बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

स्त्री का चरित्र और अविनाश का पतन?

उस आदमी को मैंने पहली बार इतना विचलित और घनघोर चिंतन में डूबे देखा। जो व्यक्ति असीम सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ हो, उसके माथे पर अपने परिवार और भविष्य को लेकर संशय की सलवटें देखना मन द्रवित कर देने वाला क्षण था।
कितना सरल है, किसी की लोकलाज को बीच चौराहे नंगा कर देना?जब महाभारत में कौरव द्रोपदी का चीरहरण कर रहे थे, तब श्रीकृष्ण बतौर संरक्षक अवतरित हुए थे- यहां पत्रकारिताई महाभारत में कई सौ कौरव हैं, ऐसे कौरव जिनके पिता अंधे ही नहीं, गूंगे और बहरे भी हैं।...और ‘माताएं’ इन कौरवों के कुकृत्यों पर गौरवान्वित महसूस करती हैं। यहां, लाज श्रीकृष्ण को भी बचानी पड़ती है? पत्रकारिता के कौरवों से निपटना अब पांडवों के वश में कहां रहा? खासकर तब, जब दुनिया को गीता-सरीखा संदेश देने वाले संपादकरूपी कृष्ण खुद असहाय हों।....और जाने-अनजाने उन्हें कठपुतली की भांति नाचना पड़ रहा हो। अविनाश दास पर आरोप है कि उन्होंने पत्रकारिता की एक छात्रा से छेड़छाड़ की। सच क्या है? इसे जानने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं हैं, उन्हें सिर्फ जुगाली में आनंद की प्राप्ति हो रही है। सब जानवरों-सरीखे बर्ताव पर औतारू हैं, जिन्हें हर आदमी दरिंदा और बदमाश दिखाई देता है और वे अपने सींगों से उसे दंडित कर देना चाहते हैं। इन जानवरों को इसमें कोई रुचि नहीं कि सामने वाला शख्स निर्दोष है या वाकई पापी-दोषी।
यह स्त्री पर ’पुरुषार्थ’ हावी हो जाने-सरीखा है, जिसने अपनी इज्जत को दांव पर खेला है, ताकि उसके दंभ-प्रसंग-प्रपंच और प्रयोजन को सफलता हासिल हो चुके। इज्जत दांव पर लगाकर, किसी की इज्जत उतारना! यह ठीक वैसा ही खेल है, जिसमें किसी एक की मौत तय है। त्रिया चरित्र को जब ईश्वर नहीं जान सके, तो उस जांच कमेटी की क्या बिसात, जो झूठ में सच निचोड़ने का प्रयास कर रही है।...और अगर सच-झूठ का खुलासा हो भी गया, तो क्या दोषी को सजा मिल पाएगी? सवाल कई हैं, लेकिन अभी सच यह है कि इस ‘खेल’ के पीछे कइयों के खेल चल रहे हैं। डीबीस्टार(दैनिक भास्कर भोपाल का टेबलाइड न्यूज पेपर) में रहते हुए अविनाशजी ने कइयों की कलई खोली है, तो उनकी लंगोट खुलना तो निश्चय था।कहने को तो सिर्फ दो शब्दों का ही तो नाम है-अविनाश दास!...लेकिन इस साधारण से नाम को नामचीन बनने में कितनी ऊर्जा क्षय हुई होगी, उसका विश्लेषण भला कौन करना चाहेगा? हां, पत्रकारिताई जमात इसमें रुचि अवश्य ले रहा है कि अविनाश कितने छिछौरे हैं? मैंने कल रात अविनाशजी को फोन लगाया। वे भारत भवन में परिवार सहित शायद नाटक देखने गए हुए थे। उन्होंने घर आने को कहा। अविनाशजी पिछले दो-तीन महीने से मुझे घर आने का निमंत्रण दे रहे थे, लेकिन जाने का संयोग ही नहीं बन पा रहा था।
कल रात जब मैं अपने एक मित्र प्रमोद त्रिवेदी (दैनिक समय जगत के समाचार संपादक) के साथ अंसल अपार्टमेंट स्थित उनके घर पहुंचा, तो मन बहुत व्याकुल था। यूं लग रहा था कि कहीं मैं रो न पड़ूं। अविनाशजी और हम इससे ठीक एक हफ्ते पहले चर्चित कवि कुमार अंबुज के घर पर मिले थे। अविनाशजी बेहद जिंदादिल इंसान हैं, इससे शायद ही कोई इनकार करे। एक ऐसे शख्स, जिनका हर बोल, सामनेवाले को सकारात्मक ऊर्जा से भर दे, उसके मन-मष्तिष्क को किसी अच्छे प्रयोजन के प्रति उद्देलित कर दे। उस आदमी की क्लांत-शांत देख कोई हैरानी तो नहीं हुई, लेकिन दु:खी कर देने वाला पल अवश्य था। अपनी गोद में सवा साल की बच्ची सुर को लेटाए शून्य-से बैठे अविनाशजी के मन की उथल-पुथल हम सिर्फ भांप सकते थे, लेकिन कोई भी किसी का दु:ख भोग नहीं सकता!
शिखर से शून्य पर आकर खड़े होना कितना तकलीफदेह होता है, यह वही समझ सकता है, जिसने इस पीड़ा को भोगा है। अविनाशजी बहुत जल्द भोपाल से विदा हो जाएंगे, लेकिन अपने पीछे छोड़ जाएंगे ढेरों प्रश्न? ऐसे सवाल जिनसे हमारा सरोकार होते हुए भी हम उनकी ओर से आंखें मूंदें रहेंगे? आखिर अब पत्रकारिता किस चिड़िया का नाम बचा है? ऐसा लेखन-जिसमें मक्खन-सी चिकनाहट हो और बर्ताव में कुत्ते-सी चाटुकारिता और गीदड़-सरीखी कायरता...या देश-समाज के हित में कुछ कर गुजरने का जोश-जज्जबा? अफसोस, दोनों ही किस्म की पत्रकारिता में इज्जत दांव पर लगानी पड़ती है-फर्क इतना है, पहले में कोई इज्जत नहीं रहती और दूजे में हर शब्द लिखते वक्त इज्जत बचाए रखने की फिक्र लगी रहती है।
बहरहाल, यदि अविनाश दास निर्दोष हैं, तो उनकी खोई प्रतिष्ठा कौन लौटाएगा? कौन कहेगा-हे स्त्री तुझे धिक्कार!...और अगर वे पापी हैं, तो उन्हें सजा अवश्य मिलनी चाहिए। अभी जरूरत सच और झूठ में दिलचस्पी लेने की है, ताकि भविष्य में इसकी घटनाएं दुहराई न जा सकें। हम इस घटना को सिर्फ एक खबर मानकर बिसरा नहीं सकते। जो साचा है, उसके पीछे हमें खड़ा होना ही पड़ेगा और जो दोषी है-उसे धिक्कारना ही होगा।
अमिताभ बुधौलिया ‘फरोग’
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अविनाशजी की बात जो उनके ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुई है...

