अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
उमराव जान(1981) और गमन(1978) जैसी चर्चित फिल्मों के गीतकार ख्यात शायर शहरयार हिंदुस्तानियों में ‘नेशनलिज्म’ के उन्मादी स्वरूप को खतरनाक मानते हैं। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर पनपने वाला ‘वैचारिक व्याभिचार’ लंबे समय तक जीवित नहीं रहता। हिंदुस्तानियों में सभ्यता और संस्कृति का जो भाव पहले था; वह आगे भी कायम रहेगा। शहरयार भारत भवन में आयोजित ‘काव्य पाठ’ श्रंखला में शिरकत करने आए हुए थे।
आज के दौर में दिल क्या ‘चीज’ है...
मुद्दा हिंदुस्तानी संस्कृति/तहजीब या सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावनाओं को सहेजने वाले दिल का हो या आम हिंदुस्तानी के जजबातों का; दिल अब भी वही है; जहां पहले था। इसकी धड़कनें हिंदुस्तान की पुरानी वैल्यूज के साथ आज भी जिंदा हैं। यह जरूर है कि बहुत से लोग उसकी धड़कनों को अनसुना करने की असफल कोशिशें करते रहते हैं। फिलहाल, हम आज हिंदुस्तान में जो भी बुरा बदलाव देख रहे हैं-चाहे वो सामाजिक हो राजनीतिक या सांप्रदायिक; वह ताउम्र यथावत नहीं रहने वाला। राजनीति की बात करें, तो चुनावों के दौरान हिंदुस्तानी जिस गुस्से/भावना का इजहार करते हैं, वह यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोग हिंदुस्तान को उसी शक्ल में देखना चाहते हैं, जैसा पहले था, पवित्र और सौहार्द्रपूर्ण।
जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन-इंडेपेंडेंस :
मेरा सोचना तो यह है कि पाबंदी किसी भी चीज पर नहीं होनी चाहिए। यह सब जानते हैं कि जिस चीज पर जितनी पाबंदी लगाई जाती है, वह उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया देती है। हर चीज को उसके अंजाम तक पहुंचने देना चाहिए, चाहे वो अच्छी हो या बुरी। मामला जसवंत सिंह की किताब का हो या दूसरी किसी अन्य का; लिखने-पढ़ने से कोई गुमराह नहीं होता। बुराइयां आंतरिक भावनाओं की उपज हैं। कभी-कभार नेशनलिज्म खतरनाक भी हो जाती है।
सोच की पराकाष्ठा :
कितनी अजीब स्थिति है कि एक तरफ तो हम आधुनिक होते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ वैलेंटाइन-डे जैसे आयोजनों का विरोध करते हैं। जहां तक सिनेमा में फूहड़ता का प्रश्न है-फिल्मों में ख्वाहिशों को उभारने के लिए छोटे-छोटे कपड़े पहने जाते हैं। कभी-कभी इन चीजों को रोकने से विस्फोटक स्थिति हो जाती है। मौजूदा फिल्मों के बारे में लोग नाराजगी जताते हैं कि फलां का संगीत अच्छा नहीं है, बावजूद वे बॉक्स आफिस पर सफल हो जाती हैं। जो लोग मानते हैं कि भारतीय समाज काफी बदल गया है, मैं उनसे सहमत नहीं हूं। शहर में रहने वाले 10-20 लोगों को ही सिर्फ समाज नहीं कह सकते। इसके लिए समूचे हिंदुस्तान को देखना होगा। दरअसल, ‘मकान’ से ‘फ्लैट’ में शिफ्ट होते ही हम खुद को आधुनिक मानने लगते हैं।
कविता पढ़ना भी परफार्मिंग आर्ट है...
मेरे मित्रों और लोगों का मानना है कि मैं शेर तो अच्छे लिखता हूं, लेकिन उन्हें उस तरह नहीं पढ़ पाता; जैसा पढ़ना चाहिए। दरअसल, कविता/शेर पढ़ना भी परफार्मिंग आर्ट में शामिल हो गया है। कई शायर/कवि चिल्लाकर या विभिन्न भाव-भंगिमाओं के संग पाठ करते हैं, मैं इसमें फिट नहीं हूं। (हंसते हुए) शेर को अच्छा पढ़ना एक खूबी है, जो ऊपर वाला देता है। मैं बदकिस्मत हूं कि मैं इस खूबी से वंचित हूं।
(यह लेख पीपुल्स समाचार, भोपाल में छपा है )
1 टिप्पणी:
Is daulat ke liye aapko kitna dhanyavaad doon?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
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