सोमवार, 6 अप्रैल 2009

एक वैचारिक विश्लेषण



भगवान राम और तुलसीदास का जल सत्याग्रह

ध्रुव शुक्ल
(लेखक प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार हैं।)


सुमति भूमि थल हृदय अगाधु।
बेद
पुरान उदधि घन साधु॥

बरषहिं
राम सुजस बर बारी।

मधुर
मनोहर मंगलकारी॥

- रामचरित मानस


रा
मचरित मानस बांचते हुए प्राय: राम, सीता, जनक, भरत, हनुमान और रावण आदि के चरित्रों पर प्रवचनकारों और भक्तों का ध्यान जाता रहा है। वे आनंदमग्न होकर इनकी महिमा का गुणगान करते आए हैं। मैंने भी वर्षों तक रामचरित मानस को ऐसे ही बांचा है। आज जब धरती पर जल के स्रोत सूख रहे हैं, नदियां मैली हो रही हैं, पुरानी बावड़ियों, कुंओं, सरोवरों और कुण्डों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, ऐसे कठिन समय में राम की महिमा का गुणगान करते हुए यह ख्याल आया कि रामचरित मानस महाकवि तुलसीदास का जल सत्याग्रह भी है।

तुलसी बाबा सबकी मतियों और सम्मतियों को मथकर एक मानस सरोवर रचते हैं और जैसे उस सरोवर में हिलोरे लेते नीलवर्ण जीवन जल की महिमा का ही गुणगान करते हैं। जैसे कविता पानी बचाने की पारंपरिक विधि हो और तुलसीदास हमें हमारी ही मति की सीप में राम नाम की बूंदें इकट्ठी करने की कला सिखा रहे हों। जैसे बूंद-बूंद के लिए उठती पुकार हमारे ही लोचनों के जल से हृदय सिंधु को भर रही हो और जीवन के प्रति प्रेम और पुलक से भरे हुए मेघ उठ रहे हों।
ये मेघ हमारे ही ज्ञान के सागर से आते हुए दिखाई देते हैं और राम की भक्ति उस वर्षा ऋतु के समान लगने लगती है, जिसमें राम नाम के दो अक्षर सा
वन-भादों के महीनों की तरह देह पर बरसने लगते हैं। राम प्राण प्रिय तो हैं ही, वे सूर्यवंशी भी हैं। आखिर प्राण सूर्य से ही तो धरती पर आया करते हैं और सूर्य की किरणें प्राणरूपी जीवन जल को बार-बार उठाकर मेघों में प्रतिष्ठित करती रहती हैं। फिर वही प्राण जैसे धरती पर बरसकर अन्न के रूप में प्रकट होते रहते हैं। अन्न वीर्य में बदल जाता है और तरह-तरह के बीज बनकर धरती में गर्भ खोजता फिरता है। हमारा प्राण जलमय है और जो जलाश्रित है, वही तो ‘नारायण’ कहलाता है। राम इसी नारायण के प्रतिनिधि हैं और रामचरित मानस क्षीर सागर से राम को उठाकर अपने ही हृदय कुण्ड तक ले आने की कथा लगती है। तुलसीदास काल शैया पर डोलती हमारी जीवन नौका को भवसागर में थामने का गुर ही तो सिखा रहे हैं।
कहते हैं कि यह संसार पानी पर लिखी लिखत जैसा है। जैसे जल और उसकी लहर के बीच कोई दूरी नहीं है, बिलकुल ऐसे ही सब एक-दूसरे से अभिन्न होते हैं। सागर सबके आंसुओं से ही तो खारा होता रहता है। अपनी ही आंखों से बार-बार छलक उठते इस खारे जल को रामचरित मानस सबके पीने योग्य बनाती है। तुलसी बाबा हमें जीवन जल के गुण और दोषों की पहचान करवाते हैं।
वे समझाते हैं कि सं
सार में कुछ भी अच्छा और बुरा नहीं होता। सिर्फ कुयोग और सुयोग पाकर चीजें अच्छी या बुरी कहलाने लगती हैं। कुसंगति में फंसा हुआ धुआं मुंह पर कालिख पोतने के अलावा और कर ही क्या सकता है। वही धुआं जब आग, पानी और हवा का सुसंग पा लेता है, तो जीवन देने वाला जलद बन जाता है।
तुलसी बाबा की कविता हृदय के सरोवर और अपनी ही मति की सीप में सचमुच उस बूंद की तरह लगने लगती है, जो हमारे ही जीवन जल में हिलुरती हुई धीरे-धीरे ज्ञान के मोती को पकाती होगी। तुलसीदास राम की महिमा के इस जल की गहराई में डुबाकर साधना की भी कला सिखाते हैं। वे जीवन में यश और प्रतिष्ठा को जल की प्राचीनता से नापते हैं। वे कहते हैं कि सीता और राम का अनादि-अनंत यश ही इस जल की प्राचीनता और गहराई है। रामचरित मानस में दी गई उपमाएं ही इस जल की तरंगों का विलास है। तुलसी बाबा की काव्य युक्तियां ही वे सीपियां हैं, जिनमें ज्ञान के मोती पैदा होते हैं।
इस जल में खिले हुए बहुरंगी कमलों के समूह ही तुलसी बाबा के इस मानस सरोवर के छन्द हैं, जहां अर्थ और भावों का पराग और मकरंद झर रहा है। कविता के इस सरोवर में शब्दों की तरह बूंद-बूंद संचित किए गए जल में भाषा की सुगंध बसी हुई है।
