रविवार, 10 अगस्त 2008

नहर

  • कहानी अमिताभ फरोग
चंदू पूरी रात नहर पर आंखें गड़ाए बैठा रहा, लेकिन पानी नहीं आया। हां, ठिठुरन भरी रात सिर्फ एक फटी चादर के आसरे काटने के दुस्साहस में उसकी हड्डियां जरूर कड़कड़ाने लगी थीं। सर्द हवाओं के थपेड़े सहते-सहते आंखें लाल हो चली थीं और उनसे पानी टपकने लगा था। ‘वीरा तो बोल रहा था कि कल नहर में जरूर पानी छोड़ा जाएगा...फिर क्या हुआ...?’ चंदू की आंखें डबडबाने लगीं। वह किसी गहरी सोच में डूबता जा रहा था। बाजू के खेत से दौड़ते-फांदते निकले गाय-बछड़ों के झंुड से उसका ध्यान टूटा। चंदू ने आसमान की ओर ताका। सूरज कोहरे में छिपा हुआ था। ‘पता नहीं रधिया ने चारे-पानी के लिए गाय-बछेरूओं को छोड़ा भी होगा कि नहीं...?’ चंदू के होेंठ फड़के। उसके माथे पर गुस्सा और ंिचंता दोनों का मिलाजुला भाव झलक रहा था। तभी दूर से आवाज सुनाई दी-‘अरे! चंदूवा...जल्दी घर पौंचो, भौजाई की तबियत भौत बिगड़ गई।’ एक आदमी हांफते हुए चंदू के पास आकर रूका। उसकी रोनी-सी सूरत देखकर चंदू घबरा गया। चंदू ने खेतों की ओर देखा। गेहूं की बालियां सिंचाई के बिना पीली पड़ती जा रही थीं। उसे अपने बिटुआ का मुरझाया चेहरा याद आ गया।
डाक्टरों ने बिटुआ को पीलिया बताया था। इकलौते बेटे की बीमारी से रधिया भी कुछ चिड़चिड़ी हो चली थी। इलाज के लिए पैसों की जुगाड़ में इधर-उधर हाथ फैलाने के बाद भी जब निराशा हाथ लगी, तब रधिया किसी बेबस परिंदे की भांति फड़फड़ा-सी पड़ी थी-‘का अब भी खेत का मोह नईं छूटत..? ऐसे खेत कांे बैच काय नईं दैत। जो बिगड़े वकत में भी काम नईं आत, ऐसे खेतन खों का चाटोगे...?’ चंदू को रधिया के शब्द तीर से चुभे। उसे यूं लगा मानों रधिया ने एक लाइन में खड़े करके उसके दादा-परदादा सबकी मां-बहन एक कर दी हो। वह पिनक उठा-‘भेन...चो...जैई खेतन से तुमाई लाज ढकी है। नईं तो काउ कै झां झाड़ू-पौंछा लगात फिरतीं...र...न...डी...।’ चंदू सीधे गाली-गलौज पर उतर आया था। रधिया भी भड़क उठी-‘तो फिर मरत दम तक छाती से लगाए रइयो...?’ चंदू का खून खौल उठा और उसका हाथ चल गया। चटाक! रधिया सन्न रह गई। कुछ देर के लिए एकदम खामोशी छा गई, फिर जैसे भूचाल-सा आ गया। रधिया रौद्ररूप में उतर आई-‘बिटुआ मरौ जा रओ और तुमकों ससुरे खेतन की पड़ी...आग लगे ऐसे खेतन कों...। जे खेतन ने हमें कौन सो धन्य-धान्य कर दऔ..? हमाय ऊपर करजई लादो है। पैलंे तुमाय बाप कैत रए कै नहर आ जान दो, खेत सौनो उगलें। नहर बने चार साल हो गए। सौनों की तो दूर, चार सूखी रोटियन को इंतजाम भी नईं कर पाए तुमाय खेत...? दो साल से तुमाई भी एकई रट सुन रए कि जा साल नहर से खेतन तक पानी जरूर आहे...बताऔ कहां बिला गऔ पानी...बताऔ अब चुप काय खड़े...?’ चंदू गुस्से में फुंकारता-सा पैर पटकते हुए चबूतरे पर आकर बैठ गया। अचानक अंदर से रधिया के चीखने की आवाज आई-‘हमाओ बिटुआ....हाय....अब जीवनभर छाती से लगाय रइयो खेतन को...?’ चंदू बदहवास अंदर की ओर दौड़ा। रधिया चुन्नू को छाती से लगाए पूरे वेग से चीख रही थी। चंदू का दिमाग सुन्न पड़ गया। वह धम्म से जमीन पर गिर-सा पड़ा।अचानक उस आदमी ने चंदू की बाह पकड़ के जोर से झकझोड़ा-‘देर नईं करो चंदूवा...जाके भौजाई को असपताल ले जाओ...