शनिवार, 25 अप्रैल 2009

अरूंधति राय, लेखिका,मानवाधिकार कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट जो दो दिन पहले छत्तीसगढ़ आईं थी

अरुंधती रॉय के नाम एक छत्तीसगढ़िया का ख़त

प्रति,
आदरणीया,
आप 2007 में रायपुर आईं थी। जब छत्तीसगढ़ सरकार ने राजधानी रायपुर में एक "मानवाधिकार कार्यकर्ता" को नक्सलियों को मदद पहुंचाने व उनसे संपर्क रखने का आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया तो आप सबने रायपुर आकर यहां की भूमि को धन्य किया इसके लिए आप सबका आभार।
आप अभी दो दिन पहले भी रायपुर आईं और सही कहा कि हर लेखक को समाज सेवा करना चाहिये,और इस मुल्क मे जो भी चल रहा है उस पर लिखा जाना चाहिए।पत्रकारो को भी लिखना चाहिए।
यह तो सही बात कही आपने, पर एक बात, क्या बहते निर्दोष खून के खिलाफ लेखक को आवाज नहीं उठानी चाहिए? आप या आपके साथी कार्यकर्ता जो अक्सर रायपुर आते हैं, नक्सलियों द्वारा निर्दोष खून बहाए जाने के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते?
ऐसा क्यों, क्या वे सही कर रहे है खून बहाकर?
आप लोगों ने यहां अपने साथी के लिए धरना दिया,प्रेसवार्ता ली और ज्ञापन सौंपे हैं। सच मानिए मेरा दिल भर आया कि अपने साथी की ऐसी चिंता करने वाले लोग आज के जमाने में भी मौजूद है। लेकिन कई बार एक सवाल मन में उठता है। लगता है आज आप लोगों से पूछ ही लूं,वो यह कि पिछले कई सालों से जब नक्सली आम लोगों की हत्याएं कर रहे हैं,बारूदी सुरंगे लगाकर विस्फोट कर पुलिस जवान समेत आम लोगों की हत्याएं कर रहे। सरकारी संपत्ति का नुकसान कर रहे हैं,ना जाने कितने मासूमों को अनाथ बनाए जा रहे हैं,बस्तर में रहने वाले व्यापारियों को जबरिया उनकी ज़मीन-ज़ायदाद से बेदखल कर बाहर भगा रहे हैं।
आप सबकी नज़र इन सब पर क्यों नहीं जाती?
क्या मारे जा रहे पुलिसकर्मी या आम लोग मानव नहीं हैं,क्या जीना उनका मौलिक अधिकार नहीं है?
जब नक्सली ऐसे नरसंहार करते हैं तो उसके विरोध में आप लोग छत्तीसगढ़ या राजधानी रायपुर में पधारकर इसे धन्य क्यों करते?
क्या नक्सली जो कर रहे थे/हैं, सही कर रहे थे/हैं?
और पिछली बार 2007 में आप सबके रायपुर से लौटने के बाद नक्सली और उग्र होकर जानलेवा गर्मी में समूचे बस्तर में जगह-जगह बिज़ली टावर गिरा रहें थे,बिज़ली सप्लाई लाईन काट जा रहे थे,यातायात बाधित किए जा रहे थे जिसके कारण वहां लोगो को खाद्यान्न व सब्जियां ढंग़ से नहीं मिली ना ही बिज़ली।
नक्सली बस्तर में "ब्लैक-आउट" के हालात पैदा कर रहे थे। तब, तब आप सब ने इसका विरोध क्यों नहीं किया, क्यों नहीं तब आप सब आए रायपुर विरोध प्रदर्शन करने, प्रेसवार्ताएं लेने व ज्ञापन देने या धरना प्रदर्शन करने?
आपका क्या विचार है नक्सली जो भी कर रहें हैं सही ही कर रहे हैं?
आप सब बहते निर्दोष खून को देखकर चुप कैसे रह जाते हैं? स्कूलों को तोड़े जाते देखकर भी खामोश कैसे रह लेते हैं? जान बचाने के लिए आदिवासियों को अपना गांव-घर-खेत छोड़ते देखकर भी आप कैसे निस्पृह रह लेते हैं? लेकिन जो मामले अदालत में चल रहे हैं उसके लिए आवाज जरुर लगा सकते हैं?
यह कैसा विरोध आपका?
हे विदूषी अरूंधति ज़ी,
दरअसल मैं ज्यादा समझदार नहीं हूं,दिमाग से पैदल हूं अत: ज्यादा सोच समझ नहीं पाता। बस जो देखा उसी के आधार पर यह पत्र दूसरे से लिखवा रहा हूं क्योंकि मुझे तो लिखना पढ़ना भी नहीं आता। क्या आप सब इस छत्तीसगढ़िया का आमंत्रण स्वीकार करेंगे कि आइए फ़िर से एक बार रायपुर,छत्तीसगढ़। आइए इस बार नक्सलियों के तांडव का विरोध करें,धरना दें और ज्ञापन दें नक्सलियों के खिलाफ़ क्योंकि जो मारे जा रहे हैं, तकलीफ़ पा रहे हैं वह भी मानव ही हैं और न केवल जीना बल्कि चैन से जीना उनका भी मौलिक अधिकार है।
निवेदन इतना ही है कि मै एक गरीब छत्तीसगढ़िया हूं। आप सबके आने-जाने का "एयर फ़ेयर" नहीं दे सकता न ही किसी अच्छे होटल में आपके रुकने का प्रबंध करवा सकता। बस! इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप ऐसे नेक काम के लिए आएंगे तो इस गरीब की कुटिया हमेशा अपने लिए खुला पाएंगे और घरवालो के साथ बैठकर चटनी के साथ दाल-भात खाने की व्यवस्था तो रहेगी ही।
आपके उत्तर की नहीं बल्कि आपके आने के इंतजार में
आपका विनम्र
भोला छत्तीसगढ़िया

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

रहस्य: मई, 1911 की घटना



क्या पिकासो ने मोनालिसा चुराई थी?