प्राण शक्ति से संयुक्त जल की सूक्ष्म अवस्था को श्रद्धा नाम से अभिहित किया गया है। तुलसी बाबा के मानस सरोवर पर श्रद्धा ही बसंत ऋतु की तरह छाई हुई है। उनके भक्ति निरूपण लताओं के मंडप जैसे हैं-जहां अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और प्रणति के फूल खिले हैं। भारत माता की पूजा के लिए महात्मा गांधी ने इन्हीं फूलों का संचय करना सिखाया था। हमारे चारों तरफ प्रकृति ही तो बोलती है, हम उसी से बातें करते हैं। तुलसीदास की कवि
ता के उपवन को सींचने के लिए हमारे नेत्रों का जल ही काफी है। इस उपवन का माली और कोई नहीं हमारा निर्मल मन ही है। तुलसी बाबा हमें सिखाते हैं कि जीवन रूपी कविता की क्यारियों की रोज निदाई-गुड़ाई करना पड़ती है।
रामचरित मानस पढ़ते हुए लगता है कि सारा संसार हमारे हृदय सरोवर के पास ही बसा हुआ है और इस जल के आनंद उछाह से ही कविता की एक नदी निकलती है, जो ज्ञान और विवेक के किनारों के बीच बहती रहती है। तुलसी बाबा समझाते हैं कि ये पानी बड़ा गुणकारी है, जो आशारूपी प्यास तो बुझाता ही है, मन के मैल को भी धो देता है। वे सलाह देते हैं कि हमें
कविता के जल से अपने मानस को हमेशा धोते रहना चाहिए। तुलसी बाबा के वचन सुनकर यह महसूस होता है कि हमारे ही मानस सरोवर से निकली कविता की नदी ही सागर तक जाती होगी। हमारा ही बूंद-बूंद इकट्ठा किया हुआ शब्दों का जल अनंत आकाश में विलीन होता होगा।
जल को अगर सुमति की भूमि न मिले, तो वह भटक जाता है और कुयोगवश कुमति की भूमि मिल जाने से उस पर विपत्ति के बीज पैदा होते हैं। कपट का जल पाकर होने वाला अंकुरण जीवन में दु:ख के फल ही लाता है फिर कैकेयी की नसों-नाड़ियों में बहने वाला जल उसके रोष की तरंगों से संचालित होता है। उसके दोनों वरदान ही उसकी नदी के किनारे बन जाते हैं और यह नदी दशरथ जैसे वटवृक्ष को ढहाती हुई राम, सीता, लक्ष्मण और अवध निवासियों को विपत्ति के समुद्र की ओ
र बहाए चली जाती है।
महाकवि तुलसीदास राम से बिछोह का शब्द चित्र रचते हुए हमसे कहते हैं कि राम रूपी जीवन जल के वियोग से अकुलाई हुई प्रजा चित्र लिखी-सी रह गई है। जब जल जड़ों से दूर चला जाता है तब सूखे हुए वन, उपवन चित्र लिखे से ही जान पड़ते हैं।
तुलसीदास समझाते हैं कि जल तो सबका स्वार्थरहित सखा है और सबकी जड़ों को सींचने के लिए सदा आतुर है। राम ऐसे ही स्वार्थरहित सखा हैं, जो हमारी देह के हृदय कुण्ड में भरे हैं और हमारी देह ही अयोध्या है। राम वियोग और कुछ नहीं अयोध्या में हृदय के जल का सूख जाना है। तभी तो वाल्मीकि मुनि, राम रूपी जलधर की ओर चातक की तरह अपनी निगाह टिकाए रखने
की सलाह देते हैं।
संसार के पोषण के लिए अनादि यश का निर्मल जल चाहिए, जिसे धरती युगों-युगों से अपने हृदय की गहराइयों में छिपाए हुए है। यह हृदय की गहराई ही राम का घर है। हम सतह पर डबरों में चमकते अपयश के जल को चमकीला बनाकर दुनिया की प्यास नहीं बुझा सकते, वह सदा अतृप्त ही बनी रहेगी। तुलसी बाबा सिखाते हैं कि जीवन स्वार्थ की नदी नहीं है वह तो करुणा की सरिता है। इस करुणा की सरिता का जल ही हमारे शोक को बहा ले जा सकता है। इस सरिता को ज्ञान और वैराग्य के किनारों के बीच बहना चाहिए। तुलसीदास भी नदियां जोड़ते हैं, वे तो छोटे-छोटे दु:खों के नालों को भी करुणा के सागर में मिलाने का स्वप्न देखते हैं। वे अपने-अपने
मार्गों से बहते विभिन्न स्वाद वाले संसार के सारे जल को प्रशान्त गहराई में लय होते देखना चाहते हैं।
तुलसी बाबा ने ही संतों के समाज को चलते-फिरते प्रयागराज की संज्ञा दी है, जो सब दिनों और सब देशों में सहज ही सुलभ रहता है, पर आज इस प्रयागराज का मजबूत किला क्यों ढह रहा है? सारे तीर्थों, जिन्हें तुलसी बाबा इस प्रयागराज के वीर सैनिक कहते हैं और जिन्हें पाप की सेना को कुचल डालने वाले रणधीरों के समान मानते हैं, क्यों इन रणधीरों को क्षीण होती गंगा की धारा और कीचड़ से भरी यमुना दिखाई नहीं देती? उन लोगों को भी कहां दिखाई देती है, जो औद्योगिक कचरा, मल-मूत्र और सड़े फूल गंगा ही क्या, सभी नदियों में निर्लज्जतापूर्वक बहा रहे हैं। यमुना की दुर्दशा देखकर तो उन्हें भी दु:ख और आश्चर्य नहीं होता, जो ताजमहल को दुनिया के साथ आश्चर्यों में शामिल करना चाहते हैं। क्या यमुना के जल में अब ताजमहल का प्रतिबिम्ब हमें कभी दिखाई नहीं देगा? क्या ताजमहल और यमुना का बिम्ब-प्रतिबिम्ब संबंध फिर से जोड़ा जा सकेगा?