क्‍या सचमुच एक झूठ से सब कुछ ख़त्‍म हो जाता है?
मुझ पर जो अशोभनीय लांछन लगे हैं, ये उनका जवाब नहीं है। इसलिए नहीं है, क्‍योंकि कोई जवाब चाह ही नहीं रहा है। दुख की कुछ क़तरने हैं, जिन्‍हें मैं अपने कुछ दोस्‍तों की सलाह पर आपके सामने रख रहा हूं - बस।मैं दुखी हूं। दुख का रिश्‍ता उन फफोलों से है, जो आपके मन में चाहे-अनचाहे उग आते हैं। इस वक्‍त सिर्फ मैं ये कह सकता हूं कि मैं निर्दोष हूं या सिर्फ वो लड़की, जिसने मुझ पर इतने संगीन आरोप लगाये। कठघरे में मैं हूं, इसलिए मेरे लिए ये कहना ज्‍यादा आसान होगा कि आरोप लगाने वाली लड़की के बारे में जितनी तफसील हमारे सामने है - वह उसे मोहरा साबित करते हैं और पारंपरिक शब्‍दावली में चरित्रहीन भी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं और अभी भी कथित पीड़‍िता की मन:स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।मैं दोषी हूं, तो मुझे सलाखों के पीछे होना चाहिए। पीट पीट कर मुझसे सच उगलवाया जाना चाहिए। या लड़की के आरोपों से मिलान करते हुए मुझसे क्रॉस क्‍वेश्‍चन किये जाने चाहिए। या फिर मेरी दलील के आधार पर उसके आरोपों की सच्‍चाई परखनी चाहिए। लेकिन अब किसी को कुछ नहीं चाहिए। कथित पी‍ड़‍िता को बस इतने भर से इंसाफ़ मिल गया कि डीबी स्‍टार का संपादन मेरे हाथों से निकल जाए।दुख इस बात का है कि अभी तक इस मामले में मुझे किसी ने भी तलब नहीं किया। न मुझसे कुछ भी पूछने की जरूरत समझी गयी। एक आरोप, जो हवा में उड़ रहा था और जिसकी चर्चा मेरे आस-पड़ोस के माहौल में घुली हुई थी - जिसकी भनक मिलने पर मैंने अपने प्रबंधन से इस बारे में बात करनी चाही। मैंने समय मांगा और जब मैंने अपनी बात रखी, वे मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे थे। बल्कि ऐसी मन:स्थिति में मेरे काम पर असर पड़ने की बात छेड़ने पर मुझे छुट्टी पर जाने के लिए कह दिया गया।ख़ैर, इस पूरे मामले में जिस कथित क‍मेटी और उसकी जांच रिपोर्ट की चर्चा आ रही है, उस कमेटी तक ने मुझसे मिलने की ज़हमत नहीं उठायी।मैं बेचैन हूं। आरोप इतना बड़ा है कि इस वक्‍त मन में हजारों किस्‍म के बवंडर उमड़ रहे हैं। लेकिन मेरे साथ मुझको जानने वाले जिस तरह से खड़े हैं, वे मुझे किसी भी आत्‍मघाती कदम से अब तक रोके हुए हैं। एक ब्‍लॉग पर विष्‍णु बैरागी ने लिखा, ‘इस कि‍स्‍से के पीछे ‘पैसा और पावर’ हो तो कोई ताज्‍जुब नहीं...’, और इसी किस्‍म के ढाढ़स बंधाने वाले फोन कॉल्‍स मेरा संबल, मेरी ताक़त बने हुए हैं।मैं जानता हूं, इस एक आरोप ने मेरा सब कुछ छीन लिया है - मुझसे मेरा सारा आत्‍मविश्‍वास। साथ ही कपटपूर्ण वातावरण और हर मुश्किल में अब तक बचायी हुई वो निश्‍छलता भी, जिसकी वजह से बिना कुछ सोचे हुए एक बीमार लड़की को छोड़ने मैं उसके घर तक चला गया।मैं शून्‍य की सतह पर खड़ा हूं और मुझे सब कुछ अब ज़ीरो से शुरू करना होगा। मेरी परीक्षा अब इसी में है कि अब तक के सफ़र और कथित क़ामयाबी से इकट्ठा हुए अहंकार को उतार कर मैं कैसे अपना नया सफ़र शुरू करूं। जिसको आरोपों का एक झोंका तिनके की तरह उड़ा दे, उसकी औक़ात कुछ भी नहीं। कुछ नहीं होने के इस एहसास से सफ़र की शुरुआत ज़्यादा आसान समझी जाती है। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरा नया सफ़र कितना कठिन होगा।एक नारीवादी होने के नाते इस प्रकरण में मेरी सहानुभूति स्‍त्री पक्ष के साथ है - इस वक्‍त मैं यही कह सकता हूं।

