रविवार, 5 अप्रैल 2009

‘बालिका वधू’ के बसंत यानी सत्यजीत शर्मा से बातचीत



‘लड़कियां’ फिक्र का मुद्दा होना चाहिए

अमिताभ फरोग

कलर्स चैनल के सर्वाधिक लोकप्रिय धारावाहिक ‘बालिका वधु’ ने स्त्री-पक्ष को सामाजिक बहस में तब्दील करने का कार्य किया है। भारत में लड़कियों की घटती संख्या और उनके प्रति सामाजिक सोच पर तीखा प्रहार करते इस धारावाहिक में बसंत का किरदार निभा रहे सत्यजीत शर्मा मानते हैं कि ‘स्त्री पक्ष’ फिक्र का मुद्दा होना चाहिए, तभी इस संकट को टाला जा सकता है। ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा’ ’से अभिनय का सबक सीखने वाले सत्यजीत ने ‘बालिका वधू’ और रंगमंच के विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की..

बालिका वधू और सामाजिक चेतना:
धारावाहिक ने भारतीय दर्शकों में गहरी पैठ बनाई है, जो इस बात का संकेत है कि ऐसा कुछ तो है जो लोगों को चिंतन पर विवश कर रहा है। अगर बालिका वधू से थोड़ी-बहुत भी जागरुकता आ रही है, तो यह अच्छी बात है। छोटे शहरों और कस्बों के लोग धारावाहिक के हरेक पहलू को व्यक्तिगततौर पर समाज में देख और महसूस करते आए हैं, इसलिए उनकी सोच बदले तो बेहतर रहेगा। खासकर, बड़े शहरों के लिए इस धारावाहिक में दिखाए जा रहे तमाम स्त्री पक्ष अनोखी चीज-सरीखे होते हैं। वो सोचते हैं कि किसी दुनिया में ऐसा होता होगा? बालिका विवाह, बेमेल विवाह और विधवाओं से अछूत-सा बर्ताव महानगरों में रहने वालों को अचंभित करती है। दरअसल, ये विसंगतियां, बुराइयां ग्रामीण अंचलों और छोटे शहरों में अधिक दिखाई देती हैं। इस धारावाहिक ने एक बात बहुत अच्छी की, कि लोगों को खासकर बड़े शहरों के लोगों को भारतीय रीति-रिवाजों के इस स्याह पक्ष से सीधा साक्षात्कार कराया। यह बालिका वधू से भारतीय समाज की सोच में तनिक भी परिवर्तन आता है, तो वो जागरुकता की पहली सीढ़ी होगी-लोग इस दिशा में कुछ अच्छा प्रयास करें, वो बाद की बात है। जहां देश में लड़कियों की घटती संख्या की बात है, तो यह गंभीर विषय है। इसके लिए सभी को सचेत होना होगा। इसे लेकर सबको ‘परेशान’ होना चाहिए। यह फिक्र का मुद्दा होना चाहिए। जहां तक धारावाहिक से ‘चेतना’ आने का सवाल है-लोग जरा-भी जागरुक हो जाएं, तो परिवर्तन अवश्य आएगा।

बसंत और सत्यजीत की सोच/परंपरागत धारणाएं:
परंपरागत होना या रूढ़िवादी संस्कारों में जीना वक्त दोनों की परिभाषाएं वक्त और परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। जिस रीति-रिवाज को कल तक भारतीय समाज संस्कारों के रूप में आत्मसात करता था, वो जरूरी नहीं कि आज भी उन्हें हम अपनाएं। जिस विचारधारा या संस्कारों को आज हम रूढ़िवाद से जोड़कर देख रहे हों, कल तक वे हमारे समाज के अटूट हिस्से रहे होंगे! ‘बसंत’ को लेकर मेरे भीतर कोई दुर्भावना नहीं है और न ही लगाव। बसंत जिन स्थितियों/परिस्थितियों से गुजर रहा है,कभी न कभी हम सभी उनके भोग चुके हैं, उन्हें देख चुके हैं। जहां तक मेरी बात है-मैं व्यक्तिगततौर पर ‘वैचारिक स्वतंत्रता’ में विश्वास करता हूं। ‘वैचारिक स्वतंत्रता’ से तात्पर्य मैं सदैव सही सोच और कार्य के साथ जीने का प्रयास करता हूं। परंपरागत होना कोई बुरा नहीं है, लेकिन आपकी सोच क्या है? यह महत्वपूर्ण बात है। मेरे भीतर बसंत कभी घर नहीं कर पाया। बसंत के जीवन की अपनी एक सामजिक यात्रा, दिक्कतें और परेशानियां हैं-मेरी अपनी। दोनों अपने-अपने वर्तमान सामाजिक परिवेश में जी रहे हैं। अगर मैं अपने नजरिये से बसंत का विश्लेषण करूं तो वह एक ऐसा व्यक्ति है, जो सामाजिक परंपराओं में विश्वास करता है, उन्हें पूरी शिद्दत से जीता है। इसी पहलू को अगर शहरी नजरिये से देखूं तो निश्चय ही बसंत रूढ़िवादी नजर आएगा।