नई तो, बिटुआ के जैइसे...?’ चंदू पूरी ताकत से घर की ओर दौड़ा। हांफते-भागते वह घर पहुंचा, तो वहां भीड़ देखकर उसका दिमाग चकरा गया। पड़ोसियों ने बताया कि रधिया ने कुछ अंट-शंट शायद जहर खाया था। रधिया को गुजरे हुए सालभर हो चला था। चंदू नहर की मुंडेर पर बैठा पथराई आंखें से एक टक खेत को देख रहा था। गेहूं की बालियां हवा के झोंकों के संग मदहोश-सी लहलहा रही थीं। जहां तक उसकी नजर पहुंच सकती थी, उसने वहां तक नहर को देखने को कोशिश की। पानी अठखेलियां करता हुआ उसके करीब से गुजरता जा रहा था। ‘ऐ चंदू! झां का कर रओ...जा, जानवरन को चारो-पानी डालकें आ...।’ चंदू पीछे की ओर पलटा। सामने बड़ी-बड़ी मूंछों वाला जोबरसिंह उसे घूर-सा रहा था। बीच-बीच में वह एक हाथ से अपनी मूंछों पर ताव देता जा रहा था जबकि दूसरे हाथ से जमीन पर थोड़ी-सी ताकत से लट्ठ पटक रहा था। चंदू कुछ नहीं बोला। उसने पहले पूरे जोश से बहती नहर, फिर खेतों में लहलहाती फसल और आखिर में दुबारा जोबरसिंह की ओर आंखें पलटाईं। ‘चंदू जौ लट्ठ देख रए...? छोटे-मोटे काश्तकारन के दम की बात नईंयां नहर से पानी लैवो। हम तो पैलेईं कैत रए हते कि खेत हमें बेच देओ...खैर अब हम देखत कौन माई कौ लाल ई खेत तक पानी नईं आन दैत...?’ जोबरसिंह के शब्दों में चंदू के लिए सहानुभूति और खुद के लिए गौरव झलका। अचानक दूर से कोई चीखते-चिल्लाते हुए आते दिखा। ‘जोबर दाऊ चमारन ने नहर को पानी रौक दऔ। कैत हैं पैलें उनके खेतन की प्यास बुझेगी, बाद में और काउ की फसलन कों पानी मिलेगो?’ जोबरसिंह फुंकार-सा उठा-‘मा...द....र..चो...जिन चमारन को भौत रंगदारी चढ़ रई...? कमीनन कौं सरकार ने चार-छह हाथ जमीन का दै दई..हरामी खुद को जागीरदार समझन लगै हैं...?’ चंदू निष्प्राण-सा खड़ा रहा। उसने नहर की ओर देखा। पानी का वेग धीरे-धीरे उतरता जा रहा था। उसके चेहरे पर हल्की पीली-सी मुस्कान उभरी। वह खेतों की ओर पलटा। बालियों ने जैसे लहलहाना बंद-सा कर दिया था।जोबरसिंह एक हाथ से धोती संभालते और दूजे हाथ से जमीन पर गुस्से में लट्ठ पटकते हुए उस आदमी पर गुर्राया-‘अब खड़े-खड़े मों का देखत हो...? जाकें लल्ला और बिलुआ को बुलाके ला। ...और हां, कै दिओ कि लठियां-बरछीं संग लेकें आएं। जे चमरन को खेती करवौ न भुला दऔ तो हमाऔ नाम जोबर नईं...मां...के...लौ.....?’ वह आदमी अपनी फटी धोती संभालते हुए दौड़ते हुए दूर निकल गया था।जोबरसिंह ने खा जाने वाली नजरों से चंदू की ओर देखा, पर चंदू नहीं डरा। ‘अब तुम काए कै लानै खड़े..? भेन...के...देख लो, जा खेती-बाड़ी में कित्ते अरे-टंटे होत हैं...? पैलेईं जो बात समझ लई होती, तोे जोरू और बच्चा को मरवें से बचा लैते...?’ चंदू ने नहर को देखा। पानी की धार पतली हो गई थी। अचानक दूर कहीं शोर मचा-मार दो सालन कों....नहर का बाप की समझ रखी है...। कोई गला-फाड़कर गालियां बक रहा था-हमाय खेतन तक पानी नईं आओ तो सा....ली...जो नहर नई बच पै।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

nice story with a issue. bundelkhandi put is also very good.

बेनामी ने कहा…

nice story with nice subject.

बेनामी ने कहा…

sir kahani ka bundelkhandi touch bahut achha hai. aapko badhai