शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

ग़ज़ल

मत पूछिए हाल शहर का...
जैसे इन्तजार हो कहर का।

खून पीकर मुसंडे हो रहे हैं खटमल...
असर नहीं होता उन पर जहर का।

ठूंठों के बीच खड़े हैं बिजूका...
सूखा पड़ा है कंठ नहर का।

कब चल जायें छुरियां पता नहीं...
उजड्ड है मूड चुनावी लहर का।

कत्ल हुई इंसानियत बीच चौराहे पर...
सड़कें सुनसान थीं, वक्त था दोपहर का।
अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया!!

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.