मंगलवार, 6 सितंबर 2011

इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चलके

अमिताभ बुधौलिया

शकील बदांयुनी साहब का लिखा यह गीत बच्चों को इंसाफ का संदेश देता है, लेकिन क्या खुद बच्चों के साथ सही इंसाफ हो पा रहा है? इसी वर्ष फरवरी में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के स्कॉलर होम पब्लिक स्कूल में फीस को लेकर बच्चे के बाल काट दिये गये थे। अगस्त माह में रायसेन जिले के ग्राम माखनी की प्राथमिक शाला में अध्ययनरत कक्षा 5वीं की छात्र रुचि लोधी, सुरभि एवं रोशनी लोधी को शिक्षक हरीराम विश्वकर्मा ने लाठियों से न सिर्फ बेरहम तरीके से पीटा; बल्कि इन्हें तीन घंटे कमरे में भी बंद कर रखा। सिंगरौली जिले के चितरंगी ब्लाक अंतर्गत झौंपो हाईस्कूल के 50 बच्चों ने 24 जुलाई को मानव अधिकार आयोग में मारपीट की शिकायत करते हुए आरोप लगाया है कि शिक्षक द्वारा बिना किसी कारण के प्रतिदिन उनकी पिटाई लगाई जा रही है। न केवल प्रदेश बल्कि पूरे देश में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां जरा सी बात पर स्कूली बच्चों को अनुशासन के नाम पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है।

आखिर हम क्यों भूल जाते हैं कि एक नन्ही से जान के कोमल से मुलायम शरीर पर जब एक तमांचे या बेंत की मार पड़ती होगी तो उसके नाजुक दिल पर क्या बीतती होगी? जब एक हंसत-खेलते बच्चे को उसके दोस्तों के सामने बेइज्जत किया जाता होगा, तो उसके मासूम मन पर क्या असर पड़ता होगा? आखिर हम क्यों नहीं सोचते कि जब एक बच्चे को घंटों भूखा या धूप पर खड़ा रखकर तड़पाया जाता होगा तो कितनी जान रह जाती होगी उसमें? क्या होमवर्क ना करना या एक शैतानी करना इतना बड़ा गुनाह है जिसकी सजा मौत होती है? अगर मौत नहीं तो एक ऐसी सजा जिसका जख्म शरीर और दिल पर लिए वो बच्चा सारी जिंदगी जीता है और अंदर ही अंदर घुटता रहता है।

दरअसल हर बच्चे की मुठ्ठी में उसकी तकदीर होती है। हर एक बच्चे की आंखों में उम्मीदों की दिवाली जगमगाती है। उसकी आंखें आने वाली दुनिया का सपना संजोती हैं, तो फिर क्यों कई बार वो आंखे वक्त से पहले ही बंद हो जाती हैं, या फिर हमेशा-हमेशा के लिए इनमें दर्द और दहशत का साया तैरने लगता है?

शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं विशेषकर छोटे बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार, मारपीट और अनेक तरह की प्रताड़ना के मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं। ये हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि शिक्षण संस्थाओं में छात्रों और शिक्षकों के बीच किस तरह के संबंध होना चाहिए। क्या पढ़ाई-लिखाई, अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षकों द्वारा छात्र-छात्राओं के साथ किया जाने वाला कठोर या यूं कहें कि अमानवीय व्यवहार सही माना जा सकता है? हालांकि ज्यादातर शिक्षक इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बच्चों के साथ मारपीट करना कानूनी दंडनीय अपराध है। बाल अधिकारों का अंतरराष्ट्रीय अधिनियम 1989 के तहत् बच्चों के अधिकारों को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए जो प्रावधान किए गये हैं, उसे भारत सरकार ने स्वीकार करते हुए कहा है कि बच्चों को स्वास्थ्य तरीके और स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने का अवसर दिया जाएगा। बच्चे से तात्पर्य 18 वर्ष से कम के प्रत्येक मनुष्य से है। अनुच्छेद 28 और 29 के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व, प्रतिभाओं तथा मानसिक और शारीरिक योग्यताओं का पूर्ण विकास तथा स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुकूल होना चाहिए. इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में बच्चों के साथ मारपीट आम बात है। बच्चों को हिन्दी या अंग्रेजी बोलने पर प्रताड़ित करना, स्कूल में टिफिन नहीं खाने देना, आर्थिक दंड लगाना, दिनभर दीवार के कोने में या दरवाजे के बाहर खड़ा रखना, उकडूूं या मुर्गा बनाकर खड़ा करना, उठक-बैठक लगवाना, जरा-सी नाराजगी पर छात्र-छात्राओं को थप्पड़ मारना, ये आम शिकायत है।

