मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय से पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत


भयानक चीज है कम्युनिस्ट कैपिटलिज्म

जानी-मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्ता अरुंधती राय के मुताबिक सलवा जुड़ूम के चलते बस्तर में गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। वह कहती हैं कि विकल्प सिर्फ बस्तर में नहीं बल्कि सारी दुनिया में तलाशा जा रहा है। विकास के पूंजीवादी और पूर्व के समाजवादी मॉडल का हश्र क्लाइमेट चेंज के रूप में हमारे सामने है, तो राष्ट्रवाद की परिणति संभावित आण्विक युद्ध के रूप में नजर रही है। वे कहती हैं कि विकास और जनसंहार का आपस में गहरा रिश्ता है। यह आप पर है कि आप जनसंहार को किस तरह परिभाषित करते हैं।

देश में जिस तरह से चुनावी गठबंधन हुए हैं, उसमें कोई भी किसी के भी साथ जा कर खड़ा हो गया है। जिस तरह इतिहास का अंत समेत बहुत सारे अंत की घोषणा होती है, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा का अंत हो गया है?
आप अभी बस्तर में जाएंगे तो बहुत अद्भुत बात पाएंगे कि हमारे देश की सबसे बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा, दोनों साथ मिलकर, साथ-साथ एक मंच में बैठ कर देश के सबसे गरीब लोगों से लड़ रही हैं। ऐसे में चुनाव होने पर ये जीतेन या वो, इसका कोई खास मतलब नहीं है।

तो क्या किसी वैकल्पिक राजनीति पर बात करने के लिए ये सही समय है?
समय सही है या देर हो गई, मुझे पता नहीं। मैं बोल नहीं सकती। पर अगर अभी ये बात नहीं हुई तो फिर कभी नहीं आएगा वो ‘सही’ समय।

बस्तर में हालात कैसे हैं?
बस्तर में गृहयुद्ध जैसे हालात हैं, जिसमें 60 हजार आदिवासी सलवा जुड़ूम के शिविरों में हैं। उसमें से जो एसपीओ हैं, जिन्हें हथियार दिये गये हैं। बाकी लगभग 3 लाख आदिवासी जंगल में घूम रहे हैं। न उनके पास खाना है, न वे खेत में आ सकते हैं, न बाजार जा सकते हैं, न ही वे अस्पताल जा सकते हैं। स्कूल बंद पड़े हुए हैं। तो ये एक बहुत ही गंभीर स्थिति है। और उससे हम लोग कैसे गुजरेंगे और ये क्यों हो रहा है, ये बहुत बड़े सवाल हैं। ये क्यों हो रहा है? ये गांव किसने खाली किया? क्यों खाली किया? ये लोग जाएंगे कहां? स्थिति बहुत ही गंभीर है। अगर दुनिया के परिदृश्य में देखें तो हथियारबंद आंदोलन सब जगह से नकारे जा रहे हैं या फिर कमजोर हो रहे हैं। मुख्यधारा की राजनीति से अलग जहां भी आंदोलन हो रहे हों, उसके अनुभव ऐसे ही हैं। चाहे नेपाल हो, जिसे राजनीति की मुख्यधारा में आना पड़ा हो या एलटीटीई का हथियारबंद आंदोलन, जो मुख्यधारा की राजनीति से अलग रहने के कारण लगातार कमजोर हुआ है।
आखिर इसका विकल्प क्या है?
ये विकल्प की जो बात है, ये बहुत ही विस्तृत और गंभीर बात है। हम सिर्फ बस्तर में ही विकल्प नहीं ढूंढ़ रहे। पूरी दुनिया में विकल्प ढूंढ़े जा रहे हैं। क्योंकि ये जो पूरा पूंजीवाद और पूर्वी मॉडल का जो विकास है या जो इससे पहले का समाजवादी मॉडल का विकास था, अर्थव्यवस्था को शीर्ष पर ले जाने वाला, वो हमें क्लाइमेट चेंज की तरफ ले जा रहा है। इसे आप एक सवर्नाशी दृष्टिकोण कह सकते हैं। दुनिया का जो अंत है, उसके बीज इसमें निहित हैं। दूसरी ओर हमारे सामने राष्ट्रवाद का मुद्दा है, परमाणु युद्ध का मुद्दा है और इस तरह के कई मुद्दे हैं। विकास को लेकर जैसा हम सोचते हैं, अगर हम इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि विकास और जनसंहार के बीच हमेशा से एक रिश्ता रहा है। ये जो जनसंहार शब्द है, यह बहुत गंभीर शब्द है। लोगों ने इसे अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। इसका मतलब सिर्फ ये नहीं है कि लोगों को पकड़कर मारो। इसका मतलब ये भी है कि एक किस्म के लोगों को अपना खाना, अपना पीना, अपने संसाधनों से बेदखल कर दो, ताकि वे अपने आप ही मर जाएं। अफ्रीका जैसे देशों में यह बहुत हुआ है। तो क्या हम लोग उस स्थिति में गए? आप कहते हैं कि नक्सलाइट हैं या आतंकवाद हैं और ये भी कहते हैं कि इस जंगल में जो कैम्पों में नहीं हैं वो माओइस्ट हैं। मैं पूछती हूं कि क्या हम इतने हजार लोगों को मारने के लिए तैयार है? और वो कौन लोग हैं? जो सबसे गरीब है और जिसके हथियार तीर-धनुष हैं। हमें अपने से भी यह पूछना चाहिए कि क्या हम इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं?

