सोमवार, 28 सितंबर 2009

हिंदी फिल्मों में करोड़ों रुपए खपा रहे बिल्डर्स और नेता




भोपाली अमीरों का फिल्मी दांव
अमिताभ फरोग
आखिर प्रकाश झा ‘राजनीति’ लेकर भोपाल ही क्यों आए? झा ही क्यों; ‘मकबूल’ फेम विशाल भारद्वाज ‘प्रॉवोक्ड’ फेम जग मूंदड़ा, ‘कांटे’ फेम संजय गुप्ता और अब; आमिर खान भोपाल में फिल्म बनाने को लेकर इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे हैं? फिल्म प्रोडक्शंस से जुडेÞ विश्वस्त सूत्रों की मानें तो; पूंजी निवेश के हिसाब से बॉलीवुड यहां के बिल्डर्स और नेताओं के लिए सबसे चोखा धंधा साबित हो रहा है।

राजकपूर के दौर से हिंदी फिल्मों में भोपाल का पैसा लगता रहा है, लेकिन पिछले एक दशक में पैसे का गणित लाखों से करोड़ों में पहुंच गया है। इन दिनों प्रकाश झा भोपाल में ‘राजनीति’ शूट कर रहे हैं। इस प्रोडक्शन से जुड़े एक सूत्र के मुताबिक,‘प्रकाश झा की भोपाल में आवाजाही पांच-छह साल के दौरान ज्यादा बढ़ी है। राजनीति भोपाल में ही क्यों शूट हो रही है? वो भी तब; जब मल्टीस्टारर फिल्म होने से यहां उसकी प्रोडक्शन कास्ट 10 से 15 प्रतिशत बढ़ गई है? दरअसल, इसमें भोपाल के कुछ लोगों का खासा पैसा लगा होने का अनुमान है।’
हाल में प्रकाश झा ने फिल्म के कलाकारों को मीडिया से मुखातिब कराया था, तब फिल्म के पटकथा लेखक अंजुम रजब अली ने खुलासा किया था कि; श्री झा कुछ साल पहले एक गवर्नमेंट प्रोजेक्ट(डाक्यूमेंट्री फिल्म) के सिलसिले में भोपाल आए थे। उसी दौरान उन्होंने राजनीति की शूटिंग के लिए भोपाल को फाइनल कर दिया था।
पिछले दिनों एक युवा निर्देशक मंगल फौजी भी एक फिल्म प्रोजेक्ट को लेकर कुछ मंत्रियों से मिले थे। यह फिल्म ‘सरकार की उपलब्धियों का डाक्यूमेंटेशन’ से अधिक कुछ नहीं है। सूत्रों के मुताबिक फाइनेंस की उम्मीद में नेताओं और उनके करीबी बिल्डर्स तक पैठ/पहुंच बनाने का यही सबसे सरल और उचित रास्ता होता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े फिल्म निर्देशक लो बजट के सरकारी प्रोजेक्ट को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं।
हिंदी फिल्म ‘वाइफ है, तो लाइफ है’ और भोजपुरी फिल्म ‘दूल्हा बाबू’ के निर्माता/ निर्देशक भोपालवासी वीरेंद्र राठौर मानते हैं-‘चैनलों की भरमार होने से सेटेलाइट राइट्स भी लाखों/करोड़ों रुपए में बिक जाते हैं। अब तो 90 प्रतिशत फिल्में थोड़ा-बहुत ही सही; मुनाफा कमा ही लेती हैं।’ वीरेंद्र अक्टूबर में एक भोजपुरी अलबम शूट करने भोपाल आ रहे हैं, जिसमें भी भोपाल से ही पैसा जुटाया गया है।
पिछले दिनों ‘ओशो महोत्सव’ में फिल्ममेकर विशाल भारद्वाज सपत्नीक(गेंदा फूल फेम-रेखा भारद्वाज) शरीक हुए थे। विशाल भोपाल को अपना दूसरा घर मानते हैं? वजह; उनके करीब बताते हैं-‘विशाल की फिल्मों को भोपाल से फाइनेंसर मिलते रहे हैं।’ संभव है कि ओशो महोत्सव सिर्फ एक बहाना था, उनका ‘ध्यान’ तो अपने अगले प्रोजेक्ट के लिए फाइनेंसर ढूंढना रहा होगा! बताया जाता है कि विशाल की ‘मकबूल’ को भी भोपाल के किसी बिल्डर ने फाइनेंस किया था। इसमें एक शर्त रखी गई थी कि; फिल्म यहीं शूट होनी चाहिए।’
चर्चित निर्देशक संजय गुप्ता की ‘कांटे’, जगदीप की ‘सूरमा भोपाली’, राजश्री प्रोडक्शन की ‘एक विवाह ऐसा भी’ और ग्रेवी ग्रेवाल निर्देशित ‘कुशर प्रसाद का भूत’ जैसी तमाम फिल्मों में भोपाल से पैसा लगाया गया है। उल्लेखनीय है कि ‘कांटे’ के एक प्रोड्यूसर मशहूर पत्रकार प्रीतिश नंदी भी थे, जिनकी गहरी राजनीतिक पैठ है। वहीं ‘एक विवाह...’ में म्यूजिक रविंद्र जैन ने दिया है। श्री जैन प्रदेश सरकार में खासा दखल रखते हैं। उन्होंने यहां ‘संगीत अकादमी’ की स्थापना की है।
‘कुशर प्रसाद...’ में अभिनय कर रहे पंकज त्रिपाठी कहते हैं-‘फिल्म निर्माण एक ऐसा बिजनेस है, जिसमें अब नुकसान की आशंका न के बराबर रह गई है।’
‘प्रॉवोक्ड’ फेम जग मूंदड़ा, ‘फैशन’ फेम मधुर भंडारकर की भोपाल से निकटता का एक कारण ‘पैसा’ है। ‘छोटी-सी बात’,‘खट्टा मीठा’ जैसी दर्जनों विशुद्ध पारिवारिक हास्य फिल्में बनाने वाले ख्यात निर्देशक वासु चटर्जी को सीहोर के एक फाइनेंसर ने ऑफ़र किया है। श्री चटर्जी के संग ‘बांछा का बगीचा’ नामक फिल्म का निर्माण करने जा रहे वीरेंद्र राठौर कहते हैं-‘फिल्मों में पैसा लगाना अच्छा सौदा है, लेकिन भोपाल के फाइनेंसर्स को कुछ साल पहले तक कड़वे अनुभव ही रहे हैं। दरअसल, वे ऐसे प्रोडक्शन हाउसेस या निर्देशकों पर दांव खेल जाते हैं; जो सिर्फ अपना हित देखते हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों के दौरान भोपाल के फाइनेंसर मुनाफा ही कमा रहे हैं।’ इन दिनों सब टेलीविजन पर प्रसारित हो रहे कॉमेडी सीरियल ‘ये चंदा कानून है’ के प्रोड्यूसर तुषीर और राजाराम पाटीदार भी भोपाल के हैं।
लीडर सबसे आगे
मुंबई को सालाना करीब 50 करोड़ रुपए पहुंच रहा है। इसमें 50 प्रतिशत नेताओं का पैसा है। दूसरे नंबर पर बिल्डर्स आते हैं। विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के एक मंत्री ने मुंबई के अंधेरी स्थित एक ‘प्रोडक्शन हाउस’ में पैसा लगाया है। वहीं कांग्रेस सरकार के मंत्रीमंडल में शामिल रहे एक नेता का बेटा बतौर हीरो एक फिल्म में आने वाला है। यह ठीक रामविलास पासवान जैसी स्थिति है। श्री पासवान के बेटे की भी बतौर हीरो एक फिल्म आ
रही है।
अफसर भी हैं मीडिएटर
निर्देशकों और नेताओं/बिल्डर्स के बीच मध्यस्थता निभाने में भोपाल के कुछ सिनेमा मालिकों के अलावा सरकारी अफसर भी मीडियेटर की भूमिका निभा रहे हैं। गौरतलब है फिल्म के कई महत्वपूर्ण संस्थानों जैसे-पूना फिल्म इंस्टीट्यूट, चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी और सेंसर बोर्ड में भोपाल से जुड़े ‘शख्स/आईएएस/आईपीएस’ महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए हैं। कुछ महीने पहले यहां के एक बिल्डर्स ने भोपाल में ‘फिल्म स्टूडियो’ के निर्माण में रुचि दिखाते हुए फिल्म विधा से जुड़े कुछ लोगों से मीटिंग भी की थी।
यहां डूब गया पैसा
करीब 6 साल पहले भोपाल में सीरियल निर्माण करने आए फिल्म निर्माता आनंद महेंद्रू ने अपने तीन प्रोजेक्ट के लिए भोपाल से पैसा उठाया था। हालांकि बाद में यह पैसा फंस गया। ऐसी ही स्थिति मोहन चोटी की एक फिल्म को लेकर हुई थी। इसके लिए कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री ने मोहन चोटी को 5 लाख रुपए दिलाए थे, जिनमें से बमुश्किल 3 लाख ही वसूल हो पाए। करिश्मा कपूर की एक फिल्म भी इसका एक उदाहरण है। यह फिल्म बन ही नहीं पाई। इन खट्टे-कड़वे अनुभवों से सबक सीखते हुए भोपाल के फानेंसर अब मीडियेटर की हेल्प लेने लगे हैं।

भोपाल से किसका कितना पैसा


नेता 50% बिल्डर्स 30% उद्योगपति 20%
(फिल्म प्रोडक्शन में उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों से चर्चा के आधार पर। कई लोग फिल्म निर्देशकों/निर्माताओं को ब्याज पर पैसा देते हैं।)

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