दरअसल आज के शिक्षकों के सामने छात्र-छात्राओं को गुरु-शिष्य को परस्पर बांधे रखना सबसे बड़ी चुनौती है। आधुनिक संचार प्रणाली और एक-दूसरे से श्रेष्ठ दिखने, कुछ अलग करने तथा उच्छृंखलता भरे माहौल में शिक्षण संस्थाओं की कथित पवित्रता और अनुशासन को बनाए रखना शिक्षकों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। दोष केवल उनका नहीं इसके लिए काफी हद तक शिक्षण प्रणाली और अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। ऐसे में शिक्षण संस्थान में अपने आदेश का पालन न होते देख या फिर अनुशासन की पकड़ को कमजोर होता देख बहुत से शिक्षक विचलित हो जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो अनअपेक्षित/अमानवीय है।

इस संबंध में मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी का संस्मरण याद आता है। अपने एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था - मेरी शुरुआती पढ़ाई दिल्ली के एक बेहतरीन स्कूल में हुई। वहां शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को थप्पड़ मारना आम बात थी। यहां तक कि चौथी-पांचवीं कक्षा के बच्चों की भी बेंत से पिटाई लगाई जाती थी। सौभाग्य से मैं इससे बचा रहा। हालांकि छठवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मैं उतना भाग्यशाली नहीं रहा। एक दिन स्कल्पचर की क्लास के दौरान जब मैं अपने एक मित्र के साथ सृजनात्मक मसले पर चर्चा कर रहा था कि तभी एक असिस्टेंट ने आकर मेरे सिर पर एक जोरदार चपत लगा दी। मैं गुस्से का घूंट पीकर रह गया। घर लौटने पर मैंने अपने पिता से कहा कि उन्हें इस मसले पर कुछ करना होगा। अगले दिन पिताजी मुझे स्कूल के प्रिंसिपल के पास लेकर गए और कहा कि वह नहीं चाहते कि उनके बेटे यानी मुझे स्कूल में शारीरिक दंड मिले। चर्चा करने के बाद यह तय हुआ कि अब से मेरी जेब में हमेशा एक पत्र रहेगा, जिसमें लिखा था कि यदि किसी टीचर को मुझसे कोई समस्या है तो वह इसकी लिखित शिकायत मेरे पिताजी से कर सकता है लेकिन मुझे स्कूल में कोई मारेगा नहीं। इस पत्र पर प्रिंसिपल आॅफिस की मुहर लगी थी। उसके बाद से इस स्कूल में किसी भी टीचर ने मुझे नहीं मारा। सच यह है कि किसी को (और खासकर स्कूल में बच्चों को) पीटकर हम अपनी शिक्षा की कमी को ही जाहिर करते हैं। यदि हम ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां शांति हो, जहां सड़कों पर दंगे न हों और जहां लोग सहिष्णु हों और एक-दूसरे से प्यार करें, तो हमें अपने बच्चों को स्कूल के शुरुआती जीवन से ही शांति, प्यार और सहिष्णुता के दर्शन कराने चाहिए।

अरिंदम एक शिक्षक के तौर पर कहते हैं कि ऐसा कोई कारण नहीं होता जिसके लिए किसी टीचर के लिए छात्र को क्लासरूम में या दूसरों के सामने मारना जरूरी हो जाए। यदि कोई शिक्षक अच्छा है और शिक्षण के प्रति समर्पित है, तो उसे पढ़ाने की प्रक्रिया में इतना आनंद आता है कि छात्रों के लिए भी यह मनोरंजक प्रक्रिया बन जाती है। अच्छे शिक्षक को कभी छात्रों के साथ समस्या नहीं होती। ये केवल उन शिक्षकों को ही होती है, जो खुद को सिद्ध करने के लिए शारीरिक दंड का शॉर्टकट तरीका अपनाते हैं। शारीरिक दंड बचपन में कभी कारगर नहीं होता।