यह बड़ी सामान्य सी बात है कि यूरोप से लौटते वक्त लोग इस महान कृति की कॉपी अपने साथ लाते हैं। इस साल यह छठां मौका था, जब वालफियर्नो अपने साथ इस महान कलाकृति की तस्वीर लाए थे। वह कस्टम अधिकारी उतना सतर्क नहीं था, जितना उसे होना चाहिए था। यदि उसने बैग में झांका होता तो उसे पता चलता कि मोनालिसा की यह कृति उसकी नकल नहीं है, बल्कि 16वीं सदी में बनाई गई दुर्लभ कृति मोनालिसा ही है। मोनालिसा की चोरी उस समय तक की सबसे साहसिक कला चोरी थी। हालांकि इसकी शुरुआत मई, 1911 में हो गई थी, लेकिन इस चोरी की घटना को खबर बनने में तीन माह लग गए। इससे दो साल पहले फ्लोरेंटाइन आर्ट डीलर अल्फ्रेडो गेरी को एक पत्र मिला था, जिसे किसी ‘लियोनार्दो’ नामक व्यक्ति ने भेजा था। उस पत्र में इस प्रसिद्ध कलाकृति को बेचे जाने की बात कही गई थी।
अगस्त, 1911 के एक रविवार को पेरिस से लॉवरे म्यूजियम के गार्ड पूर्व आर्मी अधिकारी मैक्सीमिलियेन अलफोंसे पाउपार्डिन ने तीन इटेलियन मजदूरों को बातें करते देखा था, लेकिन थोड़ी देर बाद वे गायब हो गए। इसके बाद अपनी शिफ्ट खत्म होने पर पाउपार्डिन भी चला गया। मोनालिसा तब की चोरी तब ही हो गई। म्यूजियम सोमवार को बंद था, इसलिए अगले 24 घंटों तक किसी को इस बात की जानकारी नहीं हुई कि यह महान कलाकृति गायब है। मंगलवार को विजिटिंग पेंटर लूइस बेरोड को पता लगा कि मोनालिसा अपने स्थान पर नहीं है। म्यूजियम की दीवार से पेंटिंग उतारकर उसकी तस्वीर लेना एक सामान्य बात थी। इसके लिए किसी से इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं होती थी। साथ ही पेंटिंग को दीवार से उतारना कोई कठिन कार्य भी नहीं था, क्योंकि वह केवल हुक पर टंगी थी। तस्वीर हालांकि कांच के कवर में रखी थी लेकिन वह भी सुरक्षित नहीं था। बहरहाल जब चोरी की बात उजागर हुई तो म्यूजियम के डायरेक्टर को नौकरी से निकाल दिया गया। इसके बाद तो यह खबर आग की तरह फैल गई कि मोनालिसा चोरी हो गई है। म्यूजियम बंद कर दिया गया और मामला पुलिस में चला गया। पुलिस को फिंगरप्रिंट्स और तस्वीर की फ्रेम जैसे कुछ सुराग मिले। मामले की तफ्तीश कर रहे पुलिस अधिकारी परफेक्ट लेपाइन का मानना था कि इस घटना के 48 घंटों के भीतर फिरौती की मांग की जाएगी, लेकिन वह गलत था।

पिकासो के मित्र पर शक
इस दौरान समाचार-पत्र ‘पेरिस जरनल’ ने उस चोर के सनसनीखेज इंटरव्यू प्रकाशित करने शुरू कर दिए, जिसने उस म्यूजियम से कई मूर्तियां महज शौक के लिए चुराई थीं। उस चोर का नाम बैरन इगनैस दिओर्मेसन था। मोनालिसा की चोरी के मामले में बैरन पर ही सबसे ज्यादा शक था, लेकिन समस्या यह थी कि उसका अस्तित्व ही नहीं था। बैरन दरअसल कवि गुलाउमे अपोलिनेयर का एक काल्पनिक पात्र था। अपोलिनेयर पाबलो पिकासो के परम मित्र थे। अपोलिनेयर ने एक समय म्यूजियम को जला डालने की धमकी दी थी।
वह, पिकासो और उनके सहयोगी पेरिस में जंगली पुरुष के नाम से जाने जाते थे। बहरहाल, उन्होंने इस चोरी की घटना को अंजाम नहीं दिया था। यह कारनामा किया था जोसेफ गेरी पियरेट नाम के व्यक्ति ने जो अपोलिनेयर के अपार्टमेंट में रह रहा था। उसने केवल शरारत के लिए यह चोरी की। पिकासो ने दो मूर्तियां खरीदी थीं, जिसके बारे में गेरी को पता था। पिकासो और अपोलिनेयर पर शक जाने के बाद पुलिस को ये जल्द ही पता चल गया था कि इन लोगों का चोरी से कोई लेना-देना नहीं है। दो साल बाद अल्फ्रेडो गेरी नाम के आर्ट डीलर ने इटली के कई अखबारों में बेहतरीन कलाकृतियों को बेचे जाने के लिए विज्ञापन निकलवाया। उसे एक पत्र मिला जिसमें लिखा था -‘लियोनार्डो दा विंची की चोरी हुई कलाकृति मेरे कब्जे में है। ’
उसने लिखा था कि यह इटली की है, क्योंकि इसे बनाने वाला इटली का था। मेरा सपना है कि इसे उस देश में वापस कर दूं जहां की यह है। पत्र में लियोनार्दो के दस्तखत थे। गेरी प्रसिद्ध उफ्फीजी गैलरी के डायरेक्टर पोगी से मिला और वे दोनों लियोनार्दो से मिले, जो उन्हें होटल के एक में ले गया। वहां मोनालिसा थी। पोगी ने उसे उफ्फीजी ले जाने की इच्छा जाहिर की, जिस पर लियोनार्दो राजी हो गए। पेंटिंग ले जाते वक्त पोगी को होटल में ही रोक लिया गया। उसपर पेंटिंग की नकल चुराने का आरोप लगाया गया। लियोनार्दो नाम के व्यक्ति का असल नाम विंसेंजो पेरूगिया था, जिसने पेरिस के म्यूजियम में दो साल तक काम किया था। उसने पेंटिंग के लिए कांच के कवर बनाए थे। विंसेंजो का आपराधिक रिकॉर्ड था। उसे गिरफ्तार कर लिया गया।

