रविवार, 23 अगस्त 2009

अब भी जिंदा है ‘भय का भूत’
यह अत्यंत दिलचस्प बात है कि, एक उपन्यास जो छपने को तैयार था; का क्लाइमेक्स लेखक ने सिर्फ इस वजह से बदल दिया, क्योंकि एक युवक को वह अधूरा-सा लगा था। ‘मुहिम’ शीर्षक से प्रकाशित होने जा रहे इस उपन्यास में वर्षों चंबल घाटी में आतंक बरपाते रहे गड़रिया गिरोह के खौफ की कहानी बयां की गई है। उपन्यास के लेखक राजनारायण बोहरे पिछले दिनों भोपाल में थे। क्यों बदला गया उपन्यास का क्लाइमेक्स? एक रोचक प्रसंग...

अमिताभ फरोग
पिछले एक दशक से ग्वालियर, शिवपुरी, दतिया और श्योपुर जिले में आतंक बरपाने वाले डकैत बंधु दयाराम-रामबाबू गड़रिया हकीकत में भले ही मारे जा चुके हों, लेकिन ग्रामीण अंचलों में उनका खौफ अभी भी जिंदा है। दरअसल, गड़रिया गैंग एक उपन्यास ‘मुहिम’ का मुख्य पात्र बनकर सामने आ रहा है। गड़रिया के कर्म-कुकर्म स्थल, उनके अत्याचार का ग्रास बने ग्रामीणों और पकड़ पर केंद्रित ‘मुहिम’ को दिल्ली का एक प्रकाशन मार्केट में उतारने जा रहा है।
राजनारायण बोहरे प्रदेश के उन नामचीन कहानीकारों में शुमार हैं, जिन्होंने ग्रामीण परिवेश की जीवनशैली, विसंगतियों और खूबियों पर खूब कलम चलाई है। ‘मुहिम’ इनमें सबसे हटकर की गई कोशिश है, जो ‘चंबल घाटी’ में ‘भय के भूत’ की कहानी बयां करता है। दरअसल, इस इलाके में छुटपुट बदमाश/लुटेरे डकैतों के मारे जाने के बाद भी ग्रामीणों में उनका भय बनाए रखते हैं। ‘भय का यह भूत’ गड़रिया गैंग के रूप में आज भी जिंदा है। अक्टूबर, 2004 में ग्वालियर जिले के भंवरपुरा गांव में दर्जनभर गुर्जरों को मौत के घाट उतारकर मीडिया की सुर्खियों में आया गड़रिया गैंग मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द बना हुआ था। इसे शिवपुरी के जंगलों में एक मुठभेड़ के दौरान मार दिया गया था।
इसलिए बदला क्लामेक्स :
लेखक के मुताबिक, ‘पिछले साल एक कार्यक्रम के सिलसिले में भोपाल आना हुआ था। मेरे पास मुहिम की पांडुलिपी थी, जिसे प्रूफ करके पब्लिशर्स को भेजना था। अचानक मेरे दिमाग में विचार आया, क्यों न यह पांडुलिपी किसी को पढ़वाई जाए, ताकि ज्ञात हो सके कि उपन्यास कहीं अधूरा-सा प्रतीत तो नहीं हो रहा? मैंने उसे एक युवक को पढ़ने को दिया। उसके मुताबिक क्लामेक्स जंच नहीं रहा था। बस, मैंने क्लामेक्स बदल डालने का मूड बना लिया।’ कहानी संग्रह ‘गोष्टा तथा अन्य कहानियां’ के लिए प्रदेश का ‘साहित्य अकादमी 2001-02’और ‘वागीश्वरी-2003’ सम्मान से नवाजे जा चुके श्री बोहरे खुलासा करते हैं-‘दरअसल, पहले मुहिम का क्लाइमेक्स एक महिला पात्र केतकी की हत्या से होता है, जिसे गड़रिया बंधुओं ने अपह्रत किया था। पिछले कुछ साल पहले शिवपुरी के जंगलों में हुई मुठभेड़ के दौरान पुलिस ने दयाराम गड़रिया को मार गिराया था, लेकिन छोटे-मोटे अपराधी उसका खौफ आज भी भुना रहे हैं। नए क्लाइमेक्स में इसी सच को बयां किया गया है, ताकि लोगों को असलियत पता चल सके। वे भय के भूत से खुद को उबार सकें। ’
