मंगलवार, 27 जनवरी 2009


'हम झोपड़ी के कुत्ते'
यह ठीक वैसी ही स्थिति है, जैसी गुलाम भारत में अंग्रेजों के प्रति वफादारी जताने लोग अपनों का ही गला नपवाने में गौरवान्वित महसूस करते थे। 'स्लमडॉग मिलिनेअर' को मिला अंतर्राष्ट्रीय गौरव और पुरस्कार हमारी शर्म के बेपर्दा होने सरीखा है, अफसोस! हम ग्लोबल होने की चाह में खुद के नंगईपन को और उघाड़-उघाड़कर दिखा रहे हैं। यह नस्लभेद और रंगभेद के प्रति वैसा ही नजरिया है, जो महलों में होने वाले शादी-ब्याह समारोह में अकसर परिलक्षित होता है। बचा-खुचा खाना बतौर पुण्य-दान झुग्गियों में बंटवा दिया जाता है-मतलब जूठन से पुण्य कबाडऩे का हुनर और खुद के ऊंचा होने पर इतराना। 'स्लमडॉग मिलिनेअर' की वाहवाही का सच बयां करता नीलेश कुमार का गिद्द के लिए भेजा गया खास लेख। नीलेश पेशे से पत्रकार हैं और इन दिनों राजस्थान पत्रिका के जयपुर स्थित मुख्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे हैं...
पिछले दिनों एक अंग्रेज बहादुर आए थे, अपना मुल्क (ब्रिटेन) छोडक़र, हमारे देश। डैनी बोएले नाम है, उनका। फिल्में बनाते हैं, अंग्रेजी की। तरक्की पसन्द दुनिया के गोरी चमड़ी वाले लोगों के साथ नए जमाने की फिल्में बनाते-बनाते बोर हो गए तो चले आए इस देश में हवा-पानी बदलने। यहां आकर उन्होंने खूब कोशिश की कि इस देश में कुछ ऐसा मिल जाए, जिसे नए दौर की तरक्की पसन्द चीजों के साथ जोड़ा जा सके और उस पर फिल्म बनाई जा सके। अफसोस! उन्हें कुछ नहीं मिला, सिवाय एक टीवी कार्यक्रम, 'कौन बनेगा करोड़पति' के। कार्यक्रम भी ऐसा कि जिसका आइडिया हू-ब-हू हमारे फिल्मकारों ने उन्हीं अंग्रेज बहादुर के देश से चुराया था। खूब हिट हुआ था, यह कार्यक्रम। कुछ दो-चार लोग तो करोड़पति तक बन गए। बस यहीं से हमारे इन अंग्रेज बहादुर को नई कहानी का मसाला मिल गया। उन्होंने भारत की झोपड़पट्टियों में रहने वाले एक 'कुत्ते' (लडक़े) के इस टीवी कार्यक्रम के जरिए करोड़पति बनने की अद्भुत कहानी रच डाली।