वो रविवार का दिन
गिरफ्तारी के बाद विंसेंजो ने बताया कि उसने अपनी मदद के लिए दो लोगों को भाड़े पर रखा था। वे लोग रविवार को म्यूजियम में घुसे। उनके साथ म्यूजियम के कर्मचारियों की यूनिफॉर्म थी। वे रात भर म्यूजियम में छिपे रहे। सुबह उन्होंने यूनिफॉर्म पहनी और मोनालिसा अपने साथ ले आए। किसी को जरा भी शक नहीं हुआ। विंसेंट ने दावा किया कि उसने यह काम इटली के गौरव के लिए किया है। उसे इसके लिए रिवार्ड मिलना चाहिए। खैर उसे रिवार्ड तो नहीं मिला पर जेल जरूर पहुंच गया। विंसेंट को सजा होने के एक साल बाद अमेरिकी पत्रकार कार्ल डेकर मार्कस इडुआर्डो डि वालफियर्नो से मिले जिसने उसे पूरी कहानी बताई। वालफियर्नो वेस चाउड्रोन नामक अपराधी से लंबे अरसे से जुड़ा रहा है। ये लोग मिलकर नकली कलाकृतियों से लोगों को ठगने का काम करते थे। इन्होंने सबसे बड़ी वारदात को विंसेंट की मदद से अंजाम दिया। इसके लिए उन्होंने विंसेंट के दिमाग में यह भर दिया कि मोलालिसा की चोरी इटली के लिए की जा रही है। इसके बाद चाउड्रोन और वालफियर्नो ने मोनालिसा की छह नकल तैयार की और छह रईसों लोगों से मिलकर प्रत्येक से यह कहा कि पांच अन्य लोग भी इसके लिए बोली लगा रहे हैं। जो सर्वाधिक बोली लगाएगा उसे यह मिलेगी। यह आश्चर्यजनक था कि सभी छह रईस ये सोच रहे थे कि उनके पास असली पेंटिंग है, जबकि असली पेंटिंग पेरूगिया ने छिपा कर रखी थी। बहरहाल डेकर को सनसनीखेज कहानी मिल गई। वालफियर्नो एक ठग था। क्या पता उसने सच कहा या नहीं।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

पीपुल्स समाचार से साभार


जश्ने बहारां पे हंसी आती है

प्रज्ञा रावत
हम जीवन की साधारण से साधारण चीजों के आत्मिक सुख से वंचित हैं। हमारे दिल दिमाग पर बाजार की पूंजी का कब्जा है। यह एक तरह की वैचारिक शून्यता हमारे अंदर पैदा कर रही है। तमाम स्वादों को आत्मसात करने का आनंद हमसे बहुत दूर चला गया है।

हमारे पढ़े-लिखे समाज में विज्ञान और कलाओं में पैदा की गई दूरी ने समाज की वैचारिक चेतना के स्वाभाविक विकास को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इससे आगे टेक्नो-क्रांति ने इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हम पर हावी होकर हमें भी काफी हद तक सिंथेटिक आदमी में तब्दील कर दिया। पहले मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों को हम लंबी रेस का घोड़ा मानते थे, लेकिन आज उनका रुझान सिर्फ तकनीकी शिक्षा तक रह गया है। जीवन की लंबी और स्वाभाविक दौड़ में उनका विश्वास खत्म हो गया है।
आठवीं, नौवीं क्लास तक आते-आते और उसके बाद के वर्षों में एक ही कोर्स की पढ़ाई को बार-बार हर बच्चा रट्टू तोते की तरह पढ़ता है। नयी जिज्ञासाओं की तरफ उसका झुकाव दस-बारह घंटों की लगातार बोझिल कर देने वाली पढ़ाई के कारण हो ही नहीं पाता है। विचार को बीज बनने तक का मौका नहीं है। इससे हटकर वो घंटों कम्प्यूटर गेम्स की करिश्माई और नेट की सम्मोहक फैंटेसी की दुनिया में विचरण करता है,हालांकि ये आकर्षण स्क्रीन पर चल रहे प्राकृतिक दृश्यों, रंगों के कारण भी हैं, पर वास्तविकता में यहां प्रकृति से कोई रिश्ता नहीं बनता। मैदान, खुली हवा, पेड़ पर चढ़ना, फलों को कच्चे से पकते हुए देखना जैसी प्राकृतिक इच्छाओं से वो वंचित है। उसकी भाषा की स्वीकृत शब्दावली में बचपन से ही शूट, किल, ट्रैप जैसी हिंसक और असभ्य मानदण्डों का नैसर्गिक समावेश है। चीजों से सिंथेटिक रूप में रूबरू होने के कारण उसकी संवेदनशीलता भी सिंथेटिक होती जा रही है। यही बच्चा टेकनोक्रेट बनने के बाद लाखों के पैकेज में काम करते समय अपना टूथब्रश भी साथ ले जाते है और घर परिवार से रहा सहा संबंध भी टूट जाता है।
जहां तक कला व मानविकी के गहन शिक्षण-प्रशिक्षण की बात है तो या तो देश के गिने चुने संस्थानों, महानगरों में अभिजात्य वर्ग के बच्चे या जेएनयू जैसे एकाध संस्थान हैं, जहां दूसरी बेहतरीन शिक्षा हर वर्ग और तबके के विद्यार्थी समान रूप से पाते हैं। जो बच्चे निम्न मध्यम वर्गीय तबकों से हैं, उनका भी ध्यान मूल पाठ पर ना होना बाजार में बिकती सस्ती प्रश्नावलियों पर है। ऐसे में समाज के विचार की चिंता उसके तमाम उठते गिरते प्रश्नों की चिंता का क्या हो? यहां विकास के विरोध में ‘बात’ की जा रही है। जीवन गतिशील है, सब कुछ बदलता है और हर बार अपने नए स्वरूप में आता है, अगर चार्ल्स डार्विन की मानें तो, लेकिन इस बदलते स्वरूप की चेतना में मनुष्य की बेहतरी हो तब ही। विकास और उससे मिलने वाले सुख के अंतर्द्वंद्व की गहराई से पड़ताल करनी होगी कि कहीं तथाकथित विकास में मानवीय मूल्य, सुख के स्रोत सूख तो नहीं रहे हैं। दरअसल, ये पूंजी के खेल के निकृष्टतम आचरण का दौर है। पूंजी उपभोक्ता और उत्पादन के बीच घुसकर हमारी जरूरतें तय कर रही हैं, जबकि हम जीवन की साधारण से साधारण चीजों के आत्मिक सुख से वंचित हैं। हमारे दिल दिमाग सब पर बाजार का पूंजी का कब्जा है। इसने एक तरह की वैचारिक शून्यता हमारे अंदर पैदा कर रही है। दुनिया के तमाम स्वादों को आत्मसात करने का आनंद हमसे बहुत दूर चला गया है, जिसका अभाव अंजाने ही सही हमारे भीतर निरर्थकता और कृत्रिमता भी पैदा कर चुका है। कुछ-कुछ ऐसी ही निरर्थकता जो यूरोप ने द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद महसूस की और जनता के सम्मुख अस्तित्व और उसकी स्वतंत्रता को मूलभूत प्रश्न भयावह रूप में उपस्थित हुआ, जिसका विवेचन ज्यॉ पाल सोज ने ‘अस्तित्ववादी दर्शन’ के रूप में किया। इस बात को लिखने में कोई गुरेज नहीं कि आने वाले समय में वही सबसे बड़ा दार्शनिक होगा, जो विकास के मॉडल का ऐसा दर्शन प्रस्तुत करेगा, जहां पूरी ऊर्जा और वैज्ञानिक चेतना मनुष्यता की पक्षधर और जीवन राग से भरा होगा, जो रचनात्मक होगा और जिसमें मनुष्य की धड़कनें शामिल होंगी। आज सारा संसार पश्चिम से आई पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की गिरफ्त में है, जिसके दुष्परिणाम वहां के लेखकों ने ही सबसे पहले पहचाने थे। विलियम वड्सर््ावर्थ ने प्रकृति की ओर चलो का जो नारा दिया था, वो केवल काव्यावेग नहीं था, किंतु यह चेतावनी थी कि प्रकृति को छोड़कर आगे मत बढ़ो। ताज भोपाली ने अपनी एक गजल में कहा था-
ये बनाए हुए रंग और ये तराशे हुए फूल
मुझको इस जश्ने बहारां पे हंसी आती है।


