शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

पीपुल्स समाचार से साभार


जश्ने बहारां पे हंसी आती है

प्रज्ञा रावत
हम जीवन की साधारण से साधारण चीजों के आत्मिक सुख से वंचित हैं। हमारे दिल दिमाग पर बाजार की पूंजी का कब्जा है। यह एक तरह की वैचारिक शून्यता हमारे अंदर पैदा कर रही है। तमाम स्वादों को आत्मसात करने का आनंद हमसे बहुत दूर चला गया है।

हमारे पढ़े-लिखे समाज में विज्ञान और कलाओं में पैदा की गई दूरी ने समाज की वैचारिक चेतना के स्वाभाविक विकास को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इससे आगे टेक्नो-क्रांति ने इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हम पर हावी होकर हमें भी काफी हद तक सिंथेटिक आदमी में तब्दील कर दिया। पहले मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों को हम लंबी रेस का घोड़ा मानते थे, लेकिन आज उनका रुझान सिर्फ तकनीकी शिक्षा तक रह गया है। जीवन की लंबी और स्वाभाविक दौड़ में उनका विश्वास खत्म हो गया है।
आठवीं, नौवीं क्लास तक आते-आते और उसके बाद के वर्षों में एक ही कोर्स की पढ़ाई को बार-बार हर बच्चा रट्टू तोते की तरह पढ़ता है। नयी जिज्ञासाओं की तरफ उसका झुकाव दस-बारह घंटों की लगातार बोझिल कर देने वाली पढ़ाई के कारण हो ही नहीं पाता है। विचार को बीज बनने तक का मौका नहीं है। इससे हटकर वो घंटों कम्प्यूटर गेम्स की करिश्माई और नेट की सम्मोहक फैंटेसी की दुनिया में विचरण करता है,हालांकि ये आकर्षण स्क्रीन पर चल रहे प्राकृतिक दृश्यों, रंगों के कारण भी हैं, पर वास्तविकता में यहां प्रकृति से कोई रिश्ता नहीं बनता। मैदान, खुली हवा, पेड़ पर चढ़ना, फलों को कच्चे से पकते हुए देखना जैसी प्राकृतिक इच्छाओं से वो वंचित है। उसकी भाषा की स्वीकृत शब्दावली में बचपन से ही शूट, किल, ट्रैप जैसी हिंसक और असभ्य मानदण्डों का नैसर्गिक समावेश है। चीजों से सिंथेटिक रूप में रूबरू होने के कारण उसकी संवेदनशीलता भी सिंथेटिक होती जा रही है। यही बच्चा टेकनोक्रेट बनने के बाद लाखों के पैकेज में काम करते समय अपना टूथब्रश भी साथ ले जाते है और घर परिवार से रहा सहा संबंध भी टूट जाता है।
जहां तक कला व मानविकी के गहन शिक्षण-प्रशिक्षण की बात है तो या तो देश के गिने चुने संस्थानों, महानगरों में अभिजात्य वर्ग के बच्चे या जेएनयू जैसे एकाध संस्थान हैं, जहां दूसरी बेहतरीन शिक्षा हर वर्ग और तबके के विद्यार्थी समान रूप से पाते हैं। जो बच्चे निम्न मध्यम वर्गीय तबकों से हैं, उनका भी ध्यान मूल पाठ पर ना होना बाजार में बिकती सस्ती प्रश्नावलियों पर है। ऐसे में समाज के विचार की चिंता उसके तमाम उठते गिरते प्रश्नों की चिंता का क्या हो? यहां विकास के विरोध में ‘बात’ की जा रही है। जीवन गतिशील है, सब कुछ बदलता है और हर बार अपने नए स्वरूप में आता है, अगर चार्ल्स डार्विन की मानें तो, लेकिन इस बदलते स्वरूप की चेतना में मनुष्य की बेहतरी हो तब ही। विकास और उससे मिलने वाले सुख के अंतर्द्वंद्व की गहराई से पड़ताल करनी होगी कि कहीं तथाकथित विकास में मानवीय मूल्य, सुख के स्रोत सूख तो नहीं रहे हैं। दरअसल, ये पूंजी के खेल के निकृष्टतम आचरण का दौर है। पूंजी उपभोक्ता और उत्पादन के बीच घुसकर हमारी जरूरतें तय कर रही हैं, जबकि हम जीवन की साधारण से साधारण चीजों के आत्मिक सुख से वंचित हैं। हमारे दिल दिमाग सब पर बाजार का पूंजी का कब्जा है। इसने एक तरह की वैचारिक शून्यता हमारे अंदर पैदा कर रही है। दुनिया के तमाम स्वादों को आत्मसात करने का आनंद हमसे बहुत दूर चला गया है, जिसका अभाव अंजाने ही सही हमारे भीतर निरर्थकता और कृत्रिमता भी पैदा कर चुका है। कुछ-कुछ ऐसी ही निरर्थकता जो यूरोप ने द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद महसूस की और जनता के सम्मुख अस्तित्व और उसकी स्वतंत्रता को मूलभूत प्रश्न भयावह रूप में उपस्थित हुआ, जिसका विवेचन ज्यॉ पाल सोज ने ‘अस्तित्ववादी दर्शन’ के रूप में किया। इस बात को लिखने में कोई गुरेज नहीं कि आने वाले समय में वही सबसे बड़ा दार्शनिक होगा, जो विकास के मॉडल का ऐसा दर्शन प्रस्तुत करेगा, जहां पूरी ऊर्जा और वैज्ञानिक चेतना मनुष्यता की पक्षधर और जीवन राग से भरा होगा, जो रचनात्मक होगा और जिसमें मनुष्य की धड़कनें शामिल होंगी। आज सारा संसार पश्चिम से आई पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की गिरफ्त में है, जिसके दुष्परिणाम वहां के लेखकों ने ही सबसे पहले पहचाने थे। विलियम वड्सर््ावर्थ ने प्रकृति की ओर चलो का जो नारा दिया था, वो केवल काव्यावेग नहीं था, किंतु यह चेतावनी थी कि प्रकृति को छोड़कर आगे मत बढ़ो। ताज भोपाली ने अपनी एक गजल में कहा था-
ये बनाए हुए रंग और ये तराशे हुए फूल
मुझको इस जश्ने बहारां पे हंसी आती है।


(लेखिका कवि और साहित्यकार हैं।)