सोमवार, 5 अक्तूबर 2009
मैं अपने अभिनय को खुद के मापदंड पर परखता हूं
अमिताभ फरोग
मनोज वाजपेयी; एक ऐसा नाम हैं, जिनका अभिनय सिनेप्रेमियों के मस्तिष्क पर स्थायी छाप छोड़ जाता है-वे मानते हैं कि; ज्यादातर अच्छी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पैसा नहीं बंटोर पातीं, जबकि वे सिनेमाई संस्कृति के लिहाज से श्रेष्ठ कही जा सकती हैं। उनका इशारा ‘1971’ की ओर था, जिसे हाल में बेस्ट फीचर फिल्म का ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला है। ‘राजनीति’ में महत्वपूर्ण किरदार निभा रहे मनोज पीपुल्स समाचार ’ से मुखातिब थे...
मनोज वाजपेयी शब्दों की जुगाली किए बगैर दो टूक कहते हैं-‘जो फिल्में आत्मसंतुष्टि देती हैं, सिनेमा की धारा बदलती हैं, वे फिल्में हिट नहीं हो पातीं। जब कोई मुझसे पिंजर की बात करता है, स्वामी पर चर्चा छेड़ता है या 1971 में मेरे अभिनय को याद रखता है; तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। भले ही पिंजर नहीं चली, तमन्ना, जुबैदा पैसा नहीं कमा सकीं; लेकिन वे अच्छी फिल्में थीं। अक्स नहीं चली, लेकिन उसे क्लासिकल सिनेमा की श्रेणी में रखा गया।’
‘अक्स’ में बिग-बी के आगे ‘कद्दावर’ साबित होने के टेढ़े प्रश्न पर वे सुलझे शब्द ‘यूज’ करते हैं-‘अमिताभ बच्चन बहुत गुणी अभिनेता हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलेवरी; सबकुछ अनुकरणीय है। मैं फिल्म इंडस्ट्री से सिर्फ दो अभिनेताओं अमिताभ और दिलीप कुमार का जिक्र करना चाहूंगा, जिनसे हमने बहुत कुछ सीखा है।’
अपने डेढ़ दशक के फिल्मी करियर से संतुष्ट श्री मनोज अपना दृष्टिकोण सामने रखते हैं-‘मैंने अच्छा अभिनय किया या नहीं; यह मैं अपने मापदंड पर परखता हूं। यदि कोई अभिनेता अपनी दृष्टि में संतुष्ट है, तो यही उसका सम्मान है। कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों कमाए या घटिया साबित हो जाए, यह कोई कसौटी नहीं होती कि; मैंने अच्छा काम किया या नहीं! हालांकि मैं फिल्में चलने के लिए नहीं करता। फिर भी उनका चलना इसलिए आवश्यक है क्योंकि; उनसे प्रोड्यूसर की कमाई होती है और मुझे काम मिलता है।’
मनोजजी खुद के मूल्यांकन का निचोड़ पेश करते हैं-‘कुछ फिल्में अच्छी बनती हैं, कुछ बुरी या कुछ अच्छी नहीं बन पातीं; यह और बात है, लेकिन मैं हर तरह की भूमिकाओं के लिए जाना जाता हूं।’ ‘जुगाड़’ जैसी फिल्म पर वे दो टूक कहते हैं-‘मैं हिट नहीं; अच्छी फिल्मों के लिए पहचाना जाता हूं। ऐसी मिस्टेक कम ही होती हैं। 15 साल के करियर में मैं दो राष्ट्रीय पुरस्कार ले चुका हूं, दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए और क्या चाहिए?’
आलोचकों के मापदंड पर खरी नहीं उतरी ‘मनी है तो हनी है’ को लेकर मनोजजी ‘खरे शब्दों’ का वाक्य विन्यास संजोते हैं-‘मैं गोविंदाजी के साथ काम करना चाहता था। मैं खुद को उनके सामने परखना चाहता था। मैं मानता हूं कि; मेरे अभिनय ने निराश नहीं किया।’
‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ में सिलेक्शन न हो पाना आज भी इस ‘मझे अभिनेता’ के भीतर टीस बनकर मौजूद है-‘उस वक्त एनएसडी को लेकर ठीक वैसा जुनून था, जैसा एक फिल्म अभिनेता बनने को लेकर होता है। वह मेरी एक ऐसी चाहत थी, जो अधूरी रह गई।’
भोपाल में ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ की संभावनाओं पर मनोज स्वीकृति की मुहर लगाते हैं-‘देश में टैलेंट की कोई कमी नहीं है। अगर नहीं हैं, तो अच्छे संस्थान और सही व्यक्ति; जो उनका ठीक मार्गदर्शन कर सकें। भोपाल सक्षम है। यदि यहां एनएसडी आए, तो इससे अच्छी बात और क्या होगी! ऐसे विद्यालय तो हर प्रांत में होना चाहिए।’
‘सत्या’ के भीकू म्हात्रे का जिक्र छेड़ते ही वे दार्शनिक अंदाज में बोलते हैं-‘सत्या एक ही बनती है। शोले और दीवार भी एक ही बनती है। मनोज बाजपेयी सरीखे अभिनेता और आ जाएंगे, कुछ और फिल्में बनेंगी; लेकिन इन जैसी लैंडमार्क फिल्में दुबारा नहीं बन सकतीं।’
भोपाल में फिल्म प्रोडक्शन की बढ़ती संभावनाओं पर मनोजजी प्रशंसकीय लहजे में कहते हैं-‘निश्चय ही यह भोपाल के लिए एक कॉम्पलीमेंट है। प्रोड्यूसर/डायरेक्टर भोपाल को शूटिंग के लिहाज से सुरक्षित मान रहे हैं। अगर वो बोल रहे हैं कि; यहां के लोग सहयोगी हैं, अच्छे हैं, तो इससे बड़ी प्रशंसा और क्या होगी!’
अक्टूबर में रिलीज होने जा रही ‘एसिड फैक्ट्री’ को लेकर मनोजजी उत्साहित हैं-‘काफी उम्मीदें हैं। बहुत अच्छी फिल्म बनी है। यह मेरे लिए एक नया प्रयोग है।’
‘ब्लॉग’ लेखन के सवाल पर मनोज खुलासा करते हैं-‘अभी कम्प्यूटर फ्रैंडली नहीं हूं। टाइप भी ठीक से नहीं आती, इसलिए जब भी वक्त मिलता है, किसी से डिक्टेड करात हूं और फिर उसे ब्लॉग पर पोस्ट करता हूं।’
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