(लेखिका कवि और साहित्यकार हैं।)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009


प्रेमचंद कैसे बने मुंशी प्रेमचंद

डॉ. जगदीश व्योम

प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है।

सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ उपनाम या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके। उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है।
उपनाम या तख़ल्लुस से तो बहुत से कवि और लेखक जाने जाते हैं, किन्तु 'मुंशी' प्रेमचंद का उपनाम या तखल्लुस नहीं था। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि 'प्रेमचंद' के नाम के साथ 'मुंशी' का क्या संबंध था। यह शब्द आखिर जुड़ा कैसे? क्या प्रेमचंद ने कभी मुंशी का काम किया या यह उपाधि उनके परिवार में पिता या पितामह से उनके पास विरासत में हस्तांतरित हुई। साथ ही प्रेमचंद का मूल नाम क्या था और वह बदल कर प्रेमचंद कैसे हो गया? प्रेमचंद के नाम के साथ 'उपन्यास सम्राट' का एक और विशेषण भी जुड़ा हुआ है। यह सब नाम और उपाधियाँ प्रेमचंद के साथ कैसे जुड़ गए- इसके पीछे कुछ रोचक घटनाएं हैं।
'प्रेमचंद' का वास्तविक नाम 'धनपत राय' था। 'नबावराय' नाम से वे उर्दू में लिखते थे। उनकी 'सोज़े वतन' (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर ली थीं। सरकारी कोप से बचने के लिए उर्दू अखबार "ज़माना" के संपादक मुंशी दया नारायण निगम ने नबाव राय के स्थान पर 'प्रेमचंद' उपनाम सुझाया। यह नाम उन्हें इतना पसंद आया कि 'नबाव राय' के स्थान पर वे 'प्रेमचंद' हो गए।
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी का एक प्रेस कलकत्ता में था, जिसका नाम 'वणिक प्रेस' था। इसके मुद्रक थे 'महाबीर प्रसाद पोद्दार'। वे प्रेमचंद की रचनाएँ बंगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन शरत बाबू से मिलने के लिए पोद्दार जी उनके घर पर गए। उन्होंने देखा कि शरत बाबू, प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे। जो बीच में खुला हुआ था। कौतूहलवश पोद्दार जी ने उसे उठा कर देखा कि उपन्यास के एक पृष्ठ पर शरत बाबू ने 'उपन्यास सम्राट" लिख रखा है। बस, यहीं से पोद्दार जी ने प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार धनपत राय से 'प्रेमचंद' तथा 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' हुए।
प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु मैंने प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृत राय जी को एक पत्र लिखकर इस विषय में उनकी राय जाननी चाही। अमृतराय जी ने कृपा कर मेरे पत्र का उत्तर दिया। जो इस प्रकार है-
अमृत राय जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी 'मुंशी जी' कहा जाता था। इसका साक्षी है प्रेमचंद से संबंधित साहित्य।
इस सम्बन्ध में प्रेमचंद की धर्म पत्नी 'शिवरानी देवी' की पुस्तक 'प्रेमचंद घर में' में प्रेमचंद से संबंधित सभी घरेलू बातों की चर्चा शिवरानी देवी ने की है। पूरी पुस्तक में कहीं भी प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' का प्रयोग नहीं होता था, और न ही सम्मान स्वरूप लोग उन्हें 'मुंशी' ही कहते थे, अन्यथा शिवरानी देवी प्रेमचंद के लिए कहीं न कहीं 'मुंशी' विशेषण का प्रयोग अवश्य करतीं। क्योंकि इसी पुस्तक में उन्होंने दया नारायण जी के लिए मुंशी जी शब्द का प्रयोग कई बार किया है, परन्तु प्रेमचंद के लिए कहीं भी नहीं।
एक उदाहरण देखें-
"आप बीमार पड़े। मुझसे बोले-
हंस की जमानत तुम जमा करवा दो। मैं अच्छा हो जाने पर उसे संभाल लूंगा।
उनकी बीमारी से मैं खुद परेशान थी, उस पर 'हंस' की उनको इतनी फिक्र। मैं बोली, अच्छे हो जाइए, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
आप बोले, "नहीं दाखिल करा दो। रहूँ या न रहूँ "हंस" चलेगा ही। यह मेरा स्मारक होगा।"
मेरा गला भर आया। हृदय थर्रा गया। मैंने जमानत के रुपये जमा करवा दिए। आपने समझा शायद धुन्नू, (अमृत राय घरेलू नाम) जमानत न करा पाए। दयानारायण जी निगम को तार दिया। वे आये। पहले बड़ी देर तक उन्हें पकड़ कर वे (प्रेमचंद) रोते रहे। वे भी रोते थे, मैं भी रोती थी, और मुंशी जी भी रोते थे। मुंशी जी ने कई बार रोकने की चेष्टा की, पर आप बोले, 'भाई शायद अब भेंट न हो। अब तुमसे सब बातें कह देना चाहता हूं। तुमको बुलवाया है, हंस की जमानत करवा दो।"(प्रेमचंद घर में - शिवरानी देवी, पृष्ठ-70)
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद के लिए 'मुंशी' शब्द का प्रयोग सम्मान सूचक के अर्थ में कदापि नहीं हुआ है और न ही उनके जीवन काल में उनके नाम के साथ लगाया जाता था। तो फिर यह 'मुंशी' शब्द कब से प्रेमचंद का सानिध्य पा गया और किस लिए?
प्रेमचंद के नाम, जो प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर छापे हैं उनमें क्रमश: 'श्री प्रेमचंद जी' (मानसरोवर प्रथम भाग), 'श्रीयुत प्रेमचंद (सप्त सरोज), 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद धनपतराय (शिलालेख), प्रेमचंद (रंगभूमि), श्रीमान प्रेमचंद जी आदि कृतियों पर कहीं भी 'मुंशी' का प्रयोग नहीं हुआ है।
जब कि श्री, श्रीयुत, उपन्यास सम्राट आदि विशेषणों का प्रयोग हुआ है। यदि प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी" विशेषण का प्रचलन उस समय हो रहा होता तो कहीं न कहीं अवश्य प्रयुक्त होता। मगर मुंशी शब्द का प्रयोग प्रेमचंद जी के साथ कहीं नहीं हुआ है।
प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एकमात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर 'कन्हैयालाल मुंशी' का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था, साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था। हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है।