9 टिप्‍पणियां:

विष्णु बैरागी ने कहा…

सबसे पहले तो आपका अभिनन्‍दन कि आप न केवल खुद बोले अपितु सबको बोलने का रास्‍ता दिया और दिखाया। उसके बाद मेरी ओर से धन्‍यवाद कि आपने बीच का रास्‍ता नहीं चुना-स्‍पष्‍ट 'स्‍टैण्‍ड' लिया।
अविनाश जिस दिन भोपाल आए थे उसी दिन से भोपाल के पत्रकार जगत में असहजता छा गई थी जो व्‍याकुलता तक पहुंच गई। भोपाली पत्रकारिता जिस, भांग घुले कुए का पानी पी कर स्‍वयम् को धन्‍य और गर्वित अनुभव करती रही है, उस कुए का पानी अविनाश ने पीना कबूल नहीं किया। सो, उन्‍हें नशे में साबित किया जाना तयशुदा था और वे कर ही दिए गए। अन्‍तर केवल इतना पडा कि इतनी जल्‍दी की कल्‍पना नहीं थी। किन्‍तु इस 'जल्‍दी' के लिए भी अविनाश ही दोषी हैं। वे भोपाली पत्रकारिता का पानी नहीं पीते तो भी उन्‍हें क्षमा किया जा सकता था किन्‍तु वे तो अपने 'कर्मों' से साबित भी करने लगे कि कुए में भांग पडी है।
मेरे पास सुनिश्चित सूचनाएं कि इस सारे खेल के पीछे सचमुच में 'पावर और पैसा' है किन्‍तु मेरा दुर्भाग्‍य यह है कि इन सूचनाओं के अभिलेखीय प्रमाण नहीं हैं। कल्‍पना की जा सकती है कि भोपाल से कोई 300 किलो दूर बैठे हुए मुझ जैसे 'सम्‍पर्कविहीन आदमी' के पास जब ये सूचनाएं हैं तो भोपाल के महारथियों के पास सूचनाओं के अतिरिक्‍त और क्‍या-क्‍या नहीं होगा? किन्‍तु वे सब या तो पीठे पीछे फुसफुसाएंगे या फिर अविनाश की भोपाल से रवानगी के बाद ही। ऐसे तमाम लोगों को पता होना चाहिए कि उनकी यह चुप्‍पी एक न एक दिन उनके विरूध्‍द भी प्रयुक्‍त की ही जाएगी। उस दिन उन्‍हें अविनाश याद आएंगे कि काश! आज अविनाश होते तो कलम की हिफाजत और पैरवी की खातिर सबसे पहले और सबसे आगे नजर आते।
मैं एक दावा कर रहा हूं। यदि अविनाश इसी क्षण अपना बोरिया बिस्‍तर बांध कर भोपाल को टा-टा कर लें तो उनके विरूध्‍द शुरु की गई तमाम कार्रवाइयां फौरन ठण्‍डे बस्‍तें में डाल दी जाएंगी। क्‍योंकि अविनाश के विरूध्‍द कार्रवाई करना या उन्‍हें दण्डित करना मकसद नहीं है। मकसद है - उन्‍हें भोपाल से 'खो' करना।
वैसे भी भोपाल, अविनाश की न तो जागीर है और न ही स्‍थायी मुकाम। एक न एक दिन तो उन्‍हें जाना ही होता। सो, उनका जाना न तो तब खबर होती न ही अब होगी। किन्‍तु मुझे लगता है कि यह आदमी भोपाल यूं ही नहीं छोडेगा। यह आदमी यहीं बना रहेगा और हम सब देखेंगे कि इस आदमी की, चुप-मौजूदगी भर ही कइयों को निर्वस्‍त्र कर देगी।