ड्रीम रोल :
एक पेशेवर अभिनेता होने के नाते सबसे पहले मैं यही चाहता हूं कि मेरे पास काम हो, उसके बाद अच्छे और बुरे किरदार की बात आती है। कौन सा किरदार ठीक से निभाया और कौन सा नहीं, यह उसी वक्त तक जेहन में रहता है। बाद में कुछ नहीं सोचता, बस अगले कार्य को अच्छे ढंग से निभाने में जुट जाता हूं। साफ कहूं तो मैंने कभी भी इस बारे में सोचा ही नहीं। एक अभिनेता होने के नाते सदैव मेरा प्रयास यही रहा कि अच्छा कार्य करूं। मेरे अच्छे-बुरे काम का निर्णय दर्शकों को ही करना है। बालिका वधू के अलावा दर्शक मुझे एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित हो रहे‘कितनी मोहब्बत है’में भी देख सकते हैं।

रंगमंच का अस्तित्व :
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि टेलीविजन या सिनेमा से रंगमंच को खतरा है-मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता। जिन्हें रंगमंच में रुचि है, वे इसे अवश्य देखेंगे। रंगमंच का दायरा न पहले कभी वृहद था और न कभी रहेगा-मतलब स्थिति जैसी है, वैसी सदैव बनी रहेगी। मैं 1986 से रंगमंच कर रहा हूं और यही मानता हूं कि टेलीविजन और सिनेमा के बीच इसकी अपना एक मुकाम है। हां, यह सच है कि वक्त के साथ चीजें बदलती हैं, इसलिए रंगमंच का उत्थान या पतन उस शहर के समाजिक/आर्थिक और व्यावहारिक परिवर्तन पर निर्भर करता है। रंगमंच में परिवर्तन दर्शकों के अनुपात पर चलता है। मोटेतौर पर कहूं तो रंगमंच को न तो अभी खतरा है और न भविष्य में रहेगा।

घर-परिवार
मैं दिल्ली में पला-बढ़ा हुआ, लेकिन पिछले 12-13 साल से मुंबई में ही हूं, इसलिए अब खुद को यहीं का निवासी मानता हूं। मैं सिंगल हूं। मेरा एक छोटा भाई है, जो आस्ट्रेलिया में रहता है। मेरी एक बुआ हैं, जिनसे मेरा गहरा लगाव है।


सत्यजीत शर्मा एक नजर :
सत्यजीत ने 1994 में ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ से अभिनय की शिक्षा हासिल की है। हालांकि ये 1986 में ही रंगमंच से जुड़ गए थे। कल्पना आजमी, सुधीर मिश्रा, रोमेश शर्मा, रमेश सिप्पी, पंकज कपूर जैसे धुरंधर फिल्ममेकर्स के साथ काम कर चुके सत्यजीत फरहान अख्तर की ‘डॉन’, अमृत सागर की‘1971’, कुनाल शिवदेसानी की‘काफिर’ में अपने अभिनय की छाप छोड़ चुके हैं। बहुत जल्द आप इन्हें विशाल भारद्वाज की‘कमीने’ में भी देखेंगे।
(यह साक्षात्कार पीपुल्स समाचार, भोपाल में प्रकाशित हुआ है )

3 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

सत्यजीत शर्मा के बारे में जानकर बहुत अच्‍छा लगा ... धन्‍यवाद आपका।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सत्यजीत शर्मा के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा। उन की भूमिका में बहुत चुनौतियाँ हैं। यह एक ऐसा पात्र है जिसे इस सीरियल में लगातार बदलना है। उन चुनौतियों से उन का जूझना देखना अच्छा लगेगा।

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

bahut achha likha he aapne,
halanki filmo se mera naataa kam hi raha he kintu jaankaari bator behtar hota he esi chije padhna...
shukrya