मंगलवार, 27 मार्च 2012

यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि

संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।
सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।

(लेखन समय : 20 अक्टूबर 2000)


कुंठित आत्माएं

जनाब, कुंठाएं यू ही नहीं जन्मतीं। सालों के निरर्थक, कठिन और धूल-धूसरित हो चुकीं महत्वाकाक्षांओं के गर्भ से पल्लवित होती हैं कुंठाएं। एक अच्छा, खासकर चर्चित आलोचक बनने के लिए दबी- कुचली, क्षत-विक्षत विचार शैली का धनी होना पहली प्राथमिकता है।

जो जितना अधिक कुंठित होगा, वह उतना ही प्रभावशाली आलोचक बनेगा। वैसे भी एक बेहतर आलोचक वहीं है, जो सिवाय आलोचना के एक शब्द भी न बोले। हमारे देश में तो ऐसे प्रतिभाशाली आलोचक भी हैं, जो बिना कुछ कहे आंखों ही आंखों में वह कर दिखाते हैं कि; लोग उनसे बचने में ही खुद की भलाई समझते हैं।

कहा जाता है कि कुछ भी सीखें सबसे पहले उसका प्रयोग ऐसे लोगों या स्थान पर करें जहां परिणामों के घातक होने की संभावनाएं न के बराबर हों। इस मामले में घर और घरवालों से अच्छा और कोई भी ही नहीं सकता। यदि आप भी कुंठित हो चुके हैं और अपनी भड़ासा निकालने के लिए आलोचना शैली का सहारा चाहते हैं, तो जनाब! सबसे पहले आप घर से ही शुरुआत करें। बात-बेबात पत्नी या बच्चों की आलोचना करके उन्हें हतोत्साहित करने की आदत डालें। इसकी कतई चिंता न करें कि कहीं पत्नि या बच्चे आपको दुत्कारने न लगें। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। जब आपको महसूस होने लगे कि आपकी पत्नि और बच्चे आपसे बातचीत करने से कतराने लगे हैं, तो समझ लीजिए कि आप आलोचक बनने के पहले सोपान पर चढ़ने में सफल रहे हैं।

घर में सफलता प्राप्त होने के बाद दफ्तर और आस-पड़ोस में अपने संगी-साथियों की आलोचनाएं करना शुरू कर दें। जहां तक औरतों की बात है, तो वे जन्मजात आलोचक होती हैं और यदि कोई महिला दुर्भाग्यवश इस गुण से वंचित रह गई हो; तब भी उसे आलोचक बनने के लिए पुरुषों की तुलना में कम मेहनत करनी पड़ेगी। एक अच्छा पड़ोसी कभी एक बेहतर आलोचक नहीं बन सकता, क्योंकि ऐसे लोग अपने संकोच या व्यवहारवश अपनी कुंठाएं दबाकर रखते हैं। एक पड़ोसी; चर्चित आलोचक तभी बन सकता है, जब उसे इस बात का पल-पल एहसास होने लगे कि; अमुक पड़ोसी का रहन-सहन उससे कहीं ज्यादा उम्दा है।

शुरुआत में उसे बेशक अपने पड़ोसी की आलोचना करने में दिक्कत होगी, परंतु ज्यों-ज्यों उसकी मानसिकता में कुंठित भावनाएं उनभरने लगेंगी त्यों-त्यों आलोचक शैली में निखार आता जाएगा। कुंठित सोच के अभाव में खुलकर आलोचना करना संभव नहीं होगा।

एक नवोदित आलोचक को दो खास बातें हमेशाा गांठ बांधकर रखना चाहिए। पहली-उसे किसी के भीतर अच्छाइयां कतई नहीं दिखें। दूसरा-अपनी गपशप-बहशों और लेखन में केवल बुराइयों को ही स्थान दें।

हमारे देश में अलोचकों की अपनी एक सभ्यता और संस्कृति है। इनकी जमात किसी भी जमी-जमाई महफिल में अफरातफरी का महौल बरपाने की कूवत रखती है। भारतीय साहित्य क्षेत्र में आलोचकों की बेशुमारी है। अन्य विधाओं में परास्त लोग अपनी कुंठित भावनाएं दबाए रखते हैं, लेकिन साहित्य क्षेत्र की कुंठित आत्माएं अपनी कुंठाओं को कुचलने के बजाय उन्हें मुखरित करके आलोचना का रूप दे देती हैं। अपनी भड़ास निकालने में ये आत्माएं कतई संकोच नहीं करतीं।

इन अलोचकों की आलोचनाएं भी साधारण नहीं होतीं, किसी की भी बनी बनाई मार्केट वेल्यू हो सरेराह चीथड़े-चीथड़े कर डालने की असाधारण ताकत रखती हैं साहित्य की कुंठित आत्माएं। साहित्यिक महफिलों में ये कुंठित आत्माएं बहुतायत में मिल जाएंगी।

बहरहाल, जहां तक साहित्य की कुंठित आत्माओं की बात है, तो इनकी महिमा अपरंपार है। इनका कोई एक मजहब, सिद्धांत और नियम-कायदे नहीं होते। कहीं भी आसानी से अपने लिए जगह बनाना, घुलमिल जाना इनका हुनर होता है और माहौल बिगाड़ना इनकी आदत, इनका पेशा।

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