शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।

सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।

लेखक समय : 2 जनवरी 2001; तब जब 13 दिसंबर, 2001 में आतंकवादियों ने भारतीय संसद भवन पर हमला बोल दिया था।)

रोगों की जुगलबंदी छोड़ो, हर-हर महादेव बोलो


आज मियां मसूरी की चाल-ढाल देखकर लग रहा था कि; वे किसी बड़ी चिंता में हैं। मुझे आता देख जैसे उनकी व्याकुलता और बढ़ गई।

वे बोले-लेख महोदय! आखिर हम कब तक यूं ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से जूझते रहेंगे? अब तो हद कर दी पड़ोसी ने! पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा उसके पहले लाल किला और अब संसद पर हमला... आखिर हम कब तक चुप रहेंगे?

मैंने कहा-आप क्यों बेवजह इतने परेशान हो रहे हैं। चिंता और चिंतन करने वाले ससंद में अभी मौजूद हैं। कभी टेलीविजन पर संसद का नजारा देखा है! किस तहर हमारे नेता मामूली सी बात को राजनीतिक तूल देकर विस्तृत बहस का मुद्दा बना देते हैं। फिर आप क्यों अपना मन खट्टा कर रहे हैं? सारी चिंताएं- समस्याएं उन पर छोड़ दीजिए और घर पर आराम से बैठकर टेलीविजन और समाचार पत्रों के मार्फत देश-विदेश का हाल-चाल जानते रहिए।

वे विफर पड़े-महोदय! आप मेरी बात को हल्के तौर पर मत लीजिए, आज देश पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और एक आप हैं कि घर में आराम से बैठने की नसीहत दे रहे हैं।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे हैं,

देखना है जोर कितना बाजू-ए- कातिल में हैं।

मैंने कहा-बस...बस...रहने दीजिए मियां, क्यों खुद को बहलाने-फुसलाने के लिए शेर ओर शायरी का राग अलाप रहे हो! दिल्ली टू लाहौर बस यात्रा और उसके बाद आगरा में हुई चोचलेबाजी के दौरान हम पाकिस्तान से हाथ मिलाकर उसके बाजू में कितना दम-खम है, इसका भली-भांति आकलन कर चुके हैं।

वे बोले महोदय! आप भूल रहे हैं वो मित्रता का हाथ था और ऐसे समय में सामने वाले के बाजुओं की ताकत को तौलना अच्छा नहीं माना जाता। जहां तक आपने मेरी बात को राग-अलाप से जोड़ा है, ये तो आपने जरूर सुन लिया होगा हमारे प्रधानमंत्रीजी ने खासतौर पर जता दिया है कि हम जरूरत पड़ने पर युद्ध का राग भी अलापना जानते हैं। मैंने कहा- मियां क्यों इतिहास और वर्तमान को झुठलाने पर तुले हुए हो। चूंकि वाजपेयी जी कवि ह्रदय हैं सो उन्हें राग-विराग की समझ है, परंतु मुशर्रफ ठेठ फौजी हैं, लिहाजा उन्हें रागों की नहीं गोला-बारूद की भाषा समझ आती है।...और यदि वे कोई राग जानते-समझते हैं, तो वो सिर्फ एक है-राग कश्मीरी!पिछले कई वर्षों से हम यह सब देखते भी आ रहे हैं। दिल्ली टू लाहौर बस यात्रा के दौरान हमने दोस्ती का राग अलापा, तो उन्होंने कारगिल में अपनी दिली इच्छा जा दी। हमने जैसे-तैसे उनकी टेड़ी चाल सुधारी और आगरा में राग शांति छेड़ा, उन्हें लजीज पकवान खिलाए ताकि उनके मुंह में भरी कड़वाहट थोड़ी बहुत तो कम हो, लेकिन उन्होंने अपनी आदत नहीं बदली। दरअसल राग कश्मीरी पाकिस्तान की रग-रग में समा चुका है, सो उनके साथ रागों की जुगलबंदी व्यर्थ है। जब हम उनका दिमाग आगरा लाकर भी ठीक न रक सके; तो फिर आप ही बताइए आगरा से बेहतर दूसरी कौन सी जगह है, जहां बिगड़े दिमाग दुरुस्त किए जाते हों? आप कोई भी राग अलापों कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। यहां स्थिति ही कुछ ऐसी है कि;

‘भंैस के आगे बीन बजाना, भैंस खड़ी पगराए।’

वे बोले- महोदय वो तो सब ठीक है लेकिन आपने प्रधानमंत्री के शब्दों का मर्म सहीं से नहीं पहचाना, वो आर-पार की लड़ाई की बात कर रहे हैं।

मैंने कहा- मियां किस मुगालते में हो आर की लड़ाई तो हम वर्षों से लड़ते चले आ रहे हैं। अब बचा ही क्या है, केवल उस पार की लड़ाई? वैसे भी उसका कोई सार निकलने से रहा। जिसके पास खुद का कुछ है ही नहीं; तो भला उससे कौन क्या छीन ले जाएगा! पाक के साथ तो वही स्थिति है-‘नंगा लुटा बाजार में; छाती पीटकर रोए! नुकसान तो हमारा ही होगा, थोड़ा या बहुत। वे बोले-महोदय! आपका कहना सौ फीसदी वाजिब है, लेकिन पाक की नापाक करतूतों को देखते हुए हम चुपचाप हाथ पे हाथ धरे तो बैठे नहीं रह सकते! जब उसने फन उठाया है, तो कुचलना तो पड़ेगा ही?

मैंने कहा-आपका ख्याल दुरुस्त है, परंतु पाकिस्तान एक ऐसा फनकार देश है, जो पहले फन मारता है और जब देखता है कि; उसकी पुंगी बज सकती है, तो दूसरा फन बोले तो; दोस्ती की तिकड़में बैठाने लग जाता है। दो युद्धों में हम देख चुके हैं। वे बोले-महोदय! ये तो बिल्कुल सच है फिर भी विश्व बिरादरी में जबरन की दरोगाई झाड़ने वाले अमरीका को तो उसकी असलियत मालूम चल जाएगी! मैंने कहा-मियां! क्यों खुद को झूठी तसल्ली देने पर उतारू हो। अमरीका के पिटारे में ऐसे एक दो नहीं; बल्कि ढेरों सांप मौजूद हैं, सो अमरीका कुछ करेगा(?) इस गलतफहमी में मत रहिए। अमरीका की लाठी में केवल अवाज ही आवाज है, चोट बिल्कुल नहीं। वे बोले-महोदय कुछ भी हो, लेकिन हम चुप नहीं बैठ सकते आखिर विश्व बिरादरी में हमारी भी कोई हैसियत है। मैंने कहा-मियां सच फरमाया, लेकिन यह भी समझ लीजिए कि अब हमें जो भी करना है गैरों की नहीं; अपनी लाठी से करना है, ताकि सांप निकल जाए और हम अफगानिस्तान में अमरीका की भांति बेवजह लाठी पीटते न रह जाएं। विपक्ष को भी अब राग विरोधम का अलाप बंद कर देना चाहिए, राग ख्याली और राग जुगाली से अब काम चलने से हरा। पाकिस्तान को राग कश्मीरी अलापने दीजिए। अब जवाब रागों से नहीं विरागों से देना होगा। र्इंट का वक्त गया मियां, अब बारूद से काम लेना होगा।

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