मैं फिर दुहराउंगा कि आखिर विकल्प क्या है? बस्तर, झारखंड, आंध्र प्रदेश या देश के कई हिस्सों में जिस तरह से हथियारबंद लड़ाईयां चल रही हैं, क्या आप उसे वैकल्पिक राजनीति के तौर पर आप देख रही हैं?
जब आतंकवाद, सशस्त्र संघर्ष या इस तरह का कोई भी शब्द कहा जाता है, तब मामले को बहुत उलझा दिया जाता है। आप बुश की मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं- आप या तो हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ। आप किसी भी अधिकारी से बात करें और उनसे पूछें कि आखिर इन लोगों के पास विकल्प क्या था? ये क्या कर सकते थे? गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है। जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है। संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा। लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया। ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, ‘वो बनाम हम’ की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया। ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा। इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है। इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न? एक भी बांध को अहिंसक आंदोलनों से नहीं रोका जा सका।

इसको क्या आप एक विकल्प के तौर पर देख रही हैं?
बस्तर के लोग क्या मांग रहे थे इतने साल से? छोटी-छोटी मांग थी उनकी। न्यूनतम मजदूरी या तेंदू पत्ते की कीमत। वो अस्पताल, स्कूल या सड़क भी नहीं मांग रहे थे। अभी वे क्या मांग रहे थे कि हमें छोड़ दो। हम अपनी जिंदगी जी सकें। हम ही विकल्प हैं। वही तो कह रहे हैं। और हम उनको कह रहे हैं कि हमको ये चाहिए, ये चाहिए। हम आदिवासी से पूछ रहे हैं कि विकल्प क्या है? हमारा जो लोभ है, उसका विकल्प क्या है? हमारा जो स्वार्थ है, हमारा जो लोभ है, हमारी जो मरी हुई कल्पना है, उसका विकल्प क्या है? हम आदिवासी से पूछ रहे हैं।

इस तरह की जितनी भी वैकल्पिक लड़ाइयां चल रही हैं, सेज की लड़ाई, बांध की लड़ाई उसमें जनांदोलन चलाने वाले लगातार हार रहे हैं या उनकी लड़ाई लगातार हाशिये पर जा रही है?
कोई तो लगातार हार रहे हैं, लेकिन कोई-कोई जीत भी तो रहे हैं। नंदीग्राम तो बंद हो गया, अभी के लिए। वहां पर लोग क्या देख रहे हैं। वहां पर धरना नहीं हुआ। वहां भूख हड़ताल नहीं हुआ। वहां लोगों ने सड़क खोद कर रखी और कहा कि आप अंदर नहीं आ सकते। यही अभी बस्तर में हो रहा है। इसका मतलब ये है कि लोग भी ये देखते हैं कि किस तरह वो अपनी जिंदगी बचा सकते हैं। मैं विकल्प का जो बड़ा सवाल है, उसे उठा सकती हूं लेकिन जिसके पास कुछ भी नहीं है, वो विकल्प के बारे में नहीं सोच रहे हैं। वो अपने गुजारे के बारे में सोच रहे हैं। उनके छोटे से बच्चे को खाना कब मिलेगा, वो सोच रहे हैं। और हम हैं कि उन्हीं से पूछ रहे हैं कि विकल्प क्या है? किसी के सिर पर बंदूक लगा के हम उनसे ही पूछ रहे हैं कि तुम्हारे पास मौत के सिवा विकल्प क्या है? ये कैसा सवाल है?

भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, नक्सलवाद या माओवाद, क्या आप उसका समर्थन करती हैं?
मैंने बस्तर में कई अधिकारियों से पूछा कि आप जब कहते हैं कि इस गांव में मैंने दस नक्सलियों को मारा, तो ये हैं क्या चीज? वो हैं कौन? हैं कौन ये नक्सली? क्योंकि सलवा जुडूम के लिए जब जुलूस निकलता है तो उनके हाथ में हथियार होते हैं तब वो कहते हैं कि ये उनके पारंपरिक हथियार हैं। लेकिन जब यही हाथ किसी और के हाथ में होते हैं तो आप कहते हैं कि नक्सली है। तो मुझे किसी का साथ देने के लिए पता होना चाहिए कि ये हैं कौन? ये सब गरीब लोग हैं या कौन लोग हैं? मैं माओ की पूजा नहीं करती हूं। उन्होंने भी बहुत गलतियां कीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उन्होंने चीनी क्रांति में कोई गलती की। पर अभी तक मैं कोशिश कर रही हूं समझने की कि जिसे आप नक्सलवाद या माओइज्म बोल रहे हैं, ये हैं कौन? कई गांव वालों से मैंने पूछा कि माओ कौन है। सलवा जुड़ूम में कुछ एसपीओ हैं, जो पहले माओवादी कमांडर थे, मैंने उनसे पूछा कि नक्सल क्या चीज है? ये नाम कहां से आया है? चाइना कहां है? उनको पता नहीं। तो हम जो मर्जी वो नाम दे सकते हैं। पर वो हैं कौन, ये पता लगाना जरूरी हैं। क्योंकि अगर इस देश के गांव में हजारों, लाखों लोग हैं, जिन्हें हम नक्सल कहते हैं, उन्हें क्या सरकार मारने के लिए तैयार है? खत्म करने के लिए तैयार है?

चीन में माओ त्से-तुंग एक प्रतीक के रूप में रह गए हैं। और चीन से लेकर बंगाल तक वामपंथ जिस तरह से स्टेट कैपिटलिज्म में तब्दिल हुआ है, उससे भारतीय माओवादियों को क्या सीख लेनी चाहिए?
वैसे चीन गई थी मैं। और बहुत डर लगा मुझे चीन जाकर। मैंने उनको बोला कि आपको शायद कुछ भारतीय माओइस्ट की जरूरत है क्योंकि मुझे लगा कि वहां पर भी बहुत कम।स्पेस है। उसे कैपिटलिज्म और चाईनीज़ कम्यूनिज्म तो नहीं कह सकते हैं, उसे कम्यूनिस्ट कैपिटलिज्म कह सकते हैं। और वो एक भयानक चीज़ है। लोगों के पास घर नहीं हैं। ओलंपिक के स्टेडियम के लिए लोगों को बेदखल कर दिया गया। वहां ढेरों समस्याएं हैं और पर्यावरण को लेकर भी ढेरों समस्याएं हैं। मुझे लगता है कि विकल्प के या कल्पना के बीज कम से कम अभी इस देश में हैं। उस बीज को हम खोद कर फेंक रहे हैं। फिर भी कुछ बीज बचे हुए हैं। कुछ लोग हैं, जो सोच सकते हैं। उन्हीं को हम मारने की कोशिश कर रहे हैं। पर सब मरे हुए नहीं हैं, लोग लड़ रहे हैं अभी भी।

और भारतीय वामपंथ? उसकी जो ताजा हालत है, उसको किस तरह देखती हैं?
वो है क्या चीज? जो लोग पश्चिम बंगाल में एसईजेड बनाना चाहते हैं, उनको वामपंथ कह सकते हैं क्या? जो लोग नंदीग्राम में उन्माद फैलाते हैं, लोगों को खत्म करते हैं, वो वामपंथ है क्या? हमारी जो संसदीय राजनीति है, उसमें अभी हर पार्टी के दस-दस पंद्रह-पंद्रह सिर है। जो बंगाल में वामपंथ बोलते हैं, वही नंदीग्राम में लोगों को अपने घरों से भगा रहे हैं, महाराष्ट्र वाले आदिवासी का साथ दे रहे हैं। वही भाजपा, जो यहां एसईजेड बनाना चाहती है, पश्चिम बंगाल में उसके खिलाफ बोलती है। हम सब एक ऐसे पागलखाने में घूम रहे हैं, जहां किसी की एक ही शक्ल नहीं है।

