शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011


रावण के अवतार सौ, एक अकेले राम

सदियां गुजर गर्इं, लाखों प्रयत्न व्यर्थ हुए, लेकिन रावण को मार पाना कभी संभव नहीं हो सका। रामयुग में भी रावण तमाम बुराइयों के अंश में लोगों के तंत्रिका तंत्र को उद्देलित करता रहा, सो कलयुग में उसे पराजित कर पाना कहां मुमकिन होगा? लंका जीतने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी रावण के दुष्प्रभावों से स्वयं को नहीं बचा पाए और सीता को परीक्षा से गुजरना पड़ा। ऐसी अग्निपरीक्षाएं कलयुग में नित होती हैं। कहे तों, राम रग-रग में बसते हैं/बहते हैं, लेकिन रावण हमारे तंत्र को प्रभावित करता है।

अमिताभ फरोग

आदमी ताउम्र दोहरी भूमिका निभाता है-एक दिल से दूसरी दिमाग से। दिल भावनाओं का प्रतीक है, तो दिमाग संवेदनाओं का। दैनिक जीवन में भावनाएं और संवेदनाएं दोनों का बराबर प्रवाह होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारी भावनाओं में बसते हैं। वे ऊर्जा बनकर नसों में बहते हुए दिल को पम्प करते हैं। राम आॅक्सीजन हैं, जो शिराओं में बहने वाले अशुद्ध रक्त को पवित्र करते हैं, तो धमनी के माध्यम से शुद्ध-संस्कार हमारे अंग-अंग तक प्रवाहित भी करते हैं। यानी राम हमारी शक्ति हैं-प्राण वायु हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि मायावी शक्ति पाने का मोह आदमी के तंत्र को उत्तेजित कर देता है और यही से रावण जन्मता है।

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर/आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।।

आदमी कितना भी कुछ अर्जित कर ले, धन-दौलत, यश-गान लेकिन वह मन से कभी नहीं अघाता। यह मानव की नियति है। यही नियति जब नीयत बन जाती है, तो आदमी सारी मार्यादाएं/भावनाएं भुलाकर घोर संवेदनशील बन बैठता है। यही से रावण पनपता है और हम जिंदगीभर रावणमयी संवदेनाओं की प्रसव पीड़ा भुगतते हैं।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर/कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।।

राम शक्ति हैं। हम मंत्र फूंक-फूंककर शक्ति जागृत करने का प्रयास करते रहते हैं। मंत्र का उच्चारण मन से होता है। मंत्र वायु हैं, और मन प्राण। प्राणों से निकली वायु हमारे ह्रदय में राम की प्राण प्रतिष्ठा करती है। मन एक मंदिर है और मंदिर पवित्र स्थल का प्रतीक। स्वाभाविक-सी बात है, जो मंदिर(मन) अपवित्र होगा; वहां राम कैसे विराजेंगे/बसेंगे? राम भावुकता के प्रतीक हैं, सो वे मानव को मझधार में नहीं छोड़ते, लेकिन ह्रदय में भी ठौर नहीं करते; किनारे बैठकर व्यक्ति के सारे पाप/पुण्य के लेख-जोख का विश्लेषण करते रहते हैं।

राम झरोखे बैठ के सबका मुजरा लेत/जैसी जाकी चाकरी वैसा वाको दैत।।

राम सदियों से जतन कर रहे हैं, हमारे भीतर ठीया किए बैठे रावण को मार गिराने का। वे प्राणों में शुद्ध वायु प्रवाहित कर रहे हैं, लेकिन रावण तंत्रिका तंत्र में बहते हुए हमारे मस्तिष्क को उत्तेजित करता रहता है। संभवत: योग से भी उत्तेजनाओं से उपजे हठ पर काबू पाना सरल नहीं है!
नाम भला-सा रख लिया, उल्टे सारे काम। रावण के अवतार सौ, एक अकेले राम।

जहां राम; वहां रावण कभी अप्रसांगिक नहीं हो सकता। यही शास्वत सत्य है। सतयुग में रावण के दस सिर थे, लेकिन कलयुग में ‘पहाड़ों-से’ गुणित हो रहे हैं।

अंक गणित-सी जिंदगी पढ़े पहाड़ा रोज, अपने ही धड़ पर लगे, अपना यह सिर बोझ। (यश मालवीय)

रावण एक बोझ है, जिसे हम सदियों से ढोते आ रहे हैं। यह पाप की गठरी; गोया हमारी कुल जमापूंजी-सी वंश-दर-वंश स्थानांतरित होती रहती है। इस गठरी में हमारा अहम भरा है, द्वेष-स्वार्थ और तमाम व्यक्तिगत हित ठुंसे पड़े हैं। राम भावुकता के प्रतीक हैं, लेकिन रावण रूपी संवेदनाओं की अग्नि अकसर भावुकता को मोम-सा पिघला डालती है। भावनाओं की एक सीमा होती है, जैसे ही वह लक्ष्मण रेखा लांघती है, रावण (संवेदनाएं) उसका हरण कर लेता है। काम-लोभ और मोह की यह ‘अति’ हमारी मति भ्रष्ट कर देती है। यहीं से रावण जन्मता है।

जहां काम है, लोभ है और मोह की मार/ वहां भला कैसे रहे, निर्मल पावन प्यार। (कुंअर बैचेन)

रावण हमारे मस्तिष्क में बैठा है, और लोक-तंत्र को अपने तरीके से संचालित कर रहा है। उसका अंत तभी संभव है, जब हम अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण करना सीख जाएंगे।

रावण भी मर जाएगा, करिए एक जतन। दोनों को एक-रंग दो, करनी और कथन।।

1 टिप्पणी:

Rajeysha ने कहा…

क्‍यों हम अपने भीतर को दो हि‍स्‍सों में बांट देते हैं। अच्‍छा और बुरा। और फि‍र कि‍स्‍से कवि‍ताएं लि‍खते हैं। राम और रावण के रूप में अतीत को यहां तक ले आते हैं और प्रश्‍न भी उठाते हैं कि‍ हमें अतीत को क्‍यों ढोना चाहि‍ये? शायद हमारा हकीकत में रस नहीं।