गांधी तोरे देश में...
-9/11( 2001) हमले के फौरन बाद से अमेरिका आगंतुकों के ‘वीजा’ को लेकर कितना कठोर हो चला है, जगजाहिर है। इसके ठीक इतर मुंबई में 1 जनवरी, 2008 को हुए आतंकी हमले के बाद भी हिंदुस्तान में पाकिस्तानियों का आना-जाना प्रतिबंधित नहीं किया गया। ऐसे उदाहरण संभवत: गांधी के देश में ही संभव हैं।
इसी महीने की तीन तारीख से दिल्ली में ‘19 वें राष्ट्रमंडल खेलों’ का शंखनाद होने जा रहा है। ऐन-केन प्रकारेण! मीडिया और केंद्र सरकार विरोधी पार्टियों ने भ्रष्टाचार/गड़बड़ियों और अव्यवस्थाओं को लेकर आयोजन की जो छीछालेदर की; वैसा साहस/दुस्साहस सिर्फ गांधी के देश में ही संभव है। वर्ष, 2008 में बीजिंग(चीन) में ‘ओलंपिक गेम्स’ हुए थे-भ्रष्टाचार/गड़बड़ियां और अव्यवस्थाएं वहां भी रही होंगी; लेकिन अंगुली उठाने की ताकत किसी ने नहीं दिखाई। प्रचलित कथन है-‘तोल मोल के बोल!’...लेकिन दुनिया के सबसे सशक्त लोकतांत्रिक देश बोले तो; गांधी के भारत में शब्दों को तोलना बेमानी-सा हो चला है। सरकार पर; राजकाज पर; यहां तक कि ‘न्याय प्रणाली’ पर सवाल खड़े करने का अधिकार सिर्फ गांधी के देश में ही संभव है।
अमिताभ फरोग
माना कि;
‘गड़बड़ियां/अव्यवस्थाएं/भ्रष्टाचार बहुत भरे हैं इस देश में/
फिर भी हम लगातार बढ़ते जा रहे हैं,
दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने की रेस में।’
तमाम अवरोधों/विरोधों के बावजूद यदि भारत स्वतंत्रता के बाद 63 वर्षों के भीतर दुनिया की तीसरी बड़ी ताकत के रूप में उभरा है, तो निश्चय ही यह हमारी उस लोकतांत्रिक व्यवस्था-प्रणाली की देन है, जिसे हम वजह/बेवजह ‘लचर!’ शब्द से संबोधित करते रहते हैं।
मुंबई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले के सारे जख्म सुखाते/दर्द बिसराते हुए ‘स्टार प्लस’ ने ‘छोटे उस्ताद-दो देशों की आवाज’ सिंगिंग रियलिटी शो शुरू किया। इसमें भारत और पाकिस्तान के चाइल्ड सिंगर्स शामिल हुए। मकसद वही वर्षों पुराना था-‘दोनों देशों के बीच बार-बार ताजा होते घृणा के जख्मों पर घी और हल्दी का लेप लगाना, ताकि आशाओं की बाती से टिमटिमाती सौहार्द्र की लौ बुझने न पाए।’
इस शो में पाकिस्तानी बच्चों की मौजूदगी पर ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(एमएनएस)’ ने घोर आपत्ति दर्ज कराई, लेकिन प्रोग्राम शुरू हुआ और खूब पसंद भी किया जा रहा है। ऐसा उदाहरण अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली(?) मुल्क में शायद ही संभव था। यह है हमारे गांधी का भारत।
हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लाख अंगुली उठाएं, सरकारों; ...और न्यायप्रणाली पर खूब कीचड़ उछालें, लेकिन ऐसा सिर्फ गांधी के देश में ही संभव है कि; जब अयोध्या जैसे पेंचीदा मसले सामने आते हैं, तब भी हम अपने मित्रों की फेहरिस्त से ‘हिंदू या मुस्लिम’ किसी का भी नाम नहीं काटते। हम अपने मित्रों को छोड़कर उनके समूचे समुदाय को शंका की निगाहों से देखते हैं, वे भी ठीक ऐसा ही करते होंगे, लेकिन जब हम दोनों साथ होते हैं, तब मंदिर-मस्जिद दोनों ही हमारे बीच की आत्मीयता/रिश्ते में आड़े नहीं आते।
दुनिया के तमाम मुल्क नस्लवाद या जातिगत हिंसा से जूझ रहे हैं, हम भी इससे अछूते नहीं है; बावजूद नक्सलियों/आतंकवादियों/सरकार-विद्रोहियों से लगातार सुलह-बातचीत की पेशकश होती रहती है। अफगानिस्तान और ईराक में शांति कायम करने अमेरिका लगातार अहिंसात्मक तौर-तरीके अपना रहा है। श्रीलंका ने दूसरे मुल्कों की फौजों की मदद से लिट्टे जैसे सर्वशक्तिमान सरकार विद्रोहियों को आखिरकार नेस्तानाबूत कर दिया, लेकिन हम कश्मीर में ऐसे ‘कुटिल प्रयोग’ नहीं करते। नक्सलियों को समूल नष्ट करने हवाई हमलों में बिलीव नहीं करते। वो इसलिए नहीं; कि सरकारें ऐसे कठिन निर्णय लेने से डरती हैं, वजह सिर्फ इतनी है कि;‘चार दोषी भले ही छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष न मारा जाए।’