हिंदी के बड़े कवि हैं मुक्तिबोध। उनकी एक लाईन है कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। तो अरुंधती रॉय की पॉलिटिक्स क्या है?
मैं अगर अपना पॉलिटिक्स एक स्लोगन में बोल सकती तो मैं पॉलिटीशियन बन जाती, मैं राजनीति में आ जाती। मेरा पॉलिटिक्स आपको या किसी को पता लगाना है तो इतने सालों से मैं जो कुछ लिखती आ रही हूं, उसको पढ़ना पड़ेगा। वो एक स्लोगन में नहीं आ सकता।
(यह साक्षात्कार भोपाल से प्रकाशित पीपुल्स समाचार में छपा है )

5 टिप्‍पणियां:

ravindra vyas ने कहा…

जवाब कितने संवेदनशील, बेबाक, मार्मिक और साफ हैं। लगभग दो टूक। वे हमारे समकालीन यथार्थ को कितनी साफ निगाह से देख पा रही हैं। कितनी थरथराती भाषा में वे समय के हाहाकार को बयां कर रही हैं। सचमुच यह एक बहुत ही अच्छा साक्षात्कार है। पुतुलजी को भी बधाई।

बेनामी ने कहा…

सच में हाहाकार बयां कर रही है

अरुंधती काफी सैक्सी है, अगर एनजीओ की दुकान न करके अपने पहले धन्धे फिल्म में ही लगी रहती तो राखी सांवत को टक्कर दे रही होती

RAJNI ने कहा…

आदरणीय आलोक जी ने बहुत सुंदर बातचीत की है. उनके सवाल और अरूंधति के जवाब दोनों सधे हुए हैं. दोनों ही अपने-अपने धरातल पर बहुत मजबूत लोग हैं. और हां, यह साक्षात्कार तो www.raviwar.com में प्रकाशित हुआ है. http://raviwar.com/baatcheet/B19_interview-arundhati-roy-alok-putul.shtml

शुभकामनाएं.
रजनी

Sanjeet Tripathi ने कहा…

अरूंधति राय,लेखिका,मानवाधिकार कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट के नाम एक छत्तीसगढ़िया का पत्र
प्रति,

अरूंधति राय, लेखिका,मानवाधिकार कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट जो दो दिन पहले छत्तीसगढ़ आईं थी

आदरणीया,

आप 2007 में रायपुर आईं थी। जब छत्तीसगढ़ सरकार ने राजधानी रायपुर में एक "मानवाधिकार कार्यकर्ता" को नक्सलियों को मदद पहुंचाने व उनसे संपर्क रखने का आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया तो आप सबने रायपुर आकर यहां की भूमि को धन्य किया इसके लिए आप सबका आभार।

आप अभी दो दिन पहले भी रायपुर आईं और सही कहा कि हर लेखक को समाज सेवा करना चाहिये,और इस मुल्क मे जो भी चल रहा है उस पर लिखा जाना चाहिए।पत्रकारो को भी लिखना चाहिए।


यह तो सही बात कही आपने, पर एक बात, क्या बहते निर्दोष खून के खिलाफ लेखक को आवाज नहीं उठानी चाहिए?
आप या आपके साथी कार्यकर्ता जो अक्सर रायपुर आते हैं, नक्सलियों द्वारा निर्दोष खून बहाए जाने के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते?

ऐसा क्यों, क्या वे सही कर रहे है खून बहाकर?

आप लोगों ने यहां अपने साथी के लिए धरना दिया,प्रेसवार्ता ली और ज्ञापन सौंपे हैं। सच मानिए मेरा दिल भर आया कि अपने साथी की ऐसी चिंता करने वाले लोग आज के जमाने में भी मौजूद है। लेकिन कई बार एक सवाल मन में उठता है। लगता है आज आप लोगों से पूछ ही लूं,वो यह कि पिछले कई सालों से जब नक्सली आम लोगों की हत्याएं कर रहे हैं,बारूदी सुरंगे लगाकर विस्फोट कर पुलिस जवान समेत आम लोगों की हत्याएं कर रहे। सरकारी संपत्ति का नुकसान कर रहे हैं,ना जाने कितने मासूमों को अनाथ बनाए जा रहे हैं,बस्तर में रहने वाले व्यापारियों को जबरिया उनकी ज़मीन-ज़ायदाद से बेदखल कर बाहर भगा रहे हैं।

आप सबकी नज़र इन सब पर क्यों नहीं जाती?