गांधी और रामत्व
तुलसीदास
की शरण में बैठकर यह अनुभव होता है कि राम के अंकुरण की भूमि हमारी सुमति की धरती ही है, जिसे पूर्वजों से प्राप्त पारंपरिक ज्ञान से हमें रोज गोड़ना पड़ता है और ज्ञान के अनेक मार्गों की पहचान करते हुए अपना मार्ग बनाना पड़ता है। सिर्फ इतना ही नहीं परंपरा से रक्षित ज्ञान के बीजों को अपने जीवन में बोकर उन्हें अपने ही नेत्रों के जल से रोज सींचना भी पड़ता है। महात्मा गांधी ने भारत के साधारण जन की आंखों में बार-बार छलक आते इसी रामत्व को पहचानकर भारत भूमि पर स्वराज्य के बीज बोए थे। आज भी जानकीप्राण राम की धरती विश्व व्यापारियों द्वारा छल पूर्वक हरी जा रही है। वे अभी भी समंदर पार से ही तरह-तरह के कपटवेश धारण करके हमारी ओर आते ही जा रहे हैं। आदिकवि वाल्मीकि से महाकवि तुलसीदास और फिर महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तक चली आई रामकथा हमें प्रेरित कर रही है कि हम ‘पृथ्वी तनया कुमारिका छबि’ की आराधना करते हुए जीवन जल के लिए जल सत्याग्रह करें और बहुरंगी जीवन का अनिष्ट करने वाले परद्रोहियों से सीता की धरती की रक्षा करें।

रामचरित मानस : जीतने की एक कला
रामकथा धरती पर उस मनुजरूप नायक की खोज है, जिसकी छाया में नागरिक धर्म फलता-फूलता है। तुलसी बाबा विषमता के अभाव को ही ‘रामप्रताप’ कहते हैं। जहां विजय प्राप्त करने के लिए कोई दूसरा है ही नहीं, बस अपने मन को ही जीतना पड़ता है। रामचरित मानस विश्वव्यापी सेवा धर्म और स्वार्थ के बीच प्रेम का सेतु बांधने की भी कला सिखाती है। जगत की गति ही ऐसी है कि यह सेतु बंध-बंधकर बार-बार टूटता है, तभी तो राम के भक्ति नयनों में बार-बार जल छलक आता है। वे अकेले में रोते हैं, महात्मा गांधी भी अकेले में रोते थे।