मुंशी, प्रेमचंद
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। उसे 'प्रेमचंद' और 'मुंशी' के पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। फिर कुछ संयोग ऐसा बना कि भ्रम का पक्ष सबल हो गया, वह ऐसे कि एक तो प्रेमचंद कायस्थ थे, दूसरे अध्यापक भी रहे। कायस्थों और अध्यापकों के लिए 'मुंशी' लगाने की परम्परा भी रही है। यह सब मिला कर जन सामान्य में वे 'मुंशी प्रेमचंद' के नाम से जाने जाने लगे। धीरे-धीरे मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ अच्छी तरह जुड़ गया। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।
(यह लेख भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में छपा है )

बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय से पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


भयानक चीज है कम्युनिस्ट कैपिटलिज्म

जानी-मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्ता अरुंधती राय के मुताबिक सलवा जुड़ूम के चलते बस्तर में गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। वह कहती हैं कि विकल्प सिर्फ बस्तर में नहीं बल्कि सारी दुनिया में तलाशा जा रहा है। विकास के पूंजीवादी और पूर्व के समाजवादी मॉडल का हश्र क्लाइमेट चेंज के रूप में हमारे सामने है, तो राष्ट्रवाद की परिणति संभावित आण्विक युद्ध के रूप में नजर रही है। वे कहती हैं कि विकास और जनसंहार का आपस में गहरा रिश्ता है। यह आप पर है कि आप जनसंहार को किस तरह परिभाषित करते हैं।

देश में जिस तरह से चुनावी गठबंधन हुए हैं, उसमें कोई भी किसी के भी साथ जा कर खड़ा हो गया है। जिस तरह इतिहास का अंत समेत बहुत सारे अंत की घोषणा होती है, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा का अंत हो गया है?
आप अभी बस्तर में जाएंगे तो बहुत अद्भुत बात पाएंगे कि हमारे देश की सबसे बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा, दोनों साथ मिलकर, साथ-साथ एक मंच में बैठ कर देश के सबसे गरीब लोगों से लड़ रही हैं। ऐसे में चुनाव होने पर ये जीतेन या वो, इसका कोई खास मतलब नहीं है।

तो क्या किसी वैकल्पिक राजनीति पर बात करने के लिए ये सही समय है?
समय सही है या देर हो गई, मुझे पता नहीं। मैं बोल नहीं सकती। पर अगर अभी ये बात नहीं हुई तो फिर कभी नहीं आएगा वो ‘सही’ समय।

बस्तर में हालात कैसे हैं?
बस्तर में गृहयुद्ध जैसे हालात हैं, जिसमें 60 हजार आदिवासी सलवा जुड़ूम के शिविरों में हैं। उसमें से जो एसपीओ हैं, जिन्हें हथियार दिये गये हैं। बाकी लगभग 3 लाख आदिवासी जंगल में घूम रहे हैं। न उनके पास खाना है, न वे खेत में आ सकते हैं, न बाजार जा सकते हैं, न ही वे अस्पताल जा सकते हैं। स्कूल बंद पड़े हुए हैं। तो ये एक बहुत ही गंभीर स्थिति है। और उससे हम लोग कैसे गुजरेंगे और ये क्यों हो रहा है, ये बहुत बड़े सवाल हैं। ये क्यों हो रहा है? ये गांव किसने खाली किया? क्यों खाली किया? ये लोग जाएंगे कहां? स्थिति बहुत ही गंभीर है। अगर दुनिया के परिदृश्य में देखें तो हथियारबंद आंदोलन सब जगह से नकारे जा रहे हैं या फिर कमजोर हो रहे हैं। मुख्यधारा की राजनीति से अलग जहां भी आंदोलन हो रहे हों, उसके अनुभव ऐसे ही हैं। चाहे नेपाल हो, जिसे राजनीति की मुख्यधारा में आना पड़ा हो या एलटीटीई का हथियारबंद आंदोलन, जो मुख्यधारा की राजनीति से अलग रहने के कारण लगातार कमजोर हुआ है।
आखिर इसका विकल्प क्या है?
ये विकल्प की जो बात है, ये बहुत ही विस्तृत और गंभीर बात है। हम सिर्फ बस्तर में ही विकल्प नहीं ढूंढ़ रहे। पूरी दुनिया में विकल्प ढूंढ़े जा रहे हैं। क्योंकि ये जो पूरा पूंजीवाद और पूर्वी मॉडल का जो विकास है या जो इससे पहले का समाजवादी मॉडल का विकास था, अर्थव्यवस्था को शीर्ष पर ले जाने वाला, वो हमें क्लाइमेट चेंज की तरफ ले जा रहा है। इसे आप एक सवर्नाशी दृष्टिकोण कह सकते हैं। दुनिया का जो अंत है, उसके बीज इसमें निहित हैं। दूसरी ओर हमारे सामने राष्ट्रवाद का मुद्दा है, परमाणु युद्ध का मुद्दा है और इस तरह के कई मुद्दे हैं। विकास को लेकर जैसा हम सोचते हैं, अगर हम इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि विकास और जनसंहार के बीच हमेशा से एक रिश्ता रहा है। ये जो जनसंहार शब्द है, यह बहुत गंभीर शब्द है। लोगों ने इसे अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। इसका मतलब सिर्फ ये नहीं है कि लोगों को पकड़कर मारो। इसका मतलब ये भी है कि एक किस्म के लोगों को अपना खाना, अपना पीना, अपने संसाधनों से बेदखल कर दो, ताकि वे अपने आप ही मर जाएं। अफ्रीका जैसे देशों में यह बहुत हुआ है। तो क्या हम लोग उस स्थिति में गए? आप कहते हैं कि नक्सलाइट हैं या आतंकवाद हैं और ये भी कहते हैं कि इस जंगल में जो कैम्पों में नहीं हैं वो माओइस्ट हैं। मैं पूछती हूं कि क्या हम इतने हजार लोगों को मारने के लिए तैयार है? और वो कौन लोग हैं? जो सबसे गरीब है और जिसके हथियार तीर-धनुष हैं। हमें अपने से भी यह पूछना चाहिए कि क्या हम इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं?