जब शिक्षकों से इस संबंध में बात की जाती है, तो बहुत से शिक्षकों का तर्क होता है कि बच्चे यदि होमवर्क करके नहीं आते, समय पर स्कूल नहीं पहुंचते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और स्कूल के अनुशासन को तोड़ते हैं तो उन्हें मारना लाजिमी है। ऐसे समय में उन्हें तुलसीदास की यह शिक्षा तुरंत याद आती है कि-भय बिन प्रीत न होये गोंसाई। किंतु वास्तविकता में बच्चे भी मारपीट करने वाले, हमेशा उलहाना देने या बेइज्जत करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं का सम्मान नहीं करते। ऐसे शिक्षक/शिक्षिका के क्लास में आते ही बच्चों की आंखों में एक अलग किस्म की नफरत या भय का भाव होता है, जो शिक्षक के हटते ही उपहास या मजाक में तब्दील हो जाता है।

बच्चों के मनोविज्ञान को समझने वाले भोपाल के ख्यात मनोवैज्ञानिक डॉ. विनय मिश्रा कहते हैं कि हर बच्चा आइंस्टीन नहीं हो सकता। क्लास में पढ़ने वाले सभी बच्चों का आईक्यू लेवल अलग-अलग होता है. सभी बच्चों से एक-सी अपेक्षा करना ठीक नहीं है। वे नियमित रूप से पेरेंट टीचर मीटिंग पर जोर देते हुए कहते हैं कि यदि बच्चे से किसी भी प्रकार की शिकायत है, तो उसके अभिभावकों को सूचित कर उनके माध्यम से प्रॉब्लम को हल करना चाहिए। माह में एक दिन सभी अभिभावकों की मौजूदगी में मीटिंग होनी चाहिए।

इसी तरह शिक्षाविदें का मानना है कि शिक्षकों की समय-समय पर ट्रेनिंग होना चाहिए उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि बिना मारपीट के भी अलग-अलग टेक्निक से बच्चों को पढ़ाया-लिखाया जा सकता है। कई बार बच्चे स्कूल में होने वाली मारपीट से अपने पूरे एटिट्यूट को नेगेटिव बना लेते हैं। कई बच्चे होमवर्क, पढ़ाई, परीक्षा आदि के भय से घर से भाग जाते हैं, कई बच्चे असफलता के कारण आत्महत्या कर लेते हैं।

बच्चों का अच्छी ढंग से लालन-पालन और शिक्षण माता-पिता और शिक्षकों के आपसी तालमेल से ही संभव है। बहुत सारे मां-बाप तो शिक्षकों को इस बात का अधिकार सहर्ष दे देते हैं कि उनके बच्चे मारपीट करें तो कोई मुरब्बत न करें, जरूरी पड़े तो अच्छी पिटाई भी करें। बहुत सारे मां-बाप प्रतिस्पर्धा के चक्कर में पड़कर अपने बच्चे को हमेशा हर क्षेत्र में अव्वल ही लाना चाहते हैं, तो दूसरी ओर कुछ अभिभावक अपने बच्चों की गतिविधियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर उन्हें स्कूल, कॉलेज, छात्रावास के भरोसे छोड़कर निश्चित हो जाते हैं। नाबालिग बच्चों को मोबाइल, मोटरसाइकिल और बड़ी मात्रा में जेब खर्च देने वाले मां-बाप इस बात से बेखबर रहते हैं कि उनका बच्चा जिस संस्थान में पढ़ रहा है, वहां सभी बच्चे एक से नहीं हैं, बच्चों में यहीं से ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और अहम् की भावना विकसित होती है। जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावक भी इस बात का ध्यान रखें कि उनका बच्चा किस तरह की अपेक्षा करता है, उसका व्यवहार कैसा है, उसकी वाजिब जरूरतें क्या हैं, वह पढ़ाई का कितना बोझ सह सकता है?