बहरहाल, यह ठीक समय है कि भोपाल के पत्रकार बीच रास्‍ते में चुपचाप खडे रहकर तमाशा देखने के बजाय कोई 'स्‍टैण्‍ड' लें - पीडित लडकी के पक्ष में या अविनाश के पक्ष में। वे याद रखें - 'जो तटस्‍थ हैं, समय लिखेगा, उनका भी इतिहास।'

बेनामी ने कहा…

अविनाश की दिल्ली से विदाई उत्तर प्रदेश की एक बड़ी राजनैतिक पार्टी के बड़बोले नेता के इशारे पर हुई थी.
भोपाल जाकर भी अविनाश बदला नहीं और वहां भी 'शक्तिशाली' लोगो के दबाब में नहीं आया,
बैरागी सही कह रहे हैं,
चालबाज लोग प्यादों से वजीर पीट डालते हैं, यही तो राजनीत का खेला है

बेनामी ने कहा…

avinash ji ab pachhtave kya hota hai. jab chidiya chug gayi khet. ye mohabbat aisi hi bala kab kahan kisake sath ho jaye pata hi nahi. Ishq kiya hai to darna kya yara.

Arvind Mishra ने कहा…

I have alraedy seen this ! Thanks !

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

[नुक्कड़] अविनाश खोना मत विश्‍वास http://nukkadh.blogspot.com/2009/02/blog-post_17.html इसे भी देखें मित्रों

चलते चलते ने कहा…

मैं अविनाश को नहीं जानता और न ही उस लड़की को जिसने उस पर आरोप लगाया है। लेकिन जांच कमेटी को अविनाश को बुलाना चाहिए था1 दूसरा, यदि वह दोषी है तो फिर पुलिस में क्‍यों नही मामला दिया गया। में आपको एक किस्‍सा बताता हूं मुंबई के पास एक उपनगर है बदलापुर। वहां एक लड़की ने एक लड़के पर बलात्‍कार का आरोप लगा दिया और शुरुआती जोडतोड में मामला ऐसा बैठा कि लड़के को कई साल की जेल की सजा हो गई। लडकी ने अपने बयान में यह भी कहा कि उसके पेट में पल रहा बच्‍चा उसी बलात्‍कारी का है। लेकिन लड़का अपने एक दोस्‍त से कहता रहा कि उसने बलात्‍कार किया ही नहीं। उधर उस लडकी ने बच्‍चे को जन्‍म दिया और इधर बलात्‍कारी साबित हो चुके उस लडके ने अपने खर्चे पर डीएनए टेस्‍ट की मांग उठा दी। आखिरकार डीएनए टेस्‍ट हुआ तो पता चला कि नवजात बच्‍चा उस बलात्‍कारी का है ही नहीं। लडकी से कडाई से काम लिया गया तो उसने सच उगला कि वह इस लडके से किसी एक झगडे का बदला लेना चाहती थी। कर दी एक झूठ ने उस अच्‍छे खासे लडके की जिंदगी तबाह और ठप्‍पा लगवा‍ दिया बलात्‍कारी का...। तो भाईयों जांच तो ढंग से करो कही ऐसा न हो कि आफिस की राजनीति के चक्‍कर में अविनाश की बलि ली जा रही हो। आपने सही लिखा कि पत्रकारों को मामले की जांच में रुचि नहीं है बल्कि चर्चा में रुचि है। सही कहा..जो समुदाय अपने साथी के साथ हुई घटना की सही तहकीकात नहीं कर सकता वह दुनिया भर की घटनाओं की सच रिपोर्टिंग क्‍या लिखेंगे। जय हो ऐसे पत्रकारों की जो जुगाली में लगे हुए हैं.....।

