साझ ढले मंदिर को निकली थी...
जब गुंडे उसे उठा ले गए...
मंदिर के पीछे पड़ी मिली...
वह अर्धनग्न हालत में...
समीप पड़ी थी पूजा की थाली और फूल...
देवी दर्शन की चाह थी...
बस इतनी-सी थी उसकी भूल।
भगदड़
भागे जा रहे थे भक्त...
एक-दूसरे के ऊपर...
दबे-कुचले लोग...
चीख रहे थे...
कौन बचाता उन्हें...
ईश्वर भी तो असहाय खड़ा था...
निःभाव सब देख रहा था!
दंगा
बहुत खटखटाया उसने दरवाजा...
चीखता रहा, चिल्लाता रहा...
लेकिन मैंने ठूंस ली थीं अंगुलियाँ अपने कानों में...
और जोर-जोर से पढने लगा गीता/कुरान/ बाइबिल...
ताकि बचा रहूं अ-धर्मी होने से...
बचा रहूं उसे बचाने के पाप से।
आँचल
कहाँ छिपाती...
अपने बेटे को...
दरिंदों ने आंचल भी कर दिया था तार-तार...
न बचा सकी बेटे को...
और न ही बच सकी लाज।
अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
2 टिप्पणियां:
'uf! saree ke saree bhut marmik lakin sach ko smetey hue, ab or kya khen..."
regards
bhiya bhot ahcci kavita hai
novratra me he asi ghatna kyo hoti ha
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