रविवार, 22 नवंबर 2009

दयाशंकर पांडे(अभिनेता)


मैं लाउड एक्टिंग में बिलीव नहीं करता
अमिताभ फरोग
आशुतोष गोवारीकर और प्रकाश झा! दोनों विपरीत वैचारिक-धाराओं में बहने वाले निर्देशक। इनकी कार्य-निर्देशकीय शैली की कसौटी पर ‘खरा उतरना’ अत्यंत ‘टेढ़ी खीर’ माना जाता है। दयाशंकर पांडे; साधारण शक्ल-सूरत के ऐसे असाधारण क्रियेटिव पर्सन/अभिनेता हैं, जो इन दोनों के प्रिय पात्र हैं। यदि इन निर्देशकों के पास उनके लायक कोई रोल न भी हो; तब भी उन्हें इनकी फिल्मों में ‘थैंक्स क्रेडिट’ अवश्य मिलता है। ‘जोधा-अकबर’ इसका सशक्त उदाहरण है। सिनेमा के थोड़े सांस्कृतिक और वैचारिक पहलुओं पर उनसे गुफ्तगू...
प्रकाश झा और आशुतोष गोवारीकर को कैसे विश्लेषित करेंगे? इस सवाल पर दयाशंकर शब्दों को तौलने-परखने के बाद उन्हें विचारों में विन्यासित करते हैं-‘भाईजी(प्रकाश झा) के साथ यह मेरी तीसरी फिल्म है। गंगाजल और अपहरण में भी उनकी निर्देशकीय शैली करीब से देखी है। वे एक अनुभवी शिक्षक-सा बर्ताव करते हैं। उनकी लेखनशैली और निर्देशकीय समझ इतनी सधी हुई होती है कि; बस एक साधारण-सा अभिनेता भी एक बार ठीक से/मन से संवाद पढ़ ले, तो वह असाधारण अभिनय की छाप छोड़ जाता है। वे त्रुटियों पर डांटते भी हैं, तो सम्मान भी खूब देते हैं। आशु अत्यंत अनुशासनबद्ध निर्देशक हैं। उनकी कार्यशैली में कड़क मिजाज झलकता है। शायद यही कारण है कि मीडिया में उनकी छवि नकारात्मक चली गई है। मेरी और उनकी शुरुआत एक ही फिल्म-पहला नशा से हुई है। वो मेरे अच्छे दोस्त भी हैं।’
बनारसी बाबू दयाशंकर अभिनय की बारीकियों को अपने नजरिये से पेश करते हैं-‘मैं तो सिर्फ इतना मानता हूं कि; आप जो भी किरदार निभाएं, यदि उसमें आपका आत्मिक समर्पण है; तो दर्शक उसे सदैव याद रखेंगे। लगान, स्वदेश, गंगाजल, अपहरण, दिल्ली-6 और धर्म; में लोग मुझे नहीं, मेरे किरदार को याद करते/रखते हैं। मैंने अपने अभिनय में 100 परसेंट आउटपुट देने की कोशिश की। कितना सफल रहा; यह तो नहीं मालूम, लेकिन लोग मुझे जानते हैं-यही मेरी खुशी है।’
हालिया रिलीज फिल्म-‘व्हाट्स योर राशि’ में अपनी छाप छोड़ने वाले दयाशंकर खुद क्या हैं? इस सवाल पर उनके हाव-भाव नैसर्गिक हो उठते हैं-‘मेरा बेसिक नेचर ह्यूमर है। मेरा मानना है कि अगर आदमी में अच्छा सेंस ऑफ़ ह्यूमर हो, तो उसकी तमाम कमियां/पाप दूर हो जाते हैं। हां, इसके लिए नॉलेज भी आवश्यक है। वर्षों पहले के मेरे मित्र आज तक मुझसे जुड़े हुए हैं, तो यह मेरे बेसिक नेचर के कारण है। आपने लगान देखी होगी, मेरा कैरेक्टर सीरियस था, लेकिन उसकी बॉलिंग करने की स्टाइल में भी एक ह्यूमर टच था। यह और बात है कि मेरे हिस्से में गंभीर किरदार अधिक आए। हां, यह भी सच है कि मैं लाउड कॉमेडी/एक्टिंग में बिलीव नहीं करता। आप धर्म देखिए, वेलकम टू सज्जनपुर, माय नेम इज अंथानी गोंसालविस या एक अजनबी का विश्लेषण करिए; मैं कहीं भी लाउड नहीं दिखा, फिर भी मेरा किरदार उभर कर सामने आया।’