मैं फिर दुहराउंगा कि आखिर विकल्प क्या है? बस्तर, झारखंड, आंध्र प्रदेश या देश के कई हिस्सों में जिस तरह से हथियारबंद लड़ाईयां चल रही हैं, क्या आप उसे वैकल्पिक राजनीति के तौर पर आप देख रही हैं?
जब आतंकवाद, सशस्त्र संघर्ष या इस तरह का कोई भी शब्द कहा जाता है, तब मामले को बहुत उलझा दिया जाता है। आप बुश की मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं- आप या तो हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ। आप किसी भी अधिकारी से बात करें और उनसे पूछें कि आखिर इन लोगों के पास विकल्प क्या था? ये क्या कर सकते थे? गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है। जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है। संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा। लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया। ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, ‘वो बनाम हम’ की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया। ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा। इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है। इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न? एक भी बांध को अहिंसक आंदोलनों से नहीं रोका जा सका।

इसको क्या आप एक विकल्प के तौर पर देख रही हैं?
बस्तर के लोग क्या मांग रहे थे इतने साल से? छोटी-छोटी मांग थी उनकी। न्यूनतम मजदूरी या तेंदू पत्ते की कीमत। वो अस्पताल, स्कूल या सड़क भी नहीं मांग रहे थे। अभी वे क्या मांग रहे थे कि हमें छोड़ दो। हम अपनी जिंदगी जी सकें। हम ही विकल्प हैं। वही तो कह रहे हैं। और हम उनको कह रहे हैं कि हमको ये चाहिए, ये चाहिए। हम आदिवासी से पूछ रहे हैं कि विकल्प क्या है? हमारा जो लोभ है, उसका विकल्प क्या है? हमारा जो स्वार्थ है, हमारा जो लोभ है, हमारी जो मरी हुई कल्पना है, उसका विकल्प क्या है? हम आदिवासी से पूछ रहे हैं।

इस तरह की जितनी भी वैकल्पिक लड़ाइयां चल रही हैं, सेज की लड़ाई, बांध की लड़ाई उसमें जनांदोलन चलाने वाले लगातार हार रहे हैं या उनकी लड़ाई लगातार हाशिये पर जा रही है?
कोई तो लगातार हार रहे हैं, लेकिन कोई-कोई जीत भी तो रहे हैं। नंदीग्राम तो बंद हो गया, अभी के लिए। वहां पर लोग क्या देख रहे हैं। वहां पर धरना नहीं हुआ। वहां भूख हड़ताल नहीं हुआ। वहां लोगों ने सड़क खोद कर रखी और कहा कि आप अंदर नहीं आ सकते। यही अभी बस्तर में हो रहा है। इसका मतलब ये है कि लोग भी ये देखते हैं कि किस तरह वो अपनी जिंदगी बचा सकते हैं। मैं विकल्प का जो बड़ा सवाल है, उसे उठा सकती हूं लेकिन जिसके पास कुछ भी नहीं है, वो विकल्प के बारे में नहीं सोच रहे हैं। वो अपने गुजारे के बारे में सोच रहे हैं। उनके छोटे से बच्चे को खाना कब मिलेगा, वो सोच रहे हैं। और हम हैं कि उन्हीं से पूछ रहे हैं कि विकल्प क्या है? किसी के सिर पर बंदूक लगा के हम उनसे ही पूछ रहे हैं कि तुम्हारे पास मौत के सिवा विकल्प क्या है? ये कैसा सवाल है?

भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, नक्सलवाद या माओवाद, क्या आप उसका समर्थन करती हैं?
मैंने बस्तर में कई अधिकारियों से पूछा कि आप जब कहते हैं कि इस गांव में मैंने दस नक्सलियों को मारा, तो ये हैं क्या चीज? वो हैं कौन? हैं कौन ये नक्सली? क्योंकि सलवा जुडूम के लिए जब जुलूस निकलता है तो उनके हाथ में हथियार होते हैं तब वो कहते हैं कि ये उनके पारंपरिक हथियार हैं। लेकिन जब यही हाथ किसी और के हाथ में होते हैं तो आप कहते हैं कि नक्सली है। तो मुझे किसी का साथ देने के लिए पता होना चाहिए कि ये हैं कौन? ये सब गरीब लोग हैं या कौन लोग हैं? मैं माओ की पूजा नहीं करती हूं। उन्होंने भी बहुत गलतियां कीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उन्होंने चीनी क्रांति में कोई गलती की। पर अभी तक मैं कोशिश कर रही हूं समझने की कि जिसे आप नक्सलवाद या माओइज्म बोल रहे हैं, ये हैं कौन? कई गांव वालों से मैंने पूछा कि माओ कौन है। सलवा जुड़ूम में कुछ एसपीओ हैं, जो पहले माओवादी कमांडर थे, मैंने उनसे पूछा कि नक्सल क्या चीज है? ये नाम कहां से आया है? चाइना कहां है? उनको पता नहीं। तो हम जो मर्जी वो नाम दे सकते हैं। पर वो हैं कौन, ये पता लगाना जरूरी हैं। क्योंकि अगर इस देश के गांव में हजारों, लाखों लोग हैं, जिन्हें हम नक्सल कहते हैं, उन्हें क्या सरकार मारने के लिए तैयार है? खत्म करने के लिए तैयार है?

चीन में माओ त्से-तुंग एक प्रतीक के रूप में रह गए हैं। और चीन से लेकर बंगाल तक वामपंथ जिस तरह से स्टेट कैपिटलिज्म में तब्दिल हुआ है, उससे भारतीय माओवादियों को क्या सीख लेनी चाहिए?
वैसे चीन गई थी मैं। और बहुत डर लगा मुझे चीन जाकर। मैंने उनको बोला कि आपको शायद कुछ भारतीय माओइस्ट की जरूरत है क्योंकि मुझे लगा कि वहां पर भी बहुत कम।स्पेस है। उसे कैपिटलिज्म और चाईनीज़ कम्यूनिज्म तो नहीं कह सकते हैं, उसे कम्यूनिस्ट कैपिटलिज्म कह सकते हैं। और वो एक भयानक चीज़ है। लोगों के पास घर नहीं हैं। ओलंपिक के स्टेडियम के लिए लोगों को बेदखल कर दिया गया। वहां ढेरों समस्याएं हैं और पर्यावरण को लेकर भी ढेरों समस्याएं हैं। मुझे लगता है कि विकल्प के या कल्पना के बीज कम से कम अभी इस देश में हैं। उस बीज को हम खोद कर फेंक रहे हैं। फिर भी कुछ बीज बचे हुए हैं। कुछ लोग हैं, जो सोच सकते हैं। उन्हीं को हम मारने की कोशिश कर रहे हैं। पर सब मरे हुए नहीं हैं, लोग लड़ रहे हैं अभी भी।

