शनिवार, 24 मार्च 2012



यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि

संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।
सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।
अमिताभ बुधौलिया





अमरकंटक से कांटों का खेल

(लेखन समय : अप्रैल 2005। उमा भारती को नवंबर, 2004 में अनुशासनहीनता के आरोप में भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया गया था। उमा भारती को एक पुराने आपराधिक मामले के चलते 23 अगस्त, 2004 को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया था और बाबूलाल गौर सीएम बनाए गए थे। मामले से बरी होने के बाद जब उन्हें दुबारा सीएम नहीं बनाया गया, तब वे नाराज हो गई थीं।)

मियां के माथे पर चिंता की सलवटें बन-बिगड़ रही थीं। वे अंगुलियों पर बार-बार कुछ गिनती कर रहे थे। मैंने चिकोटी भरी- अमां मियां! क्या कोई लाटरी-वाटरी लग गई है, जो अंगुलियों पर हिसाब-किताब कर रहे हो? उन्होंने टेढ़ी नजरों से मुझे घूरा आप तो बस... हर वक्त मजाक के मूड़ में रहते हैं...! मैंने गंभीरता ओढ़ी मियां-फिर अंगुलियों पर क्या जोड़-तोड़ कर रहे हो?
इस बार वे किसी महान गणितज्ञ की शैली में थे-जनाब, मैं तो यह केलकुलेट कर रहा हूं कि क्या उमाश्री अपने ही दल के तीन चौथाई विधायकों के दिल बदल सकेंगी? मैं उनके कहने का आशय समझ गया था। मेरा लहजा व्यग्यांत्मक था- मियां आप जैसे भले मानुष को राजनीति की पचड़ेबाजी से कोसों दूर रहना चाहिए। जहां तक उमाश्री की बात है, फिलहाल उनके संग ‘न तीन में, न तेरह में’ कहावत जैसी स्थिति बनी हुई है।
इस बार मियां दार्शनिक अंदाज में थे-कुछ भी हो, लेकिन यह कतई मत भूलिए कि भाजपा के लिए 13 का अंक शुभ-अशुभ दोनों ही रहा है। अब चूंकि उमाश्री ने 13 साल संन्यासी जीवन गुजारा है सो, उन्हें कठिन तपस्या का कुछ न कुछ फल तो मिलना ही चाहिए, नहीं तो...! मैंने पलटवार किया, मियां अंगुलियों पर अंक गणित का खेल खेलने से कुछ नहीं होगा। आखिर, कब तक पार्टी में सिरमौर नेताओं को अंगुलियों पर नचाया जा सकता है? ज्यादा अंगुली करना भी खुद की सेहत के लिए ठीक नहीं होता। उमाश्री अपने गोविंदाचार्य के मामने में यह भलीभांति देख चुकी हैं। मियां! अपने एक कहावत तो जरूर सुनी होगी-‘काम निकालने के लिए अंगुली कभी-कभार टेढ़ी भी करना पड़ जाती है’ सो उमाश्री के लिए बेहतर रहेगा हाईकमान की अंगुली को टेढ़ी चाल चलने के लिए बाध्य न किया जाए। वैसे भी उमाश्री का निलंबन वापस हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं गुजरा है। मियां नेअगला सवाल दाग दिया- वो सब ठीक है, लेकिन एक स्टार को गर्दिशा में धकेलना भी कहां कि भलमनसात है? जनाब क्या आपको नहीं लगता कि कहीं कोई खिचड़ी पक रही है...? मैंने भी सवाल उछाला-मियां, तो क्या उमाश्री को अग्रिम तीन की गिनती यानि वाजपेयी और आडवाणीजी के बाद शामिल कर लिया जाना चाहिए? मियां उत्सुक थे- उमाश्री की राजनीतिक साधना को देखते हुए आखिर उन्हें पार्टी की कमान क्यों नहीं सौंपी जा सकती?
मैंने फायर किया-मियां बेवकूफी भरे सवाल मत करो, खाली कमान से कुछ नहीं होता। विरोधियों को परास्त करने के लिए तरकश में बहुतेरे तीर भी चाहिए और साध्वी अपने सारे तीर गौर साब पर छोड़ चुकी हैं।
मियां उमाश्री के घोर प्रशंसक की भूमिका में थे- जनाब! ऐसा नहीं है... साध्वी तीर चलाने में नहीं; तपस्या में यकीन रखती हैं। वो तो तीर्थ यात्रा पर जाना चाहती थीं, लेकिन पार्टी के लाल... आडवाणी ने उन्हें रोक लिया। उमाश्री तो अब भी इस पर अड़ी हुई हैं कि अगर उनके गुरुजी आज्ञा करें तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगी। मैंने व्यंग्यबाण चलाया-मियां कुर्सी का मोह अच्छे-खासों की तपस्या भंग कर देता है। जिसे एक मर्तबा राजनीति का चस्का लग गया, उसे सातों तीरथ कुर्सी के ईर्द-गिर्द नजर आते हैं। यानि जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवाय जाना कहा..। मियां सोच में थे-जनाब, मैं नहीं मानता कि उमा दीदी अकड़ू और अड़ियल हैं। आखिर पार्टी में उन्हें हैसियत के मुताबिक पद तो मिलना ही चाहिए!
मैं राजनीतिक विश्लेषक की भूमिका में था-मियां, जिन विधायकों ने अमरकंटक में बैठीं दीदी के रौद्र रूप का दीदार किया है, तनिक उनका मन टटोलिए। पता चल जाएगा कि साध्वियों को साधना किसी जटिल तपस्या करने से कम नहीं है।.... और जबकि नाराजगी की वजह सिर्फ अहम को अहमियत न मिल पाना हो] तो दिक्कतें और भी बड़ी रहती हैं। मियां ने हैरानी जताई- तो क्या... अमरकंटक में गौर साहब के रास्ते में कंटक (कांटे) की बिसात बिछाने की प्लानिंग चल रही है...? मैं महाभारत के दूरदृष्टा संजय की भूमिका में था- मियां, गौर साब को कच्चा खिलाड़ी समझने की भूल कतई मत करिए। उन्होंने अपनी आंख का आॅपरेशन करा लिया है, ताकि उनके रास्ते में बिखेरे जा रहे कांटों को वे चुन-चुनकर हटा सकें।
मियां आश्चर्यचकित थे- जनाब आपका गणित वाकई प्रशंसनीय है। शायद इसी वजह से उमाश्री ने वाजपेयी को राजनीति से संन्यास लेने का न्यौता दिया है, ताकि उम्र के विवाद में वे चुप ही रहें।
इस बार मैं सभ्य तमाशाइन की भूमिका में था- मिंया उम्रदराज लोगों के खेल में नौजवनों को कोई रुचि नहीं होती है। उन्हें पता होता है कि आज नहीं तो कल... गुजरी पीढ़ी के घुटने जवाब दे ही जाएंगे... तो फिर खामख्वाह उनके चालों में फंसकर इधर-उधर क्यों भागा जाए! बहरहाल, मियां राजनीति में कब्रखोदू एक ढूंढों; हजार मिल जाएंगे। एक सफल कूटनीतिज्ञ वहीं है, जो दूसरों की कब्र खोदने में सब्र रखता है। कहते भी हैं- सब्र का फल मीठा होता है। सो, फिलहाल उमाश्री को सब्र पर जोर देना चाहिए।



कोई टिप्पणी नहीं: