बुधवार, 2 सितंबर 2009


लोग ‘जड़’ और ‘चेतना’ में अंतर भूल गए हैं
अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
जाने-माने फिल्म अभिनेता सुरेश ओबेराय प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु में बुरे परिवर्तन के लिए लोगों को ही दोषी मानते हैं। एक निजी कार्यक्रम के सिलसिले में भोपाल आए श्री ओबेराय ने तल्ख लहजे में कहा कि; ‘बात प्रकृति की हो या किसी अन्य विषय की, लोग तहजीब भूल चुके हैं।’ ‘सिनेमाई चर्चा’ से इतर श्री ओबेराय प्रकृति और लोगों की सोच में आए दूषित बदलावों पर खुलकर बोले...

करीब 150 फिल्मों में अभिनय कर चुके सुरेश ओबेराय कड़े लहजे में कहते हैं-‘सूखा क्यों पड़ रहा? मानसून में गड़बड़ी की क्या वजह है? यह कोई समझना नहीं चाहता। दरअसल, यह प्रकृति का संकेत है-कि इंसानों सुधर जाओ! संकट ग्लोबल वार्किंग का हो या पर्यावरण असुंतलन का; आवश्यकता लोगों को अपना दिमाग ठिकाने लाने की है। जब तक हमारी सोच नहीं बदलेगी, तब तक प्रकृति अपने गुस्से का इजहार करती रहेगी। लोग ‘प्यार’ शब्द का आशय भूल चुके हैं। प्यार धरती भी मांगती है और जंगल-जानवर भी।’ वे खुलकर बोलते हैं-‘यह हमें ही समझना होगा कि ईको-फ्रैंडली कैसे रहना है? चिंताजनक बात यह है कि लोग अनुशासन में रहना ही नहीं चाहते। जो लकड़ी पलंग बनाने से लेकर अंतिम क्रिया तक में काम आती है, आज हम उसका महत्व नहीं समझते। हम जड़ और चेतना में अंतर बिसरा चुके हैं। पेड़ काटे तो खूब जा रहे, लेकिन लगाने के नाम पर लोग पल्ला झाड़ लेते हैं।’
80 के दशक में अपना फिल्मी सफर शुरू करने वाले श्री ओबेराय ‘वास्तुशास्त्र’ को ठीक से परिभाषित करते हैं-‘वास्तु का मतलब सिर्फ मकानों का ठीक से निर्माणभर नहीं होता। इसका आशय हमारी विनम्रता से भी जुड़ा होता है। हमने प्रकृति/धरती से क्या लिया और उसे क्या दिया? यह भी वास्तु का एक हिस्सा है। पहले के लोग अगर फूल भी तोड़ते थे, तो प्रकृति से क्षमा मांगते थे या उस पेड़ की रक्षा/पालने-पोसने का संकल्प लेते थे। आज स्थिति यह है कि हम प्रकृति से चाहते तो बहुत हैं, लेकिन जब बात कर्ज उतारने की आती है; तो मुंह फेर लेते हैं।’
वर्ष, 1981 में आई फिल्म ‘लावारिस’ में अपने सशक्त अभिनय के बूते अमिताभ बच्चन को भी पीछे छोड़ देने वाले सुरेश ओबेराय समझाइश देते हैं-‘अगर हम न चेते, तो ग्लोबल वार्किंग बढ़ती जाएगी, गंगा जैसी नदियां सूख जाएंगी; फिर बैठे रहना हाथ पे हाथ धरे!’ देश में सूखे के संकट पर उन्होंने स्पष्ट कहा-‘सूखे का सीधा मतलब है, प्रकृति आपसे नाराज है। धरती आपको पुकार रही है, आपको आपकी गलतियों के लिए चेता रही है। अगर हम फिर भी न चेते; तो भविष्य में स्थिति और बिगड़ेगी।’
पर्यावरण असंतुलन से चिंतित श्री ओबेराय बताते हैं-‘मैंने अपने फार्महाउस में करीब 400 पौधे रोपे थे, जो अब काफी बड़े हो गए हैं।’ भोपाल के प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत दिखे श्री ओबेराय खुशी जताते हैं-‘मैं देशभर में घूमता रहता हूं, भोपाल प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यहां चारों ओर हरियाली देखने को मिलती है। यहां साफ-सफाई भी बहुत है।’ राजधानी में पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर श्री ओबेराय कहते हैं-‘मैं इस शहर को हरा-भरा बनाने में अपना योगदान देने को तैयार हूं। कोई मुझे बुलाएगा; तो मैं अवश्य आऊंगा, लेकिन यह कार्यक्रम राजनीति से प्रेरित नहीं होना चाहिए। मुझे एनजीओ या राजनीतिक आयोजनों में कोई दिलचस्पी नहीं है।’

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