और भारतीय वामपंथ? उसकी जो ताजा हालत है, उसको किस तरह देखती हैं?
वो है क्या चीज? जो लोग पश्चिम बंगाल में एसईजेड बनाना चाहते हैं, उनको वामपंथ कह सकते हैं क्या? जो लोग नंदीग्राम में उन्माद फैलाते हैं, लोगों को खत्म करते हैं, वो वामपंथ है क्या? हमारी जो संसदीय राजनीति है, उसमें अभी हर पार्टी के दस-दस पंद्रह-पंद्रह सिर है। जो बंगाल में वामपंथ बोलते हैं, वही नंदीग्राम में लोगों को अपने घरों से भगा रहे हैं, महाराष्ट्र वाले आदिवासी का साथ दे रहे हैं। वही भाजपा, जो यहां एसईजेड बनाना चाहती है, पश्चिम बंगाल में उसके खिलाफ बोलती है। हम सब एक ऐसे पागलखाने में घूम रहे हैं, जहां किसी की एक ही शक्ल नहीं है।

हिंदी के बड़े कवि हैं मुक्तिबोध। उनकी एक लाईन है कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। तो अरुंधती रॉय की पॉलिटिक्स क्या है?
मैं अगर अपना पॉलिटिक्स एक स्लोगन में बोल सकती तो मैं पॉलिटीशियन बन जाती, मैं राजनीति में आ जाती। मेरा पॉलिटिक्स आपको या किसी को पता लगाना है तो इतने सालों से मैं जो कुछ लिखती आ रही हूं, उसको पढ़ना पड़ेगा। वो एक स्लोगन में नहीं आ सकता।
(यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में छपा है )

रविवार, 12 अप्रैल 2009

हृदय से निकला गान


वादियों में ‘सूफी’ की सुगंध
गुरजीत मलिक

सूफीवाद आध्यात्मिक स्तर पर मानव के अंतर्मन में झांकने की एक अवधारणा है। आत्मा की परमात्मा तक पहुंचने की लालसा, उसके लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का वर्णन सूफीवाद का आधार है। सूफीवाद का सिद्धान्त बहुत पुराना है। कश्मीर घाटी में इस सिद्धान्त का प्रादुर्भाव स्वाभाविक ही था, क्योंकि कश्मीर की वादियां, ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और उनकी नीरवता मन की एकाग्रता के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं। कश्मीर प्राकृतिक सौन्दर्य, शान्त वातावरण आत्मचिन्तन के लिए सबसे अच्छा स्थान है।

महान सूफी सन्त ख्वाजा अब्दुल कादिर जीलानी, जिन्हें लोग प्यार और आदर से पीर दस्तगीर साहब बुलाते हैं और अमीर-ए-कबीर, मीर सईद अली हमदानी अरब के जीलान और हमदान शहरों से अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए कश्मीर घाटी में आए थे। यह भी माना जाता है कि सम्राट अशोक जब सत्ता के आडम्बरों और दांव-पेंच से विचलित हो गए थे, तो मन की शान्ति हासिल करने के लिए यहां आए थे। सूफीवाद का सिद्धान्त केवल आध्यात्मिक ऊंचाइयों और मन की शान्ति प्राप्त करने का ही रास्ता नहीं है, बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता की नींव पर आधारित है। जहां सभी मानव एक समान हैं और इसका संबंध मानव के अस्तित्व से है। सूफीवाद हर प्रकार के धार्मिक आडम्बरों, नियमों, जाति-भेद, रंगभेद वगैरह से ऊपर है। इसे किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता। यह तो उस परमात्मा तक पहुंचने का मात्र एक रास्ता है। सूफी औपचारिक पूजा-पाठ या इबादत में यकीन नहीं करते। उनका मानना है कि कोई भी व्यक्ति अपनी आत्मा में झांककर उसे पहचान कर, आध्यात्मिक सुकून हासिल कर सकता है। उसके लिए उसे किसी भी इबादतगाह जाने की जरूरत नहीं है। खुद ईश्वर या वह परमात्मा तो स्वयं मनुष्य के अंदर है। बस उसे पहचानने भर की देर है। जैसा कि कश्मीरी कवयित्री लल देद ने भी कहा है-
‘गोरन दुपनम कुनी वतसुन नेबर दुपनम अंदर आसुन सुई,
लेली में गो वरह ते वासुन
तबी हुतूम नागई नासुन।‘
अर्थात् मेरे परम शक्ति ईश्वर ने मुझे एक ही शिक्षा दी। उसने कहा, बाहर से अंदर जाओ, सब आडम्बर छोड़कर अपनी आत्मा में गहरे पैठ जाओ। बस उसी दिन से मैंने सब कुछ त्याग दिया और निर्वस्त्र घूमने लगी। उनका मानना था कि मनुष्य को अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए किसी आवरण की आवश्यकता नहीं है। एक अन्य सूफी कवि शेख नूर-दीन नूरानी ने अपने विचार कुछ इस तरह प्रगट किए- पूरी जिन्दगी मैं तसबीह फेरता रहा, पर अफसोस! मैं अपने अंदर की बुराइयां दूर नहीं कर सका। अलमदारे कश्मीर को भी सूफीवाद से ही आत्मा का संतोष प्राप्त हुआ- मानवता की सेवा में ही परम सुख है। मोह, माया, लालच, वासना, राग, द्वेष आदि पर काबू पाकर ही हम उस परम शक्ति के निकट पहुंच सकते हैं। अकसर सूफी संत, सूखी घास, पत्ते और सब्जियां खाते थे। उनका मानना है कि जानवरों और पक्षियों को भी इंसानों की तरह जीने का हक है।