‘मुहिम’ में एक सनसनीखेज खुलासा किया गया है कि दयाराम के परिजनों ने उसकी तेरहवीं तक नहीं की। उन्हें भरोसा है कि दयाराम जिंदा है। लेखक संशय जाहिर करते हैं-‘हो सकता है कि उनके मन में कोई बदले की आग सुलग रही हो?’ गड़रिया को जीवित रखने का उद्देश्य? लेखक के अनुसार,‘कोई भी डर दिल से तभी निकलता है, जब हमारे भीतर हौसला जन्मे। दयाराम बेशक मारा जा चुका हो, लेकिन यहां के ग्रामीण अंचलों में अभी भी दहशत कायम है। जरूरत इसके निर्मूलन की है।’
यूं शुरू हुई ‘मुहिम’ :
पेशे से सेल्स टैक्स इंस्पेक्टर श्री बोहरे कुछ साल पहले मुरैना में पदस्थ थे। वहां कलेक्ट्रेट में अकसर उन्हें दो व्यक्ति हैरान-परेशान हाल में अफसरों के चक्कर काटते मिल जाते थे। पूछने पर पता चला कि उनमें से एक घोघा (श्योपुर) का पटवारी और दूसरा टीचर था। इन्हें गड़रिया गैंग ने अपह्रत किया था। 2001 में मुक्त होने के बाद दोनों मुरैना अपना ट्रांसफर चाहते थे, क्योंकि डकैतों का डर उनके अंदर तक बैठ गया था। दरअसल, इनकी गवाही पर ही गड़रिया बंधुओं को जेल हुई थी। श्री बोहरे के मुताबिक,‘उस वक्त मुरैना में प्रदीप खरे कलेक्टर थे। वे दतिया से तबादला होकर आए थे, इसलिए उनसे अच्छा मेल-मिलाप था। उन्हें भी लगा कि गड़रिया के खौफ के विरुद्ध ग्रामीणों में हौसला पैदा करना चाहिए।’
‘मुहिम’ का कार्यक्षेत्र :
इस उपन्यास में शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, मुरैना, भिंड जिले के ग्रामीण अंचलों को मुख्य आधार बनाया गया है। दयाराम हरसी गांव (ग्वालियर)में पैदा हुआ था। ‘मुहिम’ डकैत प्रभावित ग्रामीण अंचलों में भी सार्थक साबित हो सके, इसलिए इसकी भाषा में हिंदी के अलावा भदावरी(भिंड, मुरैना और श्योपुर) के अलाव पंचमहली(डबरा, भितरवार और हरसी) बोली का पुट दिया गया है। हालांकि इसमें पात्रों के नाम जरूर बदले गए हैं। जैसे-दयाराम को कृपाराम और रामबाबू को श्यामबाबू नाम दिया गया है। वहीं उनकी जाति गड़रिया के बजाय घोसी बताई गई है। लेखक स्पष्ट करते हैं-‘यथार्थ में कल्पनाओं का रंग भरना जरूरी है, ताकि लोग इसे रुचि लेकर पढ़ें और मुहिम अपने मकसद में कामयाब हो सके।’

‘फिल्मकारों और लेखकों के लिए ‘चंबल घाटी’ उर्वरा-कार्यस्थली रही है। यहां के डकैतों पर दर्जनों सफल फिल्में बनीं और किताबें-उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। ‘मुहिम’ खौफ की इसी बानगी का नया संस्करण है। इसमें डकैतों का महिमा मंडन नहीं, बल्कि पीड़ितों की व्यथा का बखान है। मकसद दस्यु प्रभावित ग्रामीण अंचलों में खौफ के विरुद्ध खड़े हो उठने का साहस पैदा करना है।’
राजनारायण बोहरे
‘मुहिम’ के लेखक

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