राजनीति की छोड़िए, सिनेमा को फोकस करते हैं। क्या यह रोचक सत्य नहीं है कि भारतीय सिनेमा जितना ‘गांधी-दर्शन/वाद’ से प्रभावित रहा है, उससे कहीं ज्यादा ‘अंडरवर्ल्ड’ का विषय दर्शकों को रोमांचित करता रहा है। हमें गांधी(1982) के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ‘अकादमी अवार्ड’ हासिल होता है, तो ठीक इसके विपरीत सलमान खान की गुंडई बोले तो; ‘दंबग(2010)’ बॉक्स आॅफिस पर संजय दत्त की गांधीगीरी ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस(2003)’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई (2006)’ को कमाई के मामले में बहुत पीछे छोड़ देती है।
आमिर खान की ‘थ्री इडियट्स(2009)’ भी गांधीगीरी का एक नया फार्मूला ही कही जा सकती है, जिसमें तीन बेवकूफ युवा भारतीय गांधीजी के तीन बंदरों के प्रतीक हैं, फर्क केवल नजरिये का है। हम गांधीजी के बंदरों का उपहास उड़ाते आए हैं, क्योंकि वे सुनते नहीं, देखते नहीं और बोलते नहीं। थ्री इडियट्स भी अपनी मनमर्जी के मालिक थे, जो चाहा; वो किया, फिर भी उनमें दुनिया बदलने का माद्दा था। यह सिर्फ सोच का अंतर हैं, गांधीजी के तीनों बंदर आपसी सामंजस्य के प्रतीक भी माने जा सकते हैं। एक सुनता नहीं, लेकिन देखता और बोलता तो है, दूसरा बोलता नहीं, लेकिन सुनता और देखता तो है, जबकि तीसरा आंखों पर हथेली रखे हुए है, लेकिन बोलने और सुनने की उसमें असीम क्षमता है। गांधीजी के ये थ्री इडियट्स मंकी कामकाज के सटीक बंटवारे के सूचक भी तो बोले जा सकते हैं? बोले तो; बेवजह फटे में टांग न अड़ाएं।
भौतिक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न देशों में हमारी छवि ‘पुअर इंडिया’ की बनी हुई है। लेकिन यही पुअर मुल्क हमें वर्ष, 2009 में 8 ‘आस्कर अवार्ड (वर्ष-2008 में रिलीज हुई फिल्म-स्लम डॉग मिलियनेयर)’ दिलाता है। स्लम से भरा यही इंडिया 15 डॉलर मिलियन से निर्मित इस फिल्म से करीब 38 करोड़ डॉलर कमाता है और सारी दुनिया हमारी ‘जय हो...’ बोलती है। यह सब गांधी के भारत में ही संभव है।
और ऐसा भी सिर्फ गांधी के भारत में संभव है कि; जिस संगीतकार(एआर रहमान) की कल तक हम ‘जय हो..’ कर रहे थे, उसके माथे पर ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ के प्रमोशन सांग की असफलता का ‘कलंक’ लगाने से भी नहीं चूके। ऐसा केवल गांधी के भारत में ही पॉसिबल है कि; जिस फिल्म ने सरकारी व्यवस्थाओं की कलई खोलकर रख दी, वो फिल्म ‘पीपली लाइव’ आॅस्कर के लिए जाएगी।
ये तमाम उदाहरण गांधीगीरी के नये ‘फ्लेवर/कलेवर’ हैं। सार्थक फिल्मों के जनक श्याम बेनेगल ‘वेलडन अब्बा-(2010)’ के मार्फत सरकारी योजनाओं की गड़बड़िया सुधारने एक नई गांधीगीरी रचते हैं, तो प्रकाश झा ‘राजनीति-(2010)’ के जरिये गांधी के भारत का एक कड़वा सत्य दिखाते हैं। यहां भी क्लाइमेक्स में नाना पाटेकर की छवि में गांधी-दर्शन परिलक्षित होता है।
बोले तो; मामू...गांधी के भारत में; लोकतंत्र और न्यायप्रणाली में वो सब कर पाना संभव है, जिसे दूसरे मुल्कों में दुस्साहस और विद्रोह से परिभाषित किया जाता है।
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