सोमवार, 5 जनवरी 2009



'वो' आए और दो मिनट में चर गए

खूब भींचीं मुट्ठियां, कुछ हुआ नहीं...
किसे पता, वो झुके या हम डर गए।

ठंडा पड़ गया गोला-बारूद पड़े-पड़े...
सीमा पर सैनिक बिना लडे़ ही मर गए।

अमेरिकी स्पर्श का असर तो देखिए...
जरा-सा सहलाया, सारे जख्म भर गए।

जमाना बदला, नहीं बदली उनकी आदत...
जिस थाली में खाया उसी में छेद कर गए।

दिन-रात बोये सदभावना के बीज हमने...
'वो' आए और दो मिनट में चर गए।

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

7 टिप्‍पणियां:

श्रुति अग्रवाल ने कहा…

अमिताभ कैसे हैं? आपकी रचना ने भारत के वास्तविक हालात को चित्रित किया। यदि हम अब चुप बैठे रहे तो फिर वहीं बात होगी कि साँप निकल गया लाठी पीटते रहे।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत समय पर लिक्खी है ये कविता आपने. सचमुच आज कर भारत का हाल कुछ ऐसा ही है
काश इसको मनमोहन सिंह जी पढ़ते तो जानते देश क्या चाहता है

arun prakash ने कहा…

बहुत खूबसूरत कविता

राज भाटिय़ा ने कहा…

अमेरिकी स्पर्श का असर तो देखिए...
जरा-सा सहलाया, सारे जख्म भर गए।
भाई आप की कविता... आज हम सब की यही जुबान है आप ने बिलकुल सही लिखा है, इस कविता मे हम सब का दर्द है, कब तक चुप बेठे??
धन्यवाद

hradesh ने कहा…

aapki kavita wakai bahut aachi hai aapne desh hit ki baat kari hai jo aachi lagi

Unknown ने कहा…

Amitabh aapne bahut sahi wakt par sahi likha hai. Great...

बेनामी ने कहा…

achi racna hai sir