वर्तमान विसंगतियां
आज रामचरित मानस पढ़ते हुए लगता है कि अब हम फिर उस भय उपजाने वाली नदी के किनारे पर पहुंच रहे हैं, जिसमें जल नहीं रेत भरी होगी। जिस नदी में जल की जगह मज्जा बह रहा हो, उसमें भूत, पिशाच और बेताल ही स्नान करेंगे। कौए और चील शवों को छीनकर खाएंगे। योगनियां खप्परों में खून का संचय और पिशाचों की स्त्रियां नंगा नाच करेंगी। चामुण्डाएं खोपड़ियों के खड़ताल बजाकर गाएंगी। हाथों में मुण्डों की मालाएं लेकर कालिकाएं इस रुधिर की नदी में स्नान करेंगी। किसी समय ऐसी ही नदी पार करके राम अयोध्या लौटे थे। राम का अयोध्या लौट आने का अर्थ अपनी ओर वापसी है। रघुनायक को अपनाने का अर्थ उस संतोष के भाव में रहना है।
जिसके बिना कामनाएं कभी जाती ही नहीं। हमें उस धर्म विज्ञान को प्रीति में ले आना है, जिससे जीवन में समता का वास्तविक अर्थ खुलता है। रामत्व हमारा ही अर्जित किया हुआ जीवन जल है। इससे पहले कि हमारी आँखों का पानी ही मर जाएं, हमें प्रकृति की तरफ जाना होगा, जो राम का आश्रय है, जब वह हर ली जाती है तो राम उसी का पता पूछते फिरते हैं। याद करें तुलसीदास द्वारा रचित उन दो पक्षियों (कागभुसुण्डि और गरुड़) को जहां शरीर को ही मोक्ष की सीढ़ी कहा जा रहा है, किसी विचारधारा को नहीं। दरिद्रता से अगर दु:ख उपजता है तो वह अपने ही पुरुषार्थ से जाएगी। दूसरों द्वारा किए गए पूंजी निवेश ने कभी किसी की दरिद्रता को कम नहीं किया बल्कि बढ़ाया ही है।
तुलसी बाबा सब रोगों की जड़ हमारे अनुभव सिद्ध मोह को ही मान रहे हैं और परनिन्दा को ही सबसे बड़ा पाप कह रहे हैं। वे किसी धर्म को नहीं, अहिंसा को परमधर्म कह रहे हैं। संसद से सड़क तक हमारा समय परनिन्दा के पाप को ही तो ढो रहा है और गंगा सूख रही है। पता नहीं यह पाप कहां और किस साबुन से धोया जाएगा। क्या परमाणु ऊर्जा इसे धोएगी?
(यह लेख भोपाल से पब्लिश पीपुल्स समाचार में छपा है ।)

2 टिप्‍पणियां:

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

RAAM to mera jivan he
RAAM ke bager AMITABH nahi
...aour ek achchi rachna aapke dvara padhne ko mili..mera mananaa he ki ab tak raam ke baare me jitna likha he vo kam hi he aour man chahta he khoob va roz padhta rahu..kintu padhne se knha RAAM ko pahchaan sakte he, unhe pahchanane ke liye to bs prem chahiye..
aapko sadhuvaad jo RAAM ke sandarbh me umda rachna preshit ki.

daanish ने कहा…

आदरणीय अमिताभ जी ,
नमस्कार !
हुज़ूर आपने कोई किसी की ग़ज़ल या रचना अपने नाम से नहीं लिखी है ....
दर-असल मैंने आदरणीय मुनव्वर जी के बारे में पूछना चाह था, अपने विचार अब उन्होंने ब्लॉग लंतरानी की बजाए "भडास" पर दे दिए हैं
मैंने सोचा क आप भी "भडास" नामक ब्लॉग से जुड़े हुए हैं ...
आपको मेरी वजह से जो असुविधा या परेशानी हुई, उसके लिए मैं क्षमा याचना करता हूँ. . . .

"गिद्ध" ब्लॉग पर आ कर सुखद अनुभूति हुई और मन को सुकून मिला है
उम्मीद है संवाद बनाए रक्खेंगे .
---मुफलिस---