क्लास में सभी बच्चे फर्स्ट क्लास पास नहीं हो सकते। बच्चों को केवल डरा-धमका, मारपीट करके ही सुधारा नहीं जा सकता, बल्कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखकर उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर उन्हें वे ही सुविधाएं, साधन उपलब्ध कराएं जो उनके व्यक्तित्व विकास, पढ़ाई-लिखाई और बेहतर नागरिक बनाने के लिए जरूरी हैं। यही नहीं उनके शिक्षकों के साथ नियमित संवाद अभिभावक की भी जिम्मेदारी है।

पश्चिमी देशों में बाल अधिकारों की रक्षा के व्यापक प्रबंध के बावजूद बच्चों में उद्दंडता बढ़ रही है, वे कक्षाओं में पिस्तौल चला रहे हैं, हिंसा की ओर उन्मुख हो रहे हैं, क्योंकि पारिवारिक विघटन और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव उन्हें असहिष्णु बना रहा है। हमारे यहां अभी स्थिति इतनी दयनीय नहीं हुई है कि बाल अधिकारों की रक्षा के लिए माता-पिता, शिक्षक और रिश्तेदारों के लिए कठोर कानून की दरकार हो। आवश्यकता इस बात की है कि समाज, परिवार और विद्यालय के वातावरण को संवेदनशील, रचनात्मक और उत्तरदायित्वपूर्ण बनाया जाए। शिक्षकों को भलीभांति प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे बच्चों में जिम्मेदारी की भावना विकसित कर सकें। माता-पिता, शिक्षक और बच्चे के बीच आत्मीय और विश्वसनीय संबंध स्थापित करने के बाद ही अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। भारत में पश्चिम की तर्ज पर कानून बनाकर बाल-हिंसा नहीं रोकी जा सकती। जरा सोचिए, बच्चे की शिकायत पर यदि मां-बाप या शिक्षक जेल भेजे जाने लगे तो हमारी परिवार-व्यवस्था और शिक्षा का क्या हश्र होगा? बच्चे बोझ लगने लगेंगे। न कोई संतान को जन्म देना चाहेगा और न ही कोई शिक्षक बनना चाहेगा। निश्चय ही बच्चों के प्रति हिंसा रोकी जानी चाहिए और उन्हें वे सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए जिससे वे जिम्मेदार नागरिक बन सकें। लेकिन भारत में शिक्षक और अभिभावक के सम्मान को दरकिनार कर सिर्फ कानून के बल पर इस लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं।

दरअसल हमें कानून से अधिक ऐसे व्यवहारिक प्रयोगों की जरूरत है, जो स्कूलों में शारीरिक दंड की प्रक्रिया को पूरी तरह रोक दे। स्कूल का काम बच्चों की जिंदगी संवारना है, बर्बाद करना नहीं। हां, स्कूल में कुछ ऐसे बच्चे भी आते हैं, जिनका रवैया नकारात्मक और अनुशासनहीन हो सकता है। टीचर में यह क्षमता होनी चाहिए कि वह उनके बर्ताव को बदल सके। हां, यदि टीचर छात्रों को बदलने के लिहाज से समुचित रूप से प्रशिक्षित न हो और बच्चा बहुत उद्दंड और बिगड़ैल हो तो टीचर ज्यादा से ज्यादा यही करे कि उस बच्चे को उसके माता-पिता या कानून अनुपालकों को सौंप दे। लेकिन न तो हमारे स्कूल जेल हैं, न बच्चे मुजरिम और न ही टीचर खुद पुलिस है जिसे बच्चों को शारीरिक रूप से दंडित करने का कोई कानूनी अधिकार दिया गया हो।

अच्छा टीचर वही है, जो मानता हो कि उसका काम शिक्षा के जरिए बच्चों को बेहतर इंसान बनाना है। वह मानता हो कि उसका काम बच्चों को यह भरोसा दिलाना है कि वे क्लास के अंदर जो भी सीखेंगे, उससे उनका जीवन बदलेगा और वे बेहतर इंसान बनेंगे। बच्चों के व्यक्तित्व को निखारने के लिए स्रेह और कोमल स्पर्श की आवश्यकता होती है। उन्हे डांटकर या अपमानित करके गलती करने का एहसास नहीं कराया जा सकता। कड़ी या अपमानजनक सजा देने के बजाय उन्हे सुधारने के इंटेलिजेंट और क्रिएटिव तरीके अपनाएं जाने चाहिए जिससे बच्चे सही और गलत के वास्तविक अंतर को समझ पाएं।







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