तोड़ दिए सारे बंधन
सूफीवाद ने न तो कभी इंसानी भेदभाव में यकीन किया है और न ही इसे बढ़ावा दिया है। इसी वजह से यह बिना किसी धार्मिक और सामाजिक भेदभाव के इंसानों में बराबरी की वकालत करता है। यह एक ऐसा रास्ता दिखाता है, जिस पर हर व्यक्ति शान्ति प्राप्त करने की दिशा में चल सकता है। सूफीवाद का मानना है कि इस ब्रह्माण्ड की रचना और इसमें आदमी का जन्म, भेदभाव के किसी सिद्धान्त के तहत नहीं हुआ है, बल्कि जन्म से मृत्यु तक आदमी एक इंसान ही रहता है, जिस पर किसी मजहब; जाति या नस्ल का ठप्पा नहीं लगा होता। सूफी तो यह भी मानते हैं कि यदि कोई अपनी अंतर्रात्मा को पहचान लेता है तो संगीत, नृत्य और मानवता की सेवा से बढ़कर इबादत का कोई और तरीका नहीं है। वे तो बेहिचक यह भी मानते हैं कि जब तक इंसान अपनी शारीरिक जरूरतों और लालच पर अंकुश नहीं लगाएगा, कोई भी धर्म उसे परमात्मा के नजदीक नहीं ले जा सकता। यही कारण है कि सूफी संत सूखी घास, सूखे पत्ते और सूखी सब्जियां खाते थे। हरी-भरी सब्जियां न खाकर वे यह बताना चाहते थे कि सब्जियों में भी जीवन होता है। सूफी इसे न सिर्फ जानते थे, बल्कि उसका सम्मान भी करते थे। वे यह साबित करना चाहते थे कि जहां पशु-पक्षियों को जिन्दा रहने का अधिकार है, वही आदमी के अस्तित्व के लिए इनका होना भी हवा, पानी और अन्य तत्वों जितना ही महत्वपूर्ण है।

सूफीवाद का सकारात्मक प्रभाव
अगर लोग इस सूफीवादी दर्शन को पूरी तरह अपना लें, तो इंसानी अस्तित्व की सार्वभौमिकता का प्रभाव काफी विस्तृत और सकारात्मक हो जाता है। यह तभी संभव है, जब हम सूफीवादी दर्शन को समझें। सूफीवाद, एक आत्मा की भटकन का लेखा-जोखा है। परमात्मा से मिलने की यात्रा में आत्मा, कई मंजिलों से होकर गुजरती है और हर मंजिल पर उसके हजारों नकाब उतरते जाते हैं। आखिरी मंजिल पर, विषय, वासना और भौतिक तत्वों से वह पूरी तरह मुक्त हो जाती है और तब उसका सामना होता है परमात्मा से।

सूफी के मायने
सूफी शब्द सूफ शब्द से बना है। ‘सूफ’ ऊनी कपड़ा होता है, जिसे फकीर पहनते हैं। यह अपनी इच्छा से गरीब रहने और संसार व सांसारिक सुखों को त्यागने का प्रतीक है। कश्मीरियत, कश्मीरी संस्कृति और रिवाजों की प्रतीक है और यह सूफीवादी दर्शन पर आधारित है। हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचारा कश्मीरियत की बुनियाद है, जो सूफीवाद की ही देन है। कश्मीर घाटी में हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक और सांस्कृतिक समानता, उनके एक जैसे रीति-रिवाज तथा परम्पराएं सूफीवाद से प्रभावित हैं। शायद दुनिया में कश्मीर ही अकेली ऐसी जगह है, जहां श्रद्धालु शाह हमदान की दरगाह, और गुरुद्वारा छटी पादशाही के दर्शन एक साथ करते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक पवित्र अमरनाथ यात्रा का शताब्दियों से मुसलमान ही नेतृत्व करते आए हैं। दरअसल, अमरनाथ में भगवान शिव की पवित्र गुफा की खोज एक मुसलमान चरवाहे, बूटा मलिक ने की थी। तब से लेकर आज तक, चढ़ावे का एक निश्चित हिस्सा मलिक के वंशजों को दिया जाता है।

भाईचारे की मिसाल

हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की इससे बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है कि हर वर्ष लाखों से अधिक तीर्थ-यात्री पवित्र अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के दर्शन करते हैं। स्थानीय निवासी बढ़-चढ़कर इस यात्रा में अपने हिन्दू भाइयों को हर सुख-सुविधा मुहैया कराते हैं। आतंकवाद के चलते ऐसी अनेक घटनाएं सामने आई हैं, जब स्थानीय मुसलमानों और सिख बन्धुओं ने पैसा इकट्ठा करके हिन्दू धार्मिक स्थलों की मरम्मत कराई, जिन्हें कुछ धर्मान्ध लोगों ने नुकसान पहुंचाया था। बारामूला स्थित शिवमंदिर इस सद्भावना की एक जीती-जागती मिसाल है। आज भी उनसे प्राप्त होने वाली आमदनी उन्हें उनके नए निवास स्थानों तक पहुंचा रहे हैं। घाटी का हर व्यक्ति इस आशा में जी रहा है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब उनके बिछुड़े भाई अपने घरों को लौट आएंगे, क्योंकि उनके बिना कश्मीर की संस्कृति अधूरी है, कश्मीरियत अधूरी है। घाटी के सभी पवित्र स्थलों के प्रति हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों में समान श्रद्धा भाव है। सभी धर्मों के लोग दरगाह चिरार-ए-शरीफ, बाबा-ऋषि, अश्मुकाम और घाटी के अन्य पवित्र स्थलों में श्रद्धा से आते हैं। महाशिवरात्रि के दिन घाटी के मुसलमान हिन्दू भाइयों का स्वागत करते हैं, उन्हें अखरोट पेश करते हैं और बदले में हिन्दू अपने मुसलमान भाइयों का स्वागत इलायची और मिश्री से करते हैं।

कश्मीरी संस्कृति
कश्मीरी संस्कृति की सदियों से चली आ रही एकता और विविधता, जिससे घाटी में एक अनोखा सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनता है। इसीलिए 1947 में, जब पूरा देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, तब राष्टÑपिता महात्मा गांधी को यहीं से उम्मीद की एक किरण नजर आई थी। देश का यही एकमात्र हिस्सा ऐसा था, जहां साम्प्रदायिक सद्भाव कायम था, जबकि देश के अन्य हिस्सों में लोग हिंसा की आग में झुलस रहे थे और हजारों लोग बेघर हो रहे थे। घाटी में भी एक ऐसा वक्त आया, जब लगा कि आतंकवाद और साम्प्रदायिकता की आंधी में कहीं कश्मीरियत के पांव ही न उखड़ जाएं। यद्यपि तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडितों को आतंकवाद के कारण घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, फिर भी साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म नहीं हुआ है। कश्मीरियत अभी भी जिन्दा है। यह कहना गलत न होगा कि सूफीवाद एक विचारधारा है और कश्मीरियत उसका फल। जब तक कश्मीरी संस्कृति दुनिया में जिन्दा रहेगी, यह विचारधारा भी मजबूत बनी रहेगी। इसमें कोई हैरत नहीं है कि कश्मीरियत जिन्दा थी, जिन्दा है और हमेशा जिन्दा रहेगी।
साभार: पीपुल्स समाचार, भोपाल