यह व्यंग्य मेरे पहले व्यंग्य संग्रह-‘फोकट की वाहवाही’ का एक हिस्सा है। मेरा सौभाग्य है कि
संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।
सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।
(लेखन समय : जुलाई 1999)
पड़ोसियों के सहारे
अपनी गांठ से बिना कुछ गंवाए पड़ोसियों के माल पर मौज उड़ाना भी एक कला है। किसी को यह कला तोहफे में जन्मजात मिल जाती है, तो कोई इसे पाने के लिए पुरखों के हुनर आजमाता है। पड़ोसियों को बेचैन करके खुद चैन की बंसी बजाने के लिए जरूरी कुछ ऐसे ही नुस्खों पर एक नजर...
ऊंची क्वालिटी के पड़ोसियों के बीच निवास करने का परमसुख केवल चोखे नसीब वालों को ही प्राप्त होता है और मुझे तो कुदरत के फजल से ऐसी भलीचंगी नसीब बिरासतन हासिल हुई है। उम्दा स्तर के पड़ोसियों को सूंघसूंघ कर ढूंढ निकाले में मेरे पुरखों का हुनर काबिल एक तारीफ रहा है। उन की सूंघने की शक्ति इतनी प्रचंड थी कि मीलों दूर से इस बात की खोजखबर कर लेते थे कि आज किस पड़ोसी के घर उन की पसंद के कौन से पकवान पकाए जा रहे हैं। बस फिर क्या था, सब से पहले अपने बच्चों अर्थात मेरे बापू और बुआजी को पड़ोसी के घर खेलने के बहाने भेज देते।
बापू और बुआजी भी पूरी तरह इस कला में माहिर हो चुके थे। वे भी खूब समझते थे अच्छे पड़ोसियों का महत्व और वे पड़ोसी के घर से टस से मस नहीं होते। अब एक अच्छा पड़ोसी बच्चों को घर से धकिया तो सकता नहीं। कुछ समय बाद मेरी दादी भी डुगरती हुई वहां जा पहुंचतीं। उन्हें बुलाने के बहाने 2-4 इधर-उधर की चुगली करने के बाद पड़ोसिन से पूछ ही लेती कि आज किस खुशी में पकवान बनाए जा रहे हैं?
अब जब रसोई में तांकझांक कर ही ली, तो पड़ोसनि की बिना मदद किए ही घर लौट आएं यह तो दादी के उसूलों के सख्त खिलाफ था। जब व्यंजन तैयार हो जाते तो मेरे दादा भी दृश्य को अंतिम टच देने के लिए जा धमकते। दादा संवाद की झड़ियां फेंकना शुरू कर देते, कमबख्त किस औरत से पाला पड़ा है। लगता है आज फिर दफ्तर भूखे पेट ही जाना पड़ेगा। दादा 3-4 बार इसी संवाद को दोहराते रहते। अब एक अच्छा पड़ोसी इतनी अखाड़ेबाजी के बाद भी बिना खाए पिए चौखट लांघने दे तो फिर ऐसे पड़ोसियों के बीच रहने से बेहतर है चुल्लू भर पानी में डूब मरा जाए!
अच्छे पड़ोसियों के कारण मेरे परिवार के दिन तो चैन से कट रहे हैं परंतु आप चिंतित कदापि न हों। अच्छे पड़ोसी हासिल करना थोड़ा कठिन कार्य अवश्य है, लेकिन असंभव कदापि नहीं।
मेरी इस बावत नेक सलाह तो यही है कि ऐसे पड़ोसियों के प्रति हमेशा कशीदे पढ़ते और लिखते रहो तथा वक्तवक्त पर उन की मक्खन मालिसश भी करते हरे, जिन के घर में आप ऐशोआराम की वस्तुएं मौजूद हैं ऐसे भलेमानुष पड़ोसी यदि कभी कभार बिदक जाएं और आप के चंद सिर के बाल भी उखाड़ डाले तब भी इनके सामने अपनी खींसे निपोरते रहो; पीठ पीछे भले ही उनकी चुगली कर किसी अन्य पड़ोसी से जूतमपैजार करवा दो। अपने बच्चों को शुरू से ही ऐसे संस्कारों में ढालो कि वे आप के इशारों की भाषा को भलीभांति समझ कर उन का अक्षरश: पाल कर सकें। वे सदैव पड़ोसियों के घर को ही अपना घर समझे और अधिकांश समय वहीं पर गुजारें। परंतु जब कभी पड़ोसी के बच्छे अपने घर आ धमके तो पड़ाई या बीमारी का बहाना बनाकर उन्हें अविलंब विदा कर दें। क्या भरोसा कहीं इस घर की आबोहवा ने उन के संस्कारों तथा आदतों में फेरबदल कर डाला तो!