अंग्रेज बहादुर हैं, अंग्रेजियत का चश्मा चढ़ा रखा है इसलिए एक जीता-जागता हाड़-मांस का लडक़ा भी कुत्ता ही नजर आया और भारत जैसे समृद्ध, विशाल और विविध आयामी देश में दिखाने के लिए सिर्फ झोपड़पट्टियां। कुछ और दिखता भी कैसे? इन अंग्रेज बहादुरों के सामने हम भारतीयों की हैसियत ही क्या है, जो कुछ और नजर आ जाता? खैर! फिल्म बन गई। हिट हो गई, दुनिया में डंका बज गया। गोल्डन ग्लोब जैसा प्रतिष्ठित सम्मान भी चार अलग-अलग श्रेणियों में मिल गया। अब ऑस्कर जैसे महाप्रतिष्ठित सम्मान के लिए पूरी दस श्रेणियों में नामांकित की गई है, यह फिल्म। अब यह बात अलग है कि ये दोनों ही महान सम्मान 'अंग्रेज बहादुरों के, अंग्रेज बहादुरों के लिए और अंग्रेज बहादुरों द्वारा' ही दिए जाते हैं। इस फिल्म को एक अंग्रेजी बाबू ने बनाया था, वह भी पूरी अंग्रेजियत के साथ, भारतीयों को उनकी हैसियत बताते हुए। सो, इतने महान सम्मान की हकदार तो इस फिल्म को बनना ही था और वह बनी भी। हम भी खुश हैं। इतने बड़े-बड़े सम्मान हमारे देश में बनी किसी फिल्म को जो मिल रहे हैं। अब क्या फर्क पड़ता है जो इस फिल्म के जरिए 'भारतीय कुत्तों' के रूप में हमारी गुलामी के दिनों वाली पहचान को एक नई परिभाषा मिली हो? इन अंग्रेज बहादुर ने फिल्म के शीर्षक के मार्फत बीते सालों के हमारे जख्मों को फिर कुरेद दिया हो? क्या फर्क पड़ता है अगर पराधीनता के समय में अंग्रेजों से हमारे स्वाभिमान की लड़ाई दिखाने वाली एक फिल्म (लगान-2002) को इन्हीं अंग्रेजों ने इन्हीं महानतम सम्मानों के लायक न समझा हो। समझते भी कैसे? उस फिल्म में अंग्रेज बहादुरों को झोपड़पट्टियों में रहने वाले इन्हीं गरीब 'भारतीय कुत्तों' के हाथों फिल्मी क्रिकेट मैच में पराजय का सामना जो करना पड़ा था और लगान खोना पड़ा था। हम खुश हैं कि हमारे देश गुलाबी शहर के साहित्यि के प्रतिष्ठित मंच पर एक 'भारतीय कुत्ता' अंग्रेज बहादुर हो गया। ब्रिटेन से लौटा जो था, अंग्रेजियत पढक़र, और सीखकर भी। सुना है, किस्सागोई भी अंग्रेजी में ही करता है। कविताएं और उपन्यास लिखता है लेकिन वह भी सिर्फ अंग्रेजों के लिए। बांसुरी बजाते हुए शायद तान भी अंग्रेजी सुरों की ही छेड़ता होगा। अब उसे शर्म आती है, खुद को भारतीय कहलाने में इसलिए रवायतें (परम्पराएं) भी अंग्रेजियत वाली अपना ली हैं। अंग्रेजियत इसकी रगों में इस कदर दौडऩे लगी है कि छोटे-छोटे बच्चों और बड़े-बुजुर्गों के सामने उन्हीं से सवाल-जवाब करते हुए जाम छलकाने में संकोच नहीं करता। भला संकोच करे भी क्यों? 'भारतीय कुत्ते' के विशेषण से निजात पाने की छटपटाहट जो है, इसमें। ऐसे ही और भी कई लोगों में इसी तरह की छटपटाहट नजर आती है। इसीलिए वे इसकी करतूतों को वाजिब ठहराते हैं। ये लोग 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' कहलाकर मिले महाप्रतिष्ठित सम्मान पर भी खूब खुशियां मनाते हैं। हर सम्भव एंगल को कवर करने की कोशिश करते हैं। फिल्म की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं, अखबारों में लेख लिखते हैं और बताते हैं कि पहली बार किसी 'भारतीय कुत्ते' ने इतनी ऊंचाई नापी है। ये वे लोग मान-अपमान की परवाह किए बगैर बस अंग्रेजियत में घुलमिल जाना चाहते हैं , एकाकार हो जाना चाहते हैं। लेकिन! लेकिन, चन्द लोग ऐसे भी हैं, जिनको इन तरक्की पसन्द लोगों की यह छटपटाहट, ये खुशी जरा भी नहीं सुहाती। इन लोगों को 'झोपड़पट्टी का कुत्ता' जैसे विशेषणों पर ऐतराज होता है। ये लोग अपने जमीर के जिन्दा होने का दावा करते हैं। ये कहते हैं कि ऐसे विशेषणों से उनके 'आत्मसम्मान', 'स्वाभिमान' जैसी किसी चीज को चोट पहुंची है। इन्हीं लोगों ने गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर भारतीयों को 'झोपड़ी का कुत्ता' बताने वाली अंग्रेज बहादुर की महान् फिल्म का शीर्षक और पटकथा बदलने की मांग की है। दरअसल, इन लोगों के अन्दर दूसरे किस्म की छटपटाहट है, जो नस्लभेद का शिकार होने पर अक्सर पैदा हो जाती है। इसे दूर करने के लिए ये विशालकाय नक्कारखाने में तूतियां बजाते हैं, इस बार भी बजा रहे हैं। लेकिन हमें इन तूतियों की आवाजों और चन्द गैरतमन्द लोगों की छटपटाहट पर ध्यान नहीं देना है। हमें इस वक्त सिर्फ खुश होना चाहिए कि हम दुनिया के सबसे बड़े सम्मान से सम्मानित 'झोपड़पट्टी के कुत्ते हैं।'

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति.............एक अच्छा व्यंग सो कॉल्ड संस्कृति पर