायिक सद्भाव कायम था, जबकि देश के अन्य हिस्सों में लोग हिंसा की आग में झुलस रहे थे और हजारों लोग बेघर हो रहे थे। घाटी में भी एक ऐसा वक्त आया, जब लगा कि आतंकवाद और साम्प्रदायिकता की आंधी में कहीं कश्मीरियत के पांव ही न उखड़ जाएं। यद्यपि तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडितों को आतंकवाद के कारण घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, फिर भी साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म नहीं हुआ है। कश्मीरियत अभी भी जिन्दा है। यह कहना गलत न होगा कि सूफीवाद एक विचारधारा है और कश्मीरियत उसका फल। जब तक कश्मीरी संस्कृति दुनिया में जिन्दा रहेगी, यह विचारधारा भी मजबूत बनी रहेगी। इसमें कोई हैरत नहीं है कि कश्मीरियत जिन्दा थी, जिन्दा है और हमेशा जिन्दा रहेगी।
साभार: पीपुल्स समाचार, भोपाल

2 टिप्‍पणियां:

मीत ने कहा…

jankari ke liye shukriya...
meet

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत ही अध्यन से बनी हुयी सुन्दर जानकारी दी है आपने अपने ब्लॉग पर...................शुक्रिया