अपने बच्चों में यह सिद्धांत कूटकूट कर अच्छी तरह से भर दें कि; वे अपने दोस्तों के साथ भाईचारे तथा एकता का परिचय दें। उनके सामने को बिलकुल अपना समझें। टूटफूट हो जाए तो माफी मांग कर मामला रफादफा कर दें, लेकिन अपनी कोई वस्तु टूट जाए तो सारा घर सिर पर उठा लें। दहाड़े मारमार कर रोएं तथा बीचबीच में यह भी बोलते रहे कि उक्त वस्तु या फलां खिलौना हमारे मामा ताऊ, अंकल (जो भी उस समय याद आ जाएं) बहुत दूर से मेरे लिए विशेष लाए थे। तब तक इस ड्रामेबाजी पर परदा न डालें, जब तक कि उसके बदले में कोई कीमती वस्तु मिल न जाए।
यदि आप के घर में तीसों दिन चूल्हा फूंका जाता है, तो नि:संदेह वह मोहल्ला निवास करने के काबिल नहीं हो सकता। यदि इस संदभ में प्रयास किए जाएं तो एक अच्छे पड़ोस में रहते हुए चूल्हा फूंकने की नौबत ही न आए। कभी बच्चों के जन्मदिन तो कभी किसी के यहां नई गाड़ी या अन्य कोई वस्तु आने का मुद्दा लेकर उन्हें दावत देने के लिए उत्ेजित किया जा सकता है। यदि पड़ोसी पुराने रीतिरिवाजों को मानता है तो फिर उनसे दावत लेना कोई कठिन कार्य नहीं है। वैसे भी इस अंधविश्वासी समाज में कथित देवीदेवताओं को प्रसन्न करने के लिए आए दिन दावते होती ही रहती हें।
गुफ्तगूं का कोई ओरछोर नहीं हातो और जहां तक अच्छे पड़ोसी हासिल करने के तौरतरीके हैं तो इनकी सूची काफी लंबी है। अंत में यही कहूंगा कि मेरे परिवार की गाड़ी तो बेहतर किस्म के पड़ोसियों के कारण अच्छी तरह से लुढ़क रही है। आप को भी ऐसे ही पड़ोसी मिलें, मैं ऊपरवाले से यही मांगता हूं।
संग्रह का नामकरण मशहूर फिल्म लेखक अशोक मिश्राजी (वेलडन अब्बा, वेलकम टू सज्जनपुर आदि ) ने किया है। वे ही इस संग्रह की प्रस्तावना भी लिखेंगे।
सभी का सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है।
(लेखन समय : जुलाई 1999)
पड़ोसियों के सहारे
अपनी गांठ से बिना कुछ गंवाए पड़ोसियों के माल पर मौज उड़ाना भी एक कला है। किसी को यह कला तोहफे में जन्मजात मिल जाती है, तो कोई इसे पाने के लिए पुरखों के हुनर आजमाता है। पड़ोसियों को बेचैन करके खुद चैन की बंसी बजाने के लिए जरूरी कुछ ऐसे ही नुस्खों पर एक नजर...
ऊंची क्वालिटी के पड़ोसियों के बीच निवास करने का परमसुख केवल चोखे नसीब वालों को ही प्राप्त होता है और मुझे तो कुदरत के फजल से ऐसी भलीचंगी नसीब बिरासतन हासिल हुई है। उम्दा स्तर के पड़ोसियों को सूंघसूंघ कर ढूंढ निकाले में मेरे पुरखों का हुनर काबिल एक तारीफ रहा है। उन की सूंघने की शक्ति इतनी प्रचंड थी कि मीलों दूर से इस बात की खोजखबर कर लेते थे कि आज किस पड़ोसी के घर उन की पसंद के कौन से पकवान पकाए जा रहे हैं। बस फिर क्या था, सब से पहले अपने बच्चों अर्थात मेरे बापू और बुआजी को पड़ोसी के घर खेलने के बहाने भेज देते।
बापू और बुआजी भी पूरी तरह इस कला में माहिर हो चुके थे। वे भी खूब समझते थे अच्छे पड़ोसियों का महत्व और वे पड़ोसी के घर से टस से मस नहीं होते। अब एक अच्छा पड़ोसी बच्चों को घर से धकिया तो सकता नहीं। कुछ समय बाद मेरी दादी भी डुगरती हुई वहां जा पहुंचतीं। उन्हें बुलाने के बहाने 2-4 इधर-उधर की चुगली करने के बाद पड़ोसिन से पूछ ही लेती कि आज किस खुशी में पकवान बनाए जा रहे हैं?