बेनामी ने कहा…

समर शेष है , नही पाप का भागी केवल व्याघ्र'
जो तटस्‍थ रहे, समय लिखेगा, उनके भी अपराध।'
दोस्ती जम कर करे पर
जोश मे कही ऐसा ना हो जाये
कल जब आईना देखे
खुद को अपराधी के साथ खडे पाये

Hari Joshi ने कहा…

मुझे लगता है कि किसी को इस प्रकरण में सच-झूठ से लेना देना नहीं है बल्कि कांव-कांव में उन्‍हें मजा आ रहा है। एक बात और आप किसी पुरुष को आसानी से दुराचारी कह सकते हो लेकिन किसी महिला को छिनाल कहना हमारी संस्‍कृति और सभ्‍यता के विपरीत है।

चलते चलते ने कहा…

हरी जोशी ने बेहद साफ बात कह दी। महिला को छिनाल कहना हमारी संस्‍कृति और सभ्‍यता के विपरीत है। वाकई सटीक टिप्‍पणी की है जोशी जी ने। इस समूची घटना में पुरुष का नाम तो आ गया कि अविनाश है लेकिन लड़की का नाम नहीं आया। नाम क्‍यों नहीं आना चाहिए...यदि भविष्‍य में सच्‍चाई सामने आई और यह पता चला कि लड़की दोषी थी तो..क्‍या होगा। मैं यह कह रहा हूं कि मामला पुलिस में क्‍यों नहीं गया। यदि अविनाश दोषी है तो उसे सजा दो...पुरुष के भाग्‍य का और स्‍त्री के चरित्र का भगवान पता नहीं लगा पाए तो आप हम है क्‍या। बेहद आसान है कह देना वह रांडबाज है। बस बक दिए इस चमड़े की जबान से। लेकिन सच्‍चाई यह होती नहीं। आरोप लगाना आसान है और वह किसी बदले की भावना से भी लगाए जा सकते हैं। अपने गिरेबान में देखों कौन मौका मिलने पर लूज करेक्‍टर नहीं है। अंतर है रामलिंगा राजू ने अरबों रुपए के लिए अपना करेक्‍टर खो दिया तो चांद मोहम्‍मद ने फिजा के लिए। कौन उद्योगपति बहीखातों में हेरफेर नहीं करता, कौन टेक्‍स चोरी नहीं करता, यह भी लूज करेक्‍टर का ही इस हिस्‍सा है। बातें करना बडी बडी और सिद्धांतों के भाषण देना आसान है लेकिन अमल ईमानदारी से कितने करते हैं यह सोचों अकेले मैं। कल ही एनडीटीवी पर खबर देख रहा था कि वृंदावन के कृपालु महाराज कोई 50 करोड़ की टैक्‍स चोरी में शामिल हैं लीजिए आज तक टीवी चैनल पर वे रोज प्रवचन देते हैं और खुद चोरी में शामिल। बताया जाता है उनके पैर छूने की कीमत एक लाख रुपए तय है। अब जिन्‍हें दुनिया संत मान रही है वे कर चोरी में शामिल..यह भी लूज करेक्‍टर का ही मामला है। यदि उनका चरित्र सही होता तो ईमानदारी से कर देते। जो लोग आज अविनाश और उस लड़की सनुजा, जनुजा, अनुजा या ठनुजा जो भी हो के मामले में छिंटाकशी कर रहे हैं वे प्राकृतिक न्‍याय के हिसाब से देखें न की भावनाओं या किसी के प्‍क्ष में खड़े होने जैसा देखें।