दयाशंकर की संतुष्टि? इस प्रश्न पर वे कभी भावुक, कभी दार्शनिक तो अगले पल दार्शनिक लहजे में जवाब देते वक्त कई सवाल छोड़ते हैं-‘संतुष्टि कब किसको मिली है? लोग अपनी बड़ी छवि गढ़ लेते हैं-मैं ऐसा बनूंगा; वैसा करूंगा! सपने मुट्ठीभर लोगों के ही साकार हो पाते हैं, लेकिन वे भी संतुष्ट नहीं मिलेंगे। मैं तो अपने सपने से अभी बहुत दूर हूं। सदैव अच्छे किरदार की तलाश रहती है, पर जो भी काम मिलता है; उसे पूरी ईमानदारी-समर्पण से बेहतर करने का प्रयास करता हूं। अच्छा अभिनय करूंगा, तभी निर्माता/निर्देशक मुझे बुलाएंगे; दर्शक याद रखेंगे। आपके वर्क में कोई करप्शन नहीं आना चाहिए। आप जो भी वर्क करो, अगर दर्शक उसे 25-50 साल बाद भी याद रखते हैं, तभी माना जाएगा कि आपकी कार्यशैली प्योर थी।’
दयाशंकर ‘कर्म और धर्म’ दोनों में अटूट आस्था रखते हैं। वे विशुद्ध आध्यात्मिक वाक्य शैली में संवाद करते हैं-‘ मैं इन दिनों एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित मायथालॉजिकल क्लासिक महिमा शनिदेव की...मैं शनिदेव का किरदार कर रहा हूं। इसलिए यह बात नहीं कह रहा? दरअसल, सच यही है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है-देर-सवेर ही सही। शनिदेव की भूमिका करते वक्त मुझे खुद ऐसी अनुभूति हुई है। यह टेलीविजन की दुनिया में एक मात्र पुरुष प्रधान सीरियल है। इसमें शनिदेव एक शिक्षक-सा व्यवहार करते हैं। वे बताते हैं कि अगर आपने पाप किया है, तो सजा अवश्य भुगतनी होगी।’
ठेठ बनारसी अंदाज में पान चबाने के शौकीन दयाशंकर कहते हैं-‘पान छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं।’ दयाशंकर एक गुजराती प्ले भी करने जा रहे हैं। यह ख्यात शायर मरीज पर आधारित है। मरीज को गुजरात का गालिब कहा जाता था। दयाशंकर इसमें सहादत हसन मंटो का किरदार निभाने जा रहे हैं।
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-गांधी फिल्म का एक संवाद मेरा मूल मंत्र है-‘लगातार झूठ की जीत होती है, तो यह मत मानना कि सच हार गया।’ -‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की क्रियेटिव टीम से जुड़ना एक अलग ही अनुभूति है। इसके निर्माता आसित मोदी मेरे कॉलेज टाइम के मित्र हैं। यह संयुक्त प्रयासों का नतीजा है कि तारक... खूब पसंद किया जा रहा है। इसमें हमने नेचुरल कॉमेडी लाने पर जोर/ध्यान दिया है।

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

achha lekh hai .....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

AAPKI BAAT CHEET ACHHEE LAGI ... KAI NAYE PAHLUON KI JAANKAARI MILI ..