अब जब रसोई में तांकझांक कर ही ली, तो पड़ोसनि की बिना मदद किए ही घर लौट आएं यह तो दादी के उसूलों के सख्त खिलाफ था। जब व्यंजन तैयार हो जाते तो मेरे दादा भी दृश्य को अंतिम टच देने के लिए जा धमकते। दादा संवाद की झड़ियां फेंकना शुरू कर देते, कमबख्त किस औरत से पाला पड़ा है। लगता है आज फिर दफ्तर भूखे पेट ही जाना पड़ेगा। दादा 3-4 बार इसी संवाद को दोहराते रहते। अब एक अच्छा पड़ोसी इतनी अखाड़ेबाजी के बाद भी बिना खाए पिए चौखट लांघने दे तो फिर ऐसे पड़ोसियों के बीच रहने से बेहतर है चुल्लू भर पानी में डूब मरा जाए!
अच्छे पड़ोसियों के कारण मेरे परिवार के दिन तो चैन से कट रहे हैं परंतु आप चिंतित कदापि न हों। अच्छे पड़ोसी हासिल करना थोड़ा कठिन कार्य अवश्य है, लेकिन असंभव कदापि नहीं।
मेरी इस बावत नेक सलाह तो यही है कि ऐसे पड़ोसियों के प्रति हमेशा कशीदे पढ़ते और लिखते रहो तथा वक्तवक्त पर उन की मक्खन मालिसश भी करते हरे, जिन के घर में आप ऐशोआराम की वस्तुएं मौजूद हैं ऐसे भलेमानुष पड़ोसी यदि कभी कभार बिदक जाएं और आप के चंद सिर के बाल भी उखाड़ डाले तब भी इनके सामने अपनी खींसे निपोरते रहो; पीठ पीछे भले ही उनकी चुगली कर किसी अन्य पड़ोसी से जूतमपैजार करवा दो। अपने बच्चों को शुरू से ही ऐसे संस्कारों में ढालो कि वे आप के इशारों की भाषा को भलीभांति समझ कर उन का अक्षरश: पाल कर सकें। वे सदैव पड़ोसियों के घर को ही अपना घर समझे और अधिकांश समय वहीं पर गुजारें। परंतु जब कभी पड़ोसी के बच्छे अपने घर आ धमके तो पड़ाई या बीमारी का बहाना बनाकर उन्हें अविलंब विदा कर दें। क्या भरोसा कहीं इस घर की आबोहवा ने उन के संस्कारों तथा आदतों में फेरबदल कर डाला तो!
अपने बच्चों में यह सिद्धांत कूटकूट कर अच्छी तरह से भर दें कि; वे अपने दोस्तों के साथ भाईचारे तथा एकता का परिचय दें। उनके सामने को बिलकुल अपना समझें। टूटफूट हो जाए तो माफी मांग कर मामला रफादफा कर दें, लेकिन अपनी कोई वस्तु टूट जाए तो सारा घर सिर पर उठा लें। दहाड़े मारमार कर रोएं तथा बीचबीच में यह भी बोलते रहे कि उक्त वस्तु या फलां खिलौना हमारे मामा ताऊ, अंकल (जो भी उस समय याद आ जाएं) बहुत दूर से मेरे लिए विशेष लाए थे। तब तक इस ड्रामेबाजी पर परदा न डालें, जब तक कि उसके बदले में कोई कीमती वस्तु मिल न जाए।
यदि आप के घर में तीसों दिन चूल्हा फूंका जाता है, तो नि:संदेह वह मोहल्ला निवास करने के काबिल नहीं हो सकता। यदि इस संदभ में प्रयास किए जाएं तो एक अच्छे पड़ोस में रहते हुए चूल्हा फूंकने की नौबत ही न आए। कभी बच्चों के जन्मदिन तो कभी किसी के यहां नई गाड़ी या अन्य कोई वस्तु आने का मुद्दा लेकर उन्हें दावत देने के लिए उत्ेजित किया जा सकता है। यदि पड़ोसी पुराने रीतिरिवाजों को मानता है तो फिर उनसे दावत लेना कोई कठिन कार्य नहीं है। वैसे भी इस अंधविश्वासी समाज में कथित देवीदेवताओं को प्रसन्न करने के लिए आए दिन दावते होती ही रहती हें।
गुफ्तगूं का कोई ओरछोर नहीं हातो और जहां तक अच्छे पड़ोसी हासिल करने के तौरतरीके हैं तो इनकी सूची काफी लंबी है। अंत में यही कहूंगा कि मेरे परिवार की गाड़ी तो बेहतर किस्म के पड़ोसियों के कारण अच्छी तरह से लुढ़क रही है। आप को भी ऐसे ही पड़ोसी मिलें, मैं ऊपरवाले से यही मांगता हूं।
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