क्या मारे जा रहे पुलिसकर्मी या आम लोग मानव नहीं हैं,क्या जीना उनका मौलिक अधिकार नहीं है?
जब नक्सली ऐसे नरसंहार करते हैं तो उसके विरोध में आप लोग छत्तीसगढ़ या राजधानी रायपुर में पधारकर इसे धन्य क्यों करते?

क्या नक्सली जो कर रहे थे/हैं, सही कर रहे थे/हैं?

और पिछली बार 2007 में आप सबके रायपुर से लौटने के बाद नक्सली और उग्र होकर जानलेवा गर्मी में समूचे बस्तर में जगह-जगह बिज़ली टावर गिरा रहें थे,बिज़ली सप्लाई लाईन काट जा रहे थे,यातायात बाधित किए जा रहे थे जिसके कारण वहां लोगो को खाद्यान्न व सब्जियां ढंग़ से नहीं मिली ना ही बिज़ली।

नक्सली बस्तर में "ब्लैक-आउट" के हालात पैदा कर रहे थे। तब, तब आप सब ने इसका विरोध क्यों नहीं किया, क्यों नहीं तब आप सब आए रायपुर विरोध प्रदर्शन करने, प्रेसवार्ताएं लेने व ज्ञापन देने या धरना प्रदर्शन करने?

आपका क्या विचार है नक्सली जो भी कर रहें हैं सही ही कर रहे हैं?

आप सब बहते निर्दोष खून को देखकर चुप कैसे रह जाते हैं? स्कूलों को तोड़े जाते देखकर भी खामोश कैसे रह लेते हैं? जान बचाने के लिए आदिवासियों को अपना गांव-घर-खेत छोड़ते देखकर भी आप कैसे निस्पृह रह लेते हैं? लेकिन जो मामले अदालत में चल रहे हैं उसके लिए आवाज जरुर लगा सकते हैं?

यह कैसा विरोध आपका?


हे विदूषी अरूंधति ज़ी,

दरअसल मैं ज्यादा समझदार नहीं हूं,दिमाग से पैदल हूं अत: ज्यादा सोच समझ नहीं पाता। बस जो देखा उसी के आधार पर यह पत्र दूसरे से लिखवा रहा हूं क्योंकि मुझे तो लिखना पढ़ना भी नहीं आता। क्या आप सब इस छत्तीसगढ़िया का आमंत्रण स्वीकार करेंगे कि आइए फ़िर से एक बार रायपुर,छत्तीसगढ़। आइए इस बार नक्सलियों के तांडव का विरोध करें,धरना दें और ज्ञापन दें नक्सलियों के खिलाफ़ क्योंकि जो मारे जा रहे हैं, तकलीफ़ पा रहे हैं वह भी मानव ही हैं और न केवल जीना बल्कि चैन से जीना उनका भी मौलिक अधिकार है।

निवेदन इतना ही है कि मै एक गरीब छत्तीसगढ़िया हूं। आप सबके आने-जाने का "एयर फ़ेयर" नहीं दे सकता न ही किसी अच्छे होटल में आपके रुकने का प्रबंध करवा सकता। बस! इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप ऐसे नेक काम के लिए आएंगे तो इस गरीब की कुटिया हमेशा अपने लिए खुला पाएंगे और घरवालो के साथ बैठकर चटनी के साथ दाल-भात खाने की व्यवस्था तो रहेगी ही।

आपके उत्तर की नहीं बल्कि आपके आने के इंतजार में
आपका विनम्र
भोला छत्तीसगढ़िया

बेनामी ने कहा…

संजीत त्रिपाठी जी, आप जैसे लोग केवल गालियां बकना जानते हैं. सबको गाली बको औऱ अपने को महान बताओ.
कभी बस्तर घुम के आइए, फिर बात करें. रायपुर में बैठ कर हाय-हाय, गाली-गाली करने से काम नहीं चलेगा. आप जैसे सुविधाभोगी लोग केवल गंदी औऱ निम्न आलोचना जानते हैं.औऱ आप जैसे लोग चाहते हैं कि लोग अफना काम-धाम छोड़ कर आपके जैसे लोगों को जवाब देते रहें.